Friday, January 29, 2016

मनुष्य की तीन मूलभूत आवश्यकताएं हैं – भोजन, वस्त्र और आवास ।

मनुष्य की तीन मूलभूत आवश्यकताएं हैं – भोजन, वस्त्र और आवास ।
भोजन करना प्रत्येक व्यक्ति के दैनिक जीवन का एक अनिवार्य भाग है ।भोजन के बिना कोई व्यकित कुछ ही दिनों तक जीवित रह सकता है तथा ऐसा समय में शारीर में उपस्थित भोज्य तत्व निरन्तर व्यय होते रहते हैं व अंत समय तक व्यक्ति कंकाल मात्र ही रह जाता है ।अत: यदि शरीर पूर्ण स्वस्थ व क्रियाशील रखना है तो प्रतिदिन आवश्यकतानुसार भोजन लेना अनिवार्य होगा।
भूख लगना प्राकृतिक के अपरिवर्तनीय नियमों में से एक है ।भूख मिटाने के लिए हम भोजन करते हैं ।भोजन न करने से हमारा शरीर दुर्बल हो जाता है तथा हम विभिन्न प्रकार के रोगों के शिकार हो जाते हैं ।इस तरह भोजन केवल हमारे भूख को मिटाता है बल्कि यह हमारे शरीर का निर्माण करता है, शरीर को ऊर्जा  यानि शक्ति प्रदान करता है तथा हमारे शरीर के विभिन्न क्रियाओं को नियंत्रित करता है ।
भोजन ही आहार है, हम आहार को मुख्य रूप से दो भागों में बांटते हैं – (क) अपर्याप्त आहार तथा (ख) पर्याप्त या सन्तुलित आहार ।
अपर्याप्त आहार वह आहार है जो भूख को शांत करने के लिए किया जाता है ।इस प्रकार के भोजन से हमारा भूख तो मिट जाता है एवं शरीर क्रियाशील रहता है पर ऐसे भोजन में पौष्टिक तत्वों की कमी के कारण शरीर में रोग निरोधक क्षमता नहीं रहती है ।
दूसरी और सन्तुलित आहार व भोजन है जिसमें सभी पौष्टिक तत्व उचित मात्रा में रहते हैं ।दुसरे शब्दों में ये कहा जा सकता है कि सन्तुलित आहार है जिसमें शरीर में समस्त पोषण-संबंधी आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए सभी पोषक तत्व उचित मात्रा में उपलब्ध रहता है ।इसलिए सुपोषित भोजन हमारे लिए अत्यंत आवश्यक है, पोषण उन प्रतिक्रियाओं का संयोजन है जिनके द्वारा जीवित प्राणी अपनी क्रियाशीलता को बनाये रखने के लिए तथा अपने अंगों की वृधि एवं उनके निर्माण हेतु आवश्यक पदार्थों को प्राप्त करता है एवं उनका उपभोग करता है ।इस प्रकार पोषण शरीर में  भोजन के विभिन्न कार्यों को करने की सामुहिक प्रतिक्रियाओं का ही नाम है ।
अपर्याप्त भोजन या कुपोषण के दुष्परिणाम निम्नलिखित लक्षणों के रूप में प्रकट होते हैं :
  • शरीर कमजोर होने लगता है क्योंकि शरीर को पर्याप्त ऊर्जा  प्रदान करने वाले भोजन तत्वों की कमी के कारण दूसरी शक्ति नहीं मिल पाती है ।
  • शरीर में रक्त की कमी होने लगती है ।
  • शरीर में वजन क्रमशः कम होने लगता है ।
  • त्वचा, शुष्क, खुरदुरा एवं झुर्रीदार हो जाती है ।
  • मांसपेशियां ढीली-ढाली एवं शिथिल हो जाती हैं ।
  • अस्थियों की वृधि एवं विकास की गति में रुकावट हो जाती है जिसका शारीरिक विकास पर बुरा प्रभाव पड़ता है ।
  • नेत्रों की ज्योति कम हो जाती है और बच्चे रतौंधी के शिकार हो जाते हैं ।
  • शरीर की रोग-निरोधक क्षमता का हस्र हो जाता है जिससे बच्चे बार-बार बीमार पड़ते हैं ।
  • थकान का अनुभव बड़ी शीघ्रता से होने लगता है ।
इस तरह यह कहा जा सकता है कि भोजन में कई रासायनिक पदार्थ उपस्थित होते हैं ये भोज्य तत्व ही हमारे शरीर को स्वस्थ रखने व क्रियाशील रखने के लिए उत्तरदयी होते हैं ।ये तत्व कार्बोहाइड्रेट, वसा, प्रोटीन, खनिज तत्व, विटामिन व जल हैं, जो भोजन में विभिन्न अनुपातों में उपस्थित रहते हैं ।इन तत्वों से शरीर को क्रियाशील रखने के लिए ऊर्जा  तथा शरीर को गर्म रखने के लिए ऊर्जा  की प्राप्ति होती है ।निरन्तर परिवर्तन होते रहना जीवित पदार्थों का एक विशेष गुण है।मनुष्य के शरीर में भी निरंतर परिवर्तन होते रहता है ।जीवन के प्रारंभिक वर्षों में शरीर में बराबर वृधि व विकास होता रहता है तथा विभिन्न अंगों के क्रियाशील रहने के कारण उनकी कोशिकाओं से बराबर टूट-फूट का निर्माण करने में सहायक होती है ।इसके अतिरिक्त भोज्य के तत्व हमारे शरीर में होने वाली विभिन्न जटिल प्रतिक्रियाओं को नियंत्रित करता है जिससे हमारा स्वास्थ्य उत्तम रहता है तथा रोगादि से बचा रहता है ।
गंदी बस्तियों में निवास करने वाले परिवारों में निर्धनता के परिणामस्वरूप समुचित मात्रा में भोजन उपलब्ध नहीं हो पातें हैं ।श्रम के अनुरूप शरीर में ऊर्जा  प्राप्त करने के लिए प्रचुर मात्रा में भोजन नितांत आवश्यक है ।गंदी बस्तियों में निवास करने वाले दैनिक मजदूर, ठेला मजदूर, रिक्शाचालक , खोमचावाले तथा निम्न आय वर्गीय व्यक्ति होते हैं ।अशिक्षा एवं अज्ञानतावश इनके परिवारों की संख्या अधिक होती है ।अपनी सीमित आय से वे अपने परिवार का भरण-पोषण सही ढंग से नहीं कर पाते हैं ।निर्धनता इनके लिए अभिशाप है ।भोजन की समुचित मात्रा उपलब्ध नहीं होने से ये बच्चे अपने बाल्यकाल में ही अनेक रोगों से ग्रसित हो जातें हैं ।इनका शारीरिक एवं मानसिक विकास शिथिल पड़ जाता है ।आवश्यकता इनके लिए समुचित भोजन उपलब्ध करवाने की है ।वर्तमान में सरकार ने इन गंदी बस्तियों में रहने वाले लोगों को लाल कार्ड वितरण की व्यवस्था करने का प्रयास किया है. जिसके अंतर्गत उन्हें उचित मात्रा में उचित मूल्य पर खाधान्न उपलब्ध कराये जायेंगे ।लेकिन सरकारी तंत्र उन्हें सही तरीके से उपलब्ध करा पायेगा या नहीं विचारणीय प्रश्न है ?
द्वितीय, वस्त्र मनुष्य की मूलभूत आवश्यकता है ।गंदी बस्तियों में निवास्क करने वाले लोगों की यह एक समस्या है ।वे मैले कुचैले कपड़े धारण करते हैं ।लोग इन्हें घृणा की दृष्टि से देखते हैं ।जिन निर्धन व्यक्तियों को पर्याप्त मात्रा में भोजन उपलब्ध नहीं होता है उन्हें आचे वस्त्र नसीब कहां होंगे 
उनके बच्चे नंग-धडंग अवस्था में इन बस्तियों में रहते हैं, कुछ पहनते भी है तो वे मैले-कुचैले होते हैं जिससे महामारी तथा अन्य रोग होने का खतरा रहता है ।इस अवस्था में इनके बच्चे प्राय: अस्वस्थ रहते हैं ।समुचित चिकित्सा वयवस्था के आभाव में वे अकाल ही काल कलवित हो जाते हैं ।इस असहनीय पीड़ा से त्रस्त इनके परिवार के अन्य सदस्य चोरी, डकैती एवं अन्य अनैतिक कार्यों में संलग्न हो जाते हैं ।
तृतीय, गंदी बस्तियों में निवास करने वाले लोगों की मुख्य समस्या आवास की समस्या है ।औधोगिकीकरण और नगरीकरण ने अनेक समस्याओं को नगर में उत्पन्न करने का श्रेय प्राप्त किया है ।निर्धन ग्रामीण व्यक्ति जीविका की खोज में नगरों और विशेषतया औद्योगिकनगरों में बड़ी संख्या में आ रहे हैं ।उसे पेट भरने के लिए यहां कोई –न –कोई काम मिल जाता है किन्तु रहने के लिए स्थान नहीं मिल पाता है ।उसे इतना भी स्थान नहीं मिलता, जहां वह खाना बना सके, रात में सो सके और अपना खाली समय व्यतीत कर सके ।निर्धन श्रमिक और वेतन भोगी व्यक्ति की इतनी आय नहीं है कि वह भूमि का क्रय करके अपना मकान बना सके और यदि किसी प्रकार उसने कोई टुकड़ा भूमि खरीद भी लिया तो उस पर मकान बनाना उसकी शक्ति के बाहर होता है ।आवास की सुविधाएं नाम की कोई चीज यहां नहीं होती ।यह वे स्थान हैं जहाँ जिंदगी चिरस्थायी है ।यह नगर के नरक, कलंक और अभिशाप हैं ।
गंदी बस्तियों को साफ करने पर नियुक्त परामर्शदाता समिति के अनुसार औद्योगिकनगरों में 6 प्रतिशत से 7 प्रतिशत से लोग बस्तियों में रहते हैं ।ग्रामीण व्यक्ति छोटे से कच्ची मिटटी के मकान में रहता है अथवा वहां असंख्य घास, फूंस के छप्पर वाले मकान है ।मिटटी के बने मकानों में बारहों मॉस सीलन बनी रहती है ।इसके साथ ही उस छोटे से मकान में अनके व्यक्ति रहते हैं ।निर्धन ग्रामीण बड़े मकान की कल्पना भी नहीं कर सकता है ।जिन मकानों में निर्धन रहता है वहां अँधेरा उसका साथी है और जीवन सुरक्षा नाम की कोई चीज इन मकानों में नहीं होती है ।नगर और महानगरों में आवास समस्या के अनेक कारण है जो परस्पर एक-दुसरे से जुड़े हुए हैं ।यह एक सामान्य तथ्य है कि किसी भी गंभीर समस्या का जन्म किसी एक कारण से नहीं वरन अनेक कारणों से होता है ।
सरकार द्वारा आवास समस्या के निराकरण के प्रयास – गंदी बस्तियों को हटाने और उनका सुधार करने के लिए सरकार कुछ महत्वपूर्ण कार्य कर रही है ।गंदी बस्तियों को हटाने के लिए द्वितीय पंचवर्षी योजना में 20 करोड़ रुपये निश्चित किये गये ।वर्त्तमान में 114.86 करोड़ रुपये राज्यों के लिए आवास योजनाओं के लिए आवास योजनाओं में व्यय करने हेतु प्रदान किये गये हैं ।सरकार आवास समस्या के समाधान हेतु सदैव जागरूक रही है ।उसने कमजोर वर्ग और औद्योगिकश्रमिकों के लिए अनके नगर और महानगरों में मकानों का निर्माण किया है ।उसने निम्न और मध्यम आय वर्ग के लिए विशेषतया लाखों मकानों का निर्माण करके उन्हें सरल किश्तों पर बेचा जा रहा है ।
गंदी बस्ती में पोषाहार एवं कुपोषण – पोषण राष्ट्रिय विकास का मूल घटक है ।कुपोषण पर धयान देना एक नैतिक आवश्यकता है ।कुपोषण समाज में अस्वीकार्य है क्योंकि वह व्यक्ति के उपयुक्त पोषण के अधिकार का हनन करता है ।यह पोषण मानव संसाधनों की गुणवत्ता पर आधारित होती है जो कि आबादी के स्वाथ्य तथा पोषक स्तर द्वारा देखभाल ।इसकी पूर्ति के लिए संसाधनों की पहचान तथा साथ-साथ समुदायों का सशक्तिकरण और गरीब वर्गों के लिए सहायक योजना का होना जरुरी है ।
कुपोषण और लघु पोषण अपूर्णता, कार्य के परिणाम तथा गुणात्मक उत्पादकता के संदर्भ में, निम्न श्रम उत्पादकता का कारण होता है ।इसके कारण बच्चों में शैक्षणिक उपलब्धियां निम्नतम होती जाती हैं, स्कूलों में नामांकन तथा उपस्थिति की दर कम होती है ।तथा बच्चों में स्वास्थ्य तथा मृत्यु दर में बढ़ोतरी होती जाती है ।जिस प्रकार उन्नत उत्पादकता ज्यादा मुनाफा देती है उसी प्रकार उन्नत पोषण उत्पादकता में वृधि के साथ-साथ श्रम आय में वृधि करेगा ।इस प्रकार उन्नत पोषण दो महत्वपूर्ण तथ्यों को प्राप्त करने में मदद करता है – उत्पादकता में वृधि तथा उससे उत्पन्न लाभों का वितरण ।
कुपोषण नियंत्रण नीतियों की मूलतः दो विचारधाराएं हैं ।पहले सिद्धांत के अनुसार कुपोषण मूलतः गरीबी का परिणाम है ।अत: इसे दूर करना गरीबों की उत्पादकता में वृधि, आय के स्तर को ऊँचा करने एवं खाद्य प्रणाली के वितरण पर निर्भर करता है ।दूसरा सिद्धांत इस अवधारणा पर आधारित है कि लोग कुपोषण के शिकार इसलिए होते हैं क्योंकि वे समुचित पोषण स्तर तथा स्वस्थ वातावरण को सुनिश्चित करने वाले संसाधनों का उचित उपयोग नहीं कर पाते ।इसलिए कुपोषण का सामना करना घरेलू संसाधनों का उपयोग, निरक्षरता के समापन, पोषण संबंधी जानकारियों में वृधि तथा सही आदर्शों के विकास पर ही निर्भर करता है ।
नया विकास प्रतिमान गरीबों द्वारा पोषण-संबंधी समस्याओं के समाधान पर जोर देता है ।उनकी सामना करने की रणनीतियों के पहचानकर सशक्त बनाया जा रहा है ।सबों की भागीदारी मुख्यत: महिलाओं की भागीदारी सशक्तिकरण की ओर ले जाएगा जिससे स्थानीय संसाधनों को कयाम तथा संघटित रखा जाएगा ।ज्ञान और जानकरी, जो कि सशक्तिकरण का मुख्य घटक है, समस्याओं को जड़ों के विश्लेषण में मदद करता है तथा संसधानों द्वारा उपर्युक्त कार्यवाही में मदद करता है ।
6 वर्ष से कम उम्र में बच्चों में शारीरक विकास का आभाव देखा गया है जो कुपोषण के कारण पुरे देश व्याप्त है ।नवजात शिशुओं और बच्चों में मृत्यु का कारण यह है कि करीबन 30 प्रतिशत बच्चे 2.3 किलोग्राम से भी कम वजन के होते हैं ।अधिकांशत: स्कूल जाने से पूर्व की उम्र के बच्चों में करीब 69 प्रतिशत कम वजन के , जिसमें 9 प्रतिशत गंभीर कुपोषण से ग्रस्त रहते हैं तथा 65 प्रतिशत अविकसित तथा 20 प्रतिशत अत्यंत दुर्बल होते हैं ।6 महीनों की उम्र वह नाजुक समय है जब शिशु होता है और 24 महीने की उम्र तक चलता है ।कुपोषण 6 महीने से 2 वर्ष की उम्र के बच्चों को जायदा प्रभवति करता है ।
प्रोटीन ऊर्जा  कुपोषण विकास में अवरोध में शरीर के वजन में कमी तथा अन्य दुर्बलताएं विशेषतया छोटे बच्चों में मृत्यु के खतरे को बढ़ता है ।
इस बात के प्रमाणित हुई है कि कुपोषण से ग्रस्त बच्चों को भविष्य में अपकर्षक बीमारियों जैसे उच्च रक्तचाप तथा मधुमेह होने की संभावना रहती है ।बच्चों के विकास को कायम रखने में परिवारों की अक्षमता के ये कारण हो सकते हैं  ।
  • खिलाने की गलत आदतें ।
  • माता की तरफ से अनजाने में होने वाली बाधाएं
  • संक्रमण बीमारियों का बार-बार होना
  • कई बार शरीर की ऊर्जा  संबंधी जरूरतों को पूरा करने के लिए क्रयशक्ति का आभाव
  • अपर्याप्त भोजन लेना, उन घरों में जहां भोजन की कमी न हो,
  • बच्चों के विकास और देख-रेख संबंधी जानकारी एवं कुशलताओं का अभाव एवं कमी ।
