रोग निर्णय के सोपान -
किन ग्रहों का विचार करना है- फलदीपिकानुसार रोग निर्णय के लिए जिन ग्रहों का विचार करना चाहिए वे हैं- (1) छठे भाव में स्थित ग्रह, (2) अष्टम भाव में स्थित ग्रह, (3) बारहवें भाव में स्थित ग्रह, (4) छठे भाव का स्वामी, (5) षष्ठेश से युति कर रहे ग्रह।
षष्ठेश रोग का स्वामी है इसलिए षष्ठेश की स्थिति का अध्ययन अत्यंत महत्वपूर्ण है। मानसागरी में षष्ठेश के विभिन्न भावों में फल का बहुत अच्छा वर्णन किया गया है। यदि सिर्फ रोग के संदर्भ में देखा जाए तो षष्ठेश लगA में आरोग्य देते हैं, द्वितीय भाव में व्याधि युक्त शरीर देते हैं, तृतीय भाव में षष्ठेश व्यक्ति को ल़डाई-झगडे़ करने की प्रवृति देते हैं, चतुर्थ भाव में जाने पर पिता को रोगी बनाते है, पंचम भाव में पुत्र के कारण कष्ट प्राप्त होता है, षष्ठेश छठे भाव में होकर आरोग्य देते हैं, शत्रु रहित और कष्टरहित जीवन देते हैं, सप्तम भाव में षष्ठेश पत्नी से कष्ट दिलाते हैं। अष्टम के संदर्भ में ग्रहों का वर्णन भी है। यदि षष्ठेश शनि हो तो संग्रहणी रोग होता है। मंगल हो तो सर्प से खतरा, बुध हो तो विष दोष, चन्द्रमा हो तो शीतादि दोष, सूर्य हो तो जानवर से भय, बृहस्पति हो तो पागलपन और शुक्र हो तो नेत्र रोग होता है। नवें भाव में जाने पर ष्ाष्ठेश लंगडापन देता है। दशम में माता से कष्ट और विरोध देता है, एकादश में शत्रु चोरादि से भय देता है और द्वादशभाव में ष्ाष्ठेश व्यक्ति को अकर्मठ बना देता है।
ग्रहों का नैसर्गिक कारकत्व - तत्व आदि -
हम ज्योतिष मंथन के माध्यम से समय-समय पर ग्रहों के नैसर्गिक कारकत्वों पर ध्यान केन्द्रित करने की बात करते रहे हैं। एक बार पुन: यही दोहरा रहे हैं। मेडिकल एस्ट्रोलॉजी में सटीक परिणाम पर पहुँचने के लिए ग्रहों के नैसर्गिक कारकत्व तत्व आदि पर ध्यान देना बहुत आवश्यक है। फलदीपिका के अनुसार सूर्य और मंगल तेज के अधिष्ठाता हैं और दृष्टि पर इनका अधिकार है। चन्द्रमा और शुक्र जल तत्व के होने के कारण रसेन्द्रिय के अधिष्ठाता हैं इसलिए शरीर के एन्डोक्राइन सिस्टम यानि हार्मोन ग्रंथियों पर इनका अधिकार है। बुध पृथ्वी तत्व के होने के कारण घ्राणेन्द्रिय हैं। बृहस्पति में आकाश तत्व प्रधान होने से वे श्रवणेन्द्रिय के अधिष्ठाता हैं। शनि, राहु और केतु वायु के अधिष्ठाता हैं इसलिए स्पर्श का विचार इनसे करना चाहिए। ग्रहों से होने वाले संभावित रोग की विवेचना में नैसर्गिक कारकत्व के साथ-साथ काल पुरूष की कुण्डली में उस ग्रह की राशि का विचार भी करें। उदाहरण के लिए सूर्य हड्डी के नैसर्गिक प्रतिनिधि हैं इसलिए हड्डी से जुडी बीमारियां सूर्य से देखी जाती हैं। कालपुरूष की कुण्डली में सूर्य की राशि पंचम भाव में आती है जो नाभि के आसपास का क्षेत्र है। इसलिए सूर्य से नाभि प्रदेश और कोख की बीमारियां दोनों देखी जानी चाहिए। इसी तरह सूर्य पित्त का प्रतिनिधित्व भी करते हैं। इसलिए यदि सूर्य से रोग निर्धारण कर रहे हैं तो इन सभी बिन्दुओं पर ध्यान रखना होगा।
