Thursday, September 2, 2021

मन का भूत

 भविष्य में खराब होने और खराब होने की स्थिति में आने के बाद, यह भविष्य में आने वाले भविष्य के लिए उपयुक्त होगा।


जब तक उसकी मृत्यु हो जाए, तब तक वह भविष्य में रहेगा। पर लग की रात, एक खराब होने और इंसान पर हमला करने वाली शैतानी लडें, लडने की रात काम करेंगे । भूत हर रात में आऊट वादक फी का कौशल!


इंसान और पत्नी के बीच एक बार बैठने वाला था। किसी भी व्यक्ति के खराब स्थिति वाले गांव में एक जैन गुरु के पास जाने हों.


जेन गुर्जर की सेटिंग में मैरियट सेट होने के बाद, जेन वैसी ही शादी के लिए तैयार हो जाएगा। है"


जैन गुरु ने पूरी समस्या सुनकर कहा, इस बार जब वह आए तो उसके साथ कुछ सौदेबाजी करना, उससे कहना अगर तुम सब कुछ जानती हो तो बस मेरे एक सवाल का जवाब दे दो। अगर मैं खराब हूं तो खराब मौसम, और जीवन भर खराब होने के कारण!


बैटरी ने बैस बैटरी के साथ खतरनाक, जैन गुरु ने मंगल के एक इंसान की बैटरी के जीवन काल में भी कई गुण वाले इंसानों के जीवन काल में बदलते हैं। मौसम के हिसाब से पल्‍ट प्‍वाइंट्स पल्‍ट प्‍यार के मौसम की भविष्यवाणी करने के लिए मौसम की भविष्यवाणी करता है।


ध्वनि प्रदूषण ने ध्वनि प्रदूषण किया।

मैंने टाइम टाइम टाइम गिरने वाला यह भी बैटला ...


प्रश्न का उत्तर किसी भी तरह से उपलब्ध नहीं है। पता लगाया गया है? भविष्य में आने वाले इंसानों ने भविष्य में ऐसा किया होगा। इसीलिए .


भविष्य में यह सोची-समझी होगी, सोची-समझी सोच, कल्पना और कल्पना के अनुसार, पौधे की सोच में बदलाव होंगे, इसलिए यह मानसिक सोच के अनुकूल है। ️ हमने️ हमने️️️️️️️️️️️️ 


पर्यावरण के अनुकूल, इस तरह के पर्यावरण के लिए, हम इस बारे में अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। असामान्य भारत मेँ प्रदर्शित होने वाले दृश्य टीवी और इंटरनेट पर प्रदर्शित होते हैं।


इस गेम को दिमाग की कल्पना का है, आपका दिमाग इस गेम से संबंधित है गेम खेलता है, तो आप इस गेम को पसंद करेंगे या नहीं। ।


अंत में खराब दिमाग खराब होने की स्थिति में है, तो खराब दिमाग खराब होने के स्थिति में खराब हो जाएगा, जैसा कि मन खराब दिमाग के हिसाब से खराब होता है। , मुल्ला, मौलवियों, पंडित, पुरोहितों के घेरे में कटवाता है। 


इस तरह से आपके फ़्रीडेक्टेड, प्रेटैट, प्रेत. जो मनः अवस्था को श्रेष्ठता के रूप में माना जाता है, सर्वशक्तिमान देवता के रूप में विचार किया जाता है, जो स्वयं के योग्य बाक़ी के लिए स्थिर होता है। इसलिए सत्य को प्रकाशित करें।



Friday, April 6, 2018

महज दलितों के सवाल नहीं अपितु देश के हर इंसाफ पसंद नागरिक का सवाल है..

कल सुप्रीमकोर्ट के फैसले के विरोध में देश के तमाम दलित संगठन भारत बंद में सड़क पर थे. वहीँ इस बंद में लगभग विपक्षी पार्टी भी समर्थन करते नजर आये. बिहार से विपक्षी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल, वाम पार्टियां, जाप संरक्षक सह मधेपुरा सांसद पप्पू यादव के अलावे विधानसभा में तमाम सत्तापक्ष और विपक्ष के विधायक मानव श्रृंखला बनाते हुए नजर आये.
केंद्र सरकार ने भारत बंद की घोषणा से पहले ही दलित उत्पीड़न कानून में किसी भी तरह के बदलाव के विरुद्ध पुनर्विचार याचिका दायर करने की घोषणा की थी और सोमवार को जिस समय दलितों को गुमराह कर सड़क पर उपद्रव किये जा रहे थे, उस समय कोर्ट में सरकार याचिका दायर कर रही थी. जिस मुद्दे पर लगभग सभी दल एकमत हैं उस पर एनडीए सरकार को निशाना बनाना और लोगों को तोड़फोड़ के लिए उकसाना बेहद गैर जिम्मेदाराना हरकत थी. विपक्ष ने बंद को हिंसात्मक तेवर देकर केवल अपनी हताशा ही जाहिर की.
एनडीए सरकार ने दलित समाज के व्यक्ति को सम्मान देने के लिए उन्हें राष्ट्रपति के सर्वोच्च आसन तक पहुंचाया। देश की राजधानी में भारतरत्न भीम राव अम्बेडकर का स्मारक बनवाया। जिस कांग्रेस ने बाबू जगजीवन राम को प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति नहीं बनने दिया, उसके अध्यक्ष राहुल गांधी को दुसरे के डीएनए में दलित दमन खोजने की जरुरत नहीं है.
http://www.hastakshep.com/hindiopinion/bjp-is-compelling-country-in-civil-war-17025

