Thursday, June 9, 2016

समाज क्या है -1

सामाजिक सम्मेलनों की सार्थकता :


समाज की बात करते है तो, संगठन का भी प्रश्न सामने नजर आता है, कि समाज को कैसे संगठित किया जाये । समाज को संगठित करने मे सम्मेलन, बैठको, विचार मंथन शिविरों आदि की महत्वपूर्ण भूमिका होती है ।
भारत जैसे लोकतान्त्रिक देश मे अपने हकों के लिए किसी समाज विशेष या वर्ग द्वारा आंदोलन का रास्ता अपनाना तथा सामाजिक सम्मेलनों द्वारा सरकार से अपने हकों की मांग करना, एक महत्वपूर्ण हथियार के रूप मे उपयोग किया जाता है, और यह जायज भी है ।
सामाजिक सम्मेलन एक तरफ जहा, समाज में अपने अधिकारों के प्रति जागृति पैदा करते हैं, वही दूसरी तरफ, इस तरह के आयोजन को गम्भीरता पूर्वक या पूर्ण मजबूती के साथ नही किया जाता है तो, यह समाज व संगठन की पोल भी खोल देते हैं । जो समाज के लिए बहुत घातक हो सकता है, क्‍योंकि इससे देश मे कार्यरत राजनैतिक पार्टियों को सीधा संदेश जाता है कि, कोनसा समाज अपने अधिकारों के प्रति जागरूक है, और कौन निन्‍द्रा में है । उसी के अनुरूप सरकार अपनी नितियों बनाती है और क्रियान्वित करती है ।
जिसका जीता जागता उदाहरण- गुर्जर आरक्षण, जिस पर प्रत्येक सरकार चाहे कांग्रेस या बी.जे.पी. सभी गुर्जरों के सामने नतमस्तक है । लोकतन्त्र मे जन-बल ही सबसे बड़ा बल है, जिसके सामने सरकार को झुकना ही होगा, इसमे देर-सवेर हो सकती है, लेकिन यह सौ फिसदी सच है, जरूरत है तो, निरन्तर प्रयास की ।
अब प्रश्न उठता है कि ऐसे सम्मेलन आयोजन की जिम्मेदारी किसकी है, इस तरह के आयोजन मूलत समाज के जनाधार वाले नेता जैसे- वर्तमान या पूर्व सांसद, विधायक, मेयर या ऐसे नेता जिनका समाज सेवा का लम्बा इतिहास रहा है, जिसकी सेवा को समाज सम्मान की नजर से देखता आ रहा है या समाज की राष्ट्रीय, राज्यस्तरीय, जिलास्तरीय संस्थाओं द्वारा अपने क्षेत्राधिकार मे सम्मेलनों का आयोजन किया जाना चाहिये ।
किसी भी सम्मेलन की सफलता, उसके आयोजकों पर ही निर्भर करती है । क्‍योंकि समाज मे लोग वही है, केवल लीडर बदलते रहते हैं । नेतृत्व ही समाज को सफल बनाता है और वही उसकी असफलता का कारण बनता है । इतिहास इस बात का गवाह है ।
यह वही भारत है, जो 400 वर्ष अंग्रेजों तथा 600 वर्षों तक मुगलों का गुलाम रहा है । इसी गुलाम भारत में सुभाषचन्द्र बोस, मोहनदास करमचंद गांधी, डॉ. बी.आर. अम्बेडकर जैसे महान कान्तिवीरों ने देश की जनता को मजबूत नेतृत्व दिया । जिसके कारण देश आजाद हुआ ।
बात नेतृत्व की करे तो वह हिटलर ही था, जिसकी एक आवाज पर जर्मनी अपना सब कुछ दॉव पर लगाने के लिए तैयार रहता था । ठीक उसी प्रकार सामाजिक सम्मेलनों की सफलता उसके नेतृत्व पर निर्भर करती है । सम्मेलन जब जिला स्तर का हो तो उसका नेतृत्व जिलास्तर के मजबूत जनाधार वाले नेता के नियन्त्रण मे होना चाहिये और जब प्रदेशस्तर का हो तो, उसका नेतृत्व प्रदेश स्तर के मजबूत जनाधार वाले व्यक्तियों के पास होना चाहिये ।
ठीक उसी प्रकार राष्ट्रीय स्तर के सम्मेलन की अगुवाई राष्ट्रीय नेताओं तथा समाज के सबसे मजबूत समाजसेवी, अग्रणी नेताओं द्वारा कि जानी चाहिये क्‍योंकि यह एक सामान्य सी बात है कि, कोई भी व्यक्ति, किसी भी समारोह मे जाने के, निमन्त्रण से पहले, निमन्त्रण कार्ड को देखता है कि, कौन-कौन-सा फलाना-फलाना व्यक्ति आमन्त्रित कर रहा है । यह बात बहुत छोटी सी है लेकिन, समारोह व सम्मेलनों की सफलता मे इसका महत्वपूर्ण योगदान होता है, इसलिए आयोजक व निवेदक, शीर्ष मजबूत जनाधार वाले नेता होने चाहिये ।
