राहुदेव छाया ग्रह हैं, उनका भौतिक स्वरूप नहीं है, अपितु वे एक गणितीय बिन्दु हैं। पृथ्वी और चन्द्रमा के ये कटान बिन्दु
पीछे की ओर खिसकते रहते हैं जिसे राहु और केतु का संचार (गति) कहा जाता है। यह अपने परिक्रमा पथ पर 18 वर्ष में एक चक्कर पूर्ण कर लेते हैं। वैदिक ज्योतिष में वराह मिहिर तक के काल में 7 ग्रहों को ही मान्यता प्राप्त थी परन्तु वराह
मिहिर के बाद के ज्योतिर्विद महर्षियों ने राहु-केतु के मानव पर होने वाले प्रभावों को समझा और इन्हेंग्रह मण्डल में सदस्य के रूप में रख दिया। इस प्रकार नवग्रह की ज्योतिष परम्परा चल प़डी। राहु और केतु नामक ये गणितीय बिन्दु सदैव परस्पर 180 अंश की दूरी पर रहते हैं।
हम राहु के मनुष्य के वैवाहिक और दाम्पत्य जीवन पर प़डने वाले प्रभावों पर प्रकाश डालेंगे। राहु को शनि के समान क्रूर और पापी माना जाता है इसलिए कहा गया है कि राहु की क्रूर नक्षत्रों में स्थिति बहुत घातक होती है। ऎसी स्थिति तृतीय भाव में होने पर भाई, चतुर्थ भाव में होने पर माता, पंचम भाव में होने पर संतान, सप्तम भाव में होने पर पत्नी और दशम भाव में
पिता के लिए घातक होती है। राहु की सप्तम भाव में उपस्थिति दाम्पत्य जीवन (वैवाहिक स्थिति) के लिए अशुभकारी हो सकती है जिनमें निम्न स्थितियां बन सकती हैं:-
(1) अविवाहित रहना।
(2) जीवनसाथी की अकाल मृत्यु हो जाना।
(3) जीवनसाथी का रोग ग्रस्त रहना।
(4) जीवनसाथी का अनैतिक चरित्र होना।
(5) संतानहीन होना।
(6) जीवनसाथी का अतिक्रोधी, झग़डालू या बेपरवाह होना।
ये सभी स्थितियां व्यक्ति के वैवाहिक जीवन को दुखमय और असहनीय बना देती हैं। सप्तम भाव में
राहु की अशुभ स्थिति को विभिन्न ज्योतिष विद्वानों में इस प्रकार उल्लिखित किया है:-
मंत्रेश्वर:
मनुष्य çस्त्रयों की कुसंगति में प़डकर निर्धन हो जाता है, विधुर हो जाता है, स्वच्छन्द
प्रकृति का हो जाता है, बुद्धिहीन होता है।
महर्षि वसिष्ठ: पत्नी या पति हन्ता हो जाता है।
यवनाचार्य: अग्नि के समान जलता रहता है, अशांत रहता है, जीवनसाथी को मार डालता है।
ढुंढिराज: जीवनसाथी का विरोध करता है, उसे परेशान करता है, जीवनसाथी विकल या अपंग होता है। झग़डालू, क्रोधी कलहकारी होता है।
महर्षि गर्गाचार्य: उसकी पत्नी या पति बंध्या होते हैं अर्थात् उनमें संतान उत्पन्न करने की क्षमता नहीं रहती।
वैद्यनाथ: जीवनसाथी घमंडी, क्रोधी, परस्त्रीगामी, रोगी होता है। संतान हीनता रहती है।
जातक पारिजात: जीवनसाथी घमंडी, व्यभिचारी, चरित्रहीन, कर्कश होता है। इन ज्योतिष ग्रंथों मे राहु
की सप्तम भाव में अशुभ स्थिति को मनुष्य के वैवाहिक जीवन के लिए प्रतिकूल और घातक बताई गई है।
इसका यह आशय हुआ कि यदि व्यक्ति की जन्म कुंडली में राहु अशुभ राशि, भाव, युति या नक्षत्र में
स्थित हों तो उस व्यक्ति का दाम्पत्य जीवन कठोर एवं अशांत हो जाता है। दाम्पत्य जीवन के अशांत एवं