भारत बंद : हिंसा में शामिल लोगों के खिलाफ मुकदमा दर्ज

भारत बंद के दौरान हिंसा करने वाले 60 लोगों के खिलाफ सहारनपुर के बेहट थाने पर अपराधिक मुकदमा दर्ज कर कार्रवाई शुरू की गई है। पुलिस ने दरोगा जितेंद्र भाटी की तहरीर पर पुलिस पर हमला करने वाले 60 लोगों के खिलाफ आईपीसी की धारा 147, 148, 332, 336, 341, 353, 427 और सेविन क्रिमिनल एक्ट के तहत मुकदमा दर्ज कर जांच और कार्रवाई शुरू कर दी है। भीम आर्मी के जिला अध्यक्ष कमल वालिया ने पत्रकारों से कहा कि भारत बंद में हुई हिंसा से उनके संगठन का कोई भी लेना-देना नहीं है। उन्होंने हिंसक घटनाओं की सीबीआई से जांच कराने की मांग की है। उनका कहना था कि भारत बंद के दौरान पूरे देश का दलित एकजुट होकर मांग की थी कि उच्चतम न्यायालय एससी/एसटी एक्ट में संशोधन नहीं करे। आर्मी के राष्ट्रीय प्रवक्ता मंजीत नौंटियाल ने पत्रकारों के सामने आरोप लगाया कि मेरठ में उपद्रव के लिए भाजपा और आरएसएस के लोग जिम्मेदार है। उन्होंने कहा कि भारत बंद के दौरान दलितों पर चलाई गई एक-एक गोली का भीम आर्मी सरकार और अधिकारियों से हिसाब मांगेगी। सहारनपुर रोड़वेज के क्षेत्रीय प्रबंधक मनोज पुंडीर ने कहा कि उनकी ओर से पुलिस में दर्ज कराई रिपोर्ट में कहा गया है कि उपद्रवियों ने 11 बसों को भारी नुकसान पहुंचाया है। इस उपद्रव में यूपी रोडवोज को करीब 33 लाख रूपए का नुकसान हुआ है। उपद्रव में सहारनपुर रोडवेज के खतोली डिपो, एक बस को हापुड़ में और मुजफ्फर नगर बस डिपो की एक बस को उपद्रवियों ने फूंक दिया था। खतोली डिपो की तीन, मुजफ्फरनगर डिपो की चार और छुटमलपुर और सहारनपुर डिपो की दो-दो बसों को विभिन्न स्थानों पर उपद्रवियों के आक्रोश का सामना करना पड़ा। श्री पुंडीर के अनुसार सहारनपुर परिवहन निगम को 33 लाख रूपए का भारी नुकसान उठाना पड़ा है।

SC/ST एक्ट- सुप्रीम कोर्ट का फैसले में तुरंत बदलाव से इंकार

एससी/एसटी (अत्याचार रोकथाम) कानून में बदलाव के खिलाफ देशभर में जारी दलित आंदोलन के बीच सुप्रीम कोर्ट ने अपने पुराने फैसले में बदलाव से इंकार किया है. अब अगली सुनवाई दो हफ्ते बाद होगी. सुप्रीम कोर्ट ने सभी पक्षों से 3 दिन के भीतर लिखित नोट जमा करने को कहा है. बता दें कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में तुरंत कोई बदलाव से मना किया. कोर्ट ने कहा कि SC/ST एक्ट के प्रावधान के अलावा शिकायत में बाकी जो भी अपराधों का ज़िक्र हो, उन पर तुरन्त एफआईआर दर्ज हो. शिकायत करने वाले को जांच तक मुआवज़े का इंतज़ार नहीं करना होगा.

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हम वंचित तबके के लिए न्याय को बेहद अहम मानते हैं. हमने एक्ट में कोई बदलाव नहीं किया. सिर्फ पुलिस के हाथों निर्दोष लोगों का दमन न हो, इसके कुछ उपाय किए. सुनवाई के दौरान कोर्ट ने टिप्पणी करते हुए कहा कि सड़क पर विरोध करने वालों ने शायद हमारा फैसला पढ़ा भी नहीं होगा. फैसले का मकसद सिर्फ यही था कि निर्दोष लोगों को गिरफ्तारी से कुछ संरक्षण हासिल हो सके.

इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने 20 मार्च को अपने फैसले में कहा था कि एससी/एसटी अत्याचार रोकथाम अधिनियम के तहत आरोपी की गिरफ्तारी अनिवार्य नहीं है और कार्रवाई प्रारंभिक जांच या सक्षम अधिकारी की मंजूरी के बाद होगी.

