ज्योतिष शास्त्र के अनुसार वर-कन्या के चुनाव हेतु उनकी कुंडलियों का समग्रता के साथ अध्ययन किया जाता है क्योकि संस्कारों का जीवन में बहुत बड़ा महत्व है। उनके लग्न, नक्षत्र और अष्टकुट मिलान के द्वारा यह तय किया जाता है कि अमुक कन्या अमुक वर के योग्य है या नहीं। उनके बीच सुखद दाम्पत्य स्थापित होगा या नहीं।
मुहूर्त शास्त्र के अनुसार शुभ समय पर किए गए कार्यों का प्रतिफल शुभ होता है, इसलिए विवाह जैसे महत्वपूर्ण कार्य के लिए शुभ मुहूर्त का चयन अनिवार्य है। सामान्यत: मुहूर्त चयन के लिए तिथि, वार, नक्षत्र, करण और योग का अध्ययन किया जाता है परंतु विवाह मुहूर्त के लिए तिथि, वार और नक्षत्रों पर बल दिया जाता है।
इसमें भी नक्षत्र पर विशेष बल दिया जाता है। तिथि, वार पर इसलिए भी अधिक जोर नहीं दिया गया है क्योंकि अशुभ तिथियां किसी खास स्थितियों में काफी शुभ हो जाती हैं। उदाहरण के लिए चतुर्थी तिथि अगर शनिवार को हो तो सिद्ध योग बन जाता है। यद्यपि पृथक रूप से दोनों ही अशुभ तिथि तथा दिन होते हैं लेकिन नक्षत्रों के साथ ऐसी कोई बात नहीं होती।
विवाह के लिए रोहिणी, मृगशिरा, मघा, अनुराधा, तीनों उत्तरा, स्वाति, हस्त, मूल एवं रेवती नक्षत्र माने जाते हैं। रोहिणी नक्षत्र में विवाह सम्पन्न होने पर दम्पति में आपसी प्रेम बढ़ता है और संतान पक्ष सुदृढ़ होता है। मृगशिरा नक्षत्र संतान की प्रगति का कारक होता है और सुखमय लम्बा दाम्पत्य देता है।
मघा-नक्षत्र सुखी संतान का कारक और हस्त नक्षत्र मान-सम्मान प्राप्त कराने वाला होता है। अनुराधा नक्षत्र पुत्र-पुत्रियां प्रदान कराने वाला होता है। उत्तरा नक्षत्र विवाह के दो-तीन वर्षों के अंदर ही उन्नति देने वाला होता है। स्वाति नक्षत्र विवाह के तुरंत बाद उन्नति कराता है। रेवती नक्षत्र धन-सम्पत्ति और समृद्धि विवाह के चार साल बाद देता है।
मूल, मघा और रेवती नक्षत्र का चयन करते समय उनके चरणों पर विशेष ध्यान दिया जाता है। मूल और मघा के प्रथम और रेवती के चतुर्थ चरण का परित्याग करना चाहिए।
ब्रह्मलीन पं. तृप्तिनारायण झा शास्त्री द्वारा रचित पुस्तक ‘विवाह विमर्श’ के अनुसार उपरोक्त चरण अनिष्टकारी होते हैं। बाकी के सोलह नक्षत्र अश्विनी, भरणी, कृतिका, आद्र्रा, पुनर्वसु, पुष्य, अश्लेषा, तीनों पूर्वा, चित्रा, विशाखा, ज्येष्ठा, श्रवण, घनिष्ठा तथा शतभिषा नक्षत्रों को विवाह के लिए शुभ नहीं माना जाता।
‘ज्योतिष रत्न’ पुस्तक के अनुसार कृतिका, भरणी, आद्र्रा, पुनर्वसु और अश्लेषा नक्षत्रों में विवाह होने पर कन्या छ: वर्षों के अंदर ही विधवा हो जाती है। पुष्य नक्षत्र में विवाहित पुरुष अपनी पत्नी का परित्याग कर दूसरी औरत से शादी रचा लेता है। चित्रा, विशाखा, ज्येष्ठा, तीनों पूर्वाषाढ़ नक्षत्र तलाक का कारण बनते हैं।
विशाखा नक्षत्र में विवाहित कन्या अपने पति का परित्याग कर दूसरे पुरुष से पुन: विवाह कर लेती है या गुपचुप संबंध स्थापित करती है। श्रवण, घनिष्ठा तथा अश्विनी नक्षत्र पति-पत्नी में मनमुटाव पैदा कर उनके जीवन को कठिन बना देते हैं। अशुभ नक्षत्रों में हुए विवाह की अधिकतम आयु दस वर्षों की होती है।
नक्षत्रों के अतिरिक्त विवाह मुहूर्तों में लगन का उचित चुनाव भी अत्यधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि तुला और वृश्चिक दिन में मकर और धनु राशि में बधिर संज्ञक, मेष-वृष राशि दिन में तथा कन्या-मिथुन और कर्क राशि अंध संज्ञक होती हैं। कुंभ राशि दिन में और मीन राशि रात्रि में पंगु संज्ञक होती हैं। बधिर संज्ञक राशि में विवाह करने से दरिद्रता, दिन में अगर अंध संज्ञक लगन हो तो वैधव्य, अगर यह लग्र रात्रि में हो तो संतान की मृत्यु आदि का योग बनता है।
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