भ्रष्टाचार भारत में एक सांस्कृतिक मसला है. भारतीयों को इसमें कुछ भी अजीब नहीं लगता. वे भ्रष्टों को सुधारने की कोशिश नहीं करते, उन्हें सहन करते रहते हैं. भारतीय भ्रष्ट क्यों है, इसे समझने के लिए आइए उनके आचरणों और प्रवृतियों पर एक नजर डालें. पहली बात, भारत में धर्म सौदेबाजी का स्वरूप लिए हुए. भारतीय अपने देवी-देवताओं को तरह का चढ़ावा चढ़ाते हैं और बदले में उनसे खास तरह का इनाम चाहते हैं. ऐसा व्यवहार बताता है कि नाकाबिल लोग अपने लिए पक्षपात की कामना कर रहे है. मंदिर से बाहर दुनिया में ऐसी सौदेबाजी को ''रिश्वत'' कहते हैं.
अमीर भारतीय मंदिरों में कैश नहीं देता, वह सोने का मुकुट या ऐसे ही आभूषण वगैरह देता है. उसके उपहार गरीबों का पेट नहीं भर सकते, वे तो देवता के लिए ही होते हैं. उसे लगता है कि अगर यह किसी जरूरतमंद व्यक्ति को मिल गया तो बेकार चला जाएगा. जून 2009 में कर्नाटक के एक मंत्री जी जर्नादन रेड्डी ने तिरूपति मंदिर में 45 करोड़ रूपए मूल्य का सोने और हीरे से बना मुकुट दान किया. भारत के मंदिरों में इतना धन इकट्ठा होता है कि व समझ ही नहीं पाते, इसका क्या करें. मंदिरों के तहखानों में अरबों की संपत्ति पड़ी-पड़ी जंग खा रही है. यूरोपीय भारत आए तो उन्होंने स्कूल बनवाए , लेकिन भारतीय यूरोप-अमेरिका जाते हैं तो वे मंदिर बनवाते है.
भारतीयों को लगता है कि जब भगवान भी कुछ भला करने के लिए चढ़ावा स्वीकार करते है तो हमारे ऐसा करने में क्या हर्ज है. यही वजह है कि भारतीय इतनी आसानी से भ्रष्टाचार में शामिल हो जाते हैं. भारतीय संस्कृति ऐसे आचरण के लिए गुंजाइश बनाती है. इसमें नैतिक तौर पर कलंक जैसी कोई बात नहीं होती. पूर्णतया भ्रष्ट जयललिता इसलिए सत्ता में वापस लौट आती है. पश्चिम में आप इसकी कल्पना तक नहीं कर सकते.
भ्रष्टाचार को लेकर भारत की नैतिक अस्पष्टता इसके इतिहास में भी झलकती है. इसका इतिहास ऐसी घटनाओं से भरा है जिनमें शहरो और राज्यों के पहरेदारों ने पैसे खाकर हमलावरों के लिए गेट खोल दिए और सेनापतियों ने रिश्वत लेकर समर्पण कर दिया. भारतीयों के भ्रष्ट चरित्र की वजह से इस महादेश में युद्ध काफी कम में हुए.
प्राचीन यूनान और आधुनिक यूरोप के मुकाबले भारतीयों ने काफी कम लड़ाइयां लड़ी है. नादिरशाह को तुर्की में भीषण लड़ाई लड़नी पड़ी. मगर भारत में लड़ने की जरूरत ही नहीं पड़ी. सेनाओं को विदा करने के लिए यहां रिश्वत ही काफी थी. पैसे खर्च करने को तैयार कोई भी हमलावर भारत के राजाओं को सत्ता से बेदखल कर सकता था, भले उनके पास दसियों हजार की फौज क्यों न हो. पलासी की लड़ाई में भी भारतीयों की तरफ से कोई प्रतिरोध नहीं हुआ. क्लाइव ने मीर जाफर की मुट्ठी गर्म कर दी और पूरा बंगाल 3000 लोगों के सामने बिछ गया.
सवाल उठता है कि भारत में ऐसी सौदेबाजी की संस्कृति क्यों है, जबकि अन्य सभ्य देशों में यह नहीं है? भारतीयों का इस मान्यता में यकीन नहीं है कि अगर सभी लोग नैतिक आचरण करें तो सबकी उन्नति होगी. उनकी जाति व्यवस्था उन्हें एक-दूसरे से अलग करती है. वे नहीं मानते कि सभी मनुष्य समान है. इसकी परिणति उनके विभाजन और अन्य धर्मो की ओर पलायन में हुई. कई हिंदुओं ने सिख, जैन, बौद्ध आदि के रूप में अपने अलग धर्म बना लिए और बहुत सारे ईसाइयत तथा इस्लाम की ओर चले गए. इस सबका नतीजा यह हुआ कि भारतीयों का एक-दूसरे पर विश्वास नहीं रहा. भारतीय तो यहां कोई रहा ही नहीं. हिंदू , मुस्लिम, ईसाई जितने चाहो ढूंढ लो. भारतीय भूल गए कि 1400 साल पहले वे सब एक ही पंथ के थे. यह विभाजन एक बीमार संस्कृति के रूप में सामने आया. असमानता ने भ्रष्ट समाज को जन्म दिया. नतीजा यह है कि भारत में हर कोई हर किसी के खिलाफ है, सिवाय भगवान के और भी रिश्वतखोर है.
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