बधाई दीजिए कि बीती 23 जुलाई, 2016 को 89 साल की हो गई अपनी आकाशवाणी. उम्र के लिहाज से इसे आप बूढा कह सकते हैं. किंतु अपने मन की बात कहने के लिए हमारे प्रधानमंत्री जी द्वारा आकाशवाणी को चुनने से साफ है कि आकाशवाणी बीते वक्त का कोई चूका हुआ माध्यम नहीं है. हकीकत यह है कि रेडियो एक अरसे से जनसंवाद का लाजवाब माध्यम रहा है. सत्य-अहिंसा का अपने संदेश को भारतवासियों तक पहुंचाने के लिए 1930 में महात्मा गांधी ने भी रेडियो को ही चुना था. 15 अगस्त, 1947 को सबसे पहले रेडियो पर पंडित जवाहर लाल नेहरु की खनकती आवाज सुनकर ही भारतवासियों ने जाना था कि अब देश आजाद है. मौका चाहे, 20 नवंबर, 1964 चीन हमले के वक्त नेहरु द्वारा राष्ट्र के संबोधन का रहा हो अथवा इंदिरा जी द्वारा बढती आबादी, अनाज की कमी पर जन-अपील का, हमारे नेता रेडियो के जरिए जनता से जुङते रहे हैं. इंदिरा गांधी ने पाकिस्तान के हमले का माकूल जबाव देने और इमरजेंसी के ऐलान के लिए भी रेडियो के जरिये ही किया था.
माना जाता है कि रेडियो को जनसंवाद माध्यम के रूप में इस्तेमाल करने वाली शासकीय शख्सियत के रूप में अमेरिका में न्यूयार्क के तत्कालीन गर्वनर रूजवेल्ट ( वर्ष-1929) पहले थे. उन्होने रेडियो को जनंसवाद के माध्यम के रूप में तवज्जो दी. युवावस्था में रेडियो के लिए काम कर चुके रोनाल्ड रीगन जब 1982 में अमेरिका के राष्ट्रपति हुए, तो उन्होने हर शनिवार रेडियो से जरिए जनसंवाद शुरु किया. हालांकि द्वितीय विश्व युद्ध (1939-1945), मानवता के इतिहास में एक काला धब्बा है; किंतु इसमें कोई शक नहीं कि इस युद्ध में बम-बंदूकों का इस्तेमाल तो हुआ ही, एक लङाई रेडियो के जरिए भी लङी गई. इसके बाद ही दुनिया की सरकारों ने रेडियो की असल ताकत को पहचाना.
इससे यह आशा भी बलवती होती है कि यदि रेडियो पर जम आई धूल को झाङ-पोछकर नये रुतबे के साथ पेश किया जायेे, तो यह फिर से जनसंवाद का एक बेहतरीन और व्यापक औजार बन सकता है. ''यह आकाशवाणी की लोकप्रसारक सेवा है'' - गत् कुछ वर्षों से आकाशवाणी ने यह कहने का मौका पुनः हासिल करने की कवायद शुरु कर दी है. वह स्टुडियो के पुराने औपचारिक अंदाज और दीवारों से बाहर निकल कुछ अनौपचारिक और नूतन होने के मूड में सामने आने लगी है. हांलाकि पुरानी खेप को खपाने की बजाय, नई पौध के हाथों कमान देने के मूड बना, तो रास्ते और भी बनेंगे और आकाशवाणी और भी जवां होगी.
आज सैकङों टी वी चैनल हैं. निजी एफ एम चैनल हैं. सामुदायिक रेडियो हैं. लाखों अखबार हैं. करोङो मोबाइल हैं. सामाजिक संवाद के लिए सोशल मीडिया है. जो सुनना चाहो, जानना चाहो, देखना चाहो; इंटरनेट पर पूरी दुनिया है. रेडियो से इतर यदि हम आकाशवाणी की बात करें, तो तकनीकी क्रांति और सरकारी माध्यमों पर सरकारी दबाव के चित्र को सामने रखकर आज आप पूछ सकते है कि ऐसे में कोई आकाशवाणी को क्यों सुने ? मेरा मानना है, यही वह एक प्रश्न है जो कि आकाशवाणी के सामने एक बङी चुनौती भी रखता है और उसके लिए संभावनायें भी पेश करता है.
