Friday, January 29, 2016

समाज में पारिवारिक विघटन: कारण और प्रभाव

समाज में पारिवारिक विघटन: कारण और प्रभाव
परिवार मानवीय मूल्यों का आधार है. यह परिवार ही तो है जो मानवीय मूल्यों को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्थानांतरित करता हैं. परिवार समाज कि न्यूनतम इकाई है अतैव इसका अपना एक अलग महत्व है. भारत में परिवार कि अपनी एक विशेषता है. परिवार भारतीय सभ्यता का मूल है. परिवार ही भारत को अन्य देशो से अलग बनता है. प्राचीन काल से लेकर अब तक परिवार समाज में अपना अस्तित्व बनाये हुए है किन्तु इसकी संरचना और उसके साथ साथ इसकी परिभाषा समय दर समय बदलती रहीं हैं. भारतीय परिवार पश्चात सभ्यता से ज्यादा प्रभावित है. जिसके कारण इसमें हो रहे परिवर्तन भारतीय संस्कृति को झकझोर के रख दे रही है. लेकिन बावजूद इसके इस संस्कृति कि जड़ इतनी मजबूत है कि आज़ादी के ६८ वर्षो के बाद भी हम अपनी सभ्यता को बनाये हुए हैं. इसका एक मात्र कारण हमारी संस्कृति और इसकी प्रवृति है.
सामाजिक परिवर्तन से हममे से कोई भी अनभिज्ञ नही हैं. या यूँ कहें कि सामाजिक परिवर्तन ने हम सब को प्रभावित किया है. जैसे आज कल कि शिक्षा पद्धति. शिक्षा शब्द का प्रयोग मैं इस लिये कर रही हूँ क्योकि शिक्षा ही है जिसने सामाजिक परिवर्तन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. उदाहरण स्वरुप आज की शिक्षा रोजगार के ऊपर ज्यादा आधारित है. आज बेटी हो या बेटा सबको स्वलाबन बनने कि शिक्षा दी जाती है. लड़को की शिक्षा समाज में पहले से ही महत्वपूर्ण रही है. लेकिन लड़कियों के शिक्षा में भी परिवर्तन हुआ है. पहले माता पिता कि सोच रहती थी कि शिक्षा बेटिओं के लिये वो हथियार है जिसके माध्यम से वे जीवन में आने वाले विपरीत परिस्थिति का सामना कर सकेंगी. लेकिन इस हथियार का प्रयोग वे समय आने पर ही करेंगी. बेटिओं को घरेलु ज्ञान और संस्कार दिया जाता था जिससे वे अपने गृहस्ती को सुचारू रूप से चला सकें. किन्तु आज स्थिति बदली है, घरेलु ज्ञान तो सामान्य ज्ञान सा बन गया लेकिन आजीविका चलने के लिये शिक्षा महत्वपूर्ण हो गयी है. आज कि बेटिओं कि सोच में भी फरक आया है. विवाह तो जीवन कि एक रस्म है, जिसे जैसे नहीं तैसे निभा ही लेंगे किन्तु रोजगार महत्वपूर्ण है.  
तो व्याहारिक परिवर्तन समाज के हर स्तर व् घड़ी दर घड़ी हो रहे हैं. होने भी चहिये क्योकि जब तक बदलाव होगा नही तब तक हम सामाजिक कुरीतिओं से और कुंठाओं से बहार कैसे आयेंगे. लेकिन समाज में परिवर्तन सकारात्मक दिशा में होने चाहियें. जहाँ एक तरफ शिक्षा ने समाज को बहुत सी महत्वपूर्ण वस्तुएं और धारणाये प्रदान कि है वही वे सामाजिक मूल्यों को मानव के भीतर बनाये रखने में सक्षम नही रही है. मुझे ये बात कहने में जरा भी संकोच नही है कि शिक्षा का सही मायने में उपयोग नही हो सका है. शिक्षा सामाजिक मूल्यों को आगे बढाने में उसे और जटिल करने में मदद करती है. शिक्षा ने लोगो कि सोच बदली है किन्तु संस्कृति के नज़रिए से नकारात्मक रूप में. परिवार जो सामाजिक मूल्यों का धरोहर कहा जाता है आज उसका विघटन हो रहा है. और इस विघटन से कोई भी इंसान अछूता नही है.
पारिवारिक विघटन का बच्चों पर प्रभाव-
छोटे बच्चों का पालन पोषण दादा दादी और परिवार के सदस्यों द्वारा होने से बच्चों में पारिवारिक मूल्यों के साथ साथ सामाजिक मूल्यों का भी स्थानांतरण होता है. आज का समय एकल परिवार का है. इसिलिये आज बच्चें पारिवारिक और सामाजिक मूल्यों से वंचित रह जाते हैं. और हम बच्चों में नैतिक मूल्यों को डालने कि बात करते हैं. किन्तु एक बात स्पष्ट है कि नैतिक मूल्यों का निवेश कोई पुस्तक या कोई विद्यालय करें न करें बच्चो में ये परिवार के माध्यम से स्वतः ही आ जाते हैं. परन्तु मुझे ये बातें भी कहने में अतिश्योक्ति नही होगी कि परिवार अगर नैतिक मूल्यों का दोतक है तो वहीँ नैतिक मूल्यों का पतन भी परिवार में रह कर भी हो सकता है, लेकिन बहुतायत में परिवार से नैतिक मूल्यों का स्थानांतरण होता है. वास्तविकता ये भी है कि आज बच्चों के साथ समय बिताने के लिये वक़्त कि कमी है. जिसके वजह से आगे चल कर लगाव और स्नेह कि कमी हो जाती है. मनोविज्ञान के एक बड़े ही प्रसिद्ध वैजानिक अलबर्ट बंदुरा ने अपने attachment theory में इस बात को बहुत ही गहराई से समझाया है कि बालपन में माता पिता और परिवार के लगाव से क्या क्या लाभ है. किन्तु आज कल के माता पिता ये जानते हुए भी अपनी इस कमी को बच्चों को खिलौने, टी.वी. कंप्यूटर, टेबलेट, आदि लुभावनी चीज़ों से खुश करना चाहते हैं और अपनी जिम्मेदारी को पूर्ण समझते हैं. बच्चे जब थोड़े बड़े होतें है तो शिक्षा कि गली में छोड़ आते हैं जहाँ उनका अपना अलग संसार बन जाता है और उनके पास भी अब समय का आभाव होने लगता है. पीठ पर भविष्य की सफलताओं के माध्यम को लादे बच्चों के पास अब पारिवारिक और सामाजिक मूल्यों को समझने का वक्त भी नही रहता.