  • बच्चों के जीवन की अच्छी शुरुआत को बढ़ावा देने के लिए 6 से 24 महीनों के बीच बच्चों को कुपोषण का शिकार होने से बचाना होगा ।
कुपोषण को कम करने के लिए उसके कारणों पर ध्यान देना होगा, जैसे अपर्याप्त औजार और संक्रमण/बीमारी तथा खाने-पीने की सही आदतों को डालने में तेजी लानी होगी ।कुपोषण की स्थित्ति में सुधार लाना एक चुनौती है ।यह परिवार के सदस्यों, समुदायों तथा इस क्षेत्र में काम करने वालों पर निर्भर करता है ।कुपोषण की रोकथाम या उसकी नियंत्रण में लाने के लिए उनको जागृत होना होगा ।
बिहार की आबादी का 40.8 प्रतिशत गरीबी रेखा से नीचे जी रहा है ।हालांकि समूचे राज्य के लिएय कोई प्रमाणिक आंकड़ा उपलब्ध नहीं है फिर भी राष्ट्रीय पोषण संस्थान द्वारा नमूने के तौर पर किये गए अध्ययन से ज्ञात होता है कि राज्य में लगभग 11 प्रतिशत बच्चे श्रेणी तीन और श्रेणी 4 के कुपोषण से, 32 प्रतिशत बच्चे दो के कुपोषण से तथा 36 प्रतिशत बच्चे श्रेणी के कुपोषण से ग्रसित हैं ।सिर्फ 12 प्रतिशत बच्चे ही सामान्य श्रेणी के हैं ।इस प्रकार यह लगता है कि बिहार में लगभग 79 प्रतिशत बच्चे किसी न किसी श्रेणी के कुपोषण के शिकार हैं ।
एक अन्य विश्लेषण बच्चे के जीवन के दुसरे वर्ष के निर्णायक महत्त्व के बारे में बताता है कि 1 से 2 वर्ष के आयु वाले 86 प्रतिशत बच्चे कुपोषित पाये गए हैं, जिसमें से 18 प्रतिशत गंभीर कुपोषण के शिकार हैं ।तदापि 1 वर्ष की आयु वाले लगभग 36 प्रतिशत बच्चे पोषण के मामलों में सामान्य स्तर के हैं ।यह आंकड़ा 1 से 2 वर्ष के बच्चों के मामले में 14 प्रतिशत तक कम हो जाता है ।
हालांकि शिशु जन्मे के समय तथा उसका वजन को जानने के लिए राज्य में कोई प्रमाणिक आंकड़ा उपलब्ध नहीं है फिर भी ऐसा अनुमान है कि लगभग एक तिहाई जन्मे लेने वाले बच्चे सामान्य से कम, यानी 2.5 के.जी. से कम वजन के होते हैं ।हाल ही में राज्य के विभिन्न जिलों में एक अधययन किया गया था, जिसमें पाया गया था कि उनमें 59.6 प्रतिशत महिलाओं ने अपने पहले बच्चे को जन्म आपनी 20 वर्ष पूरी होने के पूर्व ही दे दिया था ।
किशोरावस्था की गर्भावस्था और यह तथ्य कि तीन चौथाई गर्भवती महिलाएं पोषाहारीय, रक्ताल्पता की शिकार होती हैं, इस संभावना को बल देता है कि जन्मे के समय कम वजन वाले बच्चों का प्रतिशत अधिक है ।
एक उम्र के विवाह और कम उम्र के गर्भाधान, यानी “ काफी पूर्व काफी नजदीक काफी अधिक काफी बिलम्ब “ के परिणामस्वरुप ही राज्य में माताओं के पोषण का स्तर अत्यन्त ख़राब है जैसा कि उपर अंकित है, राज्य का लगभग तीन चौथाई गर्भवती महिलाएं रक्ताल्पता से ग्रसित हैं और उसमें सुधार के कोई आसार नजर नहीं आतें हैं ।
सूक्ष्म पोषक पदार्थों का अभाव :
विटामिन ‘ए’ – हालांकि बिहार के लिए अलग से कोई आंकड़ा मौजूद नहीं है फिर भी ऐसा अनुमान लगाना वास्तविकता से बहुत भिन्न नहीं होगा कि पोषाहार की कमी के कारण भारत में हर वर्ष जो 40000 लोग अन्धें हो जाया करते हैं, उनमें से 10 प्रतिशत बिहार के ही होंगे ।इसी प्रकार देश में विटामिन ‘ए’ के अभाव से ग्रसित जो लगभग 10 लाख बच्चे हैं उनमें से निश्चित तौर पर 10000 बिहार के होंगे ।रांची में किये गए एक छोटे अध्ययन से ज्ञात हुआ है कि बच्चों में अधिकतर बालिकाएं ही विटामिन ‘ए’ की कमी से ग्रसित होती है ।
आयोडीन की कमी से होने वाले विकार – समूचा बिहार आयोडीन की कमी से होने वाले विकारों के दायरे में है ।इसकी कमी से घेघा जैसे बीमारियां उत्पन्न होती हैं, जो बच्चे के विकास में बाधक है ।
इस तरह माताओं की अशिक्षा, अज्ञानता अंधविश्वास, रूढ़िवादिता के चलते बच्चे कुपोषण के शिकार होते हैं ।सबसे प्रमुख बात तो यह है कि इनकी आर्थिक स्थितियां दयनीय होती हैं तथा परिवार में बच्चों की संख्या अधिक होता है जिसके चलते बच्चे को उपयुक्त आहार उपलब्ध नहीं हो पाता है ।अपर्याप्त आहार के कारण बच्चों को पौष्टिक तत्व नहीं मिल पाते जिसके कारण रोग निरोधक क्षमता कम हो जाती है और वे अनेक बीमारियों तथा शारीरिक विकास का अवरुद्ध होना, रक्तहीनता का शिकार, मांसपेशियों का शिथिल हो जाना, मानसिक विकास अवरुद्ध होना, चिडचिडापन आना आदि से ग्रसित हो जाते हैं ।
भोजन तथा उसके पोषक तत्व – मनुष्य जो भोजन करता है उसका शरीर में पाचन हो जाता है और वह उतकों के विकास तथा रख-रखाव में प्रयुक्त होता है ।भोजन के बिना जीवन नहीं चल सकता ।इसीलिए, प्रत्येक जीवधारी अपनी भोजन आवश्यकताओं की प्राप्ति के निमित अतिमात्र प्रयत्न करता है ।वनस्पति वर्ग तो मिटटी, पानी और हवा की कार्बन डाईआक्साइड के लिए कुछ साधारण रसायनों से अपने लिए यथेष्ट भोजन कर निर्माण करने की क्षमता नहीं होती ।इसलिए वे वनस्पति जगत व अन्य पशुओं पर निर्भर रहकर अपना भोजन प्राप्त करते हैं ।
पशु जगत अपनी भोजन आवश्यकताओं के पूर्ति मुख्यत: प्राकृतिक वरण के सिद्धांत के अनुरूप करता है अर्थात वह उन पौधों और पशुओं का चयन करता है जो विकासवादी सिधांतों के अनुसार जीवित रहने के योग्य नहीं हो ।परन्तु मानव को अपनी आहार पूर्ति के लिए अनेक खाद्य पदार्थ उपलब्ध होते हैं जिनमें से वह इच्छानुसार चुनाव कर सकता है ।चूँकि सरे ही खाद्य पदार्थ एक से पोषक मूल्य के नहीं होते हैं, अत: मानव स्वास्थ्य उन खाद्य द्रवों की संरचना तथा उनकी मात्रा पर निर्भर रहता है जिन्हें वह अपनी क्षूधतृप्ति के लिए चुनता है ।भूख एक जन्मजात प्रवृति है ।भोज्य पदार्थों को जीवन के रूप में ग्रहण किया जाता है ।इनमें से कुछ शरीर निर्माण तथा मरम्मत के लिए जरूरी है, कुछ से ऊर्जा  यानि कार्य करने की शक्ति मिलती है ।कुछ खाद्यों से शरीर को रोग अवरोधक शक्ति मिलती है जिससे वह वातावरण के सूक्षम जीवाणुओं से अपनी रक्षा करके, अपने को स्वस्थ बनाए रख पाता है ।
हमरे जीवन में कुछ स्वास्थयप्रद पदार्थ होते हैं जिन्हें पोषक तत्व कहा जाता है ।पोषक तत्व हमारे शरीर के लिए निम्नलिखित कार्य करते हैं :
  • शरीर को सुविकसित करते हैं ।
  • व्यक्ति का भार उसकी उंचाई एवं आयु के अनुकूल रखते हैं ।
  • मांसपेशियां को सुदृढ़ एवं सुविकसित करते हैं ।
  • पोषक तत्वों का एक अन्य महत्वपूर्ण कार्य हमारे शारीरिक गठन को ठीक बनाए रखना है जैसे कसी सीधा ताना हुआ, सीना ताना हुआ, कंधे सपाट, पेट अन्दर की ओर तथा लचीले कदम ,
  • पोषक तत्व त्वचा को चिकनी एवं स्वस्थ बनाए रखते हैं ।
  • ये हमारे बाल को चिकने एवं चमकीले रखते हैं ।
  • पोषत तत्वों से हमारे आँख की ज्योति ठीक रहती है ,
  • ये हमारे शरीर को शारीरिक एवं मानसिक रूप से क्रियाशील रखते हैं ,
  • इस तरह कहा जा सकता है कि विभिन्न पौष्टिक तत्वों की उचित माता में लेने से –
  • हमारा शारीरिक विकास एवं स्वास्थ्य ठीक रहता है ,
  • हमरे शरीर में रोग निरोधक क्षमता आती है ।
  • हमारी शारीरिक कार्यक्षमता एवं कुशलता में बढोत्तरी होती है
  • मानिसक संतुलन बना रहता है तथा
  • हम दीर्घायु होते हैं ।
भोज्य पदार्थों में कई पोषक तत्व होते हैं तथा ये विभिन्न कारकों से हमारे स्वास्थ्य के लिए काफी महत्वपूर्ण हैं –
प्रोटीन – प्रोटीन हमरे लिए एक महत्वपूर्ण पोषक तत्व हैं क्योंकि (क) यह हमारे शरीर के कोशिकाओं का निर्माण, वृधि , गठन एवं उसकी क्षति पूर्ति करता है जिससे हमारे अंग-प्रत्यंगों का उचित गठन एवं विकास होता है ।(ख) यह बच्चों के शारीरिक वृधि में महत्वूर्ण भूमिका अदा करता है ।(ग) रोग निरोधक क्षमता को बढाता है ।
कार्बोहाइड्रेट – यह एक महत्वपूर्ण पोषक तत्व है इसका मुख्य काम शरीर के लिए ऊर्जा  उत्पन्न करना है ।ऊर्जा  ही शरीर की सभी एच्छिक एं अनैच्छिक क्रियाओं के लिए गति एं शक्ति प्रदान करता है
वसा – वसा भी एक ऊर्जा  पोषक तत्व है क्योंकि (क) वसा में अधिक मात्रा में अधिक समय तक स्थायी ऊर्जा  उत्पादित होती है, (ख) ह्रदय को मांसपेशियां को मुख्य रूप से ऊर्जा  वसा से ही प्राप्त होती है , (ग) आंतरिक अवयवों के चारों ओर जमा होकर स्थिरता प्रदान करते हैं, (घ) कोशिकाओं की रचना में भाग लेते हैं ,(ड) आकस्मिक आघात के समय शरीर की यथाशक्ति रक्षा करते हैं ।
विटामिन ‘ए’ – हमारे स्वास्थ्य के लिए यह एक अति आवश्यक पौष्टिक तत्व है क्योंकि –
यह शरीर वृधि में सहायक होता है उसकी लम्बाई ठीक तरह से होती है ।
यह रात में अंधेरे में अच्छी तरह दिखाई देने के लिए दृष्टि शक्ति बनाए रखता है ।
उपकला की कोशिकाओं को मजबूत बनाने में और उसके पुननिर्माण में सहायक होता है ।
विटामिन ‘डी’- हमारे स्वास्थ्य के लिए विटामिन ‘डी’ कई तरह से लाभदायक होते हैं :
यह रक्त में कैल्सियम की मात्रा को नियमति बनाए रखता है ।
यह रक्त में ऐलकेलाइन फास्फेटेन एंजाइम को भी नियमति बनाए रखता है जिससे यह एंजाइम कैल्सियम एवं फास्फोरस को हड्डियों एवं दांतों से संचित किये रखता है ।
विटामिन ‘डी’ कैल्सियम एवं फास्फोरस के अवशोषण में सहायक होता है, जिससे हड्डियों एवं दांतों को यह खनिज पदार्थ उचित मात्रा में मिलता रहता है ।
विटामिन ‘के’ – यह रक्त स्त्राव को रोकता है ।
थायामिन – थायामिन से तंत्रिका दर्द या न्यूराइटिस को दर्द नहीं होने देता है ।
राईवोकलेविन – यह विटामिन हमरे आँख, मुहं एवं त्वचा का उचित देखभाल करता है ।
नियासिन – यह रक्त में कोलेस्ट्रोल की मात्रा को कम करता है ।
फोलिक एसिड – यह रक्त कणीयों का निर्माण करता है और उन्हें परिपक्व बनाता है ।
विटामिन ‘सी’ – यह कई प्रकार से हमें लाभान्वित करता है, जैसे –
यह कोयलेजन की मजबूती एवं उसका नवनिर्माण करता है ।
रक्त धमनियों की भीतरी भित्तियों पर कोलस्ट्रोल के जमाव को रोकता है ।
नाक, गले एवं सांस नलिकाओं की कोशिकाओं को दृढ़ता प्रदान करता है ।
कैल्सियम – कैल्सियम हमारे स्वास्थ्य के लिए बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि –
यह हड्डियों को बनाने एवं दृढ़ता प्रदान करने के लिए काम करता है ।
शरीर की वृधि करता है ।
दाँतों का निर्माण एवं मजबूती प्रदान करता है ।
आंतरिक ग्रंथियों की स्त्राव निर्माण में सहायक है ।
लोहा – यह हिमोग्लोबिन का निर्माण करता है, रक्त के लाल कणियों मुख्य तत्व है जिसके अभाव में रक्त कणियां आपना जीवन निर्वाह नहीं कर पाती हैं ।
ऊर्जा  प्राप्त के लिए भोजन की आवशयकता – भोजन से जो मुख्य चीज हम प्राप्त करते हैं वह ऊर्जा  है ।जिस प्रकार मोटर कार पेट्रोल का प्रयोग करती है, उसी प्रकार हमारा शरीर ऊर्जा  के रूप में भोजन प्राप्त करता है ।इसे इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि शरीर ऊर्जा  के लिए भोजन को जलाता है ।सुप्रवस्था में भी शरीरी के कुछ अवयव सक्रिय रहते हैं दिल धड़कता रहता है , फेफड़े सांस लेते हैं और पाचन प्रक्रिया कार्यरत रहती है ।अत: बुनियादी तौर पर कुछ ऊर्जा  की जरुरत होती है ।जितना अधिक शारीरिक परिश्रम होगा उतनी ही अधिक ऊर्जा  की और उसी अनुपात में अधिक भोजन की आवश्यकता होगी, इस ऊर्जा को मापा कैसे जाता है ? जिस प्रकार कपड़े को मीटरों में और समय को घंटों और मिनटों में मापा जाता है उसी प्रकार ऊर्जा  को कैलोरीयों में ।उसे लगभग 1500 कैलोरी बुनियादी ऊर्जा  की आवश्यकता होती है ।इसके अतिरिक्त 100 – 1300 कैलोरी ऊर्जा  की आवशयकता सामान्य शारीरिक क्रियाओं के लिए होती है ।अत: एक सामान्य व्यक्ति को 2600-2800 कैलोरी ऊर्जा की जरुरत होती है ।छोटा आकार के होने के कारण महिलाओं को कैलोरी की आवश्यकता अपेक्षाकृत कम होती है, परन्तु गर्भधारण और बच्चे को स्तनों से दूध पिलाने की अवधि में यह बढ़ जाती है ।बच्चों की आवश्यकता उनके आकार तथा आय पर निर्भर करती है ।
मात्रक शरीर भार के आधार पर व्यक्त की अपेक्षा एक शिशु तथा छोटे बच्चों के लिए पौष्टिक भोजन की अधिक मात्राओं में आवश्यकता होती है ।वयस्कों की भांति, एक क्रियाशील और स्वस्थ बच्चे की ऊर्जा तथा ऊतकों की टूट-फूट की मरम्मत के लिए भोजन चाहिए ।इसके अतिरिक्त शरीर के अंग प्रत्यंग की निरन्तर वृधि की पूर्ति के लिए फालतू पोषण की आवश्यकता होती है ।बच्चा जैसे-जैसे बढ़ता जाता है वैसे-वैसे अपनी क्रियाशीलता के क्षेत्र को बढ़ता जाता है ।यह नन्हा सा बालक जितनी देर जागता है, उतनी देर उधम मचाता रहता है ।परिणामत: उसकी ऊर्जा मांगे अत्यधिक बढ़ी-चढ़ी हो जाती है, यहां तक की मात्रक भार के हिसाब से, शिशु और टूरकते बच्चे के लिए, एक वयस्क की अपेक्षा, “ ऊर्जा उत्पादक “ तथा “शरीर रचनात्मक” कार्यों की ज्यादा जरुरत होती है ।उतव संवर्धन की तीव्र गति तथा ऊर्जा के अधिक व्यय के कारण विभिन्न शारीरिक क्रियाओं के नियमन के लिए तथा बच्चे के पूर्ण स्वास्थ्य के लिए सरंक्षी पोषकों में अधिक मात्रा में आवश्यकता होती है