वास्तविक वस्तुस्थिति की बात करे तो, यह देखने व सुनने मे आता है कि सामाजिक सम्मेलनों मे आमतोर पर राष्ट्रीय व प्रदेश स्तर के राजनैतिक नेताओं को अतिथि व मुख्य अतिथि के तोर पर आमन्त्रित किया जाता है । जिसका मूल उद्देश्य अपने समाज की राजनैतिक व संख्यात्मक ताकत को प्रदर्शित करना होता है । हालांकि यहा तरीका बहुत सही व कारगर भी रहा है ।
इस तरह के सम्मेलन समाज के शीर्ष व लोकप्रिय नेतृत्व की दशा मे ही सफल हुए है क्‍योंकि समाज मे, लोगों की भीड़, उनका संख्यात्मक बल, अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है, आमतोर पर राजनैतिक पार्टिया अपने वोट बैंक (संख्यात्मक बल) के पीछे घूमती है, उन्हे किसी समाज से कोई लेना-देना नही होता है । उनका मूल लक्ष्य अपने वोट बैंक मे बढोतरी करना तथा उसे बनाये रखना । ऐसी स्थिति मे जब सामाजिक सम्मेलनों मे राष्ट्रीय या राज्य स्तरीय राजनेता अतिथि के तोर पर पधारते है तो उनका मूल उद्देश्य अधिकतम लोगों की सभा को सम्बोधित करना तथा अपने वोट बैंक को बनाये रखना होता है ।
ऐसी स्थिति मे सामाजिक सम्मेलन मे, यदि समाज का बहुसंख्यक तबका शामिल नही होता है तो, वह समाज के लिए घातक है और साथ ही समाज का राजनैतिक जनाधार भी खतरे मे पड़ जाता है, जिसके दूरगामी परिणाम होते है, जो हमारी भावी पीढ़ी के लिए भी बहुत खतरनाक साबित हो सकता है । ऐसे सम्मेलन समाज को संगठित करते हैं, वही दूसरी तरह उनके आपसी टुकड़ो को भी उजागर करते हैं ।
इसलिए इस तरह के सम्मेलनों का आयोजन बड़े सावधानी पूर्ण तरिके से व सम्पूर्ण समाज को विश्वास मे लेकर तथा सर्वमान्य नेतृत्व के सानिध्य मे आयोजित किया जाना चाहिये । जिसमे समाज को दिशा देने वाले, त्यागवान धर्मगुरूओं को भी शामिल किया जाना चाहिये क्‍योंकि इस तरह के सफल आयोजन समाज के इतिहास का हिस्सा बनते हैं । जो भावी पीढ़ी के लिए प्रेरणा स्त्रोत बने रहते हैं, वही असफल आयोजन समाज को हतोसाहित करते है और समाज की राजनैतिक पहचान के लिए खतरा भी बन सकते है क्‍योंकि लोकतान्त्रिक देश मे जनबल ही सर्वेसर्वा होता है ।
यह बहुत महत्वपूर्ण है कि, सामाजिक सम्मेलनों का आयोजन समाज हीत में, समाज को संगठीत करने के लिये किया जाना चाहिये, यदि ऐसे आयोजन का उद्देश्य, कुछ चुंनिदा लोगों को राजनैतिक फायदा पहुचाने के लिए किया गया है, तो फिर इसकी सफलता की उम्मीद करना बेमानी है, क्‍योंकि समाज के लोग इस बात को अच्छी तरह जानते है कि, कौन क्या रहा है, और क्यो कर रहा है, किसे धोखा दे रहा है । क्या समाज के हित मे कर रहा है या अपने नीजी स्वार्थ पूर्ति हेतू कर रहा है, क्‍योंकि किसी भी नेता का वजूद उसके समाज से है । समाज का वजूद नेता से नही, समाज, नेता बनाता है और मिटाता भी है ।

इसलिए ऐसे सम्मेलनों से स्वार्थपूर्ति वाले तत्वों को सावधानी पूर्वक चिन्हित कर, किनारे लगाने की आवश्यकता है, ताकि वे समाज का अपने नीजी स्वार्थ पूर्ति हेतु सौदा न कर सके


समाज के प्रति हमारा दायित्व और जवाबदेहीता :



चलिए आज हम बात करते है, अपने सामाजिक दायित्व की । यह ठीक वैसा ही प्रश्न है, जैसा कि, एक संतान का अपने माता-पिता के प्रति क्या दायित्व और जवाबदेहीता होना चाहिये ।
