बात ’’इण्डिया दैट इज भारत ’’की करे तो आरक्षण को नजर अन्दाज नही किया जा सकता. प्रश्न यह उठता है कि आरक्षण व्यवस्था इण्डिया मे ही क्यो है. इसी प्रश्न के साथ एक प्रश्न और भी खड़ा होता है, यह कि भारत मे जाति व्यवस्था क्यो है. यदि आरक्षण व्यवस्था के प्रश्न का उत्तर ढूंढा जाये तो कही न कही भारत की जाति व्यवस्था मे विधमान है. यह जाति व्यवस्था ही भारत देश मे किसी को ऊँचा, किसी को नीचा बनाती है. जिसकी वजह से एक वर्ग जो अपने आप को उच्च समझता है साधन सम्पन्न है जबकि दूसरा वर्ग जिसे नीचा समझा जाता है वो साधनविहिन, शोषित, पिछड़ा हुआ है जो इस देश की जाति व्यवस्था की उपज है.
जब सभी व्यक्ति सारी दुनिया मे समान रूप से पैदा होते है और समान रूप से मरते है तो भारत मे व्यक्ति जन्म से ऊँचा-नीचा कैसे हो सकता है. अर्थात भारत मे आरक्षण व्यवस्था की उत्पति का मूल कारण भारत की जाति व्यवस्था है. जब ब्राह्मणों द्वारा शूद्रो का निरन्तर शोषण किया जाता था और उनके साथ जानवरों जैसा बर्ताव किया जाता था. ऐसी स्थिति से शूद्रो को मुक्ति दिलाने के लिये सर्वप्रथम कोल्हापुर के राजा छत्रपति शाहू जी महाराज ने 26 जुलाई 1902 को अपने राज्य मे ब्राह्यणो व शेनवियोंय जाति को छोड़कर शेष सभी जातियो के लिये 50 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था लागू की. जब विधान मण्डलो मे आरक्षण की वकालत की गई तो सर्वप्रथम बाल गंगाधर तिलक ने यह कहकर विरोध किया की क्या तेली, तमोली, कुंभटो को संसद मे जाकर हल चलाना है. जिस पर ब्राह्मणों द्वारा बाल गंगाधर तिलक को लोकमान्य की उपाधि प्रदान की. मोहन दास करमचन्द गाँधी ने हर तरह के आरक्षण का साम्प्रदायिक नाम देकर विरोध किया. जवाहर लाल नेहरू ने आरक्षण के लिए कहा कि इससे दोयम दर्जे का राष्ट्र बनता है.
डॉ.अम्बेडकर सन् 1942 मे प्रथम बार लेबर मिनिस्टर बने तब उन्होने सम्पूर्ण भारत मे 8 प्रतिशत आरक्षण लागू किया. आजाद भारत मे जब संवैधानिक रूप से आरक्षण का प्रावधान करना चाहा तो उनका बहुत विरोध किया गया और कहा गया की आरक्षण की वजह से प्रशासनिक क्षमता मे कमी आयेगी. इस पर डॉ.अम्बेडकर अपना जवाब दिया की कार्यक्षमता सरकार से बेहतर प्रतिनिधि सरकार होती है. उन्होंने कहा कि आप बुद्धिमान हो सकते हैं, आप कार्यसक्षम हो सकते हैं, यह सही है लेकिन आप ईमानदार हो सकते हैं इस बात पर मुझे शक है. मान भी लिया जाए कि तुम ईमानदार भी हो सकते हो लेकिन आप मेरे प्रतिनिधि नहीं हो सकते. हमारा प्रतिनिधि केवल हमारा होगा. दूसरा कोई और नहीं हो सकता. लोकतंत्र क्या है? सवा सौ करोड़ के लोगों के 543 प्रतिनिधि संसद मे जाते हैं अर्थात् लोकतंत्र कुछ नही प्रतिनिधि व्यवस्था है. बाबा साहेब डॉ.अम्बेडकर ने आरक्षण का विरोध करने वालो को चुनौती दी कि यदि आप लोकतंत्र को मानते हैं तो आप प्रतिनिधित्व को नकारते हैं, तो आप लोकतंत्र को नही मानते. इस प्रकार से बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर की दलीलों से आरक्षण का विरोध करने वालों को, आरक्षण का विरोध करना मुश्किल हो गया.
