हम जानते हैं कि जब समाज अपनी प्रारंभिक अवस्था में था तो परिवार की शुरुआती अवधारणाएँ और परिणतियाँ अपने मूल व्यवहार में तमाम आडंबरों से रहित थीं। उनमें खुलापन, आजादी और यायावरी थी। सामंती समाज तक आते-आते परिवार पितृसत्तात्मक हो गया और पुष्ट हो गए सामंती समाज ने ही उस बंद, कट्टर, सुरक्षित, रागात्मक परिवार की नींव डाली जिसकी चिंता आज की जा रही है। जाहिर है कि इस समाज के परिवार में एक पुरुष मुखिया (या सामंत) होता है और उसकी इस अवस्थिति को बनाए रखने में समाज, परंपरा, कानून और धार्मिक व्याख्याएँ शक्ति और सहायता प्रदान करती हैं। इस व्यवस्था में एक दास का होना आवश्यक है तभी परिवार का सामंती रूप पूर्ण हो सकता है। दासता के इस कार्यभार के लिए स्त्री को चुना गया। स्त्री को यह दासता गरिमापूर्ण लगे, इसके प्रति उसके मन में विद्रोह न हो इसलिए ममता, स्नेह, प्रेम, दायित्व, धर्म, कर्तव्य, शील आदि से उसे जोड़ा जाता रहा। लेकिन उसके नियम कभी भी स्त्री के लिए अनुकूल नहीं रहे। उसके लिए तो कैसे भी पति को प्रेम करना कर्तव्य और धर्म के अंतर्गत है। इस परिवार में स्त्री के शोषण के अनेक मान्य, प्रचलित और कठोर रूप रहे हैं।
स्त्री पर शासन आसान रहे, इसलिए ही विवाहों में उम्र और शिक्षा को ले कर एक बेमेल पंरपरा कायम की गई है जिसके तहत स्त्री का आयु में पुरुष से कम और शिक्षा में कमतर होना ही उचित मान लिया गया है। यदि वह आयु और शिक्षा में पुरुष से बड़ी या बराबर हुई तो इस बात के असर ज्यादा हैं कि उसे आसानी से शासित न किया जा सके। यद्यपि घरेलू, सामाजिक, औपचारिक, नैतिक और धार्मिक शिक्षा में इस बात की गारंटी कर दी गई है कि स्त्री समाज की ‘पहली इकाई’ में प्रवेश करते ही किसी पुरुष का स्थायी उपनिवेश हो जाए। इसी तरह के संदर्भों में कहा जाता है कि स्त्री पैदा नहीं होती, बनाई जाती है। इस ‘सामंती परिवार’ में पुरुष का जीवन सर्वाधिक आनंद में गुजरता है। गृहस्थी में उसकी जो मुश्किलें हैं वे एक नागरिक, मनुष्य और मुखिया की मुश्किलें तो हैं, लेकिन गुलाम या शासित की उन मुश्किलों से बिलकुल अलग हैं जो किसी मनुष्य की तमाम संभावना, प्रतिभा, स्वतंत्रता और चेतना को बाधित, कुंठित और प्राय: असंभव कर देती हैं।
इस तरह के परिवार में कुछ अन्य लक्षण सहज ही परिलक्षित होंगे, जो दरअसल सामंती व्यवस्था के सामाजिक-नागरिक लक्षणों से उत्पन्न हैं : जैसे स्त्री संपत्ति की तरह है और उसे अर्जित किया जा सकता है। उसे सुरक्षित करना जरूरी है अन्यथा घुसपैठ संभव है। वह पुरुष की प्रतिष्ठा का प्रश्न भी इसी वजह से है। चूँकि वह चल-संपत्ति है, इसलिए उसे अपने पास बनाए रखने के लिए हिंसा भी जायज है। इस परिवार में हिंसा के तमाम रूपों की उपस्थिति सहज रहती आई है। करुणा, दया, प्रेम, कृतज्ञता, नैतिकता, धार्मिकता और अभिनय का इस्तेमाल भी होता रहा है। हर स्थिति में उसका अधिकार दोयम है, कर्तव्य प्राथमिक और अनिवार्य। पारिवारिक इकाई के इसी स्वरूप को तरह-तरह से विकसित, महिमामंडित और दृढ़ किया गया। अब इसकी रागात्मकता, सहजता, कार्यकुशलता और व्यवस्था खतरे में है।