सहिष्णुता का अर्थ या अनर्थ

सहिष्णुता का अर्थ .........देश में अनर्थ
ऑक्सफ़ोर्ड डिक्शनरी के अनुसार टोलरेंस का अर्थ है “किस वस्तु या व्यक्ति को इच्छा से सहन करना या अनुमन्य भिन्नता “ और इस अर्थ के प्रकाश में ऐसा लगता है कि एक बार सहिष्णुता को समझा जाना जरुरी है
पता नहीं क्यों जब इस देश में कोई भी बात शुरू होती है तो कुछ लोग उसके नेता बन जाते है और बाकि जनता बीएस अनुगामी बन कर धर्म , जाति , से बातों को जोड़ तोड़ कर अर्थ का अनर्थ कर देती है | जब समाज का निर्माण हुआ है तो सहिष्णुता को ध्यान में ही रह कर हुआ है | पृथ्वी का कोई ऐसा जीव जंतु नहीं है जो सहिष्णुता को मानता हो | शेर अपने रहने वाले क्षेत्र में किसी अन्य शेर को तब तक नहीं आने देता जब तक वो उसको हरा ना दे | यही नहीं मनुष्य के काफी करीब समझा जाने वाला चिंपांज़ी भी अपने क्षेत्र में किसी अन्य को नहीं आने देता और ऐसा होने पर वो इसका विरोध करता है वो जोर जोर से छाती पीट कर अपनी असहनशीलता को जाहिर करता है |मनुष्य ने सबसे ज्यादा करीब से कुत्ते को ही देखा है जो अपने इलाके में आये किसी दूसरे कुत्ते को सहन ही नहीं करता है |यहाँ पर ये कहने का अर्थ सिर्फ इतना है कि सहनशीलता एक सांस्कृतिक गुण है ना कि प्राकृतिक गुण और इसी लिए मनुष्य ही सहनशीलता के लिए सबसे उपयुक्त है और इसी कारण आज से ४००० वर्ष पूर्व जब मनुष्य ने एक व्यवस्थित जीवन जीना शुरू किया तो ऐसा लगा मानो मनुष्य ने सहिष्णुता को स्वीकार कर लिया है पर समय के साथ संस्कृति के भी प्रभाव की न्यूनता मानव के जीवन में दिखाई देने लगी और जिस मनुष्य ने विवाह , परिवार का निर्माण किया वही एक सीमा के बाद असहिष्णुता के प्राकृतिक गुण को प्रदर्शित करने लगा | मानव ने पृथ्वी पर पाए जाने वाले अन्य जीव जन्तुओ की तरह विवाह को एक जैविक सम्बन्ध मान कर जीना शुरू कर दिया | उसने संस्कृति के आवरण में सम्बन्ध विच्छेद को जन्मदिया जो एक प्राकृतिक जीवन की मान्यता को फिर से स्वीकार करने जैसा था और पुरुष स्त्री का सम्बन्ध एक जैविक परिवार , समाज बनाने वाले जानवर की तरह ही हो गया और जो एक दूसरे के विचार स्वाभाव , रहन सहन को स्वीकार ना करने या सहन ना करने के कारण उत्पन्न हो गया | पर मानव ने जैविक क्रिया से उत्पन्न स्थिति को स्वीकार करके औरत जन्म लिए बच्चो के भविष्य को निर्धारित किया इस लिए प्रत्यक्ष रूप से ये कभी चर्चा का विषय ही नहीं बन पाया कि संस्कृति में धीरे धीरे असहिष्णुता बढ़ रही है और उससेसमाज की समसे छोटी इकाई विवाह प्रभावित हो रही है | व्यक्तियों के कार्य करने के आधार पर ही मनुष्य ने अपने व्यवहार को निर्धारित किया और ऐसा करके उसने ये सिद्ध किया कि सभी के साथ उसके सम्बन्ध और व्यवहार एक जैसा नहीं हो सकता और ये असहिष्णुता हमको मनुष्य के जाति व्यवस्था में स्तरित किये गए मानव के व्यवहार में स्पष्ट रूप से देखने को मिली | दलित के साथ होने वाले अत्याचार और उनके प्रति हीन भावना ने ये बात मुखर की मनुष्य भी एक असहिष्णु प्राणी ज्यादा है और संस्कृति के अस्तित्व में आने के बाद भी वो अपने प्राकृतिक स्वाभाव को पूरी तरह नही छोड़ पाया है पर अन्य जीव जन्तुओ की तरह वो भी अपने सामान मनुष्य से भी प्रतिकार करता है | गरीबी एक दूसरा ऐसा सांस्कृतिक कारण है जो धीरे धीर संस्कृति में एक स्तरीकृत समाज को निर्मित करती रही जिसके कारण कभी भी अपेक्षा कृत ज्यादा पैसा वाला आदमी कम पैसे वाले या फिर ज्यादा अचल संपत्ति वाला कम संपत्ति वाले को अपने सामान नहीं समझ सका और जिससे असहिष्णुता को ही बढ़ावा मिला | एक रिक्शे वाले एक बर्तन साफ़ करने वाले या फिर सफाई करने वाले के प्रति उनसे काम लेने वाले का व्यवहार कभी भी प्रेम और सद्भावनापूर्ण नहीं होता है जो दोनों को एक दूसरे के प्रति असहिष्णु बनता है और आज यही कारण है कि नौकर अपने मालिक ही हत्या करके अपनी घृणा को ज्यादा प्रदर्शित करने लगे है | संस्कृति के दूसरे कारणों में असहिष्णुता इसी लिए भी बढ़ी क्योकि संस्कृति के प्रतिबन्ध ज्यादा है एक वैश्यावृत्ति करने वाली महिला एक सामान्य समाज में नहीं रह सकती वो किसी के घर खुल कर नहीं आ जा सकती क्योकि समाज उसको सहन करने के लिए तैयार नहीं है और यही सामाजिक असहिष्णुता उसको पीढ़ीदर पीढ़ी इस कार्य में लगाये रखता है | इस लिए समाज में कभी भी किसी को सहन करने के जो पैमाने रहे है वो सांस्कृतिक से ज्यादा प्राकृतिक व्यव्हार से प्रभावित होते है | क्या सहनशीलता को हमने कभी अनुभव किया ? उत्तर है नहीं किया कम से कम जब से आधुनिकता के विमर्श हमारे सामने आये | सबको अपने तरह से जीने का स्वप्न बाँटा गया | और इसी कारण भी संयुक्त परिवार में भारत जैसे देश में एक बिखराव दिखाई दिया | पैसा एक ही व्यक्ति के हाथ में क्यों रहे ? चूल्हा एक ही क्यों जले ? एक विवाहित महिला अपने पति और बच्चो के आलावा किसी और के लिए क्यों काम करे| इस भावना ने घर के अंदर ही असहिष्णुता इतनी पैदा कर दी कि जिस देश में पिता बड़े भाई के सामने लोग बैठते नहीं थे वही अब लोग सीधे ये पूछने लगे है कि ज्यदाद में मेरा हिस्सा क्या है मेरा बटवारा कर दीजिये |संपत्ति का बटवारा होने का चलन बढ़ना और संयुक्त परिवार को नकारना परिवार के अंदर बढती असहिष्णुता का ही परिणाम है | जिसका प्रभाव अब धीरे धीरे समाज में भी दिखाई देने लगा है | कानून ने खुद पहिचान को जिस तरह अपने अस्तित्व से जोड़ कर समाज के साथ प्रस्तुत किया और अपने अस्तित्व कोबचाने और संरक्षित करने के लिए जिस तरह से संविधान में प्राविधान किये गए उससे असहिष्णुता का ही खाका ज्यादा तैयार हुआ क्योकि जनसँख्या को बढ़ने से रोकने में राज्य ने अपने संसाधनों की उपलब्धता से ज्यादा धार्मिक संकीर्णता और प्रजातंत्र में वोटो के महत्व को ज्यादा समझा और जिसने संसाधन और जनसँख्या के असंतुलन को इतना बढ़ा दिया कि असहिष्णुता खुल कर मुखर होने लगी | इस संतुलन में ज्यादा से ज्यादा पाने कि होड़ और उसके लिए अपनों का संसद में ज्यादा से ज्यादा होने का प्रयास जनसँख्या को विकराल रूप में बढ़ाने में सहायक हुआ जिससे अस्तित्व और पहिचान के कह्तरे के स्वर भी मुखर होने लगे जिससे समाज और देश को असहिष्णुता की आग में झोक दिया |
सरकार को चाहिए कि आज के सन्दर्भ में जब देश की जनसँख्या बढती ही जा रही है और वोट से सत्ता पाने के जाति और धर्म के समीकरण ने देश को एक अंधकार की ओर धकेल दिया है जो तभी रुक सकता है जब राज्य धर्मनिरपेक्षता का अर्थ सही तरह से लागू हो |

समाज की परिभाषा क्या है ?(What is the definition of society ?)

1. समता से जन्म होता है जिसका उसे ''समाज'' कहते है।

2. समुचित हिताधिकारों से सहमत व्यक्तियों का समूह ही ''समाज'' है।

3. "समत्वं योग उच्यते" का व्यावहारिक रूप ही ''समाज'' कहलाता है।

4. परस्पर समाधिकारिता पर आधारित संगठन ही ''समाज'' है।

5. परस्पर समतामूलक उचित व्यवहार ही ''समाज'' को जन्म देता है।

6. न्यायपूर्ण मानवीय सहजीविता को ही ''समाज'' कहते हैं।

7. समुचित नियम-नीति-निर्णय पर आधारित मानव सभ्यता को ही ''समाज'' कहा जाता है।

8. सत्यात्मक न्याय के सिद्धांत पर आधारित सभ्यता ही ''समाज'' है।

9. पशुओं के समूह को ''झुण्ड'' एवं मनुष्यों के समूह को ''समाज'' के नाम से जाना जाता है।

10. न्यायशील राष्ट्रीय व्यवस्था को जन्म देने वाली मानवीय सभ्यता को ही ''समाज'' कहा जाता है।

11. न्यायशील सदाचार एवं सद्व्यवहार को आत्मसात् करने वाली सुव्यवस्था ही ''समाज'' है।

12. आत्मिक समता और प्राकृतिक औचित्यता के न्याय द्वारा प्रकाशित व्यवस्था ही ''समाज'' है।

13. प्रबुद्ध मानवीय सहजीवन धारा का न्यायसंगत सुव्यवस्थित प्रवाह ही ''समाज'' है।

14.ज्ञान-विज्ञान द्वारा प्रकाशित सत्यात्मक न्याय के सिद्धान्त पर आधारित समन्वय एवं सामंजस्यपूर्ण सहजीविता ही ''समाज'' है।

15. "आत्मनः प्रतिकूलानि परेशां न समाचरेत्" के समादर्श की साकार प्रतिमा ही ''समाज'' है।

16. सौन्दर्य, सुगंध, स्वास्थ्य से युक्त मानवपुष्पों का समृद्ध गुञ्छन ही ''समाज'' है।

17. वरीयताक्रम पर आधारित कर्म-पद-संपदा के समुचित वितरण की व्यवस्था का न्यायसंगत अस्तित्व ही ''समाज'' है।

18. मानवजीवन के चारों आयामों के विकास पर आधारित समिचुत हिताधिकारिता की व्यवस्था ही ''समाज'' है।

19. दान-पुण्य से ऊपर उठकर न्याय को धर्म के रूप में स्वीकार करने वाले मनुष्यों का संघ ही ''समाज'' है।

20. प्रेमपूर्ण एकता की ओर मानव समूह को प्रेरित करने वाली सामूहिक न्याय व्यवस्था ही ''समाज'' है।

21. "विश्व बंधुत्व" एवं "वसुधैव कुटुम्बकम्" के महास्वप्न को साकार करने में समर्थ न्यायशील सभ्यता को ही ''समाज'' कहा जा सकता है।

समाज में पारिवारिक विघटन: कारण और प्रभाव

समाज में पारिवारिक विघटन: कारण और प्रभाव
परिवार मानवीय मूल्यों का आधार है. यह परिवार ही तो है जो मानवीय मूल्यों को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्थानांतरित करता हैं. परिवार समाज कि न्यूनतम इकाई है अतैव इसका अपना एक अलग महत्व है. भारत में परिवार कि अपनी एक विशेषता है. परिवार भारतीय सभ्यता का मूल है. परिवार ही भारत को अन्य देशो से अलग बनता है. प्राचीन काल से लेकर अब तक परिवार समाज में अपना अस्तित्व बनाये हुए है किन्तु इसकी संरचना और उसके साथ साथ इसकी परिभाषा समय दर समय बदलती रहीं हैं. भारतीय परिवार पश्चात सभ्यता से ज्यादा प्रभावित है. जिसके कारण इसमें हो रहे परिवर्तन भारतीय संस्कृति को झकझोर के रख दे रही है. लेकिन बावजूद इसके इस संस्कृति कि जड़ इतनी मजबूत है कि आज़ादी के ६८ वर्षो के बाद भी हम अपनी सभ्यता को बनाये हुए हैं. इसका एक मात्र कारण हमारी संस्कृति और इसकी प्रवृति है.
सामाजिक परिवर्तन से हममे से कोई भी अनभिज्ञ नही हैं. या यूँ कहें कि सामाजिक परिवर्तन ने हम सब को प्रभावित किया है. जैसे आज कल कि शिक्षा पद्धति. शिक्षा शब्द का प्रयोग मैं इस लिये कर रही हूँ क्योकि शिक्षा ही है जिसने सामाजिक परिवर्तन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. उदाहरण स्वरुप आज की शिक्षा रोजगार के ऊपर ज्यादा आधारित है. आज बेटी हो या बेटा सबको स्वलाबन बनने कि शिक्षा दी जाती है. लड़को की शिक्षा समाज में पहले से ही महत्वपूर्ण रही है. लेकिन लड़कियों के शिक्षा में भी परिवर्तन हुआ है. पहले माता पिता कि सोच रहती थी कि शिक्षा बेटिओं के लिये वो हथियार है जिसके माध्यम से वे जीवन में आने वाले विपरीत परिस्थिति का सामना कर सकेंगी. लेकिन इस हथियार का प्रयोग वे समय आने पर ही करेंगी. बेटिओं को घरेलु ज्ञान और संस्कार दिया जाता था जिससे वे अपने गृहस्ती को सुचारू रूप से चला सकें. किन्तु आज स्थिति बदली है, घरेलु ज्ञान तो सामान्य ज्ञान सा बन गया लेकिन आजीविका चलने के लिये शिक्षा महत्वपूर्ण हो गयी है. आज कि बेटिओं कि सोच में भी फरक आया है. विवाह तो जीवन कि एक रस्म है, जिसे जैसे नहीं तैसे निभा ही लेंगे किन्तु रोजगार महत्वपूर्ण है.  
तो व्याहारिक परिवर्तन समाज के हर स्तर व् घड़ी दर घड़ी हो रहे हैं. होने भी चहिये क्योकि जब तक बदलाव होगा नही तब तक हम सामाजिक कुरीतिओं से और कुंठाओं से बहार कैसे आयेंगे. लेकिन समाज में परिवर्तन सकारात्मक दिशा में होने चाहियें. जहाँ एक तरफ शिक्षा ने समाज को बहुत सी महत्वपूर्ण वस्तुएं और धारणाये प्रदान कि है वही वे सामाजिक मूल्यों को मानव के भीतर बनाये रखने में सक्षम नही रही है. मुझे ये बात कहने में जरा भी संकोच नही है कि शिक्षा का सही मायने में उपयोग नही हो सका है. शिक्षा सामाजिक मूल्यों को आगे बढाने में उसे और जटिल करने में मदद करती है. शिक्षा ने लोगो कि सोच बदली है किन्तु संस्कृति के नज़रिए से नकारात्मक रूप में. परिवार जो सामाजिक मूल्यों का धरोहर कहा जाता है आज उसका विघटन हो रहा है. और इस विघटन से कोई भी इंसान अछूता नही है.
पारिवारिक विघटन का बच्चों पर प्रभाव-
छोटे बच्चों का पालन पोषण दादा दादी और परिवार के सदस्यों द्वारा होने से बच्चों में पारिवारिक मूल्यों के साथ साथ सामाजिक मूल्यों का भी स्थानांतरण होता है. आज का समय एकल परिवार का है. इसिलिये आज बच्चें पारिवारिक और सामाजिक मूल्यों से वंचित रह जाते हैं. और हम बच्चों में नैतिक मूल्यों को डालने कि बात करते हैं. किन्तु एक बात स्पष्ट है कि नैतिक मूल्यों का निवेश कोई पुस्तक या कोई विद्यालय करें न करें बच्चो में ये परिवार के माध्यम से स्वतः ही आ जाते हैं. परन्तु मुझे ये बातें भी कहने में अतिश्योक्ति नही होगी कि परिवार अगर नैतिक मूल्यों का दोतक है तो वहीँ नैतिक मूल्यों का पतन भी परिवार में रह कर भी हो सकता है, लेकिन बहुतायत में परिवार से नैतिक मूल्यों का स्थानांतरण होता है. वास्तविकता ये भी है कि आज बच्चों के साथ समय बिताने के लिये वक़्त कि कमी है. जिसके वजह से आगे चल कर लगाव और स्नेह कि कमी हो जाती है. मनोविज्ञान के एक बड़े ही प्रसिद्ध वैजानिक अलबर्ट बंदुरा ने अपने attachment theory में इस बात को बहुत ही गहराई से समझाया है कि बालपन में माता पिता और परिवार के लगाव से क्या क्या लाभ है. किन्तु आज कल के माता पिता ये जानते हुए भी अपनी इस कमी को बच्चों को खिलौने, टी.वी. कंप्यूटर, टेबलेट, आदि लुभावनी चीज़ों से खुश करना चाहते हैं और अपनी जिम्मेदारी को पूर्ण समझते हैं. बच्चे जब थोड़े बड़े होतें है तो शिक्षा कि गली में छोड़ आते हैं जहाँ उनका अपना अलग संसार बन जाता है और उनके पास भी अब समय का आभाव होने लगता है. पीठ पर भविष्य की सफलताओं के माध्यम को लादे बच्चों के पास अब पारिवारिक और सामाजिक मूल्यों को समझने का वक्त भी नही रहता.
पारिवारिक विघटन का वयस्कों पर प्रभाव—
परिवार का सबसे बड़ा उद्देश्य अपने परिवार के सदस्यों कि मदद करना चाहें वे किसी भी अपत कालीन स्थिति में हों. जैसे कि बेरोजगारी कि स्थिति, किसी अपंगता कि स्थिति आदि. आजकल पारिवारिक विघटन के स्वरुप मानसिक वेदनाएं भी बढाती जा रही है. आज अपने मन कि बात कहने के लिये घर में एक या दो जनों से ज्यादा कोई नहीं होता. कोई पथ प्रदर्शक नही कोई बात समझने को नहीं. अन्तः आतंरिक बातों को खुद में ही समा कर मन ही मन वेदनाओं में उलझते हुए मनुष्य न जाने कितनी कितनी बिमारिओं के शिकार होते जा रहें हैं. पति- पत्नी के आपसी मन मुटाव को भी कोई तीसरा अपारिवारिक सदस्य ही दूर करता है. परिवार के बड़े नव विवाहितों को जीवन के विभिन्न कठिनाइयों से अवगत करतें है और साथ ही उन परेशानियों से कैसे निपटा जये इस बात का ज्ञान भी कराते है उनके जीवन के अनुभव हमारे जीवन पर्यन्त के साथी होते हैं. सामाजिक सद्भावना का मतलब धीरे धीरे कम होते जा रहा है. समाज के और समाज से मतलब भी कम होते जा रहा है. फिर भी आज सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन और जीवन शैली में हो रहे बदलाव के कारण आज का युवा पीढ़ी चिंतित है, परिवार के साथ न रहना भी उसकी मजबूरी है. महंगाई का मुद्दा तो सर्वोपरि है. संयुक्त परिवार कि एक खासियत थी कि उसमे समानता का भाव था. आर्थिक स्थिति के अनुसार काम का बटवारा होता था. जो आर्थिक दृष्टी से सबल होता था वो घर के सभी बच्चों को पढाता था, परिवार से सभी सदस्यों कि आवश्यकतायें पूरी करता था. जिनकी जैसी अर्थी स्थिति होती थी वैसी परिवार में सहयोग देता था. सामान शिक्षा और जीवन शैली भी एक सी होती थी. किन्तु आज दृश्य बिलकुल भिन्न है. आज एक ही परिवार के सदस्यों कि शिक्षा और जीवन शैली दोनों ही भिन्न होती हैं. जो अर्थी स्थिति से सबल वे प्रबल होते हैं. परन्तु एक बात यह भी सत्य है कि आधुनिक युग में पुरानी शैली को दोहरा पाना आसान नही है लेकिन अगर पारिवारिक मूल्यों के साथ जीवन जीया जाये तो इन भिन्नताओं को काफी हद तक कम कर सकेंगे.
बात जब परिवार और पारिवारिक विघटन कि हो रही है तो हम परिवार कि नीवं को कैसे भूल सकते हैं. पारिवारिक विघटन से सबसे बड़ा नुक्सान यदि किसी को रहा है तो परिवार के वृद्ध पुरुष हैं. पारिवारिक मूल्यों के द्योतक, हमारे बुजुर्ग जो कि संस्कृति और सभ्यता के वाहक हैं उनकी दशा पारिवारिक विघटन फलस्वरूप सबसे ज्यादा संवेदनशील स्थिति में हैं. आज old age home, Recreational home आदि सब पारिवारिक विघटन के उत्तपन्न उदहारण है. आज जिस प्रकार से बच्चे आया के ऊपर निर्भर है बुढ़ापे में माँ बाप नौकरों के ऊपर निर्भर हो जाते हैं जो कि बहुत ही कष्टदाई और करुणामयी होता है. युवापीढ़ी आज माँ बाप कि जिम्मेदारी लेने से पीछे हट रहें है. विचारो में हो रहे अंतर को वे generation gap की संज्ञा देते है.  लेकिन इस संज्ञा को जो लोग समझते हैं वे इस परेशानी को अच्छी तरह सुलझा लेते है और जो नही समझते वे अपनी खामियों को छिपाते रहते हैं.
बहरहाल पारिवारिक विघटन से सामाजिक और मानसिक तनाव उतपन्न होता है, स्वाभाविक है. जो लोग इस बात को समझते हैं उन्हें कम से कम अपने दायित्व को निभाने के लिए प्रयास जरुर करना चाहिए! 
"आज के समाज में , मानवीय मूल्य गिर चुकें हैं ,और ये सब कुत्सित राजनीति का कमाल है "परिणाम स्वरुप  जिन्दगी ही  नहीं ,मानवता  भी हार गई है।  राजनीति की चालें जीती हैं -समाज हार गया है। वोट की राजनीति जीत गई है-लोकतंत्र हार गया है। सत्ता की भूख ने ----समाज को कही का नहीं छोड़ा है - इसके कारण को ही सोचना होगा -हमें अपनी मानसिकता को बदलना होगा-और उसका एक ही सरल उपाय है -की हम राजनेताओं की सोच को बदलें-उनकों मजबूर कर दें -उनका जीना हराम कर दें.सत्य के लिए,और सत्य एक ही है राष्ट्र की ही आराधना

