शहरों के बाग-बगीचों के बाहर और खुली जगह में पैदा होने वाले पौधों में एक पौधा होता है अपामार्ग का, जिसे बोलचाल की भाषा में आंधीझाड़ा भी कहते हैं।
कुछ व्याधियों में इस पौधे का उपयोग बहुत लाभप्रद सिद्ध होता है। हमारे बुजुर्ग लोग इस पौधे को भली-भाँति जानते-पहचानते हैं।
विभिन्न भाषाओं में नाम : संस्कृत- अपामार्ग। हिन्दी- चिरचिटा, लटजीरा, आंधीझाड़ा। मराठी- अधाड़ा। गुजराती- अघेड़ो। बंगाली- अपांग। तेलुगू- दुच्चीणिके। कन्नड़- उत्तरेन। तमिल- नाजुरिवि। मलयालम- कटलती। फारसी- खारेवाजूं। इंग्लिश- रफ चेफ ट्री। लैटिन- एचिरेंथस एसपेरा।
रासायनिक संघटन : अपामार्ग की राख में 13 प्रतिशत चूना 4 प्रतिशत, लोहा 30 प्रतिशत, क्षार 7 प्रतिशत, शोराक्षार 2 प्रतिशत, नमक 2 प्रतिशत गन्धक और 3 प्रतिशत मज्जा तन्तुओं के उपयुक्त क्षार रहते हैं। इसके पत्तों की राख की अपेक्षा इसकी जड़ की राख में ये तत्व अधिक पाए जाते हैं।
गुण : अपामार्ग दस्तावर, तीक्ष्ण, अग्नि प्रदीप्त करने वाला, कड़वा, चरपरा, पाचक, रुचिकारक और वमन, कफ, मेद, वात, हृदय रोग, अफारा, बवासीर, खुजली, शूल, उदर रोग तथा अपची को नष्ट करने वाला है। यह उष्णवीर्य होता है।
परिचय : यह पौधा एक से तीन फुट ऊंचा होता है और भारत में सब जगह घास के साथ अन्य पौधों की तरह पैदा होता है। खेतों की बागड़ के पास, रास्तों के किनारे, झाड़ियों में इसे सरलता से पाया जा सकता है।
यह वर्षा ऋतु में पैदा होता है। इसमें शीतकाल में फल व फूल लगते हैं और ग्रीष्मकाल में फल पककर गिर जाते हैं। इसके पत्ते अण्डकार, एक से पाँच इंच तक लंबे और रोम वाले होते हैं। यह सफेद और लाल दो प्रकार का होता है। सफेद अपामार्ग के डण्ठल व पत्ते हरे व भूरे सफेद रंग के होते हैं। इस पर जौ के समान लंबे बीज लगते हैं। लाल अपामार्ग के डण्ठल लाल रंग के होते हैं और पत्तों पर भी लाल रंग के छींटे होते हैं। इसकी पुष्पमंजरी 10-12 इंच लंबी होती है, जिसमें विशेषतः पोटाश पाया जाता है।
उपयोग : अलग-अलग हेतु से इसकी जड़, बीज, पत्ते और पूरा पौधा (पंचाग) ही प्रयोग में लिया जाता है। 'अपामार्ग क्षार तेल' इसी से बनाया जाता है। यह जड़ी इतनी उपयोगी है कि आयुर्वेद और अथर्ववेद में इसकी प्रशंसा करते हुए इसे दिव्य औषधि बताया गया है।
इसे अत्यंत भूख लगने (भस्मक रोग), अधिक प्यास लगने, इन्द्रियों की निर्बलता और सन्तानहीनता को दूर करने वाला बताया है। इस पौधे से सांप, बिच्छू और अन्य जहरीले जन्तु के काटे हुए को ठीक किया जा सकता है।
इण्डियन मेटेरिया मेडिका के लेखक डॉ. नाडकर्णी के अनुसार अपामार्ग का काढ़ा उत्तम मूत्रल होता है। इसके पत्तों का रस उदर शूल और आँतों के विकार नष्ट करने में उपयोगी होता है। इसके ताजे पत्तों को काली मिर्च, लहसुन और गुड़ के साथ पीसकर गोलियां बनाकर सेवन करने से काला बुखार ठीक होता है।
अपामार्ग कड़वा, कसैला, तीक्ष्ण, दीपन, अम्लता (एसिडिटी) नष्ट करने वाला, रक्तवर्द्धक, पथरी को गलाने वाला, मूत्रल, मूत्र की अम्लता को नष्ट करने वाला, पसीना लाने वाला, कफ नाशक और पित्त सारक अदि गुणों से युक्त पाया गया है। शरीर के अन्दर इसकी क्रिया बहुत शीघ्रता से होती है और दूसरी दवाओं वाले नुस्खों के साथ इसका उपयोग करने पर यह बहुत अच्छा काम करता है।