किन ग्रहों का विचार करना है- फलदीपिकानुसार रोग निर्णय के लिए जिन ग्रहों का विचार करना चाहिए वे हैं- (1) छठे भाव में स्थित ग्रह, (2) अष्टम भाव में स्थित ग्रह, (3) बारहवें भाव में स्थित ग्रह, (4) छठे भाव का स्वामी, (5) षष्ठेश से युति कर रहे ग्रह।
षष्ठेश रोग का स्वामी है इसलिए षष्ठेश की स्थिति का अध्ययन अत्यंत महत्वपूर्ण है। मानसागरी में षष्ठेश के विभिन्न भावों में फल का बहुत अच्छा वर्णन किया गया है। यदि सिर्फ रोग के संदर्भ में देखा जाए तो षष्ठेश लगA में आरोग्य देते हैं, द्वितीय भाव में व्याधि युक्त शरीर देते हैं, तृतीय भाव में षष्ठेश व्यक्ति को ल़डाई-झगडे़ करने की प्रवृति देते हैं, चतुर्थ भाव में जाने पर पिता को रोगी बनाते है, पंचम भाव में पुत्र के कारण कष्ट प्राप्त होता है, षष्ठेश छठे भाव में होकर आरोग्य देते हैं, शत्रु रहित और कष्टरहित जीवन देते हैं, सप्तम भाव में षष्ठेश पत्नी से कष्ट दिलाते हैं। अष्टम के संदर्भ में ग्रहों का वर्णन भी है। यदि षष्ठेश शनि हो तो संग्रहणी रोग होता है। मंगल हो तो सर्प से खतरा, बुध हो तो विष दोष, चन्द्रमा हो तो शीतादि दोष, सूर्य हो तो जानवर से भय, बृहस्पति हो तो पागलपन और शुक्र हो तो नेत्र रोग होता है। नवें भाव में जाने पर ष्ाष्ठेश लंगडापन देता है। दशम में माता से कष्ट और विरोध देता है, एकादश में शत्रु चोरादि से भय देता है और द्वादशभाव में ष्ाष्ठेश व्यक्ति को अकर्मठ बना देता है।
ग्रहों का नैसर्गिक कारकत्व - तत्व आदि -
हम ज्योतिष मंथन के माध्यम से समय-समय पर ग्रहों के नैसर्गिक कारकत्वों पर ध्यान केन्द्रित करने की बात करते रहे हैं। एक बार पुन: यही दोहरा रहे हैं। मेडिकल एस्ट्रोलॉजी में सटीक परिणाम पर पहुँचने के लिए ग्रहों के नैसर्गिक कारकत्व तत्व आदि पर ध्यान देना बहुत आवश्यक है। फलदीपिका के अनुसार सूर्य और मंगल तेज के अधिष्ठाता हैं और दृष्टि पर इनका अधिकार है। चन्द्रमा और शुक्र जल तत्व के होने के कारण रसेन्द्रिय के अधिष्ठाता हैं इसलिए शरीर के एन्डोक्राइन सिस्टम यानि हार्मोन ग्रंथियों पर इनका अधिकार है। बुध पृथ्वी तत्व के होने के कारण घ्राणेन्द्रिय हैं। बृहस्पति में आकाश तत्व प्रधान होने से वे श्रवणेन्द्रिय के अधिष्ठाता हैं। शनि, राहु और केतु वायु के अधिष्ठाता हैं इसलिए स्पर्श का विचार इनसे करना चाहिए। ग्रहों से होने वाले संभावित रोग की विवेचना में नैसर्गिक कारकत्व के साथ-साथ काल पुरूष की कुण्डली में उस ग्रह की राशि का विचार भी करें। उदाहरण के लिए सूर्य हड्डी के नैसर्गिक प्रतिनिधि हैं इसलिए हड्डी से जुडी बीमारियां सूर्य से देखी जाती हैं। कालपुरूष की कुण्डली में सूर्य की राशि पंचम भाव में आती है जो नाभि के आसपास का क्षेत्र है। इसलिए सूर्य से नाभि प्रदेश और कोख की बीमारियां दोनों देखी जानी चाहिए। इसी तरह सूर्य पित्त का प्रतिनिधित्व भी करते हैं। इसलिए यदि सूर्य से रोग निर्धारण कर रहे हैं तो इन सभी बिन्दुओं पर ध्यान रखना होगा।
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