अन्तःकक्षीय(Indoor Plants) का आजकल काफी चलन है,इसे सोच-विचार कर ही लगाना चाहिए।छोटे मकानों में इन पौधों को रखना उचित नहीं है। विशेषकर ऐसे भवन में जिसके तल की ऊँचाई पन्द्रह फीट से कम न हो,यानी आकाश तत्व प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हो, इन्डोरप्लान्ट्स रखे जा सकते हैं- बरामदे,बालकनी, हाल आदि में;किन्तु उनमें भी कैक्टस आदि कांटेदार प्लान्टों से परहेज करना चाहिए। थूहर(सीज) नामक नागफनी की एक प्रजाति को प्रायः लोग दरवाजे के आसपास लगा देते हैं,यह उचित नहीं है।इसे नैऋत्य कोण में लगाया जा सकता है। गेंदा,गुलाब,गुलदावदी,डहेलिया,आदि विभिन्न प्रकार के सुन्दर-सुगन्धित पुष्पों को उत्तर-पूर्व भाग में लगाना उत्तम है। ओड़हुल (जवा, जपा), चम्पा और रजनीगन्धा की दूरी अपेक्षाकृत अधिक होनी चाहिए, अन्य पुष्प-पादपों से। कटहली चम्पा वृक्षाकार होता है,तदनुसार इसकी दूरी और अधिक हो।केवड़ा वर्जित पुष्पों में है।इसका प्रयोग किसी भी देवपूजन में नहीं होता।भले ही काफी मोहक होता है। इसमें औषधीय गुण हैं। इसे वास्तुमंडल से दस-पन्द्रह हाथ दूर ही रखना उचित है। इसमें सर्प को आहूत करने की अद्भुत क्षमता है।अतः केवड़े के समीप नागदमनी भी अवश्य लगायें।नारियल,सुपारी,अशोक,पुन्नाग(नागकेसर), बकुल (मौलश्री),कटहल,कदम्ब,शमी,ह रश्रिंगार,श्वेत वा रक्त मन्दार आदि विशिष्ट दोषनिवारक पौधे हैं। इन्हें किसी अन्य दोषपूर्ण पौधे के मध्य क्षेत्र में,उनके दोषनिवारण हेतु लगाना चाहिए। साथ ही स्वतन्त्र रुप से भी इन पवित्र पौधों को यथोचित स्थान पर लगाना चाहिए। नारियल और सुपारी पर्याप्त दूरी रखते हुए मुख्यद्वार के ईर्द-गिर्द लगाना उत्तम है,किन्तु ठीक सामने होने पर द्वारवेध पैदा करेंगे। वास्तुमंडल के पूर्वदिशा में न्यूनतम इक्कीश फीट की दूरी पर वट का वृक्ष हो,जिसकी छाया और डालियाँ भवन को छू न रही हों;इसी भांति पश्चिम दिशा में अश्वत्थ(पीपल),उत्तर दिशा में प्लक्ष(पाकड़),और दक्षिण दिशा में उदुम्बर (गूलर) का वृक्ष हो(भले ही वह दूसरे की जमीन में क्यों न हो),किन्तु इस प्रकार चारों ओर से घिरा हुआ भवन एक अभेद्य दुर्ग की भाँति सुरक्षित होता है।जबकि इनका सामीप्य और स्थानिक परिवर्तन उतना ही घातक भी सिद्ध होता है।यानी पूर्ब में पीपल,पश्चिम में वट,उत्तर में गूलर और दक्षिण में पाकड़ बहुत ही अशुभ हैं। इनके अशुभत्व को दूर करने के लिए (यदि इनका काटना सम्भव न हो)ऊपर कहे गये दोष निवारक पौधों को बीच में लगा देना चाहिए। दोष निवारण के लिए एक और उत्तम उपाय है कि समय-समय पर उन वृक्षों के जड़ में जल डालें,और दही-चावल,दही-उड़द आदि का बलि भी दे दिया करें।यह उपचार बहुत ही लाभदायक होता है।
अब काष्ठछेदन की बात करते हैं- विश्वकर्मप्रकाश,वास्तुरत्नाकर,वृहत्संहिता आदि ग्रन्थों में पेड़ कब और कैसे काटा जाय- इस विषय की भी चर्चा है- द्व्यङ्गराशिगते सूर्ये माघे भाद्रपदे तथा। वृक्षाणां छेदनं कार्यं सञ्चयार्थं न कारयेत्।। सिंहे नक्ते च दारुणां छेदनं नैव कारयेत्। ये मोहाच्च प्रकुर्वन्ति तेषां गेहेऽग्नितो भयम्।। अर्थात् द्विस्वभाव(मिथुन,कन्या,धनु,मीन)राशियों में सूर्य के रहने पर (विशेषकर भाद्र और माघ मास में) वृक्ष काटना चाहिए,किन्तु संचय के लिए काटना उचित नहीं है। यानी शीघ्र प्रयोग के लिए काटा जा सकता है।पुनः कहते हैं कि सिंह और मकर के सूर्य रहने पर उक्त महीनों में भी गृहकार्यार्थ वृक्षछेदन नहीं करना चाहिए।