पारिवारिक विघटन का वयस्कों पर प्रभाव—
परिवार का सबसे बड़ा उद्देश्य अपने परिवार के सदस्यों कि मदद करना चाहें वे किसी भी अपत कालीन स्थिति में हों. जैसे कि बेरोजगारी कि स्थिति, किसी अपंगता कि स्थिति आदि. आजकल पारिवारिक विघटन के स्वरुप मानसिक वेदनाएं भी बढाती जा रही है. आज अपने मन कि बात कहने के लिये घर में एक या दो जनों से ज्यादा कोई नहीं होता. कोई पथ प्रदर्शक नही कोई बात समझने को नहीं. अन्तः आतंरिक बातों को खुद में ही समा कर मन ही मन वेदनाओं में उलझते हुए मनुष्य न जाने कितनी कितनी बिमारिओं के शिकार होते जा रहें हैं. पति- पत्नी के आपसी मन मुटाव को भी कोई तीसरा अपारिवारिक सदस्य ही दूर करता है. परिवार के बड़े नव विवाहितों को जीवन के विभिन्न कठिनाइयों से अवगत करतें है और साथ ही उन परेशानियों से कैसे निपटा जये इस बात का ज्ञान भी कराते है उनके जीवन के अनुभव हमारे जीवन पर्यन्त के साथी होते हैं. सामाजिक सद्भावना का मतलब धीरे धीरे कम होते जा रहा है. समाज के और समाज से मतलब भी कम होते जा रहा है. फिर भी आज सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन और जीवन शैली में हो रहे बदलाव के कारण आज का युवा पीढ़ी चिंतित है, परिवार के साथ न रहना भी उसकी मजबूरी है. महंगाई का मुद्दा तो सर्वोपरि है. संयुक्त परिवार कि एक खासियत थी कि उसमे समानता का भाव था. आर्थिक स्थिति के अनुसार काम का बटवारा होता था. जो आर्थिक दृष्टी से सबल होता था वो घर के सभी बच्चों को पढाता था, परिवार से सभी सदस्यों कि आवश्यकतायें पूरी करता था. जिनकी जैसी अर्थी स्थिति होती थी वैसी परिवार में सहयोग देता था. सामान शिक्षा और जीवन शैली भी एक सी होती थी. किन्तु आज दृश्य बिलकुल भिन्न है. आज एक ही परिवार के सदस्यों कि शिक्षा और जीवन शैली दोनों ही भिन्न होती हैं. जो अर्थी स्थिति से सबल वे प्रबल होते हैं. परन्तु एक बात यह भी सत्य है कि आधुनिक युग में पुरानी शैली को दोहरा पाना आसान नही है लेकिन अगर पारिवारिक मूल्यों के साथ जीवन जीया जाये तो इन भिन्नताओं को काफी हद तक कम कर सकेंगे.
बात जब परिवार और पारिवारिक विघटन कि हो रही है तो हम परिवार कि नीवं को कैसे भूल सकते हैं. पारिवारिक विघटन से सबसे बड़ा नुक्सान यदि किसी को रहा है तो परिवार के वृद्ध पुरुष हैं. पारिवारिक मूल्यों के द्योतक, हमारे बुजुर्ग जो कि संस्कृति और सभ्यता के वाहक हैं उनकी दशा पारिवारिक विघटन फलस्वरूप सबसे ज्यादा संवेदनशील स्थिति में हैं. आज old age home, Recreational home आदि सब पारिवारिक विघटन के उत्तपन्न उदहारण है. आज जिस प्रकार से बच्चे आया के ऊपर निर्भर है बुढ़ापे में माँ बाप नौकरों के ऊपर निर्भर हो जाते हैं जो कि बहुत ही कष्टदाई और करुणामयी होता है. युवापीढ़ी आज माँ बाप कि जिम्मेदारी लेने से पीछे हट रहें है. विचारो में हो रहे अंतर को वे generation gap की संज्ञा देते है.  लेकिन इस संज्ञा को जो लोग समझते हैं वे इस परेशानी को अच्छी तरह सुलझा लेते है और जो नही समझते वे अपनी खामियों को छिपाते रहते हैं.
बहरहाल पारिवारिक विघटन से सामाजिक और मानसिक तनाव उतपन्न होता है, स्वाभाविक है. जो लोग इस बात को समझते हैं उन्हें कम से कम अपने दायित्व को निभाने के लिए प्रयास जरुर करना चाहिए! 
"आज के समाज में , मानवीय मूल्य गिर चुकें हैं ,और ये सब कुत्सित राजनीति का कमाल है "परिणाम स्वरुप  जिन्दगी ही  नहीं ,मानवता  भी हार गई है।  राजनीति की चालें जीती हैं -समाज हार गया है। वोट की राजनीति जीत गई है-लोकतंत्र हार गया है। सत्ता की भूख ने ----समाज को कही का नहीं छोड़ा है - इसके कारण को ही सोचना होगा -हमें अपनी मानसिकता को बदलना होगा-और उसका एक ही सरल उपाय है -की हम राजनेताओं की सोच को बदलें-उनकों मजबूर कर दें -उनका जीना हराम कर दें.सत्य के लिए,और सत्य एक ही है राष्ट्र की ही आराधना