केंद्र सरकार की ओर से दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस उदय उमेश ललित और जस्टिस आदर्श कुमार गोयल की खंडपीठ ने कहा, ''वह एक्ट के खिलाफ नहीं है लेकिन निर्दोषों को सजा नहीं मिलनी चाहिए.''

अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने कल भारत बंद के दौरान बड़े पैमाने पर हुई हिंसा और जान-माल के नुकसान का हवाला देते हुए सुप्रीम कोर्ट से तत्काल सुनवाई करने की मांग की थी. जिसके बाद शीर्ष अदालत ने सुनवाई के लिए 2 बजे का समय तय किया था.

केंद्र सरकार की क्या है दलील?

केन्द्र सरकार ने अपनी पुनर्विचार याचिका में कहा है कि 1989 में बनाये गये इस कानून के कठोर प्रावधानों को नरम करने संबंधी 20 मार्च के फैसले के बहुत ही दूरगामी परिणाम हैं. पुनर्विचार याचिका को न्यायोचित ठहराते हुये केन्द्र ने कहा है कि अनुसूचित जाति और अनजातियों की सामाजिक आर्थिक स्थिति में सुधार के अनेक उपायों के बावजूद वे अभी भी कमजोर हैं.

याचिका में कहा गया है कि वे अनेक नागरिक अधिकारों से वंचित हैं. उनके साथ अनेक तरह के अपराध होते हैं और उन्हें अपमानित तथा शर्मसार किया जाता है. अनेक बर्बरतापूर्ण घटनाओं में उन्हें अपनी जान माल से हाथ धोना पड़ा है. याचिका के अनुसार अनेक ऐतिहासिक, सामाजिक और आर्थिक कारणों से उनके प्रति बहुत ही गंभीर अपराध हुये हैं.

केन्द्र ने कहा है कि इस कानून की धारा18 ही इसकी रीढ़ है क्योंकि यही अनुसूचित जाति और जनजातियों के सदस्यों में सुरक्षा की भावना पैदा करती है और इसमें किसी प्रकार की नरमी ज्यादतियों के अपराधों से रोकथाम के मकसद को ही हिला देती है.

देशभर में हिंसा

20 मार्च के फैसले के खिलाफ जारी राजनीतिक लड़ाई सोमवार को सड़कों पर दिखी. दलित संगठन, राजनेता सड़कों पर उतरे. देश के कई हिस्सों में आगजगी हुई, कर्फ्यू जैसे हालात बने. कम से कम 9 लोगों की मौत हो गई. मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस समेत, माकपा-भाकपा, बीएसपी, कांग्रेस, आरजेडी समेत कई दलों ने आंदोलन और भारत बंद का समर्थन किया. हालांकि इस दौरान हुई हिंसा की कड़े शब्दों में निंदा की.

दलित संगठनों के भारत बंद के दौरान सरकार बैकफुट पर दिखी. सरकार ने दावा किया कि वह सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ पुनर्विचार याचिका दायर कर चुकी है. केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने भी आज लोकसभा में बयान दिया. सरकार की दलितों और जनजातियों के लिए वर्तमान आरक्षण नीति में बदलाव की कोई मंशा नहीं है. राजनाथ सिंह ने लोकसभा में अपने बयान में उन अटकलों को खारिज कर दिया जिसमें यह कहा जा रहा है कि सरकार आरक्षण प्रणाली को समाप्त करना चाहती है. उन्होंने कहा, "आरक्षण नीति को लेकर अफवाहें फैलाई जा रही हैं, यह गलत हैं."

हालांकि कई विपक्षी दलों का कहना है कि अगर सरकार इतनी ही दलितों के अधिकार को लेकर सजग थी तो अध्यादेश लेकर आ सकती थी. राहुल गांधी ने सोमवार को कहा था, ''दलितों को भारतीय समाज के सबसे निचले पायदान पर रखना RSS/BJP के DNA में है. जो इस सोच को चुनौती देता है उसे वे हिंसा से दबाते हैं. हजारों दलित भाई-बहन आज सड़कों पर उतरकर मोदी सरकार से अपने अधिकारों की रक्षा की मांग कर रहे हैं. हम उनको सलाम करते हैं.''

http://abpnews.abplive.in/india-news/sc-st-act-case-hearing-in-supreme-court-modi-govt-review-petition-dalit-protest-bharat-bandh-823520

