चौमासो [ कविता ]
सावण भादो सजल सुरंगा, आसोजां पुरवाई।
किरै फलै फली बध बेलां जामै, लांप मतीरा मिट्ठा।
फलै फली बध बेलां जामै, लांप मतीरा मिट्ठा।
हवा चालतां लुलै कड़बली, तान तोड़ाता सिट्टा।।
उमड़़ै ल्हैर हवा चालै, लुल पली फसल लैरावै।
हंसतो बिछ्या गलीचां पर, मन लोट-पलेटा खावै।।
रलका दे बरसावै करसो, घमक बाजरो बरसै।
करै उचावण मनकोरी, मन नाज बरसतां हरसै।।
मीठा लाल मतीरा काचर, ककड़ी मीठी-खाटी।
धरा तपै बैसाख जेठ, जद धिर चोमासो आवै।
मेट बाबो सिर पोट बांध, धर फली काचरा ल्यावै।।
झुलस मिटै धरती की, सावण बूढ़ै करै फुवार।
काजलिया बादल बरसै, रै घटाटोप इकसार।।
झूलै पर चढ़ उड़ै उमंगां, झिरमिर बरसै मेह।
सावण बरस्यां मिटै सायबा, लगी धरा की जूल।
मुलकै ऊबा खड्या रुंखड़ा, बेलां पसरै फूल।।
घमओ तावड़़ो पड़ै जेठ में, बदन ज्याय कुमलाय।
आस बंधै आसाढ़ आवतां, मिटै हिये की लाय।।
सावण भादो सजल सुरंगा, आसोजां पुरवाई।
किरै फलै फली बध बेलां जामै, लांप मतीरा मिट्ठा।
फलै फली बध बेलां जामै, लांप मतीरा मिट्ठा।
हवा चालतां लुलै कड़बली, तान तोड़ाता सिट्टा।।
उमड़़ै ल्हैर हवा चालै, लुल पली फसल लैरावै।
हंसतो बिछ्या गलीचां पर, मन लोट-पलेटा खावै।।
रलका दे बरसावै करसो, घमक बाजरो बरसै।
करै उचावण मनकोरी, मन नाज बरसतां हरसै।।
मीठा लाल मतीरा काचर, ककड़ी मीठी-खाटी।
धरा तपै बैसाख जेठ, जद धिर चोमासो आवै।
मेट बाबो सिर पोट बांध, धर फली काचरा ल्यावै।।
झुलस मिटै धरती की, सावण बूढ़ै करै फुवार।
काजलिया बादल बरसै, रै घटाटोप इकसार।।
झूलै पर चढ़ उड़ै उमंगां, झिरमिर बरसै मेह।
सावण बरस्यां मिटै सायबा, लगी धरा की जूल।
मुलकै ऊबा खड्या रुंखड़ा, बेलां पसरै फूल।।
घमओ तावड़़ो पड़ै जेठ में, बदन ज्याय कुमलाय।
आस बंधै आसाढ़ आवतां, मिटै हिये की लाय।।
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