डॉ.अम्बेडकर ने 1942 मे शेड्यूल्ड कास्ट फैडरेशन बनाया. शेड्यूल्ड कास्ट फैडरेशन ने संविधान सभा मे जाने के लिए 30 उम्मीदवार खड़े किये थे, मगर सारे उम्मीदवार हार गये. सिर्फ बंगाल से एक उम्मीदवार जोगेन्द्रनाथ मंडल जीत कर आये. जब यह देखा की संविधान सभा मे हमारा कोई प्रतिनिधित्व नहीं है, तो जोगेन्द्रनाथ मंडल ने अपनी सीट से इस्तीफा देकर डॉ.अम्बेडकर को चुनवाकर संविधान सभा मे भेजा. यदि डॉ.अम्बेडकर चुनाव हार जाते तो गाँधी और कांग्रेस को ढ़िढोरा पीटने का मौका मिल जाता की डॉ.अम्बेडकर के साथ कोई है ही नही है, क्योकि गाँधी ने तो डॉ.अम्बेडकर के लिये लिखा था और सरदार पटेल ने घोषणा की थी कि ‘‘डॉ. अम्बेडकर के लिए संविधान सभा के दरवाजे ही नही, खिड़किया भी बंद है’’. कांग्रेस ने जिसे देशद्रोही कहा हो तथा जिसे संविधान सभा मे आने रोकने के लिए सारे प्रबन्ध किये हो.
गोलमेज सम्मेलन मे डॉ.अम्बेडकर द्वारा की गई पैरवी के कारण अंग्रेज सरकार द्वारा साम्प्रदायिक पंचाट मे दलितो को पृथक निर्वाचन व दो वोट का अधिकार दिया गया, जिसके विरोध मे मोहन दास करमचन्द गाँधी ने अनशन किया, जिसके कारण डॉ.अम्बेडकर पर पड़ रहे चौतरफा दबाव, दलित बस्तियो को जलाने की धमकियों तथा डॉ. अम्बेडकर को मिल रही जान की धमकियों के कारण पूना की जेल मे जाकर डॉ. अम्बेडकर ने गाँधी के साथ समझौता किया, जिसके परिणामस्वरूप पूना पैक्ट समझौता हुआ, जिसमे अंग्रेज सरकार से प्राप्त पृथक निर्वाचन व दो वोट का अधिकार दलितो को त्यागना पड़ा. पूना पैक्ट समझौता के परिणामस्वरूप दलितो को हर स्तर पर आरक्षण देने की व्यवस्था की गई. यह आरक्षण दलितो व ब्राह्यणो के बीच हुए पूना पैक्ट समझौते का परिणाम था.
ओ.बी.सी. आरक्षण कि बात करे तो यह भी डॉ. अम्बेडकर आजादी से पूर्व देना चाहते थे, लेकिन कांग्रेस ने उन्हे ऐसा करने नही दिया, फिर भी अम्बेडकर ने अन्य पिछड़ा वर्ग के आरक्षण हेतु संविधान मे अनुच्छेद 340 का प्रावधान किया. आजादी के बाद डॉ. अम्बेडकर ने कांग्रेस से अनुच्छेद 340 को लागू कर कमीशन गठित करने का प्रस्ताव रखा जिसे कांग्रेस ने नही माना, मजबूर होकर उन्होनें अपने विधि मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया, लेकिन कांग्रेस ने बढ़ते दबाव से मजबूर होकर, काका कालेलकर आयोग का गठन किया. 1953 मे अपनी रिपोर्ट मे आयोग ने ओ.बी.सी. की लगभग 2000 जातियो को चिन्हित कर ओ.बी.सी. आरक्षण कि सिफारिश की. जिस पर नेहरू ने काका कालेलकर को संसद के केन्द्रिय कक्ष मे बुलाकर डाँटा और उससे अपनी ही रिपोर्ट के विरूद्ध 31 पेज का पत्र लिखवाया. उक्त पत्र को आधार बनाकर नेहरू ने काका कालेलकर आयोग की रिपोर्ट पर बहस करने से इन्कार कर दिया. 1954 मे नेहरू ने सभी मुख्यमंत्रीयों को गुप्त पत्र लिखकर निर्देश दिया कि आरक्षण पर अमल नही किया जाए क्योकि इससे दोयम दर्जे का राष्ट्र का निर्माण होगा, इस षडयन्त्र का भांडाफोड़ 1977 मे जनता पार्टी की सरकार के गृहमंत्री चौधरी चरणसिंह ने किया क्योकि वे नेहरू के विरोधी थे तथा इस पत्र को फाइल से निकालकर मीडिया को प्रकाशित करने के लिए दे दिया.