आख़िर इस लड़के का गुनाह क्या है

यह बिहार है. यहां सुशासन है. क़ानून का राज है. पुलिस क़ानून का शासन स्थापित करवाती है और क़ानून सबूत मांगता है और सबूत के आधार पर ही फैसले होते हैं, लेकिन जब पुलिस ही सबूत की अनदेखी कर दे, तब क्या होगा? तब फैसला कैसे होगा? तब न्याय कहां मिल पाएगा? मधुबनी के अरे़ड गांव के सोनू झा की कहानी भी कुछ ऐसी ही है. सोनू झा जेल में बंद है, उस गुनाह के लिए, जो उसने किया ही नहीं. कम से कम उपलब्ध सबूत प्रथम दृष्टा तो यही कहते हैं. चौथी दुनिया की एक्सक्लूसिव रिपोर्ट :
जेल में बंद सोनू झा- आख़िर इस लड़के का गुनाह क्या है
जेल में बंद सोनू झा- आख़िर इस लड़के का गुनाह क्या है
सोनू झा की कहानी को समझने के लिए पहले बिहार के मधुबनी कांड को जानना ज़रूरी है. मधुबनी ज़िले के अरे़ड गांव के राजीव कुमार झा का बेटा प्रशांत झा एक दिन घर से ग़ायब हो गया. पिता ने गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज कराई. कुछ ही दिन बाद एक सिरकटी लाश मिली. प्रशांत के परिवार के मुताबिक़, यह लाश प्रशांत की थी. इसके बाद लोगों का ग़ुस्सा भ़डका और 12 अक्टूबर, 2012 को मधुबनी ज़िला मुख्यालय में जमकर बवाल मचा. थाना, कलेक्टेरिएट में आगज़नी हुई, पथराव हुआ और पुलिस ने फायरिंग की, तो गोलीबारी में कुछ लोग मारे गए. लेकिन इस पूरे घटनाक्रम में एक नया मो़ड तब आया, जब प्रशांत एक ल़डकी के साथ दिल्ली के महरौली में पाया गया, यानी वह सिरकटी लाश किसी और की थी. बहरहाल, प्रशांत और उस ल़डकी को पुलिस कस्टडी में बिहार लाया गया. अभी प्रशांत रिमांड होम में है और ल़डकी अपने घर. इसके बाद एक नई कहानी शुरू होती है, जिसका संबंध अरे़ड गांव के सत्रह साल के ल़डके सोनू झा से है. मधुबनी में 12 अक्टूबर को भ़डकी आग, तो़डफोड एवं आगज़नी के मामले में पुलिस ने सैक़डों अज्ञात एवं कुछ नामज़द लोगों के ख़िलाफ़ प्राथमिकी दर्ज की. ग़ौरतलब है कि इस उपद्रव की घटना में सरकारी संपत्ति को ऩुकसान पहुंचा था, सरकारी दस्ताव़ेज जलाए गए थे. इसके बाद गिरफ्तारी का दौर शुरू हुआ. पहले 60 लोगों को गिरफ्तार किया गया. इसके बाद 25 अक्टूबर, 2012 को अरे़ड गांव में रात में पुलिस पहुंची और 12 लोगों को गिरफ्तार किया गया. गिरफ्तार होने वालों में सत्रह साल के सोनू झा का नाम भी शामिल है. पुलिस के मुताबिक़, उसे 12 अक्टूबर को हुए पथराव एवं आगज़नी की घटना में शामिल होने की वजह से गिरफ्तार किया गया. अभी सोनू झा जेल में बंद है. सोनू झा के साथ उसके पिता घनश्याम झा और एक भाई मोनू झा को भी पुलिस ने गिरफ्तार कर जेल भेज दिया. घनश्याम झा पान की एक दुकान चलाकर अपना और अपने परिवार का जीवन-यापन करते हैं. बहरहाल, चौथी दुनिया से बातचीत करते हुए सोनू झा के एक संबंधी संतोष कुमार झा (सोनू झा के जीजा) बताते हैं कि सोनू झा को जिस आगज़नी की घटना में शामिल होने के आरोप में गिरफ्तार किया गया है, यह ग़लत है, क्योंकि असल में सोनू उस दिन शहर में था ही नहीं. वह बताते हैं कि सोनू झा निर्दोष है और वह 10 से लेकर 13 अक्टूबर के बीच शहर ही क्या, बिहार से भी बाहर था. चौथी दुनिया के पास उपलब्ध दस्तावेज़ के मुताबिक़, सोनू झा 13 अक्टूबर को एक परीक्षा के लिए जालंधर में उपस्थित था. सोनू को इंडो-तिब्बत बॅार्डर पुलिस (आईटीबीपी) की शारीरिक परीक्षा के लिए बुलावा भेजा गया था. दस अक्टूबर को सोनू झा ने शहीद एक्सप्रेस से इंडो-तिब्बत बॅार्डर पुलिस की परीक्षा देने के लिए मधुबनी से ट्रेन पक़डी. उसके ट्रेन टिकट का पीएनआर नंबर है 660-6879001, टिकट संख्या है 66844694, कोच संख्या एस-5 और सीट नंबर है 36. सोनू झा 13 अक्टूबर को इंडो-तिब्बत बॅार्डर पुलिस की शारीरिक परीक्षा में शामिल भी हुआ, लेकिन वह शारीरिक परीक्षा पास करने के लिए ज़रूरी लंबाई की अहर्ता को पूरी नहीं कर पाया. इस वजह से उसका चयन नहीं हो पाया.
