सच तो ये है की हम हिदुस्तानी सत्ता, सूरा , सुंदरी के वासना में लिप्त होकर खुद की पहचान भूल चुके इसलिए सत्य क्या है इसका निंर्णय नहीं कर पा रहे है। हम भेड़ की चाल चल रहे है क्योकि एक भेंड़ जिधर जाता भेंड़ का पूरा झुण्ड भी उधर ही भागता है। आज समाज में जो वातावरण बच्चों को मिल रहा है, वहाँ नैतिक मूल्यों के स्थान पर भौतिक मूल्यों को महत्त्व दिया जाता है, जहाँ एक अच्छा इंसान बनने की तैयारी की जगह वह एक धनवान, सत्तावान समृद्धिवान बनने की हर कला सीखने के लिए प्रेरित हो रहा है ताकि समाज में उसकी एक ‘स्टेटस’ बन सके। माता-पिता भी उसी दिशा में उसे बचपन से तैयार करने लगते हैं। भौतिक सुख-सुविधाओं का अधिक से अधिक अर्जन ही व्यक्तित्व विकास का मानदंड बन गया है। भारतवर्ष यदि हठ से जबरन अपने को यूरोपीय आदर्श का अनुगामी बनाएँ, तो वह यूरोप नहीं बन सकता, सिर्फ विकृत भारतवर्ष ही बन सकता है। भारतवर्ष यदि असली भारतवर्ष न बन सकें तो दूसरों के बाजारों में मजदूरी करने के सिवा संसार में उसकी और कोई आवश्यकता ही नहीं रहेगी। पहले लोग मानसिक रूप से दृढ़ होने के लिये विद्याध्ययन करते थे। कालांतर में विषयों में आसक्त होने पर सुख प्राप्त करने के लिये उसका अनुकरण किया। आखिर सामान्य लोगों की समस्या किसी विशिष्ट श्रेणी के लोग न तो समझ सकते हैं और न ही उनका समाधान करने में सक्षम हैं क्योंकि उनके लिए महत्वपूर्ण की प्राथमिकताएं अलग है ; चूँकि समस्या हमारी है तो समाधान भी हमें खोजना होगा, ऐसे में संभव है की कई बार प्रयोग के प्रयास का परिणाम मनोवांछित न हो, ऐसी परिस्थिति को विकास की प्रक्रिया का एक चरण मानकर परिणाम से अधिक प्रयास की निष्ठां को महत्वपूर्ण मानना समाज के लिए श्रेयस्कर होगा !"
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"एक बार जंगल में गधों की फ़ौज और शेरों की फ़ौज में जंग छिड़ गयी और गधों की फ़ौज ने शेरों की फ़ौज को हरा दिया; बाद में पता चला, वास्तव में गधों की फ़ौज का नेतृत्व करने वाला अपने चरित्र और व्यवहार से शेर था और शेरों की फ़ौज ने एक गधे को अपना नेता चुन लिया था; जैसे ही युद्ध शुरू हुआ, गधों की फ़ौज का नेतृत्व करते नेता ने अपने सैनिकों को आक्रमण का आदेश दिया जिसे सुन शेरों की फ़ौज का नेतृत्व करने वाले गधे ने अपनी प्रवृति और स्वाभाव अनुरूप अपनी सेना को कहा 'भागो' ; और इस तरह गधों की फ़ौज ने शेरों की सेना को हरा दिया। समाज का नेतृत्व एक महत्वपूर्ण दाइत्व है क्योंकि यही वह करक है जो समाज की नियति निर्धारित करता है ; अतः समाज जिसे भी अपने प्रतिनिधित्व के लिए नेता के रूप में चुने , आवश्यक है की उस व्यक्ति की प्रवृति , विचार , दृष्टिकोण, दूरदर्शिता और निर्णय लेने की क्षमता से अवगत व संतुष्ट हो ; क्योंकि वर्त्तमान के निर्णय की दिशा ही भविष्य की दशा तय करेगी ; सत्ता तंत्र के प्रावधान ने समाज के प्रतिनिधि को पदों के माध्यम से उन समस्त संसाधनों और सामर्थों से परिपूर्ण किया है जिसमे इतनी शक्ति है की वह जीवन की दशा और समय की दिशा बदल सके; बस प्रयोग का औचित्य ही संसाधन की उपयोगिता, महत्व एवं प्रभाव निर्धारित करता है। इसीलिए , समाज अपने सचेतन निर्णय से किसे अपने प्रतिनिधि के रूप में नेतृत्व के लिए चुनता है यह महत्वपूर्ण है। एक कुशल नेता वही है जिसको व्यक्ति के महत्व और पद की गरिमा के बीच का अंतर स्पष्ट हो तभी किसी भी परिस्थिति में वह अपने व्यक्तित्व को अपना पद समझने की भूल नहीं करेगा और प्राथमिकताओं का महत्व व्यक्तिगत आकांक्षाओं से ग्रसित नहीं होगा ; सत्ता तंत्र सामजिक व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने का उपक्रम मात्र है; अतः जब तक सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन को सुनिश्चित नहीं किया जाता, सत्ता परिवर्तन बस एक प्रभावहीन प्रक्रिया बनकर रह जायेगी ! समाज का प्रतिनिधित्व करते नेता समाज में व्याप्त बहुमत की मानसिकता को प्रतिबिंबित करते यथार्थ के तथ्य हैं ; अतः नेताओं के नैतिकता के स्तर से शिकायत व्यर्थ है ; प्रतिबिंब नहीं बल्कि सत्य का वास्तविक छवि ध्यान का केंद्र बिंदु होना चाहिए क्योंकि जैसा समाज होगा वह वैसे ही नेतृत्व का भागी होगा। व्यवस्था परिवर्तन तब तक संभव नहीं जब तक समाज का प्रत्येक इकाई जागृत न हो ; स्वयं का ज्ञान करना होगा; व्यक्तिगत लाभ , आकांक्षा, लोभ और स्वार्थ से ऊपर उठकर सही और गलत के बीच अंतर करना होगा तथा अपने निर्णय , आचरण एवं व्यव्हार से सत्य की स्थापना में पूरी निष्ठां से यथा संभव योगदान करना होगा; तभी हम एक आदर्श सामजिक व्यवस्था की स्थापना कर पाएंगे। आदर्श सामजिक व्यवस्था की स्थापना आवश्यक है क्योंकि भौतिक धन सम्पदा से संपन्न समाज संभव है की भ्रष्ट हो पर इतिहास साक्षी है की एक आदर्श सामाज निश्चित रूप से समृद्ध व् संपन्न होता है। भविष्य कैसा हो यह निर्णय करने का अधिकार वर्त्तमान का होता है पर अगर वर्त्तमान की सोच व्यक्तिगत जीवनकाल की अवधि तक सीमित रहकर जीवन की सम्पन्नता की आकांक्षाओं द्वारा शाषित हो तो निर्णय का आधार सही हो ही नहीं सकता ; और जब प्रयास की दिशा ही गलत हो तो परिणाम पर प्रयास की निष्ठां का प्रभाव नहीं पड़ता। महत्वपूर्ण क्या होना चाहिए आज जीवन का यही प्रश्न है ! वर्त्तमान होने के नाते वर्त्तमान की चुनौती हमारा दाइत्व है; हमारा निर्णय ही हमारे जीवन की उपयोगिता सिद्ध करेगा और यही इस जीवन का महत्व होगा। क्यों न हम सत्य को महत्वपूर्ण बनाएं, ऐसा कर के हम भविष्य को ऐसी विशिष्ट जीवन शैली उत्तरदान में दे पाएंगे जो अपने आप में आदर्श का उदहारण होगा।"
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"एक बार जंगल में गधों की फ़ौज और शेरों की फ़ौज में जंग छिड़ गयी और गधों की फ़ौज ने शेरों की फ़ौज को हरा दिया; बाद में पता चला, वास्तव में गधों की फ़ौज का नेतृत्व करने वाला अपने चरित्र और व्यवहार से शेर था और शेरों की फ़ौज ने एक गधे को अपना नेता चुन लिया था; जैसे ही युद्ध शुरू हुआ, गधों की फ़ौज का नेतृत्व करते नेता ने अपने सैनिकों को आक्रमण का आदेश दिया जिसे सुन शेरों की फ़ौज का नेतृत्व करने वाले गधे ने अपनी प्रवृति और स्वाभाव अनुरूप अपनी सेना को कहा 'भागो' ; और इस तरह गधों की फ़ौज ने शेरों की सेना को हरा दिया। समाज का नेतृत्व एक महत्वपूर्ण दाइत्व है क्योंकि