अज्ञान,या स्वार्थ वश यदि ऐसा करता है तो उसे अग्नि का कोपभाजन बनना पड़ता है। यानी अग्निभय की आशंका रहती है। सौम्यं पुनर्वसुं मैत्रं करं मूलोत्तरात्रये। स्वाती च श्रवणं चैव वृक्षाणां छेदने शुभम्।। अर्थात् मृगशिरा,पुनर्वसु,अनुराधा,हस्ता,मूल,उत्तराफाल् गुनी,उत्तराषाढ़, उत्तरभाद्रपद, स्वाती,और श्रवण- इन दस नक्षत्रों में पेड़ काटना उत्तम होता है। चन्द्रमा के दस नक्षत्रों की चर्चा करके अब अगले श्लोक में सूर्य के नक्षत्रों की महत्ता पर प्रकाश डालते हैं- सूर्यभाद्वेदगोतर्कदिग्विश्वनखसम्मिते। चन्द्रर्क्षे दारुकाष्ठानां छेदनं शुभदायकम्।। अर्थात् सूर्य के नक्षत्र से(जहाँ सूर्य हों)चौथे,नौवें, छठे,दशवें,तेरहवें और बीसवें नक्षत्र पर चन्द्रमा के रहने पर वृक्षछेदन उत्तम होता है। नोटः- यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि उक्त दिन चन्द्रमा का नक्षत्र, वृक्षछेदन हेतु ग्राह्य नक्षत्र-सूची में होना चाहिए।अन्यथा ग्राह्य नहीं होगा। अब एक अति विशिष्ट योग को इंगित करते हैं- कृष्णपक्षे चतुर्दश्यां रेवतीरोहिणीयुते। यदा तदा गुरौ लग्ने गृहार्थं तु हरेद्रुमान्। अर्थात् कृष्णपक्ष की चतुर्दशी को यदि रेवती या रोहिणी नक्षत्र पर चन्द्रमा का संक्रमण हो, तो वृहस्पति जहाँ बैठे हों उस लग्न का चयन करके वृक्षछेदन करना अति उत्तम होता है।
अब काष्ठछेदन की बात करते हैं- विश्वकर्मप्रकाश,वास्तुरत्नाकर,वृहत्संहिता आदि ग्रन्थों में पेड़ कब और कैसे काटा जाय- इस विषय की भी चर्चा है- द्व्यङ्गराशिगते सूर्ये माघे भाद्रपदे तथा। वृक्षाणां छेदनं कार्यं सञ्चयार्थं न कारयेत्।। सिंहे नक्ते च दारुणां छेदनं नैव कारयेत्। ये मोहाच्च प्रकुर्वन्ति तेषां गेहेऽग्नितो भयम्।। अर्थात् द्विस्वभाव(मिथुन,कन्या,धनु,मीन)राशियों में सूर्य के रहने पर (विशेषकर भाद्र और माघ मास में) वृक्ष काटना चाहिए,किन्तु संचय के लिए काटना उचित नहीं है। यानी शीघ्र प्रयोग के लिए काटा जा सकता है।पुनः कहते हैं कि सिंह और मकर के सूर्य रहने पर उक्त महीनों में भी गृहकार्यार्थ वृक्षछेदन नहीं करना चाहिए।अज्ञान,या स्वार्थ वश यदि ऐसा करता है तो उसे अग्नि का कोपभाजन बनना पड़ता है। यानी अग्निभय की आशंका रहती है। सौम्यं पुनर्वसुं मैत्रं करं मूलोत्तरात्रये। स्वाती च श्रवणं चैव वृक्षाणां छेदने शुभम्।। अर्थात् मृगशिरा,पुनर्वसु,अनुराधा,हस्ता,मूल,उत्तराफाल् गुनी,उत्तराषाढ़, उत्तरभाद्रपद, स्वाती,और श्रवण- इन दस नक्षत्रों में पेड़ काटना उत्तम होता है। चन्द्रमा के दस नक्षत्रों की चर्चा करके अब अगले श्लोक में सूर्य के नक्षत्रों की महत्ता पर प्रकाश डालते हैं- सूर्यभाद्वेदगोतर्कदिग्विश्वनखसम्मिते। चन्द्रर्क्षे दारुकाष्ठानां छेदनं शुभदायकम्।। अर्थात् सूर्य के नक्षत्र से(जहाँ सूर्य हों)चौथे,नौवें, छठे,दशवें,तेरहवें और बीसवें नक्षत्र पर चन्द्रमा के रहने पर वृक्षछेदन उत्तम होता है। नोटः- यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि उक्त दिन चन्द्रमा का नक्षत्र, वृक्षछेदन हेतु ग्राह्य नक्षत्र-सूची में होना चाहिए।अन्यथा ग्राह्य नहीं होगा। अब एक अति विशिष्ट योग को इंगित करते हैं- कृष्णपक्षे चतुर्दश्यां रेवतीरोहिणीयुते। यदा तदा गुरौ लग्ने गृहार्थं तु हरेद्रुमान्। अर्थात् कृष्णपक्ष की चतुर्दशी को यदि रेवती या रोहिणी नक्षत्र पर चन्द्रमा का संक्रमण हो, तो वृहस्पति जहाँ बैठे हों उस लग्न का चयन करके वृक्षछेदन करना अति उत्तम होता है।
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