आईटीबीपी जालंधर के कमांडेंट विजय कुमार देसवाल ने अपना हस्ताक्षरयुक्त एक रिजेक्शन स्लिप (पर्ची) भी जारी की, जिसमें चयन न होने का कारण भी बताया गया है. इस  पर्ची पर साफ़-साफ़ 13 अक्टूबर की तारीख़, जगह का नाम यानी जालंधर, चयन न होने के कारण और कमांडेंट एवं ख़ुद सोनू झा के हस्ताक्षर हैं, यानी कुल मिलाकर रिजेक्शन स्लिप यह साबित करने में सक्षम है कि 13 अक्टूबर, 2012 को सोनू झा जालंधर में आईटीबीपी की परीक्षा देने के लिए मौजूद था.
इस संबंध में आईटीबीपी जालंधर के कमांडेंट विजय कुमार देसवाल ने अपना हस्ताक्षरयुक्त एक रिजेक्शन स्लिप (पर्ची) भी जारी की, जिसमें चयन न होने का कारण भी बताया गया है. इस  पर्ची पर साफ़-साफ़ 13 अक्टूबर की तारीख़, जगह का नाम यानी जालंधर, चयन न होने के कारण और कमांडेंट एवं ख़ुद सोनू झा के हस्ताक्षर हैं, यानी कुल मिलाकर रिजेक्शन स्लिप यह साबित करने में सक्षम है कि 13 अक्टूबर, 2012 को सोनू झा जालंधर में आईटीबीपी की परीक्षा देने के लिए मौजूद था. इसके अलावा, सोनू झा के जीजा संतोष झा बताते हैं कि जालंधर जाते व़क्त सोनू अपने साथ एक मोबाइल (नंबर-9534952425) भी ले गया था. उनका कहना है कि यदि 10 से 15 अक्टूबर 2012 के बीच की कॉल डिटेल निकलवाई जाए, तो उससे भी पता चल जाएगा कि सोनू झा इन पांच दिनों के बीच बिहार से बाहर रहा है. इससे यह भी स्पष्ट हो जाएगा कि मधुबनी से जालंधर एवं जालंधर से मधुबनी आने-जाने का समय एवं तारीख़ क्या थी. सवाल है कि  जब इतने सारे साक्ष्य सोनू झा के पक्ष में जाते हैं, तब भी उसे गिरफ्तार क्यों किया गया? और यदि गिरफ्तारी हो भी गई, तो उसे जेल भेजने से पहले पुलिस ने इन साक्ष्यों पर ग़ौर क्यों नहीं किया. इस संबंध में सोनू के जीजा संतोष झा बताते हैं कि वह इन साक्ष्यों के साथ पुलिस से भी मिले. एसपी से भी मिले, इस मामले में पुलिस महानिरीक्षक, राज्य एवं केंद्रीय मानवाधिकार आयोग को पत्र भी लिखे हैं, लेकिन कहीं से कोई संतोषप्रद जवाब नहीं मिला और न ही कोई आश्‍वासन मिला. वह बताते हैं कि पुलिस वाले आईटीबीपी की रिजेक्शन स्लिप को साक्ष्य नहीं मान रहे हैं. पुलिस का कहना है कि ऐसा स्लिप तो कोई भी बनवा सकता है. आश्‍चर्य की बात तो यह है कि पुलिस ने ट्रेन टिकट एवं मोबाइल कॉल डिटेल को भी साक्ष्य मानने से इंकार कर दिया. बहरहाल, सवाल उठता है कि क्या गृह मंत्रालय के तहत आने वाले आईटीबीपी के दस्तावेज़ को भी सबूत नहीं माना जा सकता है? संतोष झा बताते हैं कि वह इस मामले में आईटीबीपी के कमांडेंट विजय कुमार देसवाल से भी मिले हैं और उन्होंने एक पत्र लिखकर मुझे दिया है. पत्र में यह लिखा हुआ है कि सोनू कुमार झा 13 तारीख़ को जालंधर में आईटीबीपी की परीक्षा के लिए मौजूद था. ज़ाहिर है, आईटीबीपी के एक कमांडेंट का लिखा पत्र, जो सोनू झा की बेगुनाही का शायद सबसे ब़डा दस्ताव़ेज होगा, अदालत में मान्य हो सकता है, लेकिन आईटीबीपी की रिजेक्शन स्लिप को पुलिस ने सबूत मानने से इंकार कर दिया. नतीजतन, सत्रह साल का एक ल़डका पिछले चार महीनों से जेल में उस गुनाह के लिए बंद है, जो उसने किया ही नहीं. इस पूरे मामले में एक सवाल राज्य सरकार एवं स्थानीय प्रशासन से भी जु़डा हुआ है. यह सही है कि किसी भी तरह की हिंसा को जायज़ नहीं माना जा सकता, क्योंकि मधुबनी कांड में जो कुछ भी हुआ, वह ग़लत था. आगज़नी की घटना, पथराव, सरकारी संपत्ति को ऩुकसान पहुंचाना, ये सब ग़लत था, लेकिन क्या एक निर्दोष को गिरफ्तार करना सही था? क्या पुलिस प्रशासन द्वारा सबूतों की अनदेखी करना सही था?