वैसे आम तोर पर हमेशा बात लेने की आती है, जैसे- मुझे क्या मिलेगा, मुझे क्या दिया, मेरा क्या फायदा होगा, मेरा क्या मतलब है, मुझे क्या लेना-देना है । व्यक्ति अपने माता-पिता से भी, यह उम्मीद करता है, और अपने देश से भी, साथ ही उम्मीद करता है कि मुझे मेरे समाज से क्या मिलेगा और क्या मिलने की उम्मीद है । इसी गणित मे लगा रहता है, या कहे की, हमेशा उसकी स्थिति भिखारी की तरह ही बनी रहती है ।
उक्त पहलू पर व्यक्ति, अपने दिन के 24 घंटे, 365 दिन, साथ ही सम्भव हो तो, प्रत्येक सैकण्ड, कुछ पाने की जुगाड़ मे लगा रहता है । कितनी विचित्र स्थिति है कि, भगवान ने जिस इन्सान को इतना बुद्विमान बनाया कि, वो चन्द्रमा पर चला गया, लेकिन उसके बाद भी, उसकी मानसिक दशा बदली नही है । क्या हम इन्हें इन्सान कहे, तो यह 100 फिसदी तो सच नही हो सकता । इस दुनिया मे यदि श्रेष्ठतम कोई है तो वह इन्सान । दुनिया का श्रेष्ठतम इन्सान भी भिखारी बन जाता है तो, उसमे पशु के लक्षण आने स्वाभाविक है ।
तो फिर हमे क्या करना चाहिये, हमे यह कभी नही भूलना चाहिये कि, व्यक्ति के अधिकार, दायित्व और जवाबदेहीता साथ-साथ चलते हैं । यदि वो अधिकारों को धारण करता है तो उसे दायित्वों का भी निर्वाह करना ही होगा । इसके लिए परिस्थितियों को जिम्मेदार नही ठहराया जा सकता । यह ध्यान रहे कि, जब व्यक्ति का जन्म समाज में होता है तो, समाज में जन्म के साथ ही, उसको कुछ अधिकार प्राप्त हो जाते हैं और साथ उसका समाज के प्रति दायित्व भी उत्पन्न होता है ।
आज समाज के सामाजिक परिवेश की बात करे तो, इतिहास गवाह है कि, समाज को दिशा देना, उसका मार्गदर्शन करना, समाज के बुद्विमान लोगों का दायित्व है । वे अपने दायित्व से पीछे नही हट सकते, क्योंकि आज भारत आजाद है तो, यह आजादी किसी गरीब या धनवान लोगों की देन नही है । यह बुद्विमान देशभक्त लोगों की मेहनत बलिदान का ही परिणाम है । आज जो भी परिवार, समाज विकसित व साधन सम्पन्न हुये है, वे सभी समाज के बुद्विजीवी लोगों के त्याग व मेहनत के कारण है । अब प्रश्न उठता है कि, जो परिवार व समाज पिछड़े है उसके पीछे मूल कारण क्या है, इसका भी सीधा सा उत्तर है कि, इसके पीछे भी एहसान फरामोश बुद्विमान लोग है, जिन्होंने समाज से लिया तो सब कुछ, लेकिन जब देने की बारी आई तो अपनी अक्कल का उपयोग करते हुए, किनारा कर दिया और अगुंठा बता दिया ।

आज भी यही हो रहा है । आज यदि कुछ अच्छे लोगों को छोड़ दे तो लगभग सभी सरकारी कर्मचारी इसमें शामिल नजर आते हैं, क्योंकि आज देखा जाऐ तो, दलित आदिवासियों का विकास सरकारी नोकरी के बलबूते ही हुआ है, क्योंकि इन्होंने आरक्षण के अधिकार से नोकरी ले ली, लेकिन इसके बदले समाज के प्रति दायित्व नही निभाने के कारण, आज समाज भी पिछड़ा है और वह स्‍वयं भी व्यक्गित रूप से कमजोर है । कारण है कि, मेरा क्या लेना-देना, मेरा क्या फायदा, ऐसे प्रश्न उसके अन्दर उत्पन्न होने लग जाते है और उसके आस-पास ऐसी ही राय देने वाले लोग, जो उसे कमजोर बनाते हैं । फिर याद आती है बाबा साहेब की, जो इतनी विषम परिस्थितियों मे ऐसा काम करके चले गये, जिसकी हम कल्पना भी नही कर सकते । फिर कही हिम्मत बढती है कि, हम तो आज उनसे कही गुना अधिक अच्छी स्थिति मे है । यही सोचकर यह सच्ची बात, बयान कर रहे हैं ।
तो फिर हम क्या करे, हमे अपने अन्दर त्याग की भावना पैदा करनी होगी तथा इस बात पर विचार करना होगा कि इस समाज मे पैदा होकर, हमने समाज को क्या दिया, समाज ने हमे गाड़ी, बंगला, राज-पाट, एश-आराम, धन-दौलत, सुख सभी दिया, इसके बदले मे हमने क्या दिया । यह कोई उधार नही है, यह तो ऋण है, समाज का हमारे ऊपर, जिसे हमे हर हालत में उतारना है । यदि हम, इस ऋण को नही चुकाते हैं तो, हमारा जीवन तो पशु समान ही रह जायेगा ।