यहाँ ध्यान देना होगा कि अब हमारा समाज राजनीतिक, औपचारिक शिक्षा, तकनीकी, न्यायिक, संवैधानिक और स्वप्नशीलता के क्षेत्रों में सामंती नहीं रह गया है, भले ही रूढ़ियों, परंपराओं, सामाजिक आचरणों, मान्यताओं, धार्मिक विश्वासों आदि में सामंतीपन का ही बोलबाला है। बल्कि इन्हीं वजहों से अभी तक परिवारों में सामंती परिवेश बना रह सका है। लेकिन धीरे-धीरे पूँजीवाद ने शासन और तंत्र के वर्चस्ववादी इलाकों में अपनी ध्वजा फहराई है। लोकतांत्रिक व्यवस्था उसके लिए सर्वाधिक सहायक हो सकती है। लोकतंत्र की आड़ ही उसे तानाशाह होने की सीधी बदनामी से रोकती है। लेकिन लोकतंत्र की उपस्थिति अपना काम करती है और परिवार में किसी एक की तानाशाही अथवा सामंती प्रवृत्ति के खिलाफ भी वातावरण बनाती है। जाहिर है कि यह पूँजीवादी, उत्तर-आधुनिक समाज भी अपने जैसा ही परिवार बनाएगा। जैसा समाज, वैसा परिवार। क्या हम भूल रहे हैं कि परिवार समाज की पहली इकाई है ! ऐसा हो ही नहीं सकता कि समाज पूँजीवादी होता जाए और परिवार का चरित्र सामंती बना रहे।
पूँजीवादी समाज में अर्थवाद, संबंधों की स्वार्थपरकता, मनुष्य से मनुष्य की हृदयहीनता, हर क्रिया में छिपा निवेश तत्व, प्रदर्शनकारिता, उपयोगितावाद, उपभोक्तावाद, बाजारवाद और आत्मकेंद्रिकता के लक्षण प्रमुख हैं। इन लक्षणों को सब रोज-रोज अनुभव कर ही रहे हैं। इन्हीं विलक्षणताओं के कारण पूँजीवाद में प्रेम, मनुष्यता, रागात्मकता आदि का ही नहीं, बल्कि तज्जन्य संगीत, कला, साहित्यस, अध्यवसाय का लोप होता जाता है। इन्हीं सब बिंदुओं को आप परिवार पर लागू करें तो पाएँगे कि आज के परिवार का संकट यही है। अर्थात वहाँ स्वार्थ, उपयोगितावाद, निवेश मन:स्थिति, आत्मकेंद्रिकता का प्रवेश हो गया है और जीवन की रागात्मकता, हार्दिकता, सामूहिकता, और संगीतात्मतकता गायब है। यह होना ही है। इसे प्रस्तुगत समाज व्यावस्थाम में रोका नहीं जा सकता।
अभी जो ‘पुराने परिवार’ के रूपक हैं और उदाहरणों की तरह टापू की तरह दिखते हैं वे सामंती अवशेष हैं। गाँवों और कस्बों के जीवन में सामंती रीतियाँ जाति, वंश, परिवार परंपरा, धार्मिकता के प्रभाव बाकी हैं, अतएव वहाँ इन परिवारों का ध्वंस अभी उतना नजर नहीं आता, लेकिन ‘पूँजीवादी समाज से उद्भूत और प्रभावित परिवार’ शहरों तथा महानगरों में आसानी से मिल जाएँगे। आगामी कुछ ही समय में ये ‘पूँजीवादी समाज के परिवार’ बड़ी संख्या में तबदील होते जाएँगे। विवाह के लिए औपचारिक संस्कार गौण होते जाएँगे और करार के विधिक, मौखिक या सहमति के अन्य प्रकार स्वीकार्य होंगे। यह पूँजीवाद के चरित्र का ही हिस्सा है। इसी के चलते संभव है कि परिवार ‘आजीवन संस्था’ न रह कर ‘अल्पकालीन या आवश्यकतानुसार अनुबंध’ तक सीमित होती चली जाए।