आपातकाल : आपबीती

आपातकाल के दौरान जेल गए लोगों की पीढ़ी के गिनती के लोग ही बचे होंगे, मगर उनकी अगली पीढ़ी उस दौर को याद करके सिहर जाती है, डर से आक्रांत हो जाती है और उस दौर को याद भी नहीं करना चाहती। मुझे भी वह दौर याद करके घुटन सी महसूस होने लगती है, क्योंकि मेरे पिता दिवंगत डॉ. पुष्कर नारायण पौराणिक भी 19 माह तक मध्यप्रदेश की छतरपुर जेल में रहे थे। 

आपातकाल में वैसे तो ज्यादातर राजनीतिक दलों से या कांग्रेस का विरोध करने वालों को जेलों में डाल दिया गया था, मगर मेरे पिताजी को सरकारी अस्पताल में आयुर्वेदिक चिकित्सक होने के बावजूद गिरफ्तार कर लिया गया। इसकी वजह उनकी बेवाकी रही। उन्होंने कभी किसी नेता के आगे झुकना पसंद नहीं किया और हर जरूरतमंद के लिए किसी से भी भिड़ने में हिचके भी नहीं। वे चिकित्सक के तौर पर कम, कर्मचारी नेता और सामाजिक कार्यकर्ता के तौर पर ज्यादा पहचाने जाते थे। 

देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की एक घोषणा के साथ 25-26 जून, 1975 की दरम्यानी रात से ही आपातकाल लगा दिया गया। इसके बाद कांग्रेस और सरकार विरोधियों की गिरफ्तारी का दौर शुरू हो गया। पिताजी सरकारी चिकित्सक और हर किसी की मदद के लिए हर वक्त तैयार रहने की फितरत के कारण उनके पुलिस और प्रशासन में चाहने वालों की कमी नहीं थी। लिहाजा, एक पुलिस अधिकारी ने उन्हें बताया कि गिरफ्तार किए जाने वालों की सूची में उनका भी नाम है, माफीनामा दे दें तो वे उससे बच सकते हैं। 

मगर पिताजी ने माफीनामा देने से यह कहते हुए इनकार कर दिया कि वे किसी इंसान से माफी नहीं मांगते। फिर क्या था, उनकी गिरफ्तारी 23 जुलाई, 1975 को उस वक्त हुई, जब वे अपनी ड्यूटी पर जा रहे थे।  मेरी मां दिवंगता माधवी देवी पौराणिक सरकारी स्कूल में निम्न श्रेणी शिक्षिका हुआ करती थी। हम तीन भाई और दो बहन थे। पिताजी की गिरफ्तारी की खबर तब मिली, जब उनकी साइकिल देने एक व्यक्ति घर आया। हर किसी का एक-दूसरे से यही सवाल था कि क्या हो गया? बाबूजी को जेल क्यों ले जाया गया? कब लौटेंगे? 

आलम यह था कि पिताजी की गिरफ्तारी के बाद घर से निकलने पर हर किसी की नजर हम लोगों पर हुआ करती थी, कई लोग तो बात तक करने से डरा करते थे। उस दौर में हमारे मकान मालिक रामचरण असाटी ने हमें ढाढस बंधाया और कहा कि किराए की चिंता मत करना, जब डॉक्टर साहब छूटकर आ जाएंगे, तब उनसे किराया ले लेंगे। 

लगभग 19 माह तक पिता जी जेल में रहे, इस दौरान कई बड़े नेता बीमारी, माफीनामा भरकर छूट कर आते रहे, हमारा परिवार भी इसी उम्मीद में रहता था कि पिताजी एक दिन जरूर जेल से छूटकर आ जाएंगे। घर में खाने के लाले पड़ने की स्थिति थी, क्योंकि कमाने वाली सिर्फ मां थी और हम पांच भाई बहन छोटे और पढ़ने वाले थे। पिताजी के रहते शायद ही कभी कोई फरमाइश पूरी न हुई हो। अब वह सब बंद था, दुकानों के सामने से गुजरते वक्त मन ललचाता, मगर मन को मारकर रह जाते कि बाबूजी होते तो ये होता, बाबूजी होते तो ऐसा करते। फिर भी मां ने किसी तरह 19 माह का वक्त गुजारा। 

हमारे परिवार में मुझसे बड़े दो भाई कुलदीप (वर्तमान में टीडीएम), प्रदीप (आयुर्वेदिक चिकित्सक) हैं और दो छोटी बहनें ओमश्री और जयश्री के लिए आपातकाल का दौर आज भी रुला जाता है, मगर मां ने कभी हार नहीं स्वीकारी। वे नियमित रूप से 10 से 12 घंटे भगवान की पूजा किया करती और हमेशा यही कामना करती कि सब सकुशल रहें और सौभाग्यवती रहे। ऐसा इसलिए, क्योंकि उस दौरान कई मीसाबंदियों की मौत तक की खबरें आ चुकी थीं। उन्होंने न तो कभी पिताजी से माफीनामा भरने को कहा और न ही खुद तैयार हुई। 