कलहकारी होने पर जीवन नरक तुल्य हो जाता है। स्त्री और पुरूष इस गृहस्थ संसार की ग़ाडी के दो पहिये
होते हैं, इनमें से एक पहिया यदि टूट जाए, या टेढ़ा-मेढ़ा चलने लगे तो गृहस्थ की ग़ाडी लचर-पचर
हो जाती है, चरमराकर चलती है, कभी-कभी स्थायी रूप से रूक जाती है। राहु की सप्तम भाव
की स्थिति सम्पूर्ण जीवन को अशांत और प्रतिकूल बनाने के लिए पर्याप्त होती है इसलिए जब
कुंडली मिलान किया जाता है तो राहु की स्थिति अनदेखी नहीं करनी चाहिए। गृहस्थ
जीवन मे कई बार पाया जाता है कि मांगलिक दोष से भी राहु देव की सप्तम भाव में स्थिति अधिक घातक
हो जाती है और व्यक्ति आजीवन दाम्पत्य संबंधों के ठीक होने या सुखी दाम्पत्य जीवन की कामना में
बिता देता है।
राहु की सप्तम भाव में स्थिति को व्यक्ति की कुंडली में लग्न से सप्तम भाव और चन्द्रमा से सप्तम भाव, दोनों ही प्रसंग में
देखनी चाहिए क्योंकि चंद्रमा को ज्योतिष मे मन का कारक माना जाता है, साथ ही चंद्रमा स्त्री ग्रह भी हैं। अत: मन और स्त्रीतत्व दोनों का राहु की परिधि या युति मे आ जाना, दाम्पत्य जीवन का दूषित हो जाना होगा। हमें ज्ञात है राहुदेव ज्योतिष मे भ्रम और विष एवं विषैले पदार्थो का प्रतिनिधित्व करते हैं। मधुर, सरस, कोमल, भावना प्रवण, विश्वासप्रिय, दाम्पत्य जीवन में जब राहुदेव के भ्रम, अविश्वास और विषाक्तता का समावेश हो जाता है तो ऎसा दाम्पत्य जीवन अवश्य ही अशांत, दुखमय, अव्यवस्थित और अविश्वसनीय हो जाता है।
विवाह या वैवाहिक जीवन के नैसर्गिक कारक सप्तमेश, बृहस्पति, शुक्र और चंद्रमा का राहु से पीç़डत
होना दाम्पत्य जीवन के दूषित हो जाने का लक्षण होता है। चंद्रमा और शुक्र की राशियों में सप्तम भाव
में राहु की स्थिति का गंभीरतापूर्वक विश्लेषण करना चाहिए क्योंकि इन राशियों मे राहुदेव की स्थिति दाम्पत्य जीवन के लिए भयावह बन जाती है।
प्राय: देखने में आता है कि मेष और वृष राशि में स्थित चंद्रमा से सप्तम भाव में स्थित राहु दाम्पत्य जीवन के
लिए इतने घातक नहीं होते, व्यक्ति का वैवाहिक जीवन चल जाता है परन्तु मिथुन राशि में स्थित चंद्र से
सप्तम के राहु विवाह विच्छेद या परित्याग करा देते हैं। ऎसे ही कर्क, कन्या, तुला, मकर, कुंभ और मीन में
राशि में स्थित चंद्र से सप्तम भाव मे स्थित राहु के कारण संतानहीनता, संतान विलगाव, संतान
को अरिष्ट योग या बंध्या होने जैसे परिणाम देते हैं। कर्क राशि में शनि के नक्षत्र पुष्य में स्थित राहु वैधव्य
योग का कारण बन जाते हैं। वृश्चिक और कुंभ राशि में स्थित राहु विवाह में विलम्ब करा देते हैं।
ऎसा भी पाया गया है कि धनु राशि में मूल नक्षत्र में स्थित राहु से जीवनसाथी की मृत्यु हो जाती है।
सामान्यत: कर्क, तुला और धनु राशियों मे अन्य अशुभ प्रभावों के होने पर राहु की स्थिति व्यक्ति को चरित्रहीन एवं अनैतिक