आज के समय आलोचना नहीं होती है -बस आरोप लगाये जाते हैं। सब अपनी ढपली लेकर -अपना ही राग सूना रहे हैं 'राजनीति में"वास्तविक परिवर्तन' करने पड़ेंगे - अगर मानवीय मूल्यों पर आधारित राजनीति होने लगे -तो -समाज क्या ,समाज का बाप भी बदल जाएगा परन्तु जबसे देश आज़ाद हुआ है- देश में  समाज के लिए राजनीती नहीं होती है ,समाज को बाटने के लिए राजनीती होती है.जब समाज में ही विघटन है तो देश की आराधना कैसे होगी ?

 ये राजनेता, आग्रह से ,विनती से -नहीं मानेगे गन्ना भी बिना :दबाव के रस नहीं देता है -
बस प्रशन एक ही है -कि ..दबाव का तरीका क्या हो --?तरीका बहुत ही आसान है कि विपक्ष  या मीडिया जब भी कोई आलोचना करे तो वो आलोचना "सत्य" से परिपूर्ण हो .और  ही साथ इन राजनेताओं के परिवार के लोग भी इसमें बहुत बड़ा योगदान दें सकते हैं। लगभग सभी लोगो के परिवार है - क्या इनके परिवार के लोग  इन राज नेताओं में "मानवीय मूल्यों "को जगाने का प्रत्न करेंगे -उनकों विवस करेंगे की वो अपने राजनीतक दल से ऊपर उठ कर -कुछ  सार्थक करें।राष्ट्रहित  में करे 

देश का मीडिया बहुत  ही ताकतवर है वो भी सहयोग दे सकता है अगर वो चाहे तो राजनीति बदल सकती है पर इनके भी अपने स्वार्थ हैं।    महिलाओं के सम्मान  के लिए मीडिया बहुत शोर मचाता है  परन्तु वो ही मीडिया ,अपनी site का 60 % हिसा ,  नारी  के नग्न चित्रों से -उनको आकर्शित करने के तरीको से - ताकत की दवाइयों से - सेक्स के आनद उठाने के तरीको से भरा रखता है।  क्या इस तरह से नारी का सम्मान कर रहे हैं ये मीडिया वाले।
 मीडिया जोर शोर से ज्योतिष की विधा का विरोध करते हैं -अंध विस्वास का विरोध करते हैं -शाम को बहस  कराते हैं और दूसरी तरफ सुबह से लेकर दोहपहर तक सबकी कुंडली में गृह दोष के उपचार बताते  है और उनका भविष्य बताते हैं। कितना बड़ा धोखा दे रही है ये मीडिया। 
कथनी  और करनी का ये अंतर ही सबसे ज्यादा कस्टप्रद  है देश और समाज के लिए। बिना राष्ट्रवाद की भावना के समाज का सुधार नहीं हो सकता है। राष्ट्रवाद की भावना ही समाज को जोड़ सकती है, उसका पोषण  कर सकती है। 
जब तक हर हिन्दुस्तानी में राष्ट्रवाद नहीं आएगा -ये राजनीति इस तरह से ही चलती रहेगी।  एक दूसरे पर आरोप लगते रहेंगे -समाज में विघटन होता ही रहेगा -लोग अपनी मन मर्ज़ी करते ही रहेंगे -अराजकता और आतंकवाद बढ़ता ही रहेगा 

समाज

व्‍यावहारिक रुप से समाज शब्‍द का प्रयोग मानव समूह के लिए किया जाता है । किन्‍तु वास्‍तविक रुप से समाज मानव समूह के अन्‍तर्गत व्यक्तियों के सम्‍बंधों की व्यवस्‍था का नाम है । समाज स्‍वयं एक संघ है संगठन है, औपचारिक सम्‍बंधों का योग है । 

    समाज के प्रमुख स्‍तम्‍भ स्त्री और पुरुष हैं । स्त्री और पुरुष का प्रथम सम्‍बंध पति और पत्‍नी का है, इनके आपसी संसर्ग से सन्‍तानोत्‍प‍त्ति होती है और परिवार बनता है । परिवार में सदस्‍यों की वृद्धि होती जाती है और आपसी सम्‍बंधों का एक लम्‍बा सिलसिला जारी होता है । मानव बुद्धिजीवी है इसलिए इसे सामाजिक प्राणी कहा गया है । मानवेतर प्राइज़ में इन सम्‍बंधों के मर्यादा के निर्वाह की वैसी बुद्धि नहीं है जैसी मानव में होती है । परिवार सामाजिक जीवन की सबसे छोटी और महत्‍वपूर्ण इकाई है । 

    प्राचीन ऐतिहासिक अध्‍ययन से यह ज्ञात होता है कि प्रारंभिक युग का जीवन संयुक्‍त पारिवारिक प्रणाली पर आधारित था । गॉंव या शहर में कई पैतृक कुटुम्‍ब बसे रहते थे और उन पैतृक कुटुम्‍बों के स्‍वामी ही गॉंव के बड़े एवं मुखिया होते थे । कुटुम्‍ब का संगठन अनुशासन एवं मर्यादायुक्‍त होता था । परिवार का मुखिया उसका वयोवृद्ध व्‍यक्ति हुआ करता था । वही धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक मामलों में परिवार का नेतृत्‍व करता था । मध्‍य काल तक लगभग परिवार की यही व्‍यवस्‍था चलती रही । किन्‍तु योरोपीय सभ्‍यता ने जब हमारी संस्‍कृति पर प्रभाव डाला तो संयुक्‍त परिवार प्रणाली में बिखराव आने लगा । जहॉं परिवार में कई कई पीढि़यों तक संयुक्‍त रहने का एक नियम सा बन गया था, वहॉं पाश्‍चात्‍य सभ्‍यता के प्रभाव से परिवार पति-पत्‍नी तथा अविवाहित बच्‍चों तक ही सीमित रह गया । वर्तमान युग आते-आते संयुक्‍त परिवारों की संख्‍या कम होती गई तथा अब यह प्रणाली समाप्‍त प्राय ही दृष्टिगत होती है । इस विघटन का मुख्‍य कारण व्‍यक्तिवादी विचारधारा का बाहुल्‍य है । आज का पारिवारिक जीवन भौतिक जीवन की सुख-समृद्धि जुटाने तक ही सीमित रह गया है । जिन आघ्‍यात्मिक मूल्‍यों पर यह व्‍यवस्‍था आधारित थी उन मूल्‍यों को हम भूलते जा रहे हैं । 

    आदिकाल से ही हमारा समाज पितृ-प्रधान रहा है । यही कारण है कि पैतृक सम्‍पत्ति के संरक्षण, वंश विस्‍तार तथा पिता के मरणोपरान्‍त उसे ऋण से उऋण होने हेतु पुत्र का होना आवश्‍यक समझा जाने लगा तथा सन्‍तान का होना भी अत्‍यावश्‍यक समझा जाने लगा । यह सामाजिक व्‍यवस्‍था एवं मनोवृत्ति आज भी भारतीय जनमानस में विद्यमान है । हॉं वर्तमान में यह अवश्‍य हुआ है कि बढ़ती हुई जनसंख्‍या के नियंत्रण हेतु सरकारी कानूनों एवं प्रोजेक्ट के परिणास्‍वरुप नियोजित परिवार की धारणा बनी है, किन्‍तु पुत्रहीन होना आज भी किसी को पसंद नहीं है । 

    भारतीय संस्‍कृति में नारी का परम्‍परागत आदर्श है “यत्र नार्यस्‍तु पूज्‍यन्‍ते रमन्‍ते तत्र देवता”। भारतीय संस्‍कृति इसके जननी, भगिनी, पत्‍नी तथा पुत्री के पवित्र रुपों को अंगीकार करती है । जिसमें ममता, करुणा, क्षमा, दया, कुलमर्यादा का आचरण तथा परिवार एवं स्‍वजनों के निमित्‍त बलिदान की भावना हो, वह भारतीय नारी का आदर्श रुप है । नारी का मातृरुप महत्‍वपूर्ण आदर्श है- जननी जन्‍मभूमिश्‍च स्‍वर्गादपि गरियसी । किन्‍तु भारतीय संस्‍कृति की विचारधारा में नारी पतिव्रत-धर्म मातृ रुप से भी अधिक महत्‍वपूर्ण माना गया है । 

    प्रकृ‍ति ने नर और नारी में भिन्‍नता प्रदान की है और यही कारण है कि उनके कर्म भी अलग-अलग हैं । किन्‍तु ये दोनों एक दूसरे के पूरक हैं । मनुष्‍य कठोर परिश्रम करके जीवन-संग्राम में प्रकृति पर यथाशक्ति अधिकारी करके एक शासन चाहता है, जो उसके जीवन का परम लक्ष्‍य है और कठोर परिश्रम के पश्‍चात् विश्राम की आवश्‍यकता होती है तो शीतल विश्राम है स्‍नेह, सेवा और करुणा की मूर्ति रुपी नारी । नारी के अनेक रुपों में पर का पत्‍नी रुप से अति निकट का सम्‍बन्‍ध है । नर-नारी सम्‍बन्‍धों का सुन्‍दर रुप दाम्‍पत्‍य जीवन है । क्‍योंकि पति-पत्‍नी एक दूसरे के प्रति आकर्षित होने पर ही प्रजा का सृजन कर सकते हैं और परिवार को सुचारु रुप से चला सकते हैं । आधुनिक युग में भी शिक्षित, जागरुक, चरित्रवान आदर्श सुपत्‍नी ही आदर्श भारतीय नारी है । 

    ऊपर यह स्‍पष्‍ट किया गया है कि स्‍त्री और पुरुष एक दूसरे के पूरक हैं किन्‍तु आज भी हमारा समाज पितृ-प्रधान ही है । देश के विभिन्‍न समुदायों तथा वर्गों में स्‍त्री की सामाजिक स्थिति पुरुष की अपेक्षा निम्‍न मानी जाती है । यहॉं अभी भी ऐसे रीति-रिवाज, अंधविश्‍वास और धर्म विधियॉं या कर्म-काण्‍ड हैं जो स्‍त्री को नीचा दिखाते हैं और पुरुष को स्‍त्री से उच्‍च व बहुत अधिक वांछित साबित करते हैं – जैसे पिता के मरणोपरान्‍त अंतिम धार्मिक कृत्‍य बेटा ही करेगा और बेटे के ही करने से पिता स्‍वर्ग का भागी होगा । हमारे समाज ऐसे रीति-रिवाज तथा प्रवृत्तियॉं प्रचलित हैं, जिसके कारण आज भी स्त्रियों को वह स्‍थान प्राप्‍त नहीं है जो वास्‍तव में होना चाहिए । जैसे- दहेज-प्रथा या लड़की का पराया धन समझना और शादी के बाद माता-पिता का कोई हक न समझना तथा शादी-शुदा स्‍त्री को जब तक पुत्र न पैदा हो तब तक उसे परिवार में महत्‍वपूर्ण स्‍थान न देना आदि । इन्‍हीं सामाजिक प्रवृत्तियों और दहेज जैसे रिवाजों के परिणामस्‍वरुप बेटियॉं चेतन व अचेतन रुप में एक बोझ सी मानी जाती हैं, जबकि बेटे एक पूंजी के समान समझे जाते हैं । यद्यपि आजादी के बाद हुए आर्थिक सामाजिक परिवर्तनों तथा अर्न्‍राष्‍ट्रीय महिला वर्ष के अन्‍तर्गत महिलाओं की ‍िस्‍थति को सुधारने के लिए बनी योजनाओं के माध्‍यम से महिलाओं की सामाजिक स्थिति में काफी परिवर्तन आया है । 

    यद्यपि वर्तमान में पाश्‍चात्‍य सभ्‍यता के प्रभाव, परिवार नियोजन की धारणा तथा व्‍यक्तिवादी सोच के कारण नारी स्‍वभाव में कुछ विकृति आई है । पूर्वकाल में जहॉं नारियॉं अपने दूध से दूसरों के बच्‍चों का पालन-पोषण करना अपना कर्तव्‍य समझती थीं वहॉं कभी यह सोचा भी नहीं जा सकता था कि ममता, करुणा, स्‍नेह और दया की देवी कही जाने वाली नारी अपने ही बच्‍चे को अपना दूध नहीं पिलाएगी । किन्‍तु वर्तमान में यह स्‍पष्‍ट रुप से दृष्टिगत हो रहा है । स्त्रियों द्वारा बच्‍चों को अपना दूध न पिलाना एक समस्‍या बन गयी है और इसी प्रकार यह कहना कि नारी सर्पिणी बन जायेगी अपने ही बच्‍चे की हत्‍यारिन होगी असंभव था, किन्‍तु आज बढ़ती हुई भ्रूण हत्‍या इसका प्रत्‍यक्ष प्रमाण है । यद्यपि इसके लिए पुरुष व चिकित्‍सक भी कम जिम्‍मेदार नहीं है । भारत सरकार ने कानून बनाकर भ्रूण-हत्‍या को कानूनी अपराध करार दिया है । 