मेरा उन सभी लोगों को सन्देश है कि, जो अपनी उम्र के अन्तिम पड़ाव में हैं, यह मंथन करे कि, उन्होंने इस समाज मे पैदा होकर, समाज को क्या दिया है । आप ने, अपने जीवन में लाखों करोड़ो रूपये कमाऐ हैं, जिसमे कुछ ईमानदारी से और कुछ बेईमानी से । इसमे कुछ हिस्सा यदि हमने समाज कल्याण मे दान कर दिया तो, आपकी भावी पीढ़ी पर कोई फर्क नही पड़ने वाला है ।
उदाहरण के लिये यदि अपनी आय का कुछ हिस्सा दान कर दिया है, तो भी बेटा, बाप को बाप ही कहेगा और उसका परिणाम यह होगा की, आपका समाज के प्रति दायित्व भी पूर्ण होगा और आपको समाज सम्मान भी देगा, नतीजा आपकी संतान भी आपका अधिक सम्मान करेगी, जो आपकी भावी पीढ़ी के लिए प्रेरणा स्त्रोत रहेगा और समाज का विकास भी होगा । जो कही न कही आपके परिवार का ही हिस्सा है । आपको इसे जिम्मेदारी के तोर पर मानना होगा और आपकी यह जिम्मेदारी मे भी आता है । आप इस जवाबदेहीता से किनारा नही कर सकते । इस किनारे के कारण ही, आज तक, समाज पिछड़ा, गरीब, साधन विहीन बना हुआ है ।
अधिकतर देखने मे आता है कि, दूसरे लोग तो समाज के लिए कुछ करते नही, तो मैं क्यू करू, तो बहुत साफ है कि, वे अपने आप को इन्सान तो कहते हैं, लेकिन ऐसा कुछ करते नही । मेरा मानना है कि, हमे इन्सान बनने का प्रयास करना चाहिए क्‍योंकि, इन्सान ही दूसरे के लिये कुछ कर सकता है, पशु नही ।
अन्त मे एक छोटी सी बात, महान सिकन्दर यूनान से युö जीतते-जीतते भारत आ गया, सम्राट बन गया, लेकिन मरने से पहले, उसने अपने लोगों से कहा कि, मेरे दोनों हाथ कब्र से बाहर रख देना, क्‍योंकि दुनिया मे देखने वालों को पता चले कि, मैं दुनिया मे खाली हाथ आया था, खाली हाथ जा रहा हूँ, साथ कुछ नही ले जा रहा हूँ ।

कुछ बुरा लगे, लेकिन यह सच है । कहते है कि, सच हमेशा कड़वा होता है और मैं भी यही कह रहा हूँ । मैने अनुसरण किया है, आप भी करे, बहुत खुशी मिलेगी । हमे अपने जीवन मे, अपना त्याग तो, निर्धारित करना ही होगा । अक्सर सुनने मे आता है कि फलाना-फलाना व्यक्ति दुनिया छोड़ गये, पहले तो मुझे बहुत दुख होता था, लेकिन अब सोचता हूँ कि, वो जिंदा थे, तब समाज के लिए क्या फायदा था, जो मरने पर नुकसान हो गया । लोग कहते है कि, अच्छा व्यक्ति था, मे कहता हूँ कि, कैसे, मुझे समझाये । केवल अपनी पत्नि, बेटा-बेटी के लिए अच्छे होंगे, हमारा क्या लेना-देना । इसलिए हमे निजी स्‍वार्थों की परिधी से बाहर निकलकर, कुछ त्याग करने की आवश्यकता है, जल्दी करे, समय जा रहा है, कुछ करना है तो, कर दे, अन्यथा पछतावे के अलावा और कुछ नही मिलेगा ।


हम और हमारा समाज :



समाज शब्‍द सभ्‍य मानव जगतका सूक्ष्‍म स्‍वरूप एवं सार है । सभ्‍य का प्रथम अक्षर मानव का प्रथम अक्षर माजगत का प्रथम अक्षर इन तीनों प्रथम अक्षरों के सम्मिश्रण से समाज शब्‍द की उत्‍पत्ति हुई, जो सभ्‍य मानव जगत का प्रतिनिधित्‍व एवं प्रतीकात्‍मक शब्‍द है । यह समाज की परिभाषा है । बन्‍धु ही समाज का सच्‍चा निर्माता, सतम्‍भ एवं अभिन्‍न अंग है । बन्‍धु, समाज का सूक्ष्‍म स्‍वरूप और समाज, बन्‍धु का विशाल स्‍वरूप है । अत: बन्‍धु और समाज एक-दूसरे के पूरक तथा विशेष महात्‍वाकांक्षी है ।