कुछ व्याधियों में इस पौधे का उपयोग बहुत लाभप्रद सिद्ध होता है। हमारे बुजुर्ग लोग इस पौधे को भली-भाँति जानते-पहचानते हैं।
विभिन्न भाषाओं में नाम : संस्कृत- अपामार्ग। हिन्दी- चिरचिटा, लटजीरा, आंधीझाड़ा। मराठी- अधाड़ा। गुजराती- अघेड़ो। बंगाली- अपांग। तेलुगू- दुच्चीणिके। कन्नड़- उत्तरेन। तमिल- नाजुरिवि। मलयालम- कटलती। फारसी- खारेवाजूं। इंग्लिश- रफ चेफ ट्री। लैटिन- एचिरेंथस एसपेरा।
रासायनिक संघटन : अपामार्ग की राख में 13 प्रतिशत चूना 4 प्रतिशत, लोहा 30 प्रतिशत, क्षार 7 प्रतिशत, शोराक्षार 2 प्रतिशत, नमक 2 प्रतिशत गन्धक और 3 प्रतिशत मज्जा तन्तुओं के उपयुक्त क्षार रहते हैं। इसके पत्तों की राख की अपेक्षा इसकी जड़ की राख में ये तत्व अधिक पाए जाते हैं।
गुण : अपामार्ग दस्तावर, तीक्ष्ण, अग्नि प्रदीप्त करने वाला, कड़वा, चरपरा, पाचक, रुचिकारक और वमन, कफ, मेद, वात, हृदय रोग, अफारा, बवासीर, खुजली, शूल, उदर रोग तथा अपची को नष्ट करने वाला है। यह उष्णवीर्य होता है।
परिचय : यह पौधा एक से तीन फुट ऊंचा होता है और भारत में सब जगह घास के साथ अन्य पौधों की तरह पैदा होता है। खेतों की बागड़ के पास, रास्तों के किनारे, झाड़ियों में इसे सरलता से पाया जा सकता है।
यह वर्षा ऋतु में पैदा होता है। इसमें शीतकाल में फल व फूल लगते हैं और ग्रीष्मकाल में फल पककर गिर जाते हैं। इसके पत्ते अण्डकार, एक से पाँच इंच तक लंबे और रोम वाले होते हैं। यह सफेद और लाल दो प्रकार का होता है। सफेद अपामार्ग के डण्ठल व पत्ते हरे व भूरे सफेद रंग के होते हैं। इस पर जौ के समान लंबे बीज लगते हैं। लाल अपामार्ग के डण्ठल लाल रंग के होते हैं और पत्तों पर भी लाल रंग के छींटे होते हैं। इसकी पुष्पमंजरी 10-12 इंच लंबी होती है, जिसमें विशेषतः पोटाश पाया जाता है।
उपयोग : अलग-अलग हेतु से इसकी जड़, बीज, पत्ते और पूरा पौधा (पंचाग) ही प्रयोग में लिया जाता है। 'अपामार्ग क्षार तेल' इसी से बनाया जाता है। यह जड़ी इतनी उपयोगी है कि आयुर्वेद और अथर्ववेद में इसकी प्रशंसा करते हुए इसे दिव्य औषधि बताया गया है।
इसे अत्यंत भूख लगने (भस्मक रोग), अधिक प्यास लगने, इन्द्रियों की निर्बलता और सन्तानहीनता को दूर करने वाला बताया है। इस पौधे से सांप, बिच्छू और अन्य जहरीले जन्तु के काटे हुए को ठीक किया जा सकता है।
इण्डियन मेटेरिया मेडिका के लेखक डॉ. नाडकर्णी के अनुसार अपामार्ग का काढ़ा उत्तम मूत्रल होता है। इसके पत्तों का रस उदर शूल और आँतों के विकार नष्ट करने में उपयोगी होता है। इसके ताजे पत्तों को काली मिर्च, लहसुन और गुड़ के साथ पीसकर गोलियां बनाकर सेवन करने से काला बुखार ठीक होता है।
अपामार्ग कड़वा, कसैला, तीक्ष्ण, दीपन, अम्लता (एसिडिटी) नष्ट करने वाला, रक्तवर्द्धक, पथरी को गलाने वाला, मूत्रल, मूत्र की अम्लता को नष्ट करने वाला, पसीना लाने वाला, कफ नाशक और पित्त सारक अदि गुणों से युक्त पाया गया है। शरीर के अन्दर इसकी क्रिया बहुत शीघ्रता से होती है और दूसरी दवाओं वाले नुस्खों के साथ इसका उपयोग करने पर यह बहुत अच्छा काम करता है।
No comments:
Post a Comment