संबंधों की ओर ले जाती है और वैवाहिक जीवन अविश्वसनीय एवं अशांत बन जाता है। इसी प्रकार मंगल, शनि के दुष्प्रभाव में राहु के होने या आश्लेषा, मघा अथवा मूल नक्षत्र में राहु की स्थिति भी वैवाहिक जीवन के लिए शुभ नहीं मानी जाती।
इन सभी बातों के होते हुए भी ऎसा नहीं है कि राहुदेव की सप्तम भाव में स्थिति सदैव घातक और अनिष्ट
ही होती है। कवि व ज्योतिषी कालिदास ने अपने ज्योतिष ग्रंथ उत्तरकालामृत में वर्णित किया है कि यदि राहु स्वराशि,
उच्चाराशि अथवा अपनी मूल त्रिकोण राशि में स्थित होते हैं तो वे सम्पूर्ण जगत का अतुल बल प्राप्त
कर लेते हैं और व्यक्ति को अपना अधिकाधिक शुभत्व प्रदान करने से कभी नहीं हिचकते। अन्य कारणों से
वैवाहिक जीवन में आने वाले क्लेशों, मनमुटावों और अविश्वासों का हरण कर दाम्पत्य जीवन को सुखमय
बना देते हैं। ऎसा भी होता है कि व्यक्ति का जीवनसाथी अकाल मृत्यु को प्राप्त
हो जाए तो राहुदेव की शुभ एवं अनुकूल स्थिति उसे दूसरा जीवनसाथी उपलब्ध कराकर उसके गृहस्थ जीवन
और दाम्पत्य जीवन को पुन: पटरी पर ला दे। वह पुन: सुख एवं शांत जीवन जीने लगता है। अपनी मूल
त्रिकोण, उच्चा या स्वराशि में राहुदेव को अतुल बल प्राप्त होना बताया गया है, अतुल बल से तात्पर्य है
कि किसी भी परिस्थिति में परिस्थिति को अनुकूल बना देना और अनुकूल परिणामों की स्थिति उत्पन्न करना।
उपर्युक्त संक्षिप्त विश्लेषण से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि दाम्पत्य जीवन में राहुदेव की भूमिका महत्वपूर्ण
होती है। इसका निरूपण करना आवश्यक होता है।
पीछे की ओर खिसकते रहते हैं जिसे राहु और केतु का संचार (गति) कहा जाता है। यह अपने परिक्रमा पथ पर 18 वर्ष में एक चक्कर पूर्ण कर लेते हैं। वैदिक ज्योतिष में वराह मिहिर तक के काल में 7 ग्रहों को ही मान्यता प्राप्त थी परन्तु वराह
मिहिर के बाद के ज्योतिर्विद महर्षियों ने राहु-केतु के मानव पर होने वाले प्रभावों को समझा और इन्हेंग्रह मण्डल में सदस्य के रूप में रख दिया। इस प्रकार नवग्रह की ज्योतिष परम्परा चल प़डी। राहु और केतु नामक ये गणितीय बिन्दु सदैव परस्पर 180 अंश की दूरी पर रहते हैं।
हम राहु के मनुष्य के वैवाहिक और दाम्पत्य जीवन पर प़डने वाले प्रभावों पर प्रकाश डालेंगे। राहु को शनि के समान क्रूर और पापी माना जाता है इसलिए कहा गया है कि राहु की क्रूर नक्षत्रों में स्थिति बहुत घातक होती है। ऎसी स्थिति तृतीय भाव में होने पर भाई, चतुर्थ भाव में होने पर माता, पंचम भाव में होने पर संतान, सप्तम भाव में होने पर पत्नी और दशम भाव में
पिता के लिए घातक होती है। राहु की सप्तम भाव में उपस्थिति दाम्पत्य जीवन (वैवाहिक स्थिति) के लिए अशुभकारी हो सकती है जिनमें निम्न स्थितियां बन सकती हैं:-
(1) अविवाहित रहना।
(2) जीवनसाथी की अकाल मृत्यु हो जाना।
(3) जीवनसाथी का रोग ग्रस्त रहना।
(4) जीवनसाथी का अनैतिक चरित्र होना।
(5) संतानहीन होना।
(6) जीवनसाथी का अतिक्रोधी, झग़डालू या बेपरवाह होना।