समाज अच्छा हो तो चरित्र अच्छा होता है ! हमें सामाजिक होना चाहिए ! समाज ने हमे बहुत कुछ दिया ! ऐसी बहुत सी बाते बातें हम प्रायः सुनते ही रहते हैं । हम ऐसा क्यों नहीं सुनते हैं की हमने समाज को कुछ दिया या हमने दूषित समाज को अच्छा किया ? इसका कहीं न कहीं कारण यह है की हम समाज की परिभाषा ही नहीं जानते, हमें अछे और बुरे समाज का ज्ञान ही नहीं है । हम यह जानते हैं की समाज कुछ होता है लेकिन हम यह नहीं जानते की यह हमारे जीवन, हमारे चरित्र और फिर हमारे देश पर कैसे और क्या प्रभाव डालता है । वैसे तो हमने और आपने बहुत सी परिभाषाएं पढ़ी होंगी जैसे – “Society is the manner or condition in which the member of community live together for their mutual benifit” पर क्या हम किसी भी परिभाषा पर मनन करते हैं ? और अगर करते हैं तो क्या हम उसे अपने जीवन में उतारते हैं ? हम अक्सर इसे दूसरों पर थोप देते हैं, और कहते हैं कि क्या ये सिर्फ मेरी जिम्मेदारी है ? या मैं अकेले क्या कर लूँगा, और या मैं ही अकेले क्यों करूँ ? जबकि एक अकेले भी बहुत कुछ कर सकता है । दलाई लामा जी के शब्दों में — “I truly believe that individuals can make a difference in society. Since periods of changes such as the present one come so rarely in human history, it is up to each of us make the best use of our time to help create a happier world” हम अपने अनुआइयों को कहेते हैं कि अछे समाज में रहें और और बुरे समाज से दूर रहें, पर अच्छा समाज और बुरा क्या होता है ये बताना भी तो हमारा कर्त्तव्य होता है ।
हम सब पहले एक मनुष्य हैं फिर बाद मे और कुछ, हमे अपने समाज के अन्य लोगों के लिए भी कुछ सोचे, उनके लिए कुछ अवश्य करें, नही तो हम मनुष्य कहलाने के हक दार नही है । एक समाज का निर्माण मनुष्यों से होता है । अगर मनुष्यों का चरित्र, व्यवहार, रहन-सहन का स्तर ऊंचा होगा तो हम उस समाज को एक अच्छा और सशक्त समाज कह सकते हैं । प्रत्येक समाज का एक अपना परिचय अवश्य होता है । जैसा समाज होगा उसका वैसा ही उसका परिचय होने के साथ-साथ उस समाज के व्यक्ति का व्यवहार करने का तरिका होगा । यह एक अलग बात है कि हर समाज मे कुछ अच्छे और कुछ बुरे लोग होते हैं । यह तो हमारे ऊपर निभर करता है कि हम उनमे से क्या है और अपने लिए वैसा ही परिवेश और लोग को अपने लिए चुनते हैं ।
कितने मतलबी है न हम इंसान ? किसी की परेशानी किसी के दुःख से हमे क्या लेना देना । हमको मतलब है तो सिर्फ अपने आप से और कभी-कभी अपने परिवार से भीपर आज हम अवश्य यह नहीं कह सकते की हमको अपने परिवार की भी उतनी ही चिंता है जितनी अपनी । क्यों ? क्यूंकि हम खुद ही नहीं जानते हम क्या कर रहे हैं क्यों कर रहे हैं किसके लिए कर रहे हैं जिस समाज में हम रह रहे है उस समाज में और भी लोग है जो अलग-अलग स्थिति में रह रहे है । पर हम यकीनन यह कह सकते हैं कि भाई जो हम कर रहे हैं अपने लिए कर रहे हैं और इन लोगों का कहना तो यह है पहले हम अपने लिए तो कर ले, अपने परिवार के लिए तो कर ले फिर दूसरे के लिए सोच लेंगे । यह कह कर सब कन्नी काट जाते है चलों पीछा छुटा, पता नहीं लोगों को हमसे क्या परेशानी है । लगता है सब हमसे जलते है, हमारा सुकून लोगों को गवारा नहीं लगता ।
जिस स्थान पर जल रहता है, हंस वही रहते हैं । हंस उस स्थान को तुरंत ही छोड़ देते हैं जहां पानी नहीं होता है। हमें हंसों के समान स्वभाव वाला नहीं होना चाहिए ।
