स्वयंसेवी संगठन प्रथम ने हाल ही में प्राथमिक शिक्षा के स्तर पर जो रिपोर्ट जारी की है उसके अनुसार शिक्षा का अधिकार कानून लागू होने के तीन साल बाद भी प्राथमिक शिक्षा के स्तर में कोई परिवर्तन नजर नहीं आता हैं बल्कि साल दर साल स्थिति और भी बदतर होती जा रही है। रिपोर्ट में बताया जा रहा है कि ग्र्रामीण विद्यालयों में कक्षा पॉच के विद्यार्थीं न तो गणित का साधारण सा जोड़-घटाना कर सकते हैं और न ही मात्र भाषा में लिख पढ़ पाते हैं। वैसे स्वयंसेवी संगठन प्रथम ने यह रिपोर्ट प्राथमिक विद्यालयों के संदर्भ में जारी की है लेकिन देश के ग्रामीण क्षेत्र के माध्यमिक स्कूलों के छात्रों की स्थिति भिन्न नहीं है। क्योंकि आठवीं कक्षा का विद्यार्थी भी गणित और भाषाई ज्ञान के मामले में पॉचवीं के बच्चों से कुछ अलग नहीं है। स्वयंसेवी संगठन प्रथम की रिपोर्ट के बाद शिक्षा का अधिकार अधिनियम के आलोचक यह कह सकते है कि प्राथमिक विद्यालयों में परीक्षाएॅ न होना इसकी वजह है।क्योंकि शिक्षा का अधिकार अधिनियम के अनुसार किसी विद्यार्थी को अगली कक्षा में प्रोन्नत करने से नहीं रोका जा सकता है। मगर शिक्षा का अधिकार अधिनियम लागू हुए अभी सिर्फ तीन ही वर्ष हुए है और शिक्षा का स्तर कई वर्षों से लगातार गिरता जा रहा है। जहॉ जक परीक्षा की बात है तो प्राथमिक शिक्षा के संदर्भ में सिर्फ परीक्षा को शिक्षा के स्तर की सुधार की कसौटी नहीं माना जा सकता है क्योंकि प्राथमिक शिक्षा बच्चे को सीखने का प्रथम अवसर प्रदान करने वाला एक माधयम है।और इसमें गणित और भाषा का ज्ञान आसानी से कराया जा सकता है।चूॅकि इस उम्र के बच्चे में सीखने और ग्रहण करने की क्षमता अधिक होती है अत: बच्चों की क्षमता या ग्रामीण वातावरण को भी दोषी नहीं ठहराया जा सकता है।
जहॉ तक फण्ड की बात है तो सन् 2004 में केंद्र सरकार का प्राथमिक शिक्षा पर बजट जहॉ मात्र 5,700 करोड़ रूपये था जो सन् 2012में बढ़कर 49,000 करोड़ रूपये हो गया।जब केंद्र सरकार ने प्राथमिक शिक्षा पर अपना आवंटन लगभग दस गुना बढ़ा दिया तो इसके परिणाम भी बांछित मिलना थे लेकिन हुआ उल्टा ?अब इसमें दोषी कौन? प्राथमिक शिक्षा की बेहतरी के लिए साल दर साल बजट आवंटन बढ़ाने वाला मानव संसाधान विकास मंत्रालय?या शिक्षा के अधिकार कानून को गढ़ने वाले देशभर के शिक्षाविद ?या फिर प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था की कमान संभालने वाली राज्य सरकारें?निश्चित रूप से इसकी जिम्मेदारी राज्य सरकारें पर ही डाली जानी चाहिए क्योंकि केंद्र सरकार से मिलने वाले भारी बजट का वो सदुपयोग नहीं कर पायीं। आज सारे देश के प्राथमिक विद्यालयों में दस लाख से अधिक शिक्षकों के पद रिक्त है। राज्य सरकारें केंद्र से इस मद का हिस्सा तो पूरा लेती है लेकिन बच्चों को पढ़ाने का काम दैनिक मजदूरी से भी कम मानदेय पर रखे गए अतिथि शिक्षकों के भरोसे डाल दिया जाता है। प्रदेश सरकारों का सारा ध्यान इस बात पर केंद्रित रहता