यह ऐसा समय था, जब घर में सब्जी, दूध आना तक मुश्किल हो गया था। मां अचार में रोटी खा लेती तो हम लोगों के लिए रोटी और दाल का इंतजाम हो जाता। सब्जी तो कई माह तक खाने को नहीं मिल पाई, क्योंकि मां की पगार इतनी नहीं थी उससे सारी जरूरतें पूरी हो जाएं। इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि छोटी बहन जयश्री से शिक्षक ने पूछा कि इस मौसम में कौन-कौन सी सब्जियां आ रही हैं, तो वह सहम गई और जवाब दिया कि 'सर हमारे यहां कई माह से सब्जी नहीं बनी है।' 

आपातकाल के दौर में भी कई लोग मदद के लिए तैयार रहते थे, मगर उन्हें इस बात का डर सताए रहता था कि कहीं किसी को पता चल गया तो उनका बुरा हाल हो जाएगा। ऐसा इसलिए, क्योंकि खुफिया विभाग के कर्मचारी आए दिन पूछताछ करने घर जो आते रहते थे। वहीं जेल में मुलाकात माह में एक बार ही हो पाया करती थी, मगर कुछ अधिकारी ऐसे थे, जो हम लोगों को देखकर रहम कर जाते और एक पखवाड़े में भी मुलाकात करा दिया करते थे। 

पिताजी 29 जनवरी, 1977 को जेल से रिहा हो गए, मगर हम लोगों को खबर तब मिली, जब वे घर पहुंचे। उनका अंदाज बदला हुआ था, वे संत की तरह नजर आने लगे थे, क्योंकि कंधे तक लहराते बाल और पेट तक बढ़ी दाढ़ी पूरी तरह सफेद थी, मगर उनका बातचीत का अंदाज नहीं बदला था। घर में वे जिस कमरे में रहे, उसमें सिर्फ एक तस्वीर हुआ करती थी और वह थी जय प्रकाश नारायण की। 

आपातकाल खत्म होने के बाद कांग्रेस विरोधी दलों से जुड़े कार्यकर्ता नेता बन गए, जबकि पिता जी ने फिर नौकरी ज्वाइन कर ली। उनकी जिंदगी पहले जैसी चलने लगी, उन्हें चुनाव लड़ने के लिए भी कहा गया, मगर उनका जवाब यही होता था कि क्या इसके लिए जेल गए थे। उनके मन में कभी राजनीतिक महत्वाकांक्षा नहीं रही। हां, उम्मीदवारों के लिए जरूर प्रचार किया करते थे, क्योंकि कर्मचारियों में गहरी पैठ थी।

आपातकाल के बाद हुए चुनाव में जनता पार्टी की सरकार बनी, तमाम नेताओं ने अपने-अपने त्याग का हवाला देकर तमाम पद हासिल कर लिए, मगर पिताजी ने इसके लिए कोई प्रयास नहीं किया, मगर जनता पार्टी की सरकार जाने और कांग्रेस की सरकार बनने पर उनकी प्रताड़ना का दौर शुरू हो गया और उनका छतरपुर से दमोह तबादला कर दिया गया, और सेवानिवृत्त होने तक फिर छतरपुर में पदस्थ नहीं हो पाए। 

आपातकाल ने भले ही कई लोगों के भाग्य को बदलने का काम किया हो, उन्हें कार्यकर्ता से नेता बना दिया हो, मगर पिताजी पूरी जिंदगी डॉक्टर के तौर पर ही पहचाने गए। जब तक जीवित रहे, तब तक जेल के किस्से सुनाते रहे, उन्हें कभी भी इस बात का मलाल नहीं रहा कि वे जेल गए और उन्हें उसके बदले कुछ भी नहीं मिला। आज पिताजी नहीं हैं, मगर आपातकाल की तारीख करीब आते ही पूरे परिवार का मन विचलित हो जाता है, क्योंकि हमारे खुशहाल परिवार की खुशहाली और हमारा बचपन आपातकाल ने ही छीना था। 
http://www.bharatdefencekavach.com/news/smarcharvichar/61002.html

‘बहरों को आवाज सुनाने के लिए धमाकों के बहुत ऊंचे शब्दों की जरूरत होती है…’