आचार्य चाणक्य कहते हैं कि हमें कभी भी अपने मित्रों और रिश्तेदारों का साथ नहीं छोडऩा चाहिए । जिस प्रकार हंस सूखे तालाब को तुरंत छोड़ देते हैं, इंसान का स्वभाव वैसा नहीं होना चाहिए । यदि तालाब में पानी न हो तो हंस उस स्थान को भी तुरंत छोड़ देते हैं जहां वे वर्षों से रह रहे हैं । बारिश से तालाब में जल भरने के बाद हंस वापस उस स्थान पर आ जाते हैं, हमें इस प्रकार का स्वभाव नहीं रखना चाहिए । हमें मित्रों और रिश्तेदारों का सुख-दुख, हर परिस्थिति में साथ देना चाहिए । एक बार जिससे संबंध बनाए उससे हमेशा निभाना चाहिए । हंस के समान स्वार्थी स्वभाव नहीं होना चाहिए ।
आज जिस तरह से हमारे समाज में बदलाव हो रहे हैं ऐसे हालात में अच्छे और बुरे में पहचान करना बहुत ही कठिन कार्य हो गया है हमारे इस आधुनिक समाज में पढ़ाई-लिखाई को बहुत महत्व दिया जा रहा है मगर पढ़े-लिखे लोग ही अच्छे लोग हों यह जरूरी नहीं है । बहुत अफसोस की बात है कि हमें जो पढ़ाया जा रहा है वह व्यावहारिक नहीं है और यह किताबी पढ़ाई हमें आदमी से मशीन बना रही है व हमें एक दूसरे के सुख-दुख से दूर करती जा रही है । हम सभ्य और विकसित होने का दावा तो करते हैं मगर किसी के दुख या परेशानी में शामिल होने के लिये हमारे पास समय नहीं है । हमारे समाज में आज सीधे-सादे और अच्छे लोगों की कोई इज्जत नही होती है और उन्हें परेशान किया जाता है जबकि भ्रष्ट और दुराचारी लोगों का सम्मान किया जाता है । आज के इस आधुनिक समाज में सादगी और सदाचारी की जगह बनावटी और भ्रष्टाचारी लोगों का का राज है जो जनता के सामने तो सदाचार और नैतिकता की बातें करते हैं मगर पीठ पीछे दुराचार और अनैतिक बातों में लगे रहते हैं । हम आज जिस आधुनिक समाज में रह रहे हैं वह हमें अपने अधिकारों के बारे में तो हमें बताता है मगर हमें अपने कर्तव्यों के बारे में जागरूक नहीं करता जैसे कि हमारे पूर्वजों ने जो पेड़ लगाये थे उन पेड़ों से हमें शुद्ध और ताजी हवा मिलती है मीठे फल मिलते हैं और ठंडी छांव मिलती है । हम लोग अपने पूर्वजों के लगाये हुये पेड़ तो अपनी जरूरतों के लिये काट देते हैं मगर अपनी आने वाली पीढ़ी के लिये पेड़ नहीं लगाते जिसकी वजह से आने वाली पीढि़यों को शुद्ध और ताजी हवा मीठे फल और ठंडी छांव कैसे मिल पायेगी इसके बारे में हम नहीं सोचते । आज हमें जरूरत है ऐसी पढ़ाई की जो हमें अपने अधिकारों के बारे में तो पढ़ाये ही और साथ ही हमे अपने कर्तव्यों के बारे में जागरूक भी बनाये जिससे हम पढ़ें-लिखें और साथ में एक अच्छे इंसान भी बन सकें ।
यह हमारा समाज है कि जो हमारे लिए आगे बढने के लिए उत्प्रेरक का काम करता है । अगर समाज का डर न हो तो इंसान इंसान नहीं रह सकता । हम तो खुद कैसे भी अपना जीवन बिता लेंगे । फिर जिंदगी के दरिया में कहीं न कहीं किनारे पर लग कर अपना जीवन व्यतीत कर ही लेंगे । अब क्योंकि हम इस समाज के महत्वपूर्ण अंश है, इसलिए हम हर पल समाज के आगोश में रहते है । समाज की बंदिशों का डर रहता है कि हम किसी भी काम को करने से पहले बहुत बार सोचने को मजबूर हो जाते है । अगर हमारी वजह से कोई गलत काम हो गया, तो कहीं मुंह दिखाने लायक भी नहीं रहेगे, फिर हमारे माता-पिता व हमारा परिवार समाज से कट भी सकता है और यही छोटी-छोटी बातें हमको कुछ सकारात्मक व सार्थक करने के लिए प्रेरित करती है । निम्न व मध्यम वर्गीय परिवारों की तरक्की के रास्ते समाज ही दिखाता है । जबकि उच्च वर्गीय परिवारों को समाज की कोई परवाह नहीं होती है, उनको लगता है कि वह समाज से ऊपर है । यह अलग बात है कि अपवाद हर जगह पर हो सकते हैं । बचपन से लेकर वृद्धावस्था तक के लंबे सफर में सबसे बेशकीमती युवावस्था का समय हमारी जिंदगी का महत्वपूर्ण पड़ाव होता