Friday, April 6, 2018

आख़िर इस लड़के का गुनाह क्या है

यह बिहार है. यहां सुशासन है. क़ानून का राज है. पुलिस क़ानून का शासन स्थापित करवाती है और क़ानून सबूत मांगता है और सबूत के आधार पर ही फैसले होते हैं, लेकिन जब पुलिस ही सबूत की अनदेखी कर दे, तब क्या होगा? तब फैसला कैसे होगा? तब न्याय कहां मिल पाएगा? मधुबनी के अरे़ड गांव के सोनू झा की कहानी भी कुछ ऐसी ही है. सोनू झा जेल में बंद है, उस गुनाह के लिए, जो उसने किया ही नहीं. कम से कम उपलब्ध सबूत प्रथम दृष्टा तो यही कहते हैं. चौथी दुनिया की एक्सक्लूसिव रिपोर्ट :
जेल में बंद सोनू झा- आख़िर इस लड़के का गुनाह क्या है
जेल में बंद सोनू झा- आख़िर इस लड़के का गुनाह क्या है
सोनू झा की कहानी को समझने के लिए पहले बिहार के मधुबनी कांड को जानना ज़रूरी है. मधुबनी ज़िले के अरे़ड गांव के राजीव कुमार झा का बेटा प्रशांत झा एक दिन घर से ग़ायब हो गया. पिता ने गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज कराई. कुछ ही दिन बाद एक सिरकटी लाश मिली. प्रशांत के परिवार के मुताबिक़, यह लाश प्रशांत की थी. इसके बाद लोगों का ग़ुस्सा भ़डका और 12 अक्टूबर, 2012 को मधुबनी ज़िला मुख्यालय में जमकर बवाल मचा. थाना, कलेक्टेरिएट में आगज़नी हुई, पथराव हुआ और पुलिस ने फायरिंग की, तो गोलीबारी में कुछ लोग मारे गए. लेकिन इस पूरे घटनाक्रम में एक नया मो़ड तब आया, जब प्रशांत एक ल़डकी के साथ दिल्ली के महरौली में पाया गया, यानी वह सिरकटी लाश किसी और की थी. बहरहाल, प्रशांत और उस ल़डकी को पुलिस कस्टडी में बिहार लाया गया. अभी प्रशांत रिमांड होम में है और ल़डकी अपने घर. इसके बाद एक नई कहानी शुरू होती है, जिसका संबंध अरे़ड गांव के सत्रह साल के ल़डके सोनू झा से है. मधुबनी में 12 अक्टूबर को भ़डकी आग, तो़डफोड एवं आगज़नी के मामले में पुलिस ने सैक़डों अज्ञात एवं कुछ नामज़द लोगों के ख़िलाफ़ प्राथमिकी दर्ज की. ग़ौरतलब है कि इस उपद्रव की घटना में सरकारी संपत्ति को ऩुकसान पहुंचा था, सरकारी दस्ताव़ेज जलाए गए थे. इसके बाद गिरफ्तारी का दौर शुरू हुआ. पहले 60 लोगों को गिरफ्तार किया गया. इसके बाद 25 अक्टूबर, 2012 को अरे़ड गांव में रात में पुलिस पहुंची और 12 लोगों को गिरफ्तार किया गया. गिरफ्तार होने वालों में सत्रह साल के सोनू झा का नाम भी शामिल है. पुलिस के मुताबिक़, उसे 12 अक्टूबर को हुए पथराव एवं आगज़नी की घटना में शामिल होने की वजह से गिरफ्तार किया गया. अभी सोनू झा जेल में बंद है. सोनू झा के साथ उसके पिता घनश्याम झा और एक भाई मोनू झा को भी पुलिस ने गिरफ्तार कर जेल भेज दिया. घनश्याम झा पान की एक दुकान चलाकर अपना और अपने परिवार का जीवन-यापन करते हैं. बहरहाल, चौथी दुनिया से बातचीत करते हुए सोनू झा के एक संबंधी संतोष कुमार झा (सोनू झा के जीजा) बताते हैं कि सोनू झा को जिस आगज़नी की घटना में शामिल होने के आरोप में गिरफ्तार किया गया है, यह ग़लत है, क्योंकि असल में सोनू उस दिन शहर में था ही नहीं. वह बताते हैं कि सोनू झा निर्दोष है और वह 10 से लेकर 13 अक्टूबर के बीच शहर ही क्या, बिहार से भी बाहर था. चौथी दुनिया के पास उपलब्ध दस्तावेज़ के मुताबिक़, सोनू झा 13 अक्टूबर को एक परीक्षा के लिए जालंधर में उपस्थित था. सोनू को इंडो-तिब्बत बॅार्डर पुलिस (आईटीबीपी) की शारीरिक परीक्षा के लिए बुलावा भेजा गया था. दस अक्टूबर को सोनू झा ने शहीद एक्सप्रेस से इंडो-तिब्बत बॅार्डर पुलिस की परीक्षा देने के लिए मधुबनी से ट्रेन पक़डी. उसके ट्रेन टिकट का पीएनआर नंबर है 660-6879001, टिकट संख्या है 66844694, कोच संख्या एस-5 और सीट नंबर है 36. सोनू झा 13 अक्टूबर को इंडो-तिब्बत बॅार्डर पुलिस की शारीरिक परीक्षा में शामिल भी हुआ, लेकिन वह शारीरिक परीक्षा पास करने के लिए ज़रूरी लंबाई की अहर्ता को पूरी नहीं कर पाया. इस वजह से उसका चयन नहीं हो पाया.