    व्‍यक्तिवादी सोच एवं फिल्‍म संसार ने तो वर्तमान में सामाजिक मूल्‍यों को ताक पर रख दिया है । स्‍मरणीय है कि कुछ वर्ष पूर्व किसी फिल्‍म निर्माता पर मुकद्मा चलाया गया । किन्‍तु आज फिल्‍मों में ही नहीं बल्कि चौराहों पर लगे पोस्‍टर में भारतीय नारियों को अर्द्धनग्‍न ही नहीं बल्कि अति नग्न तस्‍वीरें देखी जा सकती है । यदि समाज के इस परिवर्तन पर ध्‍यान न दिया गया इसे नियंत्रित करने का प्रयास न किया गया तो भविष्‍य में भारतीय नारी का आदर्श क्‍या होगा, कहना कठिन है । 

    दाम्‍पत्य जीवन का फल संतान उत्‍पत्ति है । पहले भी लिखा जा चुका है कि नियोजित परिवार की धारणा के बावजूद भी कोई व्यक्ति पुत्रहीन होना पसंद नहीं करता । आज के बच्‍चे ही कल के स्त्री और पुरुष है । बाल्‍यावस्‍था में जो संस्‍कार बनते हैं वही बड़े होने पर प्रकट होते हैं । मॉं की गोद को बच्‍चे की पहली पाठशाला कहा गया है । प्राचीन ऐतिहासिक अध्‍ययनों से पता चलता है कि मॉं अपने बच्‍चे को लोरियों और कहानियों के माध्‍यम से वीर गाथायें और सत्पुरुषों की कहानियां सुनाती थी, जिससे उनके अन्‍दर वीरता एवं सच्‍चाई के भाव पैदा होते थे और बड़े होकर वीर और सच्‍चे बालक के रुप में धरा को सुशोभित करते थे । कक्षा-3 की पुस्‍तक में सच्‍चा बालक नामक शीर्षक में यह पढ़ा था कि हजरत अब्‍दुल कादिर जीलानी रहमतुल्‍लाह अलैहे को उनकी मॉं ने सच्‍चाई का पाठ पढ़ाया था और यात्रा पर जाते समय यह समझाया था कि बेटा कभी झूठ मत बोलना । मॉं की इस नसीहत का बच्‍चे अब्‍दुल कादिर पर इतना गहरा असर था कि रास्‍ते में डाकुओं द्वारा काफिले का सारा माल लूटे जाने के पश्‍चात् जब उनसे उनके माल के बारे में पूछा गया तो उन्‍होंने सदरी में मॉं द्वारा छिपाकर रखी गई चालीस अशर्फियों को निकाल कर दिखा दिया, जबकि डाकू उन अशर्फियों को ढूंढने में असमर्थ थे । यह देखकर डाकुओं के सरदार ने आश्‍चर्य से पूछा ऐ लड़के । तुमने अपने छिपे हुए माल का पता हमें क्‍यों बता दिया, जबकि तुमको यह पता है कि हम डाकू हैं । बच्‍चे ने जवाब दिया कि चलते समय मेरी मॉं ने मुझसे कहा था, बेटा कभी झूठ मत बोलना तो मैं झूठ कैसे बोल सकता हूँ बच्चे की इस सच्चाई का डाकुओं पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि उन्होने काफिले का लूटा हुआ सारा माल वापस कर दिया तथा हमेशा के लिए डकैती का परित्याग कर दिया 

    भारतीय मनीषियों ने मानव जीवन के सम्यक संचालन के लिए मनोवैज्ञानिक आधार पर चार सूत्रीय व्यवस्था की योजना की थी । जिसके अनुसार मानव को 100 वर्ष का मानकर चार स्वाभाविक अवस्थाओं में विभक्त किया गया था, जिसके प्रथम 25 वर्ष (ब्रह्मचर्य आश्रम) विद्या अध्ययन हेतु रखा गया था । बालक परिवार की पाठशाला छोड़ कर गुरु की पाठशाला में प्रवेश करता था । गुरु गाँव अथवा शहर के वातावरण से पृथक जगंल के शुद्ध प्राकृतिक वातावरण में छात्र को विद्या अध्ययन कराते थे और अध्ययनोपरांत छात्र चरित्रवान, सुशील, सहनशील, धैर्यवान एवं आज्ञापालक बनकर अपने घर वापस लौटते थे यधपि शिक्षा का यह रूप बहुत सीमित था । समाज का हर व्यक्ति शिक्षा नहीं ग्रहण कर सकता था आगे चलकर यह व्यवस्था समाप्त हो गयी और वर्तमान में समाज के हर व्यक्ति को समान रूप से शिक्षा ग्रहण करने का अधिकार प्राप्त है।

    वर्तमान में परिवार के बाद दूसरी महत्वपूर्ण संस्था विद्यालय है । अधिकांश देशों में प्राथमिक स्तर तक नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था की गयी है । चूँकि शिक्षा देश के विकास की प्रक्रिया का एक अभिन्न अंग है । इसलिए इसे उच्‍च प्राथमिकता दी गयी है । चूंकि शिक्षा देश के विकास की प्रक्रिया का एक अभिन्‍न अंग है । इसलिए इसे उच्‍च प्राथमिकता दी गयी है । विद्यालय बालक को देश-विदेश के इतिहास, भाषा, विज्ञान, गणित, कला तथा भूगोल की जानकारी प्रदान करते है । कालेज, विश्‍वविद्यालय और अन्‍य संस्‍थान व्‍यक्ति को किन्‍हीं खास विषयों का विशिष्‍ट ज्ञान प्रदान करते हैं । वे व्‍यक्ति को इस योग्‍य बनाते है कि वे अपनी जीविका उपार्जित कर सकें और समाज का एक उपयोगी अंग बन सके । वर्तमान में शिक्षा संस्‍थाओं की बहुतायत है और इस संस्‍था में शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्र, छात्राओं की भीड़ है । बालक, बालिकाएं समान रुप से तकनीकी एवं गैर-तकनीकी हर क्षेत्र में शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं । किन्‍तु आज की सह-शिक्षा ने पाश्‍चात्‍य देशों की तरह हमारे देश में निरंकुश समाज को जन्‍म दिया है । जिसके परिणामस्‍वरुप युवक और युवतियों के आचार-विचार में काफी परिवर्तन आया है । आचरणहीनता, अशिष्‍टता तथा मर्यादा का निर्वाह न करना आम बात बन गयी है । शिक्षा संस्‍थाओं और शिक्षकों की बहुतायत होने के बावजूद भी समाज नैतिक पतन की और जा रहा है । इसके पीछे जो कारण प्रतीत होता है वह यह है कि शिक्षा का उद्देश्‍य लिखने-पढ़ने के योग्‍य बन जाना और शिक्षा के माध्‍यम से जीविकोपार्जन का साधन प्राप्त कर लेना है । हमारी आज की शिक्षा में कहीं भी इस बात पर बल नहीं दिया गया है कि शिक्षा के माध्‍यम से चरित्र का निर्माण हो और मर्यादा का पालन किया जायेगा । आज का एक डाक्‍टर समाज का शिक्षित और संभ्रांत व्‍यक्ति है । क्‍या यह डाक्‍टर अपने भौतिक सुख के लिए अथवा भौतिक सुख को प्राइज़ करने के लिए अपनी कई पत्नियों, एक के बाद दूसरी को जहर का इंजेक्शन लगाकर मौत के घाट उतार सकता है क्‍या उच्‍च शिक्षा प्राप्त उच्‍च अधिकारी पति-पत्नियों की आपसी आचरणहीनता एक दूसरे को आत्महत्‍या के लिए मजबूर कर सकती है इस प्रकार की अनेकों खबरें समाचार पत्रों के माध्‍यम से आज के शिक्षित समाज की प्राप्त होती रहती है । जो आज के शिक्षित समाज के लिए एक अभिशाप है । 

    परिवार और शिक्षण संस्‍थाओं के बाद व्‍यक्ति के लिए उसका पड़ोस और आस-पास का इलाका सबसे अधिक महत्‍व रखता है । पड़ोसी अलग-अलग जातीय समुदाय से संबंधित हो सकते है । उनके व्‍यवसाय धार्मिक विश्‍वास और रहन-सहन का ढंग भी अलग-अलग हो सकता है, किन्‍तु पड़ोसी होने के कारण कुछ सम्मिलित जिम्‍मेदारियां होती है । जैसे पड़ोस में रहने वाले सभी लोगों का कल्‍याण इस बात में है कि गली-मुहल्‍ला साफ-सुथरा रहे, सभी लोग यह चाहेगें कि पड़ोस में शान्ति पूर्ण वातावरण रहे, सभी यह चाहेगें कि उनके बच्‍चे बुरी आदतों का शिकार न बनें और पड़ोस में आमोद-प्रमोद का स्‍वस्‍थ्‍य वातावरण बना रहे । अच्‍छे पड़ोसी के लिये यह आवश्‍यक है कि वह पास-पड़ोस को साफ-सुथरा रखें, पड़ोसियों के दु:ख दर्द में शामिल हो, उनकी सुख-सुविधाओं का ध्‍यान रखें, चोरों और अजनबी लोगों पर नजर रखें, बच्‍चों को कुसंग से बचायें आदि । 

    जैसे-जैसे पारिवारिक पड़ोस में वृद्धि होती जाती है समाजिक क्षेत्र का विस्‍तार होता चला जाता है । कई परिवारों से गॉंव, कस्‍बे शहर बनते हैं, तत्‍पश्‍चात् देश और सम्‍पूर्ण विश्‍व । पड़ोस से तात्‍पर्य सिर्फ घर से घर ही नहीं बल्कि गॉंव का पड़ोसी गॉंव, शहर का पड़ोसी शहर, देश का पड़ोसी देश इस प्रकार सम्‍पूर्ण विश्‍व बनता है । हमारी संस्‍कृति तो वसुधैव कुटुम्‍बकम् के भाव से परिपूर्ण है । सम्‍पूर्ण विश्‍व को एक परिवार माना गया है और सबके ही सुख और कल्‍याण की कामना की गयी है । 

    सर्वे भवन्‍तु सुखिन:, सर्वे सन्‍तु निरामया: । 

    सर्वे पश्‍यन्‍तु भद्राणि, मा कश्चिद् दु:ख भाग भवेत् ।।

Thursday, January 28, 2016

दहेज़ प्रथा

भारत वर्ष ने पिछले कुछ दसकों में आपार तरक्की की है| भारत के उद्योग पति विश्व के सबसे धनाढ्य लोगों में माने जाने लगे हैं| भारत के बने अंतरिक्ष यान चन्द्रमा और मंगल तक पहुँचने लगे हैं| नासा से लेकर माइक्रोसॉफ्ट तक भारतीय दिखाई देते हैं| बड़े बड़े हवाई अड्डे हो गए हैं, मेट्रो रेल लगभग सभी बड़े शहरों में आ गई है| करोड़ों के फ्लैट बिकते हैं| बाज़ार में गुक्की से लेकर रैडो तक की वस्तुएं उपलब्ध हैं| माल, शोपिंग काम्प्लेक्स, मल्टीप्लेक्स, मौज मस्ती करते युवा सब कुछ भारत में वैसा ही है जैसे विदेशों में होता है| लेकिन इन सबके बावजूद विकास के सभी मानकों में भारतीय महिला की हालत बद से बदतर होती जा रही है| हाल ही में प्रकाशित एक सर्वे के अनुसार भारत विश्व में महिलाओं की सबसे बदतर हालत वाले देशों में चौथे नंबर पर आता है| ईरान, ईराक, यहाँ तक की बंगला देश में भी महिलाओं की स्थिति भारत वर्ष से अच्छी मानी जाती है| और इस दुर्दशा के पीछे दहेज़ प्रथा का बहुत बड़ा हाथ है| भारत में दहेज़ प्रथा ने समाज में नारी का स्थान दोयम बना रखा है| पुरुष को आरम्भ से ही दंभ रहता है कि वह उच्च प्रजाति है क्योंकि विवाह के समय उसे स्त्री के साथ धन भी मिल रहा है| यह विकृति दिमाग में नारी की हीन छवि ही लाती है|
समाज में कहा जाता है कि लड़की को शिक्षा ही सबसे बड़ी शक्ति है| दुर्भाग्य है कि इसी शिक्षित लड़की का पिता जब विवाह हेतु सम स्तरीय वर ढूंढता है, तो दहेज़ की मांग करते वक्त लड़की की शैक्षिक योग्यता मायने नहीं रखती| 10-15 जगह धक्के खाने के पश्चात जब विवाह होता भी है तो मन में यही भाव रहता है की बला छूटी| वह बेटी जो पिता की लाडली होती है पिता पर बोझ स्वरुप बन जाती है| लड़की स्वयं कुंठा ग्रस्त रहती है अपने पिता की परेशानियों को देख कर| दहेज़ प्रथा केवल आर्थिक समस्या ही नहीं है, बल्कि यह समाज के 50 % नागरिकों में कुंठा का भाव पैदा करती है| यह युवतियों को अहसास कराती है कि वह कमजोर हैं, अक्षम हैं| और इसी वजह से विवाह के पश्चात प्रायः वह कैरियर तथा पढाई पर ध्यान केन्द्रित नहीं कर पातीं| यही लड़कियां जब मां बनती हैं तो अपने बेटों और बेटियों को भी यही शिक्षा देती हैं|
दहेज़, दान, दक्षिणा, संकल्प, स्त्री धन जैसे 50 नामों से सुशोभित कर रखा गया है भीख मांगने की इस कुरीति ने| कुतर्क दिया जाता है, की सनातन धर्म की परंपरा है दहेज़| मैंने वेदों का अध्ययन किया, किसी भी वेद में दहेज़ मांग कर लड़का लड़की के बेमेल विवाह का जिक्र तक नहीं है| विवाह के वैदिक सूत्रों में अथर्व वेद में भी विवाह के समय का सूत्र है
भगस्ते हस्तमग्रभीत् सविता हस्तमग्रभीत् |
पत्नी त्वमसि धर्माणाहं गृहपतिस्तव ||
अर्थात वर बधू से कहता है कि ऐश्वर्ययुक्त! मैं तेरे हाथ को ग्रहण करता हूँ और धर्मयुक्त मार्ग में प्रेरक मैं तेरे हाथ को ग्रहण करता हूँ। वधू के हाथ को ग्रहण करने के अतिरिक्त किसी अन्य दक्षिणा के ग्रहण करने का कोई वैदिक प्रस्ताव ही नहीं था| मध्य कालीन हिन्दू समाज में बहुत सारी कुरीतियाँ और अंध विश्वास पैदा हुए| दहेज़ प्रथा उन्हीं कुरीतियों में एक है, जिसे समाज के लालची लोग अभी भी सनातन धर्म की परम्पराओं से जोड़ कर बताते हैं| सनातन धर्म में मां पार्वती ने शिव से विवाह हेतु व्रत किया तथा विवाह भी हुआ| माता सीता का श्री राम से विवाह हुआ तो उर्मिला का लक्ष्मण से| वर्तमान भारत में भी युवतियां शिव का व्रत तो करती हैं, पर विवाह उस असुर से हो पाता है, जिसका दहेज़ दे पाने में माता पिता सक्षम होते हैं| सनातन धर्म में कहीं इस प्रक्रिया का उल्लेख नहीं है कि जनक दशरथ के पास रिश्ता लेकर गए| पहले दहेज़ तय हुआ तत्पश्चात श्री राम ने सीता को देखा व उनका वरन किया| हमारे सनातन धर्म के विवाह की पद्धति में नारी अपने पति का वरन करती है शिव के रूप में| पुरुष भी अपनी पत्नी के रूप में उसे स्वीकार करता है, तत्पश्चात परिवार, बंधू बांधवों की सहमती से विवाह का पवित्र पर्व संपन्न होता है|
कुछ दिनों पूर्व ही एक युवती का विवाह तय करने हेतु मुझे आमंत्रित किया गया| युवती के माता पिता की म्रत्यु हो चुकी थी| पर युवती स्नातक, बी. एड. करके सरकारी विद्यालय में सेवारत थी| लड़का आयु में भी ज्यादा था, एक पैर से विकलांग भी, साथ ही किसी नौकरी में भी नहीं था| सबसे पहला प्रश्न लड़के के पिता का था आपका संकल्प क्या है? लड़की के भाई ने बहुत हाथ पैर जोड़े पर लड़के के पिता गाडी और पैसे की मांग में एक पैसे के मोल भाव को तैयार ही न थें| अंततः मुझे ही बोलना पड़ा कि मान्यवर नियमतः तो ऐसी सुशील संस्कारी, आपके लड़के से कई गुना ज्यादा पढ़ी लिखी एवं कमा रही वधू हेतु आपको दहेज़ देना चाहिए| बात नहीं बननी थी, न बनी| बाद में लड़के का विवाह लड़के के पिता की इच्छा अनुसार गाडी एवं पैसा देने वाले परिवार में ही हुआ| ऐसे एक नहीं अनेकों उदाहरण हैं| शायद ही किसी विवाह को तय करने में दहेज़ की बात न आती हो|
लड़का जितना पढ़ा लिखा उतना ही ज्यादा मूल्य| ज्यादा तनख्वाह और ज्यादा मूल्य| पिता को रिटायरमेंट के बाद पेंशन मिलनी हो कुछ मुद्रा और बढ़ गई| पुत्र का विवाह सनातन धर्म प्रक्रिया नहीं बल्कि सब्जी मंडी में फल बेंचने की प्रक्रिया हो गई| नियमतः ऐसे खरीदे गए पुत्रों का अपनी पत्नी से माता पिता की सेवा की आकांक्षा नहीं करनी चाहिए, बल्कि उन्हें सास ससुर की सेवा करनी चाहिए| समाज का एक दुर्भाग्य यह भी है कि सामजिक बहस में, सोसल मीडिया में, भाषणों में लगभग सभी व्यक्ति दहेज़ प्रथा का विरोध करते नजर आयेंगे| विवाह के मौसम में आप सौ मंडप घूम आइये लगभग सभी में दहेज़ का सामान गर्व से सजा कर रखा गया होगा|

