स्वर्ग और नर्क का मार्ग क्या है ?
सिकन्दर सैन्य-संगठन कर चुका था। भारत-विजय के लिए प्रस्थान का समय समीप था। एक दिन अप्पने गुरु से उसने पूछा कि वह भारत से उनके लिए क्या लेकर आये ? गुरु कुछ क्षण मौन रहे। फिर कहा _ " सिकन्दर तुम भारत से एक ज्ञानी पुरुष को लेकर आना।" सिकंदर ने पूछा _ " महाराज ! ज्ञानी की पहचान ? " गुरु ने कहा _ " अरे विश्व-विजय करने वाले वीर, तुम ज्ञानी की पहचान नहीं जानते ?" सिकन्दर चुप हो गया। उसने भारत पर आक्रमण किया। आम्भीक ने देश की अर्गला उसके लिए खोल दी। वह पंजाब तक आ गया। युद्ध के पश्चात शांति स्थापित होने पर उसने अपने सेनापति को ज्ञानी पुरुष को तलाश कर लेने का आदेश दिया। सेनापति सैन्य-संचालन में और युद्धकौशल में सिद्ध-हस्त था। नम्रता से उसने पूछा _
" सम्राट ज्ञानी की क्या पहचान है ?" सिकन्दर अरस्तू का शिष्य था , विद्वानों की संगति में रह चुका था। कुछ क्षण मौन रहा , फिर बोला _ " मेरे एक प्रश्न का उत्तर माँगना। जिसका उत्तर तुम्हें संतुष्ट कर दे , उसे ज्ञानी समझना। " सेनापति सम्राट का प्रश्न लेकर चल दिया। नगर के बाहर एक छायादार वृक्ष के नीचे उसने एक तपस्वी को बैठे देखा। सेनापति ने प्रणाम करके कहा _ "श्रीमान ! मैं सम्राट के एक प्रश्न का आपसे उनके लिए उत्तर चाहता हूँ।
" तपस्वी ने अर्धमिलित पलकें खोलीं , एक क्षण देखा और कहा _
" जा भाग जा , जिसका प्रश्न है वह स्वयं आएगा। सेनापति ने महाराज सिकंदर को बताया कि ज्ञानी तपस्वी ने कहा है कि जिसका प्रश्न है वह स्वयं आएगा। यह सुनकर " सिकंदर ने वीर वेश में स्वयं जाकर अपना प्रश्न निवेदित किया। प्रश्न था _
" स्वर्ग का मार्ग क्या है ? और नर्क का मार्ग क्या है ? " तपस्वी ने वीर सिकन्दर को देखा और पूछा, " तुम कौन हो ? " सिकन्दर ने वीरोचित दर्प से कहा _
" मैं योद्धा हूँ , युद्ध जीवी , देख नही रहे आप ? यह शिरस्त्राण और कवच। "
तपस्वी ने आश्चर्यचकित होते हुवे कहा _ "तुम योद्धा हो, तुम तो भिखारी- से लगते हो। " सिकन्दर के कमर से बंधी तलवार को इंगित करते हुवे तपस्वी ने पुन: कहा _ " अरे कमर में यह क्या लटकाया हुवा है ? " सिकदर ने गर्व से गर्दन तानी और कहा _ " नहीं जानते हो ? यह वह तलवार है , जिसने मकदुनियाँ से लेकर पंजाब तक अपना जौहर दिखलाया है। मानव रक्त-पात किया है , किन्तु अभी तक तृप्त नहीं हुयी है। " तपस्वी सिकन्दर का उत्तर सुनकर अट्टहास कर उठा _ " अरे, यह भोंडा लोहे का टुकड़ा ? और भिखमंगे क्या कहता है , तलवार है ? " तपस्वी ने सिकन्दर के अहं पर चोट की। सिकन्दर तड़प उठा। उसका राजसी अहं इस भाषा को सुनने का अभ्यस्त नहीं था। क्रोध से उसके नथुने फड़कने लगे। उसने क्रोध को पीना नहीं सीखा था। उसका हाथ तलवार की