यहाँ एक बात गौर करने लायक है। पूँजीवादी समाज की निर्मिति से बन रहे इन परिवारों में स्त्री का पारिवारिक शोषण तो रुक जाएगा लेकिन मनुष्य की अस्मिता, गरिमा, स्वतंत्रता और उड़ान से वे काफी हद तक वंचित ही रहेंगी, क्योंकि पूँजीवाद स्त्री को ‘उपयोगी’ और ‘उपभोक्तावादी’ वस्तु में ही न्यून करता है। वह स्वतंत्र तो होगी, लेकिन फिलहाल नियामक या निर्णायक नहीं। उसका ‘स्त्री’ होना उसके लिए नई मुश्किलें और कुछ तात्कालिक आसानियाँ पेश करेगा। पूँजीवादी व्वस्थाएँ और उसके गण उसका तदानुसार उपयोग करेंगे। यह आजादी विडंबनामूलक समस्या है। वह सामंती पिंजरे से निकल कर एक अथाह समुद्र में गिरेगी। यही कारण है कि अधिकांश लोगों को परिवार का सामंती रूप अधिक सुरक्षित और विकल्पहीन लगता है। इन परिवारों के विघटन और विनाश से पुरुषों का डर तो स्वाभाविक है क्योंकि उनका साम्राज्य इससे नष्ट होता है, किंतु स्त्रियों का डर अपने नरक से प्रेम करने और उसके पालन-पोषण के तरीकों में छिपा हुआ है। प्रसन्न इस बात पर तो हुआ ही जा सकता है कि स्त्री सामंती परिवार के कारागार से बाहर निकल पाएगी एवं नितांत नई समस्याओं के बीच स्वतंत्रचेता और स्वावलंबी होने के लिए विवश होगी। बहरहाल, यह संक्रमणकाल है और इसके बाद कुछ राहें निकलेंगी।
यह उम्मीद करना बेमानी और काल्पनिक नहीं है कि पूँजीवादी समाज अंतत: उस मानवीय, समतावादी और सामाजिक न्यायपूर्ण व्यवस्था से प्रतिस्थापित हो सकता है, जिसे ‘साम्यवादी व्यवस्था’ के स्वप्न में देखा जाता है। इस आकांक्षी व्यवस्था में ऐसे परिवार की कल्पना की जा सकती है जो अपने गठन, निर्माण और परिचालन में कहीं अधिक लोकतांत्रिक, समतावादी, रागात्मक और प्रेम भरा होगा, जिसमें स्त्री को मनुष्य का गरिमापूर्ण दर्जा मिलेगा और बच्चों के पालन-पोषण में अत्याचार, क्रूरता और इजारेदारी का हिस्सा खतम हो जाएगा। मार्क्स -एंगेल्स आज से 155 वर्ष पहले लिखे ‘कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र’ में यदि ‘बुर्जुआ सामंती परिवार’ के संकटों का जिक्र करते हुए उसे खारिज करना चाहते हैं तो वह कोई अराजक प्रस्ताव नहीं है। अब ऐसी परिवार व्यवस्था मुश्किल में आ रही है तो यह सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों का हिस्सा है, भले ही अभी यह हमारी श्रेष्ठ मानवीय आकांक्षाओं के अनुकूल नहीं है मगर यह अपनी प्रकृति में ऐतिहासिक और द्वंद्वात्मक है।
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