पुनश्च सनातन धर्मियों के लिए तो दहेज़ का कोई प्रावधान ही नहीं है| दहेज़ शब्द स्वयं में भी न हिंदी शब्द है न संस्कृत| दहेज़ शब्द अरबी भाषा का शब्द है| अंत में मैं पुनः यही कहना चाहूँगा कि हम सभी सनातन धर्मी हैं और हमें अपने धर्म का आदर करना चाहिए| ऋग्वेद के सूत्र १०.८५.७ में कहा गया है:
चित्तिरा उपबर्हणं चक्षुरा अभ्यञ्जनम |
दयौर्भूमिःकोश आसीद यदयात सूर्या पतिम ||
अर्थात माता- पिता अपनी कन्या को पति के घर जाते समय बुद्धिमत्ता और विद्याबलउपहार में दें | माता- पिता को चाहिए कि वे अपनी कन्या को दहेज़ भी दें तो वह ज्ञान का दहेज़ हो |

नगरों की सामाजिक-पारिवारिक संरचना

सामाजिक संरचना प्रमुख समाजशास्त्री प्रतिपाध विषय हैं ।नगरीय सामाजिक संरचना की अपनी विशिष्ट प्रक्रति है ।नगरीय सामाजिक संरचना से भिन्न है ।परन्तु जैसा कि हम पहले भी लिख चुके हैं कि यह भिन्नता हमें ध्रुवीय उदाहरणों में ही मिलती है ।इसी आधार पर हमने गत अध्याय में ग्रामीण एवं नगरीय जीवन में भिन्नताओं का उल्लेख करने का प्रयास किया है ।सामाजिक संरंचना का विश्लेषण करने की दृष्टि से विभिन्न समाजशास्त्रियों ने भिन्न-भिन्न मार्ग अपनाये हैं ।मर्टन ने समाज विशेष में व्यक्ति की सामाजिक स्थिति एवं कार्यों के आधार पर इस विश्लेषण का सुझाव देते हैं ।हम भी यहां नगरीय समाज की प्रमुख संस्थाओं का विवेचन करके नगरीय सामाजिक संरचना का विश्लेषण करने का प्रयास करेंगे ।हम प्रमुखत: परिवार, वर्ग व्यवस्था, मनोरंजन की संस्थाओं एवं नगरीय सरकार पर विचार करेंगे ।प्रथम हम नगरीय परिवार की व्याख्या कनरे का यत्न करेंगे ।परन्तु पूर्व इसके हम नगरीय सामाजिक संरचना की सामान्य विशेषताओं का यहां उल्लेख करना आवश्यक समझते है ।
नगरीय सामाजिक संरचना की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं - नगरीय समाज की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं –
  1. अस्थायित्वता – नगरीय सामाजिक संरचना की एक प्रमुख विशेषता अस्थायित्वता है ।व्यक्ति यहां केवल अस्थायी सम्बन्ध रख पाता है ।व्यक्ति रोज नये-नये लोगों से मिलता है और सम्बन्ध जोड़ता है एवं पुराने लोगों को भूल जाता है ।उसे इतने अधिक लोगों से सम्बन्ध रखना पड़ता है कि हर एक को भली-भांति स्मरण रखना असम्भव हो जाता है ।यहां सम्बन्ध प्राथमिक न होकर द्वितीय होते हैं ।यहाँ व्यक्ति की स्थिति भी सदा बदलती रहती है ।इस समबन्ध में विर्थ महोदय ने कहा है कि ये सम्बन्ध व्यक्तियों पर आधारित नहीं होते हैं बल्कि अवैक्तिक होते हैं , ये दिखावटी, कृत्रिम अस्थायी, परिवर्तनशील, और कार्य विशेष से ही सम्बंधित होते हैं ।नगर के व्यक्ति के सम्बन्ध तर्क पर आधारित होते हैं ।इन सामाजिक सम्बन्धों के कारण नये सामाजिक संगठन एवं सामाजिक संरचना का जन्म होता है ।
  2. अल्पज्ञता – नगरीय समाज में व्यक्तियों के सामाजिक सम्बंध कृत्रिम एवं औपचारिक होते हैं ।व्यक्ति यहां सबके सम्बन्ध में पूरी जानकारी नहीं रख पाता क्योंकि उसके पास इतना समय नहीं रहता है और न तो सम्बन्ध रखने की कोई आवश्यकता ही होती है ।उसका व्यवहार घनिष्ट नहीं होता है, अपितु बनावटी होता है ।वह ‘हलो मित्रता’ में विश्वास करता है ।कहीं मिले गये तो बड़े ही तपाक से मलेंगे और हलो शब्द से सम्बोधित करेंगे और उसके आगे केवल स्वार्थ की बात होगी ।यहां व्यक्ति स्वार्थपरता से परिपूर्ण होता है ।
  3. गुमनामता – नगरीय समाज में व्यक्ति सदस्य गुमनाम रहना ज्यादा पसंद करता है ।नगर के भीड़ में कौन किसको पहचानता है ।सब लोग अपने-अपने काम में लगे रहते हैं ।इतने अधिक व्यक्ति होते हैं कि कोई किसी को नहीं पहचानता ।एक ऐसा न पहचानने का दृष्टिकोण भी बन जाता है ।
  4. बेमेलता – नगरीय सामाजिक संरचना की एक विशेषता यह है कि यहां पर बेमेलता पायी जाती है ।विभिन्न प्रजातियों, क्षेत्रों, धर्मों, व्यवसायों एवं भाषाओं के व्यक्ति रहते हैं ।यहां सामाजिक सामंजस्य का अभाव पाया जाता है ।
  5. व्यक्तिवादिता – नगरीय समाज के मूल्य व्यक्तिवाद पर आधारित होते हैं ।हर व्यक्ति अपने दृष्टिकोण से सोचता, विचारता एवं कार्य करता है ।सामूहिकता के आधार पर विचार नहीं किया जाता है ।
  6. व्यवसायों की बहुलता एवं भिन्नता – नगरीय समाज में अनके प्रकार के भिन्न-भिन्न व्यवसाय होते हैं ।श्रम-विभाजन बहुत अह्दिक होता है ।एक व्यवसाय में लगा हर व्यक्ति दुसरे व्यवसाय के विषय में जानकारी नहीं रखता है ।
नगरीय परिवार की विशेषताएं – नगरीय परिवार की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं :
  1. 1. पितृसत्तात्मक अधिकार में कमी – भारतीय ग्रामीण में परिवारों में पिता या पति की अधिक शक्ति एवं अधिकार प्राप्त होते हैं ।यहां तक कि पितृसत्तात्मक परिवार अपनी पत्नी तथा बच्चों के बेच भी सकता है ।स्त्रियों का सम्पत्ति में कोई भी अह्दिकर नहीं है ।बच्चे तथा स्त्रियाँ प्रत्येक दृष्टि से पितृसत्तात्मक पितृस्थान पर आश्रित हैं ।पिता परिवार का स्वामी तथा राजा होता है ।
नगरीय सामाजिक संरचना में यधपि परिवार पितृसत्तात्मक होते हैं परन्तु नगरों में पितृसत्तात्मक के ये अधिकार अति न्यून रह गये हैं ।उसके समस्त अधिकार छिन गये हैं ।पिता परिवार के वैधानिक मुखिया है ।उसकी तुलना इंग्लैंड के राजा से की जा सकती है ।नगरीय परिवार का मुखिया वैधानिक अधिकारी है न कि निरंकुश पितृसत्ता का ।आधुनिक कानूनों के अनुसार स्त्रियों तथा बच्चों को अनके अधिकार प्राप्त हो गये हैं ।बच्चों पर माता तथा पिता दोनों का समान अधिकार होता है ।स्त्रियों की सामाजिक स्थिति ऊँची होती जा रही है ।पुरुष तथा स्त्री की स्थिति परिवार में समान होती है ।समसत्तात्मक परिवार नगरों में पाये जाते हैं ।बच्चो की शक्ति भी बढ़ती जा रही है ।माउरर ने उचित ही लिखा है , “वास्तव में परिस्थितियों में प्रबलता प्राप्त करने की ओर धयान देते हैं जिसमें बच्चा की नीति को निश्चित करती है ।अत: झुकाव सन्तानात्मक परिवार की ओर है जिसमें बच्चा प्रबल कार्य करता है “ यदि बच्चों की शक्ति इसी प्रकार बढ़ती जा रही है तो शीघ्र ही नगरीय परिवार सन्तानात्मक परिवार हो जायेगा ।
  1. परिवार के आकार में हास्र – नगरीय परिवार का आकार छोटा होता है ।पति, पत्नी, तथा बच्चों के अतिरिक्त अन्य सम्बन्धी साथ में बहुत कम रहते हैं ।अधिकतर नवविवाहित-युग्म अपने सास श्वसुर के साथ रहना पसंद नहीं करते हैं ।इतना ही नहीं अपितु कुछ देशों में तो बच्चे उत्पन्न करना भी माता-पिता उपयुक्त नहीं समझते हैं ।अमेरिका में नि:संतान परिवारों की संख्या अत्यधिक है ।जनगणना के अनुसार 48.9 प्रतिशत परिवारों में 18 वर्ष से कम उम्र का कोई भी बालक नहीं पाया गया तथा 21.3 प्रतिशत परिवारों में 18 वर्ष से कम उम्र का केवल 1 बालक पाया गया ।इंग्लैंड तथा वेल्स में 1951 ई० में औसत परिवार का आकार 3.72 व्यक्ति था ।1951 ई० में ही 6,89,000 व्यक्ति बिना घरबार के अकेले रहते हुए पाये गये ।अमेरिका में तो जनसंख्या अत्यधिक गिरती जा रही है तथा नेताओं को इसकी बड़ी चिंता है ।फाल्सम ने लिखा है “दो बच्चों का परिवार आजकल या व्यापक सामाजिक नियम या आदर्श है ।”  अमेरिका नगरीय परिवारों के प्रतिमानों का एक छोर है ।भारत में नगरीय सामाजिक संरचना में एकांकी परिवार को अच्छा माना जाता है ।यहां परिवार नियोजन का प्रचलन अधिक है ।
नगरीय परिवार में कृषि का कार्य न होने के कारण अधिक सदस्यों की आवश्यकता नहीं पड़ती ।अन्य आर्थिक कारक भी परिवार के आकार को छोटा रखते हैं ।प्राकृतिक रूप से भी नगरीय परिवार बड़ा नहीं हो पाता है क्योंकि यहां सन्तान निरोध के अनके साधन उपलब्ध हैं ।इन कारकों के फलस्वरूप नगरीय परिवार आकार की दृष्टि से बहुत छोटा है ।नगरीय पारिस्थितिकीय परिस्थितियाँ भी छोटे परिवार के प्रोत्साहित करती है ।
  1. अस्थायी परिवार – नगरीय परिवार अस्थायी होता है ।यहां सामाजिक गतिशीलता अत्यधिक है ।इसके फलस्वरूप परिवार एक स्थान से दुसरे स्थान को जाते रहते हैं ।यहां विवाह शीघ्रता में होता है तो विवाह विच्छेद भी अत्यधिक पाये जाते हैं ।भारत में जैसे रुढ़िवादी एवं धर्मपरायण देश में भी विवाह-विच्छेद स्वीकार कर लिया है ।अमेरिका में 1940 ई० में 168 बाल विवाहों में पाये गये ।नगरों में प्रेम विवाह का प्रचालन बढ़ता जा रहा है ।ये विवाह अधिक समय तक निरन्तर नहीं रह पाते ।इस कारण भी विवाह-विच्छेद की संख्या अधिक होती है ।
  2. घर अमहत्वपूर्ण – नगरीय परिवार के लिए घर नाम की वस्तु कोई महत्त्व नहीं रखती ।लोग किराये के मकानों तथा होटलों में रहना अधिक पसंद करते हैं ।नगरीकृत देश अमेरिका के विषय में यह अत्यंत सत्य है ।डॉ प्लांट ने लिखा है ।माउरर ने भी लिखा है कि शिकागों में टेलीफोन रखने वाली जनसंख्या एक स्थान पर औसत रूप से 2.83 वर्ष रहती है ।नगरों में भीड़-भाड़ की समस्या बड़ी व्यापक है ।इसलिए भी घर का महत्त्व क्षीण होता जा रहा है ।
  3. नातेदारी : कम महत्वपूर्ण – नगरीय परिवार के लिए नातेदारी का अधिक महत्त्व नहीं है ।लोग अपने रिश्तेदारों से अधिक सम्बन्ध नहीं रखते ।ग्रामों में व्यक्ति अपनी सामाजिक स्थिति को निश्चित करने के लिए अपने रिश्तेदारों का पूर्ण विवरण दिया करता है ।यहां परिवार उसकी सामाजिक स्थिति निश्चित करता है ।नगरीय परिवार इस दृष्टि से कोई महत्व नहीं है ।व्यकित आपके कार्य एवं योग्यता के द्वारा अपनी सामजिक स्थिति को प्राप्त करता है ।इन कारणों के फलस्वरूप नातेदारी का नगरीय परिवार के लिए कोई महत्त्व नहीं है ।नातेदारी रूढ़िवादिता से परिवापूर्ण मानी जाती है ।इससे सामाजिक नियंत्रण की संभावना अधिक होती है ।इसलिए नगरों में स्वछन्द प्रकृति का व्यक्ति इससे बचने की चेष्टा में रहता है ।
  4. स्त्रियों की परिवर्तित स्थिति – पुरुष परिवार का निरंकुश स्वामी नहीं है ।स्त्री के अधिकार परिवार में अधिक हैं ।कुछ देशों में तो स्त्रियों के अधिकार इतने बढ़ गये हैं कि लोगों को सन्देह है कि निकट भविष्य में परिवार मातृसत्तात्मक न बन जाय ।माउरर ने लिखा है ,”यधपि अब भी पति परिवार को नाम प्रदान करता है तथा उसकी पत्नी उसका उपनाम अधिक औपचारिक अवसरों पर प्रयोग किया करती है, इन तथ्यों के होते हुए भी पति अब अनके परिवारों में परिवार का मुखिया नहीं रहा ।वह अब पारिवारिक दायरे में उस निरंकुश राजा के सामान भी नहीं रहा, जिसके शब्द ही विधि हों ।वस्तुत: वह (पिता) भाग्यशाली है यदि उसके बच्चे उसे हस्तक्षेप करने वाले बाहरी व्यक्ति के समें नहीं समझते हैं अथवा प्रबन्ध करने वाले उस संबंधी की तरह जिसे सहयोग की बच्चों के किसी कार्यक्रम के प्रति उसकी पत्नी के विरोध को समाप्त करने के लिए आवशयक हो ।”
इसके विपरीत पत्नी पारिवारिक दायरे में अपने आपको अपने पति से उच्चतर नहीं हो पूर्णत: समान अवश्य समझती है ।वह पारिवारिक समूह के भाग्य को सहानभूतिपूर्वक नियंत्रित करती है लेकिन अल्प प्रतिज्ञ व्यक्ति की तरह नहीं ।वह दास वृत्ति करने वाली गुलाम नहीं हैं ।जहां तक बच्चों का प्रश्न है पिता से अधिक उसकी (माता की) आज्ञाओं पर धयान दिया जाता है ।स्पष्ट है कि पिरवार में स्त्रियों ने आर्थिक स्वतंत्रता के साथ-साथ सामाजिक तथा राजनैतिक शक्ति को भी प्राप्त किया है ।इसके फलस्वरूप परिवार में उनकी स्थिति उच्च है ।
  1. स्त्रियों के कार्य के प्रति – औद्योगिकक्रांति के फलस्वरूप विवाहित स्त्रियों का घर में काम बहुत हल्का हो गया है ।आर्थिक आवश्यकताएं भी इतनी बढ़ गयी हैं कि साधारण परिवारों को आमदनी पूरी नहीं पड़ती है ।इन कारणों से साधारणत: नगरीय परिवार की स्त्रियों के लिए यह अनिवार्य हो गया है और उन्हें बहार कार्य करना पड़ता है ।कुछ स्त्रियाँ जो उच्च शिक्षा प्राप्त करती हैं ।उदहारण के लिए, सामाजिक गतिविधियों जैसे महिला समिति, ताश खेलना, चाय पार्टी, राजनितिक गतिविधियाँ, सामाजिक सेवा कार्य, अन्य परमार्थीक तथा धार्मिक कार्य तथा कला एवं साहित्यिक गतिविधियाँ इत्यादि ।इन सबको नगरीय परिवार में स्त्रियों की स्थिति एवं कार्यों में महान परिवर्तन दिखाई देता है ।स्त्रियाँ स्वतंत्र रूप में सार्वजानिक जीवन में भाग ले सकती हैं ।वे घर के पिंजरे में बंद रहने वाली चिड़ियाएँ नहीं है ।