है, और इसी पडाव पर हमको बचपन की सुनहरों यादों के साथ सपनों को साकार करने प्रयास करना चाहिए, ताकि हम वृद्धावस्था में अपने समाज में गर्व से कह सके कि देखो और समझो हमने जिंदगी के दरिया में मजबूत व दृढ इच्छा-शक्ति के बल पर तैर कर अपने लिए वह मुकाम हासिल किए है, जो कामयाबी के शिखर बन गए । अगर हमने युवावस्था में समाज की परवाह नहीं की, तो ऐसा हो सकता है कि वृद्धावस्था में समाज हमारा साथ छोड दे और हम अकेले रह जाए, जिंदगी के आखिरी मोड पर । इसलिए जरूरी हो जाता है कि हमको अपना कल को संवारने के लिए आज समाज को सम्मान देकर और उससे प्रेरणा लेते हुए आगे बढने की कोशिश की जाए ।
हमारा समाज तो हम सब के लिए एक अच्‍छी और साफ़-सुथरी जिन्दगी जीने का मुख्य आधार है, अगर हम समाज को दरकिनार करेंगे तो हमारा जीवन एक नरक की तरह बन जाता है, निजी जीवन जीने के लिए आज कल पैसा ही सब कुछ है, पर समाज में भी रहना जरुरी है, जीवन में आदमी महान कब होता है जब इज्जत-मान-मर्यादा हर आदमी का अपना परिवार होता है, इसके लिए समाज बहुत जरुरी है, अपने कल संवारने के लिए आज समाज को सम्मान देकर और उससे प्रेरणा लेते हुए आगे बढने की कोशिश की जाए ।
हमें अपने समाज से बुराई को हटाना होगा । जब तक हम समाज में व्याप्त बुराई को हटाने में कोई सहयोग नहीं करते हैं तब तक हम उन्‍नति नही कर सकते । कितने लोग सोचते व कहते हैं कि एक हमारे चाहने से क्या होगा ………. पूरा दुनियाँ ऐसी हैं तो क्या एक सिर्फ हमारे सुधरने से दुनियाँ सुधर जायेगी ………… इस तरह से लोग कई बात कहते हैं । पर हमें सोचना व समझना चाहिए कि हम और आप जैसे व्यक्तियों से ही यह समाज बना है । तब फिर हमारे व आपके सुधरने से यह समाज क्यों न सुधरेगा ? याद रखें हमारे-आपके सहयोग से ही इस समाज की उन्नति संभव है । और हमारे-आपके सहयोग से ही समाज से रूढीवादी कुरीतियां समाप्त हो सकती है । अन्यथा समाज की रूढीवादी कुरीतियां हमें ही कुचल देगी । समाज सुधार सुशिक्षितों का अनिवार्य धर्म-कत्र्तव्य है । अतः हम सभी से यह आह्वान करना चाहते है कि अपने में सुधार लाते हुए समाज को सुधारने में अपना योगदान दें । यही हमारी नववर्ष की खुशी होगी । हम बदलेंगे युग बदलेगा । हम सुधरेंगे युग सुधरेगा ॥

समाज के समन्दर की मैं एक बूँद हूँ, और मेरा प्रयास वैचारिक परमाणुओं को संग्रहित कर सागर की निर्मलता को बनाए रखना ।

समाज को ठगने वाले नेता :


एक बार फिर वह मौसम आ गया है । मैं बात सर्दी के मौसम की नही, चुनावी मौसम की कर रहा हूँ । राजस्थान सरकार भी विधानसभा चुनाव के मद्देनजर अपनी नीतियॉ जनता के लिए बना रही है । बेरोजगारो को नोकरी दी जा रही है, नोकरी वाले को पदोन्नती, सरकार कि लाखों नोकरीयॉ अदालतों, लालफिताशाही के चक्कर मे अटकी पड़ी है । पदोन्नति किसी को मिल गई है, किसी की रोक दी गई है, किसी की होने वाली है । लग ऐसा रहा है कि, सरकार भी दिवाली मना रही है, ऐसा दिखाया जा रहा है, लेकिन वस्तुस्थिति यह है कि हजारों अध्यापक 55 प्रतिशत टेट के अंक और अन्य कानूनी पचड़े मे फंसे पड़े है । सरकारी कर्मचारियों को भी दिया, कम जा रहा है और दिखाया, ज्यादा जा रहा है, यह तो बात थी सरकार की ।
अब बात करते हैं अपने मूल बिन्दु की, जिस पर हम आपको कुछ वास्तविक जानकारी देने चाहेगे और उन लोगों को आयना बताना चाहेगे, जो समाज को ठगने के प्रयास मे नेता बने बैठे है, और कुछ नेता बनने के प्रयास मे है ।