मूठ पर गया ही था कि तपस्वी ने शांत भाव से कहा _ " वीर, यही नर्क का मार्ग है। " सिकन्दर स्तम्भित रह गया। तलवार म्यान में बंद हो गयी। तपस्वी ने कहा _ " वीर, यह स्वर्ग का मार्ग है। " भारतीय प्रज्ञा के प्रखर तेज से वह अभिभूत हो गया। उसने तलवार तपस्वी के चरणों में रख दी और मस्तक झुका दिया। तपस्वी की गम्भीर वाणी ने कहा _ " सिकन्दर! यह मोक्ष का मार्ग है। "
""अपने स्व से बाहर हो जाना, अपने स्वरूप से निकल जाना नर्क अर्थात दुःख का मार्ग है। अपने स्वरूप से निकल जाने का अर्थ है बिखर जाना, यानि उत्तेजना में बह जाना। जब मनुष्य उत्तेजना के वशीभूत होता है, उसकी ऊर्जा बाहर बह जाती है और वह खोखला हो जाता है। यह नर्क है। अपने को खो देना ही संसार के दुखों का मूल है। और स्वरूप में स्थिति ही स्वर्ग का मार्ग है, सुख का सेतु है। वैक्तिकता को ज्ञान के प्रति समर्पित कर देना ही मोक्ष है""
तपस्वी ने आश्चर्यचकित होते हुवे कहा _ "तुम योद्धा हो, तुम तो भिखारी- से लगते हो। " सिकन्दर के कमर से बंधी तलवार को इंगित करते हुवे तपस्वी ने पुन: कहा _ " अरे कमर में यह क्या लटकाया हुवा है ? " सिकदर ने गर्व से गर्दन तानी और कहा _ " नहीं जानते हो ? यह वह तलवार है , जिसने मकदुनियाँ से लेकर पंजाब तक अपना जौहर दिखलाया है। मानव रक्त-पात किया है , किन्तु अभी तक तृप्त नहीं हुयी है। " तपस्वी सिकन्दर का उत्तर सुनकर अट्टहास कर उठा _ " अरे, यह भोंडा लोहे का टुकड़ा ? और भिखमंगे क्या कहता है , तलवार है ? " तपस्वी ने सिकन्दर के अहं पर चोट की। सिकन्दर तड़प उठा। उसका राजसी अहं इस भाषा को सुनने का अभ्यस्त नहीं था। क्रोध से उसके नथुने फड़कने लगे। उसने क्रोध को पीना नहीं सीखा था। उसका हाथ तलवार की मूठ पर गया ही था कि तपस्वी ने शांत भाव से कहा _ " वीर, यही नर्क का मार्ग है। " सिकन्दर स्तम्भित रह गया। तलवार म्यान में बंद हो गयी। तपस्वी ने कहा _ " वीर, यह स्वर्ग का मार्ग है। " भारतीय प्रज्ञा के प्रखर तेज से वह अभिभूत हो गया। उसने तलवार तपस्वी के चरणों में रख दी और मस्तक झुका दिया। तपस्वी की गम्भीर वाणी ने कहा _ " सिकन्दर! यह मोक्ष का मार्ग है। "
""अपने स्व से बाहर हो जाना, अपने स्वरूप से निकल जाना नर्क अर्थात दुःख का मार्ग है। अपने स्वरूप से निकल जाने का अर्थ है बिखर जाना, यानि उत्तेजना में बह जाना। जब मनुष्य उत्तेजना के वशीभूत होता है, उसकी ऊर्जा बाहर बह जाती है और वह खोखला हो जाता है। यह नर्क है। अपने को खो देना ही संसार के दुखों का मूल है। और स्वरूप में स्थिति ही स्वर्ग का मार्ग है, सुख का सेतु है। वैक्तिकता को ज्ञान के प्रति समर्पित कर देना ही मोक्ष है""
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