चुनौती यह है कि यह कैसे हो कि दुनिया आकाशवाणी को सुनना चाहें. संभावना यह है कि अपने खर्चों के लिए आकाशवाणी किसी विज्ञापन या प्रायोजक की ओर ताकने को मजबूर नहीं है. सरकार उसके खर्चे की व्यवस्था करती है. अतः आकाशवाणी लोकप्रसारक की अपनी उस भूमिका के साथ न्याय कर सकती है, जो बाजार के दबाव में जनसंचार के दूसरे माध्यम नहीं कर पा रहे. तकनीकी और भाषाई तौर पर आज जितनी विविधता और पहुंच आकाशवाणी की है, उतनी सिर्फ भारत नहीं, पूरे एशिया के किसी जनसंचार माध्यम की नहीं है. दुनिया में कोई और रेडियो अथवा टी वी चैनल समूह नहीं है, जिसके पास कर्नाटक अथवा हिंदोस्तानी शास्त्रीय संगीत व वाद्य वृंद प्रस्तुतियों को समर्पित कोई चैनल हो. कभी रेडियो घर में रखने के लिए लाईसेंस व सालाना रखना पङता था, आज रेडियो मुफ्त और बिना बिजली चलने वाला माध्यम है. इसे घर में सुनें या खेत की जुताई करते हुए बैल के गले में टांगकर. रेडियो किसी अनपढ को खेती के गुर सिखा सकता है. रेडियो किसी अंधे को पढा सकता है. एक साथ इतनी सारी संभावनायें किसी और जनसंचार माध्यम में नहीं होना, आकाशवाणी के लिए संभावनाओं के कई द्वार खोलता है.
गौर कीजिए कि भारत में रेडियो प्रसारण, अंग्रेजी हुकुमत की देन थी. उन्होने ही एक निजी कंपनी को अधिकृत कर भारत में 23 जुलाई, 1927 को पहला (मंुबई) और 26 अगस्त, 1927 को दूसरा (कलकत्ता) रेडियो स्टेशन शुरु कराया. सरकारी होने के बाद 8 जून, 1936 से इन्हे एक नया और नायाब नाम मिला: 'आॅल इंडिया रेडियो'.
जब भारत आजाद हुआ, तो आकाशवाणी के पास कुल छह केन्द्र, 18 ट्रांसमीटर और देश के ढाई प्रतिशत भूगोल और 11 प्रतिशत लोगों में इसकी पहुंच थी; आज आकाशवाणी के पास 413 प्रसारण केन्द्र हैं. देश के 92 प्रतिशत भूगोल और 99.19 प्रतिशत आबादी तक इसकी पहुंच है. लेह-तवांग जैसे सुदूर क्षेत्र, कठिन सीमायें और हमारे जाबांज सैनिक भी इस जद में शामिल हैं, जिन्हे आकाशवाणी के अलावा और कोई जनसंचार माध्यम बाकि दुनिया से नहीं जोङता. 23 भाषाओं और 146 बोलियों में इसके कार्यक्रम प्रसारित होते हैं. सात भारतीय और 16 विदेशी भाषाओं के साथ आकाशवाणी की विदेश प्रसारण सेवा दुनिया के 54 देशों में अपनी पहुंच रखती है. मनोरजंन और समाचारों के लिए मोबाइल सेट और डी2एच पर लोगों की बढती रुचि को ध्यान में रखते हुए आकाशवाणी ने अपने कुल मौजूदा 584 ट्रांसमीटर में सबसे ज्यादा संख्या, 391 एफ एम ट्रंासमीटर की ही रखी है. आकाशवाणी के प्रसारण व कार्यक्रम निर्माण की तकनीक पूरी तरह डिजीटल है. आकाशवाणी के पास राष्ट्रीय से लेकर स्थानीय स्तर तक स्टुडियो सुविधा उपलब्ध है. डी2एच पर इसके 21 चैनल उपलब्ध है. आकाशवाणी के सभी प्रमुख कार्यक्रमों को अब आप कभी भी इंटरनेट पर सुन सकते हैं.
