हम निश्चिंत हैं कि इस आलेख को लिखने वाले की जाति नहीं पूछी जाएगी। यदि जाति पूछी जाएगी तो जनाब हम अपनी जाति नहीं बताएंगे, क्योंकि सरकार ने ऐसी कोई बाध्यता नहीं रखी है कि आलेख लिखने के लिए जाति बताना अनिवार्य है। हम अपनी जाति बताने से साफतौर पर इंकार कर रहे हैं। ये बात कई लोगों को बुरी लग सकती है। हो सकता है सरकार को भी बुरी लगे। लेकिन हम भी क्या करें, समाज में जाति एक ऐसा सवाल है जिसका जवाब जोड़ने का काम ही नहीं करता। हमें समाज से जुड़ना हैं, हमें मानवता से जुड़ना है। हमें समाज में इस सवाल का ऐसा जवाब विकसित करना है जो समाज में दूरी नहीं, बल्कि नजदीकी पैदा करे। हमें जाति और धर्म में नहीं बंटना है। इसलिए हम तो अपनी जाति नहीं बताएंगे। यदि सरकार हमें जाति बताने के लिए मजबूर करेगी तो फिर गांधीजी के रास्ते पर चलते हुए हम भी सत्याग्रह करेंगे। हम सरकार से इस सत्य का आग्रह करेंगे कि समाज को जाति के नाम पर मत बांटो। इंसान को इंसान से मिलने दो। एक-दूसरे को करीब आने दो। मगर लगता है सरकार ये नहीं चाहती। सरकार जब भी दस सालों पर जनगणना करवाती है तो हमसे हमारी जाति पूछती है। किसी स्कूल-कॉलेज में एडमिशन लेना होता है तो हमसे हमारी जाति पूछी जाती है। जब हम सरकार से नौकरी मांगने जाते हैं तो हमसे हमारी जाति पूछी जाती है। सरकार से कोई मदद मांगने जाते हैं तो हमसे हमारी जाति पूछी जाती है। जन्म से मरण तक हमारी जाति पूछी जाती है। हम अपनी जाति बताते-बताते थक चुके हैं। अब तो हमें माफ करो। आज हम मैच्योर हो चुके हैं। दुनियादारी की समझ है। जाति को लेकर अच्छा-बुरा सोच सकते हैं। बावजूद इसके जब भी जाति का सवाल आता है तो मन करता है सिर के बाल नोंच लें। अब जब जाति के सवाल पर हमारा ये हाल है तो जरा सोचिए उन बच्चों के मन पर क्या असर पड़ता होगा जिनसे उनकी जाति पूछी जाती होगी। सवाल तो बच्चों को यही बता रहा है कि तुम्हारी पहचान तुम्हारी जाति से है। ऐसे में कोई बच्चा बड़ा होकर अपनी जाति पर क्यों नहीं इतराएगा। क्यों नहीं वो अन्य जातियों के बीच अपनी जाति की पहचान सर्वश्रेष्ठ बनाने के लिए संघर्ष करेगा। जाति का सवाल एक बार फिर बिहार में पूछा जाएगा। ये सवाल प्राइमरी और मिडिल स्कूलों के छात्रों से पूछा जाएगा। उन्हें इसका जवाब अपनी उत्तरपुस्तिका में देना होगा। बिहार में इस तरह का जो कदम उठाया जा रहा है उससे तो यही लगता है कि सरकार बच्चों को बताना चाहती है कि जितना जरूरी पढ़ना है उतना ही जरूरी जाति के बारे में जानना है। अब हमारे मन में ये उलझन पैदा हो रही है कि बच्चों को कैसे पता चलेगा कि उनकी जाति क्या है। यदि उनको उनकी जाति के बारे में यदि उनके मां-बाप बताएंगे तो सुनी-सुनाई बात पर कोई भरोसा क्यों करें और यदि सरकार बच्चे के जन्म के वक्त जाति का प्रमाणपत्र जारी करती है तो उसे कैसे पता चलता है कि ये बच्चा अमुक जाति का है। यदि वो सुनी-सुनाई बातों पर सर्टिफिकेट जारी करती है तो फिर हम ये दावा करते हैं कि हमने एमबीबीएस किया है। हमें कल से मरीजों का इलाज करने की अनुमति सरकार को देनी चाहिए। अभी तक ऐसी कोई बात सामने नहीं आई है कि किसी इंसान के डीएनए में झांककर ये पता लगाया जा सके कि ये आदमी अमुक जाति का है। ऐसे में हमारा सरकार से बस यही सवाल है आखिर क्यों समाज और इंसान को बांटने की कोशिश की जा रही है। जैसे-जैसे वक्त गुजरता जा रहा है, एजुकेशन का दायरा बढ़ता जा रहा है लोगों को समझ में ये बात आ रही है कि समाज जाति को ढो रहा है। वो भी सरकार की वजह से। हर जगह सरकार जाति पूछने लगती है, इसलिए याद रखना पड़ता है कि हम अमुक जाति के हैं। अन्त में सरकार से ये साफ करना चाहेंगे कि आप लाख कोशिश कर लो हम अपनी जाति नहीं बताने वाले, क्योंकि साइंटिफिक तौर पर हमें अपनी जाति का पता नहीं है। सरकार से गुजारिश है कि कोई ऐसी तकनीक विकसित करवाए और हमारे डीएनए में झांककर हमारी जाति के बारे में पता करके हमारा जाति प्रमाणपत्र जारी करे। यदि सरकार सुनी-सुनाई बातों पर जाति प्रमाणपत्र जारी करती रही तो फिर कुछ दिनों के बाद हम ये दावा करेंगे कि हम भारत के प्रधानमंत्री हैं और सरकार को हमें प्रधानमंत्री के तौर पर स्वीकार करना ही होगा।
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