साल 1928 था. इंडिया में अंग्रेजी हुकूमत थी. 30 अक्टूबर को साइमन कमीशन लाहौर पहुंचा. लाला लाजपत राय की अगुवाई में इंडियंस ने विरोध प्रदर्शन किया. क्रूर सुप्रीटेंडेंट जेम्स ए स्कॉट ने लाठीचार्ज का आदेश दिया. लोगों पर खूब लाठियां चलाई गईं. लाला लाजपत राय बुरी तरह घायल हो गए. 18 दिन बाद लाला लाजपत राय ने दुनिया में अपनी आखिरी सांस ली.
लाला लाजपय राय की मौत से क्रांतिकारियों में गुस्सा भर गया. तय हुई कि बदला लिया जाएगा. भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु और चंद्रशेखर आजाद समेत कई क्रांतिकारियों ने मिलकर जेम्स स्कॉट को मारकर लालाजी की मौत का बदला लेने का फैसला किया. 17 दिसंबर 1928 दिन तय हुआ स्कॉट की हत्या के लिए. लेकिन निशानदेही में थोड़ी सी चूक हो गई. स्कॉट की जगह असिस्टेंट सुप्रीटेंडेंट ऑफ पुलिस जॉन पी सांडर्स क्रांतिकारियों का निशाना बन गए.
सांडर्स जब लाहौर के पुलिस हेडक्वार्टर से निकल रहे थे, तभी भगत सिंह और राजगुरु ने उन पर गोली चला दी. भगत सिंह पर कई किताब लिखने वाले जेएनयू के पूर्व प्रोफेसर चमन लाल ने बताया, ‘सांडर्स पर सबसे पहले गोली राजगुरु ने चलाई थी, उसके बाद भगत सिंह ने सांडर्स पर गोली चलाई.’
सांडर्स की हत्या के बाद दोनों लाहौर से निकल लिए. अंग्रेजी हुकूमत सांडर्स की सरेआम हत्या से बौखला गई. भगत सिंह भगवती चरण वोहरा की वाइफ दुर्गावती देवी के साथ कपल की तरह और राजगुरु नौकर की वेशभूषा में लाहौर से निकल गए.
बहरों को आवाज सुनाने के लिए धमाके
अंग्रेज सरकार दो नए बिल ला रही थी. पब्लिक सेफ्टी और ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल. कहा जाता है कि ये दो कानून इंडियंस के लिए बेहद खतरनाक थे. सरकार इन्हें पास करने का फैसला ले चुकी थी. बिल के आने से क्रांतिकारियों के दमन की तैयारी थी. ये अप्रैल 1929 का वक्त था. तय हुआ कि असेंबली में बम फेंका जाएगा. किसी की जान लेने के लिए नहीं, बस सरकार और लोगों तक अपनी बात पहुंचाने के लिए. बटुकेश्वर दत्त और भगत सिंह इस काम के लिए चुने गए. 8 अप्रैल 1929 को जब दिल्ली की असेंबली में बिल पर बहस चल रही थी, तभी असेंबली के उस हिस्से में, जहां कोई नहीं बैठा हुआ था, वहां दोनों ने बम फेंककर इंकलाब जिंदाबाद के नारे लगाने शुरू कर दिए. पुलिस ने दोनों को गिरफ्तार कर लिया.

क्यों हुई भगत सिंह की गिरफ्तारी?
कुछ लोगों को ऐसा लगता है कि भगत सिंह को फांसी असेंबली पर बम फेंकने की वजह से हुई. पर ऐसा नहीं है. असेंबली में बम फेंकने के बाद बटुकेश्वर दत्त और भगत सिंह के पकड़े जाने के बाद क्रांतिकारियों की गिरफ्तारी का दौर शुरू हुआ. राजगुरु को पुणे से अरेस्ट किया गया. सुखदेव भी अप्रैल महीने में ही लाहौर से गिरफ्तार कर लिए गए. भगत सिंह को पूरी तरह फंसाने के लिए अंग्रजी सरकार ने पुराने केस खंगालने शुरू कर दिए.
60 हजार रुपये में भगत सिंह की जमानत
अक्टूबर 1926 में दशहरे के मौके पर लाहौर में बम फटा. बम कांड में भगत सिंह को 26 मई 1927 को पहली बार गिरफ्तार किया गया. कुछ हफ्ते भगत सिंह को जेल में रखा गया. केस चला. बाद में सबूत न मिलने पर भगत सिंह को उस दौर में 60 हजार रुपये की जमानत पर रिहा किया गया.  भगत सिंह की बेड़ियों में जकड़ी ये तस्वीर उसी वक्त की है.

भगत सिंह को फांसी क्यों?
भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त पर असेंबली में बम फेंकने का केस चला. लेकिन ब्रिटिश सरकार भगत सिंह के पीछे पड़ गई थी. सुखदेव और राजगुरु भी जेल में थे. सांडर्स की हत्या का दोषी तीनों को माना गया, जिसे लाहौर षडयंत्र केस माना गया. तीनों पर सांडर्स को मारने के अलावा देशद्रोह का केस चला. दोषी माना गया. बटुकेश्वर दत्त को असेंबली में बम फेंकने के लिए उम्रकैद की सजा सुनाई गई.
7 अक्टूबर 1930 को फैसला सुनाया गया कि भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी पर लटकाया जाए. दिन तय हुआ 24 मार्च 1931.
भगत सिंह के डेथ सर्टिफिकेट के मुताबिक, भगत सिंह को एक घंटे तक फांसी के फंदे से लटकाए रखा गया
लेकिन अंग्रेज डरते थे कि कहीं बवाल न हो जाए. इसलिए 23 मार्च 1931 को शाम करीब साढ़े सात बजे ही तीनों को लाहौर की जेल में फांसी पर लटका दिया गया.
23 मार्च की अगली सुबह अखबार में भगत, सुखदेव और राजगुरु की फांसी की खबर
असेंबली पर भगत सिंह ने सिर्फ बम ही नहीं फेंका, पर्चे भी फेंके थे. जिसकी पहली लाइन थी. ‘बहरों को आवाज सुनाने के लिए धमाकों के बहुत ऊंचे शब्दों की जरूरत होती है…’ भगत सिंह बहरों को आवाज सुना चुके थे.