Wednesday, August 12, 2015

देवर्षि नारद महान तपस्वी का अहंकार

देवर्षि नारद महान तपस्वी हैं। वे समस्त लोकों में नारायण के नाम का स्मरण करते हुए भ्रमण करते हैं। उनकी तपस्या, भक्ति और नीति की मां पार्वती भी प्रशंसक हैं। एक बार मां पार्वती भगवान शिव के समक्ष नारदजी की प्रशंसा कर रही थीं तो शिव ने नारदजी से संबंधित एक कथा सुनाई। कथा इस प्रकार है -नारदजी बहुत बड़े ज्ञानी और तपस्वी हैं लेकिन एक बार उन्हें इन दोनों गुणों का अहंकार करने के कारण बंदर बनना पड़ा था। नारद का वह घमंड भगवान विष्णु ने दूर किया था। एक बार नारदजी हिमालय के निकट एक गुफा में तपस्या कर रहे थे। उनकी तपस्या देखकर इंद्र भी डर गए। इसलिए उन्होंने नारद का तप भंग करने के लिए कई अप्सराएं भेजीं लेकिन नारद पर उनकी कोशिशों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। वे तपस्या करते रहे। यह देखकर कामदेव ने भी नारद से क्षमा मांग ली। कामदेव के लौट जाने के बाद नारद ने मन में विचार किया कि आज मैंने काम को भी जीत लिया। बड़े-बड़े ऋषि इसकी शक्ति के आगे परास्त हो गए लेकिन मैंने इस पर विजय प्राप्त कर ली। वे भगवान शिव के पास आए और उन्हें पूरी घटना के बारे में बताया। शिव समझ गए कि आज नारद के मन में अहंकार आ गया। अगर नारद के इस अहंकार के बारे में विष्णुजी को मालूम होगा तो यह नारद के हित में नहीं होगा। इसलिए उन्होंने नारदजी से कहा कि यह बात विष्णुजी से मत कहना।शिव का ये सुझाव नारद को पसंद नहीं आया। उन्होंने विचार किया, आज मैंने काम पर विजय पाई है। मुझे इस घटना के बारे में विष्णुजी को जरूर बताना चाहिए। उन्होंने विष्णुजी को पूरी बात बता दी। विष्णुजी समझ गए कि आज नारद अहंकार के शिकार बन गए हैं। इसलिए जल्द ऐसा उपाय करना होगा जिससे इनका घमंड दूर हो जाए।इसके बाद नारदजी वहां से चले गए। अपनी माया से विष्णुजी ने उनके मार्ग में एक बहुत सुंदर नगर का निर्माण कर दिया। वहां के राजा का नाम शीलनिधि था। उसकी बेटी का नाम विश्वमोहिनी था। वह अत्यंत गुणवान और सुंदर थी। वह कन्या स्वयंवर के जरिए अपना वर चुनना चाहती थी। इसलिए दूर-दूर से कई पराक्रमी राजा आए थे।नारद भी वहां पहुंच गए। उनसे कहा गया कि वे उस कन्या की हस्तरेखा देखें और भविष्य बताएं। नारद उसकी हस्तरेखा देखकर भविष्य बताने लगे। कहां तो नारद काम पर विजय की गाथा सुना रहे थे और अब स्वयं ही विश्वमोहिनी के सौंदर्य पर मोहित हो चुके थे। नारद ने हस्तरेखा देखकर युवती का भविष्य जान लिया। उसके मुताबिक जो भी उससे विवाह करेगा, वह अत्यंत सौभाग्यशाली होगा। वह सदैव अमर रहेगा। उसे कोई पराजित नहीं कर सकेगा। संसार का हर प्राणी उसकी सेवा के लिए तैयार रहेगा। यह बात नारद ने किसी को नहीं बताई, बल्कि उसके अन्य गुणों के बारे में बताने लगे।नारद स्वयं उस लड़की से शादी करना चाहते थे। उन्होंने मन ही मन भगवान विष्णु को याद किया और उनसे हरि के समान रूप मांगा। भगवान ने नारद को तथास्तु कह दिया। उल्लेखनीय है कि हरि का एक अर्थ वानर भी होता है। विष्णुजी ने नारद को वानर जैसे मुख का वरदान दे दिया। स्वयंवर स्थल पर भगवान भोलेनाथ के दो गण भी विरामजान थे। उन्होंने वानर का रूप देखकर नारदजी से कहा, विश्वमोहिनी आपका यह रूप देखकर आपसे ही विवाह करेगी। इससे नारद अतिप्रसन्न हो गए। उधर, भगवान विष्णु भी एक राजा का रूप धारण कर स्वयंवर में आए थे। स्वयंवर में नारद बार-बार ऐसा प्रयास कर रहे थे ताकि वे विश्वमोहिनी को नजर आएं और वह उन्हीं के गले में वरमाला डाले, लेकिन नारद का ये प्रयास व्यर्थ ही रहा। विश्वमोहिनी ने राजा क वेश में आए विष्णुजी के गले में माला पहना दी। नारदजी के अरमानों पर पानी फिर गया। तब शिव के गणों ने उन्हें सलाह दी कि वे अपना चेहरा देखें। नारद ने दर्पण में चेहरा देखा तो पूरी बात समझ में आ गई। उन्होंने शिव के गणों को राक्षस होने का शाप दे दिया। उन्होंने फिर अपना चेहरा देखा तो वे अपने पूर्व रूप में आ चुके थे।उन्होंने विष्णुजी को भी शाप दिया कि आपने मनुष्य का रूप धरकर मुझे स्त्री से अलग किया है तो आपको भी यह अनुभव प्राप्त होगा। मुझे वानर बनाया, इसलिए आपको भी वानरों की जरूरत पड़ेगी। विष्णुजी ने यह शाप स्वीकार कर लिया। कुछ देर बाद विष्णुजी ने अपनी माया का समापन किया। अब न तो विश्वमोहिनी थी, न स्वयंवर और न कोई राजा। वहां तो संसार के स्वामी भगवान विष्णु ही विराजमान थे। यह देखकर नारद को अपनी भूल का पश्चाताप हुआ और उन्होंने भगवान से क्षमा मांग ली। कहा जाता है कि इसके बाद विष्णुजी श्रीराम के रूप में अवतरित हुए, सीताजी का हरण हुआ, दोनों शिवगण कुंभकर्ण व रावण बने और श्रीराम को वानरों की मदद लेनी पड़ी।

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