ये सभी स्थितियां व्यक्ति के वैवाहिक जीवन को दुखमय और असहनीय बना देती हैं। सप्तम भाव में
राहु की अशुभ स्थिति को विभिन्न ज्योतिष विद्वानों में इस प्रकार उल्लिखित किया है:-
मंत्रेश्वर:
मनुष्य çस्त्रयों की कुसंगति में प़डकर निर्धन हो जाता है, विधुर हो जाता है, स्वच्छन्द
प्रकृति का हो जाता है, बुद्धिहीन होता है।
महर्षि वसिष्ठ: पत्नी या पति हन्ता हो जाता है।
यवनाचार्य: अग्नि के समान जलता रहता है, अशांत रहता है, जीवनसाथी को मार डालता है।
ढुंढिराज: जीवनसाथी का विरोध करता है, उसे परेशान करता है, जीवनसाथी विकल या अपंग होता है। झग़डालू, क्रोधी कलहकारी होता है।
महर्षि गर्गाचार्य: उसकी पत्नी या पति बंध्या होते हैं अर्थात् उनमें संतान उत्पन्न करने की क्षमता नहीं रहती।
वैद्यनाथ: जीवनसाथी घमंडी, क्रोधी, परस्त्रीगामी, रोगी होता है। संतान हीनता रहती है।
जातक पारिजात: जीवनसाथी घमंडी, व्यभिचारी, चरित्रहीन, कर्कश होता है। इन ज्योतिष ग्रंथों मे राहु
की सप्तम भाव में अशुभ स्थिति को मनुष्य के वैवाहिक जीवन के लिए प्रतिकूल और घातक बताई गई है।
इसका यह आशय हुआ कि यदि व्यक्ति की जन्म कुंडली में राहु अशुभ राशि, भाव, युति या नक्षत्र में
स्थित हों तो उस व्यक्ति का दाम्पत्य जीवन कठोर एवं अशांत हो जाता है। दाम्पत्य जीवन के अशांत एवं
कलहकारी होने पर जीवन नरक तुल्य हो जाता है। स्त्री और पुरूष इस गृहस्थ संसार की ग़ाडी के दो पहिये
होते हैं, इनमें से एक पहिया यदि टूट जाए, या टेढ़ा-मेढ़ा चलने लगे तो गृहस्थ की ग़ाडी लचर-पचर
हो जाती है, चरमराकर चलती है, कभी-कभी स्थायी रूप से रूक जाती है। राहु की सप्तम भाव
की स्थिति सम्पूर्ण जीवन को अशांत और प्रतिकूल बनाने के लिए पर्याप्त होती है इसलिए जब
कुंडली मिलान किया जाता है तो राहु की स्थिति अनदेखी नहीं करनी चाहिए। गृहस्थ
जीवन मे कई बार पाया जाता है कि मांगलिक दोष से भी राहु देव की सप्तम भाव में स्थिति अधिक घातक
हो जाती है और व्यक्ति आजीवन दाम्पत्य संबंधों के ठीक होने या सुखी दाम्पत्य जीवन की कामना में
बिता देता है।
राहु की सप्तम भाव में स्थिति को व्यक्ति की कुंडली में लग्न से सप्तम भाव और चन्द्रमा से सप्तम भाव, दोनों ही प्रसंग में
देखनी चाहिए क्योंकि चंद्रमा को ज्योतिष मे मन का कारक माना जाता है, साथ ही चंद्रमा स्त्री ग्रह भी हैं। अत: मन और स्त्रीतत्व दोनों का राहु की परिधि या युति मे आ जाना, दाम्पत्य जीवन का दूषित हो जाना होगा। हमें ज्ञात है राहुदेव ज्योतिष मे भ्रम और विष एवं विषैले पदार्थो का प्रतिनिधित्व करते हैं। मधुर, सरस, कोमल, भावना प्रवण, विश्वासप्रिय, दाम्पत्य जीवन में जब राहुदेव के भ्रम, अविश्वास और विषाक्तता का समावेश हो जाता है तो ऎसा दाम्पत्य जीवन अवश्य ही अशांत, दुखमय, अव्यवस्थित और अविश्वसनीय हो जाता है।
विवाह या वैवाहिक जीवन के नैसर्गिक कारक सप्तमेश, बृहस्पति, शुक्र और चंद्रमा का राहु से पीç़डत