आईटीबीपी जालंधर के कमांडेंट विजय कुमार देसवाल ने अपना हस्ताक्षरयुक्त एक रिजेक्शन स्लिप (पर्ची) भी जारी की, जिसमें चयन न होने का कारण भी बताया गया है. इस  पर्ची पर साफ़-साफ़ 13 अक्टूबर की तारीख़, जगह का नाम यानी जालंधर, चयन न होने के कारण और कमांडेंट एवं ख़ुद सोनू झा के हस्ताक्षर हैं, यानी कुल मिलाकर रिजेक्शन स्लिप यह साबित करने में सक्षम है कि 13 अक्टूबर, 2012 को सोनू झा जालंधर में आईटीबीपी की परीक्षा देने के लिए मौजूद था.
इस संबंध में आईटीबीपी जालंधर के कमांडेंट विजय कुमार देसवाल ने अपना हस्ताक्षरयुक्त एक रिजेक्शन स्लिप (पर्ची) भी जारी की, जिसमें चयन न होने का कारण भी बताया गया है. इस  पर्ची पर साफ़-साफ़ 13 अक्टूबर की तारीख़, जगह का नाम यानी जालंधर, चयन न होने के कारण और कमांडेंट एवं ख़ुद सोनू झा के हस्ताक्षर हैं, यानी कुल मिलाकर रिजेक्शन स्लिप यह साबित करने में सक्षम है कि 13 अक्टूबर, 2012 को सोनू झा जालंधर में आईटीबीपी की परीक्षा देने के लिए मौजूद था. इसके अलावा, सोनू झा के जीजा संतोष झा बताते हैं कि जालंधर जाते व़क्त सोनू अपने साथ एक मोबाइल (नंबर-9534952425) भी ले गया था. उनका कहना है कि यदि 10 से 15 अक्टूबर 2012 के बीच की कॉल डिटेल निकलवाई जाए, तो उससे भी पता चल जाएगा कि सोनू झा इन पांच दिनों के बीच बिहार से बाहर रहा है. इससे यह भी स्पष्ट हो जाएगा कि मधुबनी से जालंधर एवं जालंधर से मधुबनी आने-जाने का समय एवं तारीख़ क्या थी. सवाल है कि  जब इतने सारे साक्ष्य सोनू झा के पक्ष में जाते हैं, तब भी उसे गिरफ्तार क्यों किया गया? और यदि गिरफ्तारी हो भी गई, तो उसे जेल भेजने से पहले पुलिस ने इन साक्ष्यों पर ग़ौर क्यों नहीं किया. इस संबंध में सोनू के जीजा संतोष झा बताते हैं कि वह इन साक्ष्यों के साथ पुलिस से भी मिले. एसपी से भी मिले, इस मामले में पुलिस महानिरीक्षक, राज्य एवं केंद्रीय मानवाधिकार आयोग को पत्र भी लिखे हैं, लेकिन कहीं से कोई संतोषप्रद जवाब नहीं मिला और न ही कोई आश्‍वासन मिला. वह बताते हैं कि पुलिस वाले आईटीबीपी की रिजेक्शन स्लिप को साक्ष्य नहीं मान रहे हैं. पुलिस का कहना है कि ऐसा स्लिप तो कोई भी बनवा सकता है. आश्‍चर्य की बात तो यह है कि पुलिस ने ट्रेन टिकट एवं मोबाइल कॉल डिटेल को भी साक्ष्य मानने से इंकार कर दिया. बहरहाल, सवाल उठता है कि क्या गृह मंत्रालय के तहत आने वाले आईटीबीपी के दस्तावेज़ को भी सबूत नहीं माना जा सकता है? संतोष झा बताते हैं कि वह इस मामले में आईटीबीपी के कमांडेंट विजय कुमार देसवाल से भी मिले हैं और उन्होंने एक पत्र लिखकर मुझे दिया है. पत्र में यह लिखा हुआ है कि सोनू कुमार झा 13 तारीख़ को जालंधर में आईटीबीपी की परीक्षा के लिए मौजूद था. ज़ाहिर है, आईटीबीपी के एक कमांडेंट का लिखा पत्र, जो सोनू झा की बेगुनाही का शायद सबसे ब़डा दस्ताव़ेज होगा, अदालत में मान्य हो सकता है, लेकिन आईटीबीपी की रिजेक्शन स्लिप को पुलिस ने सबूत मानने से इंकार कर दिया. नतीजतन, सत्रह साल का एक ल़डका पिछले चार महीनों से जेल में उस गुनाह के लिए बंद है, जो उसने किया ही नहीं. इस पूरे मामले में एक सवाल राज्य सरकार एवं स्थानीय प्रशासन से भी जु़डा हुआ है. यह सही है कि किसी भी तरह की हिंसा को जायज़ नहीं माना जा सकता, क्योंकि मधुबनी कांड में जो कुछ भी हुआ, वह ग़लत था. आगज़नी की घटना, पथराव, सरकारी संपत्ति को ऩुकसान पहुंचाना, ये सब ग़लत था, लेकिन क्या एक निर्दोष को गिरफ्तार करना सही था? क्या पुलिस प्रशासन द्वारा सबूतों की अनदेखी करना सही था?

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