सन् 1977 मे मोरारजी देसाई ने अपने चुनाव घोषणा पत्र में कहा कि यदि हमारी सरकार आयी तो हम कालेलकर आयोग की सिफारिशों को लागू करेगें. 1977 मे कांग्रेस के घोर विरोध के कारण मोरारजी देसाई को आम चुनाव मे बहुमत मिला और वे प्रधानमंत्री बने. प्रधानमंत्री बनते ही ओ.बी.सी. प्रतिनिधि मण्डल ने कालेलकर आयोग की सिफारिशों को लागू करने का अनुरोध किया, जिसे देसाई ने यह कहकर ठुकरा दिया कि आयोग की सिफारिशे 1953 की है और अब 1977 चल रहा है, हालात और समय बदल गया है, अब एक नया कमीशन बना देते है. परिणामस्वरूप बिन्देश्वरी प्रसाद मण्डल की अध्यक्षता मे मण्डल कमीशन का गठन किया गया. जिसकी रिपोर्ट 1981 मे प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी के कार्यकाल मे आयी जिसको गाँधी ने संसद के पटल पर रखने से इन्कार कर दिया जो बार-बार ओ.बी.सी. के सांसद संसद मे हंगामा करते थे, तो विवश होकर गाँधी ने मण्डल कमीशन की सिफारिशो को लोकसभा मे चर्चा के लिए रखा और यह घोषित किया की इसे आर्थिक आधार पर लागू किया जाता तो ज्यादा बेहतर होता, यह कहकर लागू करने से इन्कार कर दिया.
इन्दिरा गाँधी की हत्या के बाद राजीव गाँधी प्रधानमंत्री बने उनके पास लोकसभा मे सांसद 413 थे, उन्होने सोचा होगा कि जब इन सिफारिशो को मेरी माँ ने लागू नही किया, तो मैं क्यों करू. जब तीसरे मोर्चे की सरकार के वी.पी.सिंह प्रधानमंत्री बने तो उन पर अपनी सरकार को बचाये रखने के लिए चौधरी देवीलाल और काशीराम ने मण्डल कमीशन की सिफारिशो को लागू करने के लिए दबाव बनाया जिसमे वे सफल हुए और मण्डल कमीशन की सिफारिशो को लागू कर दिया गया. इसमे फिर भी एक पेंच बाकी रख दिया गया. मण्डल कमीशन के द्वारा नौकरी मे आरक्षण दे दिया गया लेकिन शिक्षा मे आरक्षण नही दिया गया. नतीजा जब शिक्षा मे आरक्षण नही होगा तो नौकरी का आरक्षण स्वतः ही जीरो (0) हो गया.
वामन मेश्राम ने कहा की राजनीति कोई बच्चों का खेल तो है नही, की सबको समझ मे आ जाए. राजनीति का मतलब है कि, ऐसी नीति जो आपको राजा बना दे. अगर आपको समझ मे आ जाता तो, आप राजा नही बन जाते, आप प्रजा क्यो रहते? हमारे लोगो को तो राजनीति को अमल मे लाने की तो छोड़ो, समझ मे भी नही आती है. अमल तो तब करेगा, जब समझ मे आयेगा, इसे समझना है तो डॉ. अम्बेडकर की तरह कानून के विद्धान बनना होगा.
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लेखक पाली, राजस्थान में वरिष्ठ वकील हैं. उनसे मोबाइल नंबर 09414244616 पर संपर्क किया जा सकता है.
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