होना दाम्पत्य जीवन के दूषित हो जाने का लक्षण होता है। चंद्रमा और शुक्र की राशियों में सप्तम भाव
में राहु की स्थिति का गंभीरतापूर्वक विश्लेषण करना चाहिए क्योंकि इन राशियों मे राहुदेव की स्थिति दाम्पत्य जीवन के लिए भयावह बन जाती है।
प्राय: देखने में आता है कि मेष और वृष राशि में स्थित चंद्रमा से सप्तम भाव में स्थित राहु दाम्पत्य जीवन के
लिए इतने घातक नहीं होते, व्यक्ति का वैवाहिक जीवन चल जाता है परन्तु मिथुन राशि में स्थित चंद्र से
सप्तम के राहु विवाह विच्छेद या परित्याग करा देते हैं। ऎसे ही कर्क, कन्या, तुला, मकर, कुंभ और मीन में
राशि में स्थित चंद्र से सप्तम भाव मे स्थित राहु के कारण संतानहीनता, संतान विलगाव, संतान
को अरिष्ट योग या बंध्या होने जैसे परिणाम देते हैं। कर्क राशि में शनि के नक्षत्र पुष्य में स्थित राहु वैधव्य
योग का कारण बन जाते हैं। वृश्चिक और कुंभ राशि में स्थित राहु विवाह में विलम्ब करा देते हैं।
ऎसा भी पाया गया है कि धनु राशि में मूल नक्षत्र में स्थित राहु से जीवनसाथी की मृत्यु हो जाती है।
सामान्यत: कर्क, तुला और धनु राशियों मे अन्य अशुभ प्रभावों के होने पर राहु की स्थिति व्यक्ति को चरित्रहीन एवं अनैतिक
संबंधों की ओर ले जाती है और वैवाहिक जीवन अविश्वसनीय एवं अशांत बन जाता है। इसी प्रकार मंगल, शनि के दुष्प्रभाव में राहु के होने या आश्लेषा, मघा अथवा मूल नक्षत्र में राहु की स्थिति भी वैवाहिक जीवन के लिए शुभ नहीं मानी जाती।
इन सभी बातों के होते हुए भी ऎसा नहीं है कि राहुदेव की सप्तम भाव में स्थिति सदैव घातक और अनिष्ट
ही होती है। कवि व ज्योतिषी कालिदास ने अपने ज्योतिष ग्रंथ उत्तरकालामृत में वर्णित किया है कि यदि राहु स्वराशि,
उच्चाराशि अथवा अपनी मूल त्रिकोण राशि में स्थित होते हैं तो वे सम्पूर्ण जगत का अतुल बल प्राप्त
कर लेते हैं और व्यक्ति को अपना अधिकाधिक शुभत्व प्रदान करने से कभी नहीं हिचकते। अन्य कारणों से
वैवाहिक जीवन में आने वाले क्लेशों, मनमुटावों और अविश्वासों का हरण कर दाम्पत्य जीवन को सुखमय
बना देते हैं। ऎसा भी होता है कि व्यक्ति का जीवनसाथी अकाल मृत्यु को प्राप्त
हो जाए तो राहुदेव की शुभ एवं अनुकूल स्थिति उसे दूसरा जीवनसाथी उपलब्ध कराकर उसके गृहस्थ जीवन
और दाम्पत्य जीवन को पुन: पटरी पर ला दे। वह पुन: सुख एवं शांत जीवन जीने लगता है। अपनी मूल
त्रिकोण, उच्चा या स्वराशि में राहुदेव को अतुल बल प्राप्त होना बताया गया है, अतुल बल से तात्पर्य है
कि किसी भी परिस्थिति में परिस्थिति को अनुकूल बना देना और अनुकूल परिणामों की स्थिति उत्पन्न करना।
उपर्युक्त संक्षिप्त विश्लेषण से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि दाम्पत्य जीवन में राहुदेव की भूमिका महत्वपूर्ण
होती है। इसका निरूपण करना आवश्यक होता है।
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