है कि सस्ते से सस्ते शिक्षक कैसे नियोजित किए जाए लेकिन इसके कारण शिक्षा का स्तर कैसा होगा इसकी चिंता न तो राजनेता करते है और नहीं अधिकारी? अभी मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के शिक्षकों द्वारा वर्षों से मिल रहे अल्प वेतन से व्यथित होकर चलाए जा रहे आंदोलन की चर्चा सुर्खिंयों में है। अपने वेतन को बढ़ाने की मॉग पर आंदोलनरत शिक्षक सरकार पर आरोप लगाते हैं कि सरकार का धयान सरकारी स्कूलों की बेहतरी में नहीं है। और वो इसे और पंगु बना बनाना चाहती है ताकि ज्यादातर पालक निजी संस्थाओं की चले जाए।आंदोलनकारि शिक्षकों के नेता बतलाते हैं कि प्रदेश सरकार केंद्र से उनके हिस्से का पूरा वेतन लेकर उसे लोकलुभावन योजनाओं में बांटती है ताकि वोटबैंक मजबूत हो जाए।वास्तव में म.प्र. और छत्तीसगढ़ के आंदोलनकारी शिक्षकों के शोषण और केंद्र से प्राप्त राशि के दुरूपयोग की खबरों को मानव संसाधान मंत्रालय को संज्ञान में लेना चाहिए क्योंकि ये मुद्दे शिक्षा के स्तर से जुड़े हुए है।शिक्षा के अधिकार कानून के मुताबिक शिक्षकों के पदों की पूर्ति के लिए निर्धारित समय सीमा 31 मार्च आने में मात्र दो माह शेष है लेकिन अकेले म.प्र. के प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षकों के लगभग एक लाख पद रिक्त हैं।प्रदेश के हजारों स्कूल अतिथि शिक्षकों के हवाले है। प्रदेश में केंद्र सरकार द्वारा प्राथमिक शिक्षा की बेहतरी के लिए आवंटित धानराशि का भारी दुरूपयोग के अनेक मामले सामने आ रहें हैं।म.प्र. में शिक्षा विभाग द्वारा करोड़ों की राशि से देवपुत्र नामक अनजानी सी पत्रिका खरीदे जाने की बात भी चर्चा में है। ग्रामीण क्षेत्रों के स्कूल शिक्षक विहीन तो है ही साथ ही सुविधा विहीन भी है।बैठने के लिए बेंचें नहीं है पीने पानी नहीं हैं और शौचालय तो दूर की बात है।पढ़ाई के मुद्दे पर शिक्षक बतलाते हैं कि उनका अधिकांश समय मध्यान्ह भोजन की व्यवस्था में गुजरता है, क्योंकि यह संवेदनशील मुद्दा और इसमें ढील मतलब बच्चों की जान पर बाजी। मधयान्ह भोजन की कथा व्यथा ही अलग है यह बहुत ही गंदी परिस्थितियों मे तैयार किया जाता है, इसके लिए न तो व्यवस्थित किचन है और न ही प्रशिक्षित रसोईये और इसमें अक्सर छिपकली और कीड़ें निकलते रहतें हैं जिसकी जिम्मेदारी भी शिक्षकों की रहती है।
वास्तव में प्राथमिक शिक्षा का स्तर लगातार गिरते जाना चिंतन का विषय हैं और इसमें राज्य सरकारों की ढील ज्यादा समझ में आती हैं। अगर राज्य सरकारें स्कूलों में सुयोग्य शिक्षकों की तैनाती करें उन्हें सम्मानजनक वेतन दे,विद्यालयों में मूलभूत सुविधाओं की पूर्ति करें और रोचक पाठयसामग्री को पढ़ाई में शामिल छात्रों के शैक्षणिक स्तर में सुधार अवश्य होगा।शिक्षा का अधिकार अधिनियम तो शैक्षणिक सुधार की गारण्टी है बशर्ते इसके अनुरूप व्यवस्था और क्रियान्वयन होना चाहिए। (अतुल कुमार श्रीवास्तव)
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