  2. यौन के प्रति बदलती धारणाएं – यौन के प्रति भी नगरी में विशष्ट धारणाएं पाई जाती हैं ।स्त्रियाँ तथा पुरुष साथ-साथ घूम-फिर सकते हैं तथा सम्बन्ध रख सकते हैं ।यौन के विषय में ज्ञान बढ़ता जा रहा है ।यौन शिक्षा पर अत्यधिक बल दिया जाता है ।स्त्रियों की यौन संबंधी स्वतंत्रता के कारण विवाह के पूर्व यौन सम्बन्धों की संख्या अधिक है ।इस दृष्टि से अधिक कहना कठिन है क्योंकि यह गुप्त कार्य तथा इनका अध्ययन अत्यंत कठिन है ।फिर भी इस प्रकार के कुछ अध्ययन अमेरिका इत्यादि देशों में किये गए हैं ।इन प्रवृतियों के कारण स्त्रियों का आधार भी बदला हुआ है ।फाल्सम ने उचित ही लिखा है, “पुन: आधुनिक लैंगिक स्वतंत्रता स्त्रियों को साधारण स्त्रियों में आदर्शस्वरुप बनने के लिए बाध्य करने के विपरीत उन्हें उनके व्यक्तित्व एवं आवश्यकता के अनुसार मौलिक रूप से प्रथक लैंगिक जीवन बिताने की अनुमति दे देती है ।” स्त्रियों तथा पुरुषों दोनों को ही यौन सम्बन्धों के समान अधिकार प्राप्त हैं ।यौन नैतिकता का दोहरा सिद्धांत नहीं है ।सदरलैंड तथा वुडवर्ड ने उचित ही लिखा है ,”यौन रुढियों में परिवर्तन के द्वारा परिवार पर अत्यधिक प्रभाव पड़ा है ।”
नगरों में परिवार संस्था में विघटन के लक्षण प्रतीत होते हैं ।प्रसिद्ध समाजशास्त्री जिम्मर मेन ने अपनी पुस्तक क्रईसेस इन अमेरिकन फैमली में इस दृष्टि से व्यापक रूप में प्रकाश डाला है ।नगरों में परिवार संस्था का ग्रामों से मौलिक रूप नहीं पाया जाता ।भारतीय नगरीय संरचना में भी विघटन के कगार पर खड़ी है ।इस संस्था में आज अनेक समस्याएं परिव्याप्त हो गई हैं ।
नगरीय परिवार की समस्यायें :
(i) पारिवारिक तनाव – नगरीय परिवार की सबसे बड़ी समस्या पति और पत्नी का सम्बन्ध है ।प्राचीन युग एवं आधुनिक युग में संघर्ष चल रहा है ।पति अपने को ऊंचा समझता है और पत्नी आपके को निम्न ।पूर्वकाल में स्त्री का कोई महत्त्व नहीं था ।वह बिना पढ़ी-लिखी एवं हर दृष्टिकोण से पति पर निर्भर थी ।जब वह पूर्ण स्वतंत्र एवं आत्मनिर्भर होती जा रही है ।यधपि सिद्धांत कर लिया गया है फिर भी एक-दुसरे के अधिकारों एवं कर्तव्यों की व्याख्या नहीं हो पायी है ।नगरों में पारिवारिक तनावों की संख्या अधिक पाई जाती है ।बच्चों में भी अनुशासनहीनता है ।
(ii) विवाह-विच्छेद – नगरीय परिवार की दूसरी प्रमुख समस्या विवाह विच्छेद का विकास होना है ।विवाह का आधार पवित्र समझौता न होकर वैज्ञानिक समझौता हो गया है ।जिसे चाहे जब तोडा जा सकता है ।विवाह का उदेश्य जीवन के कार्यों कि पूर्ति न होकर सुख, आनंद एवं भोग विलास की संतुष्टि हो गया है ।दोनों को आपस में बांधने से बंधन समाप्त हो गये हैं ।
(iii) माता-पिता व संतानों का संघर्ष – माता पिता एवं इनके बच्चे का संघर्ष दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है ।परिवार के साथ में कोई भी ऐसी शक्तियाँ नहीं हैं जिनके द्वारा माता पिता बच्चों पर नियंत्रण कर सकें ।परिवार के संरक्षकों व युवा संतानों में परस्पर मूल्यों का संघर्ष विकसित है ।युवाओं में अनुशासनहीनता बढ़ गई है ।
(iv) संतानों के पालन-पोषण की समस्याएं – पति और पत्नी दोनों ही घर के बाहर कार्य करने जाते हैं ।इसके कारण बच्चों के पालन-पोषण की समस्या बढ़ती जा रही है ।माता केवल घर की चाहदीवारी में न रह कर समाज के अन्य कार्यों एवं उत्सवों में भाग लेती है, इसके कारण वह बच्चों की देखभाल नहीं कर पति ।यधपि दूसरी व्यवस्थाएं की गई हैं, परन्तु वे संतोषजनक फल नहीं पा रही हैं ।
(v) सुरक्षा पर अभाव – पहले पति-पत्नी का सम्बन्ध स्थायी होता था और उसके कारण परिवार के सदस्यों में सुरक्षा की भावना रहती थी ।नगरीय पिरवार में इस भावना का लोप है क्योंकि दोनों को ही सदैव यह डर बना रहता है कि जाने कब दूसरा साथी मुझे छोड़ दे ।आपत्तिकाल में ऐसा अधिकांश रूप में देखा गया है कि किसी –न-किसी बहाने विवाह-विच्छेद हो जाता है ।
(vi) पारस्परिक विश्वास की कमी – पारस्परिक विश्वास की अत्यधिक कमी पायी जाती है ।एक दुसरे पर कोई विश्वास नहीं करता ।यह परिवार न होकर एक सयुंक्त समिति कंपनी हो गयी है ।
(vii) न्यून जन्म दर – जन्म दर दिन-प्रतिदिन गिरती जा रही है ।ऐसे बहुत से परिवार पाये जाते हैं, जिनसे बच्चे ही नहीं होते ।इसके कारण राष्ट्र की जनसंख्या को कम होती ही है साथ-ही-साथ परिवार अस्थायी होता जाता है ।बच्चों के कारण पति और पत्नी बंधन में बंध जाते हैं ।जिन परिवारों में बच्चे होते हैं उनमें विवाह विच्छेद कम होता है ।
क्या नगरों में पुरानी परम्परा के अनुसार परिवार रह सकता है ? – भारतीय नगरों में पुरानी परम्परा के अनुसार परिवारों का रह पाना बड़ा कठिन है क्योंकि आधुनिक समय में तीव्र एवं मौलिक परिवर्तन हो रहे हैं ।पुरानी परम्परा कृषि समाज के अनुसार है ।नगरीय परम्परा में और ग्रामीण परम्परा में परस्पर गहरा विरोध है ।स्वाभाविक है कि औधोगिकी और नगरीय समाजों में परिवार के नये प्रतिमान विकसित होंगे ।कोई भी संस्था क्यों न हो, संस्था का प्रमुख उदेश्य मानव आवश्यताओं की पूर्ति करना है ।जो संस्थाएं किसी समय में मानव आवश्यकताओं की पूर्ति करने में असमर्थ होते हैं, वे शैने:-शैने: समाप्त हो जाती है ।पुरानी परम्परा के परिवार आधुनिक समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर सकते हैं, इसलिए वे बने भी नहीं रह सकते हैं ।नगरों में परम्परागत परिवार के मौलिक कार्य करने वाली अनेक संस्थाओं का प्रचलन है ।इससे परिवार की कोई विशेष आवश्यकता अनुभव नहीं होती ।विशेष रूप से भारतीय नगरों में आज संयुक्त परिवार का तो कोई औचित्य प्रतीत नहीं होता ।
संयुक्त परिवार के दोष – समय के साथ-साथ संयुक्त परिवार तथा सामाजिक जीवन पिरवर्तित होता गया ।संयुक्त परिवार में अनके दोष उत्पन्न होते गये तथा वह समय की गति के साथ-साथ पग मिला न सका ।संयुक्त परिवार प्रथा के निम्न प्रमुख दोष हैं  :
  1. औपचारिक सम्बन्ध – संयुक्त परिवार में सदस्यों की संख्या अधिक होने के कारण आपस में सम्बन्ध घनिष्ट नहीं हो पाते तथा औपचारिक रहते हैं ।इसके फलस्वरूप आत्मीयता का अभाव रहता है जो परिवार में मनोवैज्ञानिक असुरक्षा को प्रदान करता है ।गृह पर्यावरण शुष्क तथा नीरस रहता है ।
  2. द्वेष एवं क्लेश का केंद्र – संयुक्त परिवार एक ऐसा स्थान होता है कि जहां पर सैदव द्वेष एवं कलेश बना रहता है, क्योंकि एक सदस्य का दुसरे सदस्य के हितों का संघर्ष होता रहता है ।स्त्रियों में सदैव मनमुटाव रहता है तथा छोटी छोटी बातों पर झगड़े होते रहते हैं ।इस पारिवारिक कलह का फल परिवार का विनाश होता है ।सरकार ने उचित लिखा है ,” संयुक्त परिवार में पले हिन्दू ऐसे स्वर्ग की कल्पना नहीं कर सकते जहां संयुक्त कुटुम्ब न हो ।” इन दैनिक विवादों और कलहों ने संयुक्त परिवार का जीवन बड़ा दु:खमय तथा नारकीय बन जाता है ।संसार में यदि किसी को नरक का दर्शन करना हो तो वह एक झगड़ालू संयुक्त परिवार को देख ले ।परिवार के सदस्यों का बहुत सा उपयोगी समय एवं शक्ति कलह के जीवन में नष्ट हो जाती है ।इसका एक प्रमुख दुष्परिणाम मुकदमेबाजी है ।
  3. आर्थिक निर्भरता – संयुक्त परिवार के कारण परिवार के अधिकांश सदस्य आर्थिक दृष्टि से परिवार पर निर्भर रहते हैं ।इसका स्वाभाविक फल यह होता है कि लोग कामचोरी का स्वाभाव बना लेते हैं ।
  4. अकर्मण्य व्यक्तियों की वृधि – संयुक्त परिवार की व्यवस्था के कारण अकर्मण्यता को प्रोत्साहन मिलता है तथा अकर्मण्य व्यक्तियों की वृधि होती है ।बहुत से लोग केवल इसलिए कार्यं नहीं करते, क्योंकि उन्हें संयुक्त परिवार में सब सुविधाएँ उपलब्ध है ।इसका वास्तविक फल यह होता है कि परिवार के कमाने वाले सदस्य असंतोष प्रकट करते हैं ।
  5. कमाने वाले में असंतोष – संयुक्त परिवार के कमाने वाले सदस्यों में अधिकांशत: असंतोष बना रहता है, क्योंकि उनकी गाढ़ी कमाई दूसरों पर व्यय होती है तथा ये निठल्ले आनंद करते हैं ।काई बार तो कमाने वाले सदस्य परिश्रम भी कम करने लगते हैं, क्योंकि उस कमाई का फल उनको नहीं मिलता ।
  6. भय का पर्यावरण – संयुक्त परिवार में भय का पर्यावरण बना रहता है ।इसके फलस्वरूप सदस्यों का व्यवहार औपचारिक हो जाता है तथा उनका विकास नहीं हो पाता ।
  7. गोपनीय स्थान का अभाव – संयक्त परिवार में सदस्यों की संख्या अधिक होने के कारण गोपनीय स्थान का अभाव रहता है ।इसके फलस्वरूप पति-पत्नी एक-दुसरे से भी मिल नहीं पाते हैं ।लिंग सम्बन्ध अर्ध-सार्वजनिक बन जाते हैं ।बच्चों पर भी अनैतिक प्रभाव पड़ता है तथा उनकी आदतें बचपन से ही ख़राब होती है ।
  8. स्त्रियों की दुर्दशा – संयुक्त परिवार में स्त्रियों की दशा अत्यंत दयनीय रहती है ।स्त्री को अपने पति का सुख नहीं प्राप्त होता है ।डॉक्टर राज्नेद्र प्रसाद ने उचित लिखा है :”पति-पत्नी इतनी कृत्रिम एवं अस्वाभाविक परिस्थितियों में मिलते हैं कि उनमें प्रेम का विकास तो दूर की बात है, मामूली परिचय भी कम होता है।” स्त्रियों का जीवन केवल भोजन बनाने में ही बिताता है तथा उनके व्यक्तित्व का विकास बिल्कुल भी नहीं हो पाता ।सास, ननद, तथा बहु का झगड़ा सदैव होता रहता है ।बहु को ये लोग इतना तंग करते हैं कि उसका जीवन दुर्लभ हो जाता है ।अनके आत्महत्याओं की चर्चा नित्य होती रहती हैं ।स्त्री का जीवन संयुक्त परिवार में अवतरित सेवा का एक दीर्धकाल होता है तथा उसे दासी के समान कार्य करना पड़ता है ।इतना कार्य करते हुए भी उसका छोटी-छोटी बातों पर जानबूझ कर अपमान किया जाता है ।उस घर की कल्पना हम कर सकते हैं जिसमें स्त्रियाँ दुःख एवं दरिद्रता से पीड़ित सदैव भाग्य को कोसती रहती हैं ।
  9. बाल-विवाहों को प्रोत्साहन – संयुक्त परिवार बाल-विवाहों को प्रोत्साहित करता है ।बाल-विवाह प्रत्येक दृष्टि से हानिकारक है, परन्तु संयुक्त परिवार होने के कारण बच्चों का विवाह बहुत छोटी आयु में कर दिया जाता है ।विवाह करने वाले व्यकित को विवाह योग्य तथा पत्नी के पालन करने की क्षमता के विकसित होने का प्रश्न ही नहीं उठता ।जब तक वह विवाह के अर्थ को समझ पाता है तब तक अपने को अत्यधिक भार से दबा हुआ अनेक बच्चों का बाप पाता है ।
  10. अधिक संतान उत्पादन – संयुक्त परिवार के फलस्वरूप संताने भी अधिक होती हैं ।प्रथम तो बाल-विवाह होने के कारण अधिक संताने होती हैं, तथा द्वितीय कोई जिम्मेदारी न होने के कारण लोग अंधाधुंध सन्ताने उत्पन्न करते हैं ।
  11. व्यक्तित्व के विकास में बाधक – संयुक्त परिवार व्यक्तित्व के विकास में भी अनके बाधाएं उपस्थित करता है ।बाल्यावस्था से परतंत्र तथा परोपजीवी रहने से परिवार के सदस्यों में अपने पैरों पर खड़े होने की क्षमता नहीं विकसित होती ।स्वालंबन का पाठ वह नहीं पढ़ पाता ।वह अपनी आत्मा का विकास और वैयक्तिक योग्यताओं की वृधि भी नहीं कर सकता ।एक निरंकुश सत्ता के नीचे रहते हुए उकसा विकास कैसे संभव हो सकता है ? परिवार में सदस्यों की संख्या अधिक होने के कारण व्यक्तिगत धयान किसी की भी ओर नहीं दिया जा सकता ।ऐसे अवस्था में व्यक्तित्व के विकास का प्रश्न ही नहीं उठता ।कठोर अनुशासन के कारण व्यक्ति की क्षमताएं मर जाती है ।व्यैक्तिक स्वाधीनता का संयुक्त परिवार में कोई स्थान नहीं है ।
  12. अप्राकृतिक – संयुक्त परिवार अप्राकृतिक प्रतीत होते हैं, क्योंकि जो प्रेम बच्चे के प्रति माता और पिता का है वह दूसरों का नहीं हो सकता ।परन्तु संयुक्त परिवार में सदस्यों को इस बात के लिए परिस्थितियां विवश करती हैं ।वे अपने बच्चों की देख-रेख नहीं कर पाते ।पति और पत्नी केवल मैथुन करने भर के साथी रह जाते हैं ।
संयुक्त परिवार के उपरोक्त दोषों के अतिरिक्त अन्य कारण भी हैं जो इसे विघटित कर रहे हैं ।अब हम उन कारकों पर प्रकाश डालेंगे ।
नगरों में संयुक्त परिवार को विघटित करने वाले कारक
  1. वर्तमान आर्थिक व्यवस्था – संयुक्त परिवार को विघटित करने वाले कारकों में वर्त्तमान आर्थिक व्यवस्था महत्वूपर्ण है ।औद्योगिकक्रांति से आर्थिक उत्पादन की प्रक्रिया में मौलिक परिवर्तन हो गए हैं ।एक कृषि-प्रधान देश के स्थान पर नवीन औद्योगिकदेश का निर्माण हो रहा है ।हजारों किसान प्रात: काल,  बैल तथा हल के साथ अपने संयुक्त परिवार से गावों से बहुत दूर खेतों की ओर न जाकर मिल की सीटी की ध्वनि पर बड़े-बड़े नगरों में अपने गावों से बहुत दूर मशीनों पर कार्य करने जाते हैं ।ग्राम उजड़ रहे हैं तथा नवीन विशाल नगर बस रहे हैं ।लोग अधिकाधिक अपने संयुक्त परिवारों को छोड़ कर अपने जीविकोपार्जन के स्थान पर जा रहे हैं ।परिवार उत्पादक की इकाई नहीं रह गया है ।व्यक्ति अपनी जीविका परिवार से दूर रहकर भी कमा सकता है ।कहने का तात्पर्य यह है कि वर्तमान नवीन आर्थिक व्यवस्था ने व्यक्ति को आर्थिक स्वालम्बन प्रदान किया है ।इसके फलस्वरूप संयुक्त परिवार विघटित होते जा रहे हैं ।