तकनीकी उत्थान के इस चित्र को सामने रखें, तो निस्संदेह हम कह सकते हैं कि चुनौतियों से निबटने के लिए रेडियो ने तैयारी की है. किंतु यदि आकाशावाणी के श्रोता अनुसंधान एकांश, निगरानी इकाई की कार्यप्रणाली, उसके लिए उपयोग की जा रही तकनीक और राष्ट्रीय प्रसारण सेवा की उपेक्षा के चित्रों पर निगाह डालें, तो कह सकते हैं कि अभी तैयारी और चाहिए. यदि विदेश प्रसारण सेवा के कार्यक्रम प्रसारण के अपने लक्ष्य क्षेत्र की बजाय भटककर दूसरे क्षेत्र में सुनाई दें, तो भी कहा जा सकता है कि कमियों से उबरने की जरूरत यहां भी है. विशेष श्रोता और स्थान विशेष के लिए एफ एम ट्रांसमीटरों का इस्तेमाल करके बङे-बङे राजमार्गांे के बीच जन-जुङाव की पगंडडियों का एक विशाल संजाल खङा किया जा सकता है. इस लिहाज से कह सकते हैं कि नई उपलब्ध तकनीक का जितना अधिकतम सदुपयोग संभव है, वह किया जाना अभी बाकी है.
लोकप्रसारक की भूमिका की दृष्टि से यदि हम निजी मीडिया के रुख पर गौर करें, तो आकाशवाणी-दूरदर्शन सरीखे माध्यमों की जरूरत और ज्यादा महसूस होती है. जरा सोचिए, लोकसेवक की अपनी भूमिका में संवाद के लिए सरकार के पास सुदूर इलाकों में पहुंच वाले जनसंचार माध्यम के नाम पर आकाशवाणी और दूरदर्शन के सिवा और क्या है ? क्या कोई और अथवा निजी तंत्र है, जो सरकार की योजनाओं, मुहिमों को ऐसे इलाकों में पहुंचा रहा है ? क्या कोई निजी टी. वी. या रेडियो चैनल है, जिसमें आपको गांव के गरीब की सीधी आवाज सुनाई देती हो ? कुछ सरकारी वेबसाइट, पोर्टल व सरकारी पत्रिकायें हैं. उनकी पहुंच सीमित तो है ही, गरीब की आवाज की उपस्थिति उनमें भी नहीं है. केन्द्र से लेकर राज्य व जिला स्तरीय सूचना व जनसंपर्क केन्द भी महज् औपचारिक बनकर रह गये हैं.
इस दृष्टि से देखें तो यह कह सकते हैं कि आकाशवाणी-दूरदर्शन को सरकारी छाया से मुक्त होने से ज्यादा जरूरत, सरकार की नीतियों, कानूनों और लोक योजनाओं की जानकारी और कार्यप्रणाली को पूरी मुस्तैदी व ईमानदारी के साथ लोगों तक पहुंचाने की है. जरूरत है कि आकाशवाणी-दूरदर्शन सरकारी योजनाओं के क्रियान्वयन और उसमें आ रही दिक्कतों को उजागर करे. एक लोक प्रसारक के रूप में सरकार व लोगों के बीच में डाकिये तथा लोक निगरानी तंत्र की भूमिका निभाये.
2004 से लेकर 2011 तक के जनगणना दस्तावेजों के मुताबिक, भारत के एक-चौथाई अघ्यापक विद्यालय ही नहीं आते. प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों में डाॅक्टर की उपस्थिति के आंकङे बेहद निराशाजनक हैं. गरीबी रेखा से नीचे होते हुए भी बीपीएल कार्डधारक बन पाने का सपना कई को अभी भी इस जन्म में पूरा होता नहीं दिखता. उचित दर दुकानों से हक का राशन लेना गंावों में अभी एक जंग लङने जैसा है. आकाशवाणी की असल भूमिका, लोक जरूरत के ऐसे मसलों को सामने लाने की है; 'बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय' के अपने सूत्र वाक्य का सिरा पकङकर उसे अंजाम तक पंहुचाने की है.
किंतु यह तभी संभव है, जब आकाशवाणी-दूरदर्शन के संवाददाता प्रेस विज्ञप्ति व बयान आधारित समाचारों की दुनिया से बाहर निकलें. कार्यक्रम निष्पादक, पगडंडियों के पैदल रास्ते पर चलकर गरीब गांवों, कस्बों और झोपङ पट्टियों की उस उपेक्षित दुनिया में जाने की खुद पहल करें, जिन्हे आज भी इंतजार है कि कोई आयेगा और एक न एक दिन उनकी आवाज सरकार द्वारा सुनी जायेगी. रेडियो सुनकर और उसके प्रसारक को अपनी प्रतिक्रिया से अवगत कराकर दायित्व निर्वाह की इस प्रक्रिया को हम दोतरफा बना सकते हैं. आइये, बनायें.
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