आज के समय आलोचना नहीं होती है -बस आरोप लगाये जाते हैं। सब अपनी ढपली लेकर -अपना ही राग सूना रहे हैं 'राजनीति में"वास्तविक परिवर्तन' करने पड़ेंगे - अगर मानवीय मूल्यों पर आधारित राजनीति होने लगे -तो -समाज क्या ,समाज का बाप भी बदल जाएगा परन्तु जबसे देश आज़ाद हुआ है- देश में  समाज के लिए राजनीती नहीं होती है ,समाज को बाटने के लिए राजनीती होती है.जब समाज में ही विघटन है तो देश की आराधना कैसे होगी ?

 ये राजनेता, आग्रह से ,विनती से -नहीं मानेगे गन्ना भी बिना :दबाव के रस नहीं देता है -
बस प्रशन एक ही है -कि ..दबाव का तरीका क्या हो --?तरीका बहुत ही आसान है कि विपक्ष  या मीडिया जब भी कोई आलोचना करे तो वो आलोचना "सत्य" से परिपूर्ण हो .और  ही साथ इन राजनेताओं के परिवार के लोग भी इसमें बहुत बड़ा योगदान दें सकते हैं। लगभग सभी लोगो के परिवार है - क्या इनके परिवार के लोग  इन राज नेताओं में "मानवीय मूल्यों "को जगाने का प्रत्न करेंगे -उनकों विवस करेंगे की वो अपने राजनीतक दल से ऊपर उठ कर -कुछ  सार्थक करें।राष्ट्रहित  में करे 

देश का मीडिया बहुत  ही ताकतवर है वो भी सहयोग दे सकता है अगर वो चाहे तो राजनीति बदल सकती है पर इनके भी अपने स्वार्थ हैं।    महिलाओं के सम्मान  के लिए मीडिया बहुत शोर मचाता है  परन्तु वो ही मीडिया ,अपनी site का 60 % हिसा ,  नारी  के नग्न चित्रों से -उनको आकर्शित करने के तरीको से - ताकत की दवाइयों से - सेक्स के आनद उठाने के तरीको से भरा रखता है।  क्या इस तरह से नारी का सम्मान कर रहे हैं ये मीडिया वाले।
 मीडिया जोर शोर से ज्योतिष की विधा का विरोध करते हैं -अंध विस्वास का विरोध करते हैं -शाम को बहस  कराते हैं और दूसरी तरफ सुबह से लेकर दोहपहर तक सबकी कुंडली में गृह दोष के उपचार बताते  है और उनका भविष्य बताते हैं। कितना बड़ा धोखा दे रही है ये मीडिया। 
कथनी  और करनी का ये अंतर ही सबसे ज्यादा कस्टप्रद  है देश और समाज के लिए। बिना राष्ट्रवाद की भावना के समाज का सुधार नहीं हो सकता है। राष्ट्रवाद की भावना ही समाज को जोड़ सकती है, उसका पोषण  कर सकती है। 
जब तक हर हिन्दुस्तानी में राष्ट्रवाद नहीं आएगा -ये राजनीति इस तरह से ही चलती रहेगी।  एक दूसरे पर आरोप लगते रहेंगे -समाज में विघटन होता ही रहेगा -लोग अपनी मन मर्ज़ी करते ही रहेंगे -अराजकता और आतंकवाद बढ़ता ही रहेगा 

1 comment:

  1. बहुत बहुत धन्यवाद आपका।

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