  2. पाश्चात्य सभ्यता का संघात – संयुक्त परिवार को विघटित करने का दूसरा कारक पाश्चात्य सभ्यता का संघात है ।नवीन विचारधारा देश में प्रचलित होती जा रही है ।पूर्व और पश्चिम में एक मौलिक मतभेद है ।पश्चिम के मनुष्य के अधिकारों पर अधिक बल दिया जाता है, पूर्व में कर्तव्यों पर ।पश्चिमी का सारा प्रयत्न इसी दिशा में है कि व्यक्तियों के स्वत्वों को सुरक्षित बनाया जाय ।पूर्वी सभ्यताएं इस बात पर जोर देते हुए नहीं थकती कि प्रत्येक मनुष्य को अपने दायित्व को पूर्ण करना चाहिए ।नवीन विचारधारा का प्रभाव हो रहा है ।आर्थिक क्षेत्र में पूंजीवाद, दार्शनिक क्षेत्र में सहिष्णुतावाद तथा सामाजिक एवं राजनितिक व्यवस्थाओं में समानता का सिद्धांत प्रचलित हो रहा है ।व्यक्ति का महत्त्व बढ़ रहा है ।इन प्रवृतियों स्वतंत्रता, सामाजिक स्वतंत्रता, आर्थिक स्वतंत्रता, पारिवारिक स्वतंत्रता तथा राजनैतिक स्वतंत्रता के आदर्श विकसित हो गये हैं ।समष्टिवाद का बोलबाला है ।इन परिवर्तनों के कारण संयुक्त परिवार की आधारभूत शिलाएं नष्ट होती जा रही है ।
  3. पाश्चात्य शिक्षा – पाश्चात्य शिक्षा भी संयुक्त परिवार को विघटित कर रही है ।इस शिक्षा के द्वारा नवीन विचार युवकों को प्राप्त होते हैं तथा इसका प्रभाव सामाजिक व्यवस्था पर पड़ता है ।
  4. स्त्री शिक्षा- स्त्री-शिक्षा के भी संयुक्त परिवार को विघटित कर रही है ।अधिकांश शिक्षित स्त्रियाँ संयुक्त परिवार में नहीं रहना चाहती ।आज की शिक्षित स्त्रियाँ परिवार के अस्वाभाविक जीवन को भय से देखती हैं ।स्त्री-शिक्षा भी बढ़ती जा रही है ।
  5. अंग्रेजों द्वारा हिन्दू कानून का प्रयोग – अंग्रेजी न्यायालयों द्वारा हिन्दू कानून को विज्ञानेश्वर तथा जीमूतवाहन के आधार पर मान लिया गया ।इन दोनों शास्त्रकारों ने संयुक्त परिवार प्रथा को स्वीकार किया है ।अंग्रेजी न्यायालय हिन्दुओं के पारिवारिक संगठन तथा संस्कृत भाषा से परिचित नहीं थे ।इसका फल यह हुआ है कि हिन्दू कानून का उद्विकास वहीँ पर रुक गया ।इन दोनों कानूनों विशेषज्ञों की व्याख्या स्वीकार करने के कारण दो विचारधाराओं का जन्म हुआ, द्यानाग तथा मिताक्षरा ।नन्दा पंडित, नीलकंठ तथा वालभटट के लेखों पर कोई भी धयान नहीं दिया गया ।परिणामस्वरूप हिन्दू कानून का विकास एवं गतिशीलता समाप्त हो गयी ।इसके अतिरिक्त अंग्रेजी कानून के न्याय के सिद्धांत को हिन्दू समाज पर लागू किया ।इसके कारण संयुक्त परिवार विघटित होता गया ।
  6. नवीन अधिनियमों का प्रभाव – ब्रिटिश शासन ने नये-नये अधिनियम पारित किये जो संयुक्त परिवार की प्रवृति के विरुद्ध थे ।ब्रिटिश न्यायालय भी इस प्रकार के निर्णय देते थे ।जिसके कारण संयुक्त परिवार को क्षति पहुंचती थी ।डॉक्टर राधाकमल मुखर्जी ने उचित ही लिखा है : “इस प्रकार संयुक्त परिवार एक बहुत महत्वपूर्ण विसेषता खो रहा है ।संयुक्त परिवार वर्त्तमान समय में न्यायालयों द्वारा प्रोत्साहित की जाने वाली व्यष्टिवादी प्रवृतियों का शिकार बन रहा है ।” संयुक्त परिवार में स्त्रियों को सम्पत्ति का अधिकार देकर और भी अधिक संयुक्त परिवार का विघटन किया जा रहा है ।आधुनिक अन्य विधान भी संयुक्त परिवार को विघटित कर रहे हैं ।डॉक्टर कपाडिया ने उचित ही लिखा है “वे (अधिनियम) न्यायालयों द्वार मौलिकता प्राप्त किये हुए विघटन के कार्य को आगे बढ़ाते हैं ।
  7. नवीन सामाजिक सुरक्षाएं – वर्त्तमान समय में अनेक सामाजिक सुरक्षाओं की व्यवस्था की जा रही है ।प्राय: हर विभाग में ही अनिवार्य बीमा, प्रोविडेंट फंड, बोनस योजना इत्यादि का प्रबन्ध हो रहा है ।पेंशन भी इसी प्रकार की व्यवस्था है ।विभिन्न प्रकार के श्रमिकों के लिए जो भी कल्याण योजनाएं लागू की जा रही है ।वे सभी इनके अंतर्गत आ जाती है ।ये समस्त सामाजिक सुरक्षाएं परिवार की जड़ों को खोखला कर रही है ।
डॉ कपाडिया तथा डॉ देसाई दोनों ने ही यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि संयुक्त परिवार अभी भी प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं तथा एकांकी परिवार की पवृति अधिक नहीं है ।डॉ कपाडिया ने लिखा है , “इस प्रकार आज भी हिन्दू भावनाएं संयुक्त परिवार के पक्ष में हैं।” इन विद्वान समाजशास्त्रियों ने निष्कर्ष की प्रवृति से मेरा विनम्र मतभेद है ।” जहां तक डॉ देसाई द्वारा संयुक्त परिवार की परिभाषा का आधार परम्प्रात्मक लक्षणों के स्थान पर नवीन लक्षणों का है, वह एक सराहनीय तथ्य है ।उन्होंने इस पक्ष पर बल देकर संयुक्त परिवार के वास्तविक स्वरुप को स्पस्ट कर दिया है ।वास्तव में केवल परिवारों के पृथक रहने या भोजन करने इत्यादि से ही उन्हें एकांकी परिवार नहीं समझ लेना चाहिए ।इस पर भी यह निश्चित है कि संयुक्त परिवारों की संख्या में दिन-प्रतिदिन हास्र होता जा रहा है तथा एकांकी परिवारों की संख्या में वृधि होती जा रही है ।यह कहना उचित नहीं होगा होता कि एकांकी परिवारों की संख्या में वृधि  हैं ।अन्यत्र इन दोनों ही लेखकों ने अप्रत्यक्ष रूप से इस तथ्य को स्वीकार किया है ।भारत के जनगणना आयुक्त के अनुसार एकांकी परिवार ग्रामों में 33 प्रतिशत तथा नगरों में 38 प्रतिशत पाये जाते हैं ।डॉ देसाई द्वारा निर्मित कठोर कसौटियों पर चढ़ने के उपरान्त उनके अध्ययन में 28 प्रतिशत परिवार एकांकी पाये गये ।भविष्य की गति इंगित करने के लिए परम्परा से इतना अंतर पर्याप्त है ।इसके लिए तथ्यों के होते हुए तर्क की आवश्यकता नहीं है ।डॉ कपाडिया ने भी लिखा है, “इन दोनों अन्वेषणों के परिणाम यह स्पष्ट करते हैं कि पिछले 20 वर्षों में स्न्तातकों का संयुक्त परिवार में रहना लगभग 5 प्रतिशत कम हो गया है ।परन्तु संयुक्त परिवार में रहने की इच्छा अत्यधिक बढ़ गयी है ।जो संयुक्त परिवार में रहना चाहते हैं उनकी संख्य दुगुनी हो गयी है तथा इसके विरोधियों की आधी रह गयी है ।
“परिवार की तुलना समाजशास्त्रिय अध्ययन” का अर्थ है कि परिवार का विभिन्न संस्कृतियों, समुदायों, क्षेत्रों आदि में पाये जाने वाले प्रतिमानों की तुलना की जाये ।यह बहुत ही अधिक व्यापक विषय एवं कार्य है ।
यहां हम ग्रामीण परिवार और नगरीय परिवार की तुलना करेंगे ।ग्रामीण परिवार परम्परात्मक परिवार होते हैं और नगरीय परिवार आधुनिक परिवार होते हैं ।अत: परम्परात्कम परिवार और आधुनिक परिवार की तुलना भी इससे स्पष्ट हो जायेगी ।
ग्रामीण परिवार और नगरिय परिवार की तुलना :
संचार सम्बन्धी :
(i) स्थायित्व : ग्रामीण परिवार की संरचना अधिक स्थायी एवं संगठित होती है, परन्तु तुलनात्मक दृष्टि से नगरीय परिवार की संरचना उतनी स्थायी एवं संगठित नहीं होती हैं ।अस्थायित्व नगरीयवाद का अभिशाप है ।
(ii) आकार – ग्रामीण परिवारों का आकार नगरीय परिवारों की तुलना में बड़ा होता है ।ग्रामों में कृषि के व्यवसाय के कारण बढ़े परिवार की आवश्यकता भी रहती है ।नगरीय परिवार का आकार लघू होता है और प्राय: यह मूल परिवार ही होती है, जिसमें पति, पत्नी और उनके बच्चे होते हैं ।जन्मदर भी ग्रामीण परिवारों की अधिक होती है, नगरीय परिवार के व्यक्ति अधिक बच्चे पसंद भी नहीं करते हैं ।
(iii) स्वरुप – ग्रामीण परिवार अभी अधिकांशत: विस्तृत परिवार अथवा संयुक्त परिवार होते हैं ।नगरीय परिवर अधिकांशत: एकांकी परिवार होते हैं ।
(iv) सामंजस्य – ग्रामीण परिवारों में अत्यधिक सामंजस्य पाया जाता है तथा पारिवारिक बन्धन अत्यंत शक्तिशाली होते हैं ।नगरीय परिवार में अपेक्षाकृत अति न्यून सामंजस्य पाया जाता है ।सदस्य अपनी खिचड़ी पकाते हैं ।
(v) मुखिया की सत्ता – ग्रामीण परिवार के मुखिया की सत्ता अपरिमित होती है ।वह ग्रामीण परिवारों का एकमात्र शासक होता है ।नगरीय परिवारों में मुखिया की सत्ता अधिक नहीं होती, कई बार तो बिल्कुल ही नहीं होती है ।
(vi) सामान्य जीवन – ग्रामीण परिवार में सामान्य जीवन की प्रमुखता पायी जाती है ।माता-पिता, बच्चे तथा अन्य संबंधी अधिकतर साथ-साथ कार्य करते हैं ।उनमें अत्यधिक सहयोग की भावना पायी जाती है ।नगरीय परिवारों में मान्य पारिवारिक जीवन का अभाव पाया जाता है ।परिवार के सदस्य अधिकांश समय घर के बाहर बीतते हैं तथा बहुत कम समय के लिए साथ-साथ रहते हैं ।डॉक्टर देसाई ने उचित ही लिखा है. “अत: नगरीय परिवार के सदस्यों के लिए घर केवल एक अस्थायी रात्रि का डेरा मात्र रह जाता है ।”
(vii) पारिवारिक महत्त्व – ग्रामीण परिवार एक अत्यंत महत्वपूर्ण संस्था है तथा उसे ग्रामीण समाज का मूल आधार कहा जा सकता है ।नगरीय परिवार इतना महत्वपूर्ण नहीं है ।उसके सदस्य परिवार को त्याग कर भी सरलता से आन्दमय जीवनयापन कर सकते हैं ।
(viii) अन्योन्याश्रितता – ग्रामीण परिवारों में सदस्य एक दुसरे पर अत्यधिक मात्रा में अन्योन्याश्रित होते हैं ।वे एक-दुसरे के सहयोग के बिना जीवन नहीं चला सकते ।नगरीय परिवार में इतनी अधिक अन्योन्याश्रितता नहीं पायी जाती है ।नगरीय परिवार के सदस्य अधिक स्वतंत्र होते हैं ।
(ix) अनुशासन – ग्रामीण परिवार के सदस्य अधिक अनुशासित होते हैं ।वे परिवार के मुखिया एवं अन्य प्रमुख सदस्यों का अत्यधिक आदर करते हैं तथा उनकी आज्ञा का पालन करते हैं ।नगरीय परिवार के सदस्य अपेक्षाकृत कम अनुशासित होते हैं ।वे परिवार के मुखिया को अधिक महत्त्व नहीं देते तथा अपने स्वतंत्र विचार रखते हैं एवं स्वतंत्र रूप से कार्य करते हैं ।
(x) सामाजिक नियंत्रण – ग्रामीण परिवार अपने सदस्यों पर अत्याधिक सामाजिक नियंत्रण रखते हैं ।छोटा समुदाय होने के कारण कोई भी बात छिपी नहीं रह सकती ।इसके कारण परिवार का नियंत्रण अधिक रहता है ।नगरीय परिवार सामाजिक नियंत्रण की दृष्टि से पूर्णरूपेण असफल रहा है ।
(xi) सामाजिक संरचना में परिवार का महत्त्व – ग्रामीण परिवार का सामाजिक संरचना में अत्यधिक महत्त्व है ।ग्रामीण सामाजिक संरचना में परिवार ने सदैव ही महत्वपूर्ण स्थान रखा है ।ग्रामीण समाजिक संरचना ग्रामीण परिवार का सत्य प्रतिरूप है ।सिम्स ने लिखा है, “निश्चय ही यह (ग्रामीण परिवार) उसकी (ग्रामीण सामाजिक संरचना) सदैव से ही प्रमुख संस्था रही है, जो व्यक्ति को स्थिति प्रदान करती रही है तथा सामाजिक संरचना पर छाया रहता है और उसकी छाप हर संस्था पर स्पष्ट लक्षित होती है ।ग्रामीण समाज को ही परिवारात्मक समाज कहा गया है ।            नगरीय परिवार का महत्त्व समाजिक संरचना में उतना अधिक नहीं है ।नगरीय परिवार नगरीय सामाजिक संरचना की एक साधारण संस्था है ।नगरीय परिवार का अधिक प्रभाव नगरीय सामजिक संरचना पर नहीं पड़ता है ।
कार्य – ग्रामीण एवं नगरीय परिवारों के कार्यों में भी बहुत से अंतर हैं जो प्रमुख रूप से निम्न हैं :
(i) प्रानिशास्त्रीय कार्य - प्रानिशास्त्रीय कार्य निम्न हैं –
(अ)  संतानोत्पत्ति, (ब) यौन-सम्बन्धों की संतुष्टि, (स) बच्चों का पालन-पोषण, (द) स्थान की व्यवस्था (य) भोजन एवं वस्त्र की व्यवस्था और (र) सदस्यों की शारीरिक रक्षा ।(अ) से लेकर (य) तक के कार्य तो ग्रामीण एवं नगरीय दोनों ही करते हैं कहीं-कहीं अंशों का अंतर है ।
सदस्यों की शारीरिक रक्षा का कार्य ग्रामीण परिवार को विशेष को विशेष रूप से करना पड़ता है और यह उसका विशेष उत्तरदायित्व एवं कर्त्तव्य समझा जाता है ।ग्रामों में शक्तिशाली परिवार के आधार पर ही शरीर की रक्षा की जा सकती है ।
(ii) आर्थिक कार्य – ग्रामीण परिवार अभी भी आर्थिक क्रियाओं के केंद्र है ।ग्रामीण परिवार का कार्य उत्पादन करना, वस्तुओं को बिक्री के योग्य बनाना, उनका विक्रय करना आदि सभी हैं ।नगरीय परिवार आर्थिक क्रियाओं का केंद्र नहीं रहा है वह तो केवल उपभोग का केंद्र रह गया है ।
(iii) सामाजिक कार्य :
(अ) सामाजिक स्थिति का निर्धारण – ग्रामीण परिवार अपने सदस्यों की समाजिक स्थिति निर्धारण करता है ।ग्रामीण समाज में व्यक्ति की सामाजिकता स्थिति के निर्धारण में परिवार का आधार सबे प्रमुख है ।चुनावों एवं राजनितिक व सामाजिक नेतृत्व में भी पिरवार का आधार बहुत महत्वपूर्ण रहता है ।नगरीय परिवार का महत्त्व सामाजिक स्थिति के निर्धारण में अब उतना नहीं है ।व्यक्ति अपनी सामाजिक स्थिति अर्जित करता है ।नगरों में व्यक्ति के गुणों एवं कार्यों का महत्व है न कि उसके परिवार का ।
(आ) सामाजिक नियंत्रण : ग्रामीण परिवार नगरीय परिवार की तुलना में सामाजिक नियंत्रण की दृष्टि से अधिक महत्वूपर्ण है ।
(इ)   धार्मिक कार्य : धार्मिक कार्यों का प्रतिपादन ग्रामीण परिवारों में अधिक होता है ।नगरीय परिवार धार्मिक कार्यों के प्रति उदासीन हैं ।
http://hi.vikaspedia.in/health/nrhm/92891793094092f-93892e93e91c-915940-93894d93593e93894d92594d92f-93892e93894d92f93e90f902