यही वह करक है जो समाज की नियति निर्धारित करता है ; अतः समाज जिसे भी अपने प्रतिनिधित्व के लिए नेता के रूप में चुने , आवश्यक है की उस व्यक्ति की प्रवृति , विचार , दृष्टिकोण, दूरदर्शिता और निर्णय लेने की क्षमता से अवगत व संतुष्ट हो ; क्योंकि वर्त्तमान के निर्णय की दिशा ही भविष्य की दशा तय करेगी ; सत्ता तंत्र के प्रावधान ने समाज के प्रतिनिधि को पदों के माध्यम से उन समस्त संसाधनों और सामर्थों से परिपूर्ण किया है जिसमे इतनी शक्ति है की वह जीवन की दशा और समय की दिशा बदल सके; बस प्रयोग का औचित्य ही संसाधन की उपयोगिता, महत्व एवं प्रभाव निर्धारित करता है। इसीलिए , समाज अपने सचेतन निर्णय से किसे अपने प्रतिनिधि के रूप में नेतृत्व के लिए चुनता है यह महत्वपूर्ण है। एक कुशल नेता वही है जिसको व्यक्ति के महत्व और पद की गरिमा के बीच का अंतर स्पष्ट हो तभी किसी भी परिस्थिति में वह अपने व्यक्तित्व को अपना पद समझने की भूल नहीं करेगा और प्राथमिकताओं का महत्व व्यक्तिगत आकांक्षाओं से ग्रसित नहीं होगा ; सत्ता तंत्र सामजिक व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने का उपक्रम मात्र है; अतः जब तक सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन को सुनिश्चित नहीं किया जाता, सत्ता परिवर्तन बस एक प्रभावहीन प्रक्रिया बनकर रह जायेगी ! समाज का प्रतिनिधित्व करते नेता समाज में व्याप्त बहुमत की मानसिकता को प्रतिबिंबित करते यथार्थ के तथ्य हैं ; अतः नेताओं के नैतिकता के स्तर से शिकायत व्यर्थ है ; प्रतिबिंब नहीं बल्कि सत्य का वास्तविक छवि ध्यान का केंद्र बिंदु होना चाहिए क्योंकि जैसा समाज होगा वह वैसे ही नेतृत्व का भागी होगा। व्यवस्था परिवर्तन तब तक संभव नहीं जब तक समाज का प्रत्येक इकाई जागृत न हो ; स्वयं का ज्ञान करना होगा; व्यक्तिगत लाभ , आकांक्षा, लोभ और स्वार्थ से ऊपर उठकर सही और गलत के बीच अंतर करना होगा तथा अपने निर्णय , आचरण एवं व्यव्हार से सत्य की स्थापना में पूरी निष्ठां से यथा संभव योगदान करना होगा; तभी हम एक आदर्श सामजिक व्यवस्था की स्थापना कर पाएंगे। आदर्श सामजिक व्यवस्था की स्थापना आवश्यक है क्योंकि भौतिक धन सम्पदा से संपन्न समाज संभव है की भ्रष्ट हो पर इतिहास साक्षी है की एक आदर्श सामाज निश्चित रूप से समृद्ध व् संपन्न होता है। भविष्य कैसा हो यह निर्णय करने का अधिकार वर्त्तमान का होता है पर अगर वर्त्तमान की सोच व्यक्तिगत जीवनकाल की अवधि तक सीमित रहकर जीवन की सम्पन्नता की आकांक्षाओं द्वारा शाषित हो तो निर्णय का आधार सही हो ही नहीं सकता ; और जब प्रयास की दिशा ही गलत हो तो परिणाम पर प्रयास की निष्ठां का प्रभाव नहीं पड़ता। महत्वपूर्ण क्या होना चाहिए आज जीवन का यही प्रश्न है ! वर्त्तमान होने के नाते वर्त्तमान की चुनौती हमारा दाइत्व है; हमारा निर्णय ही हमारे जीवन की उपयोगिता सिद्ध करेगा और यही इस जीवन का महत्व होगा। क्यों न हम सत्य को महत्वपूर्ण बनाएं, ऐसा कर के हम भविष्य को ऐसी विशिष्ट जीवन शैली उत्तरदान में दे पाएंगे जो अपने आप में आदर्श का उदहारण होगा।"
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