वास्तविकता पर नजर डाले तो सामाजिक संस्थाऐं, समाज के विकास की घूरी होती है, जब ये धूरी काम करना बन्द कर देती है तो, ऐसी स्थिति मे फिर उत्पति होती है, कुछ नये समाजसेवी लोगों की, जो वास्तव मे समाज की सेवा करना चाहते है । और कुछ ऐसे लोगों जो इस बात के इन्तजार मे बैठे है, कि ये सामाजिक संस्थाऐ कब निष्क्रिय हो और तब हम नयी संस्थाऐ बनाये ।
ऐसी स्थिति मे विरोधी गुट के नेत्तृव को खड़ा करने के लिए, वर्तमान संस्थाओं से असन्तुष्ट, अपने आपको समाजसेवी कहने वाले लोग भी शामिल हो जाते है । यह वे लोग है जो वर्तमान संस्थाओं के गलत निर्णय के कारण यदा कदा संस्थाओं के प्रदेश या राष्ट्रीय स्तर के पदों पर रह चुके है । जिन्हे जनाधार नही होने के कारण हटा दिया गया है । किसी भी व्यक्ति की प्रदेश स्तर की नियुक्ति के लिए जरूरी है कि, उसका अपने जिले मे जनाधार हो । जो जिले का अध्यक्ष नही रहा है, उसे प्रदेशाध्यक्ष कैसे बनाया जा सकता है । यदि बना भी दिया जाये तो भी, उसकी हैसियत का आंकलन किया जाना चाहिये, कि उसने अपने समाज के लिए, क्या त्याग किया है ? उसकी व्यक्तिगत हैसियत क्या है ?, इसका समाज मे कोई अर्थ नही है । यदि कोई सरकारी कर्मचारी है तो, उसके द्वारा 58 या 60 वर्ष की उम्र मे समाजसेवा की बात करना बेमानी है, क्योकि उन्हे यह तो बताना ही पड़ेगा की पिछले 58 वर्षो से, वे कहा थे, जो आज सामाजिक संस्थाओं के पदों के लिए लालायत हो रहे है । वे लोग जो 58 वर्ष की उम्र मे समाज मे अपनी भूमिका तलासते है तो, उन्हे यह भूमिका केवल सरकार की नोकरी के चलते नही दी जा सकती, जबकि सरकार उसे अपने मकहमे से बाहर निकालने की तैयारी कर रही है, ओर वह सामाजिक संस्थाओं पर अपना बोझ मुफ्त मे डालना चाहते है जबकि उसके पास न तो जनाधार है, ना ही दानदाता का आधार है, ना ही त्याग, जबकि यह समाजसेवा की मूल कसोटी है । यही बात चाहे युवा मोर्चा के प्रदेशाध्यक्ष हो या अन्य कोई, उन पर भी लागू होती है । किसी भी ऐसे व्यक्ति कि नियुक्ती, बिना आंकलन किये, संस्थाओं के लिए बहुत घातक है, और इससे केवल विरोधी तैयार होते है, इससे ज्यादा कुछ नही ।
ऐसे लोग, जो वास्तव मे समाज की सेवा करना चाहते है, को समाज मे तथाकथित राजनेता बने लोग, अपनी हवा हवाई बातों से जैसे विधायक, सांसद, जिला प्रमुख, मैयर, चेयरमेन, जैसे पदों का हवाला देकर, ऐसे सच्चे समाजसेवी लोगों को हाईजेक कर देते है । उन्हे खुद भी पता नही लगता की, वे किस बहाव के साथ बह रहे है, उन्हे इसका अन्देशा भी नही रहता है ।
वर्तमान मे जैसे-जैसे चुनावी समय नजदीक आ रहा है, वैसे-वैसे समाज के राजनेता बनने के लिए भी, लोग बिल से बाहर आ रहे है । वे लोग अपना वास्तविक जनाधार तो बना नही पायें क्‍योंकि वे कभी समाजसेवी रहे ही नही, तो जनाधार कहा से आऐगा । स्थिति ऐसी है कि चुनाव आते ही, वे समाज को इकट्ठा करने कि बात कर रहे है । इसमे वे लोग भी शामिल है, जिसका पिछले कई सालों से समाजसेवा से कोई लेना-देना नही रहा । केवल अपने आपको नेता, विधायक बनाने के चक्कर मे समाज के कुछ अच्छी छवी के कार्यकर्ताओं को शामिल कर, उनकी छवी को अपने हितों के लिए उपयोग करने मे जुट गये है, और समाज मे एक नयी चेतना जागृत करने का प्रयास कर रहे है । अभी तक उन्हें ये पुछने वाला कोई नही मिला, कि पिछले इतने वर्षों से आप कहा थे । आपका जन्म अचानक राजनैतिक चुनाव मे कैसे हो गया और समाज की याद कैसे आ रही है, क्योकि बिना समाज के इनका कोई वजूद नही है । यह सभी लोग अच्छी तरह समझते है और अब यह ‘‘बरसाती समाजसेवी’’ समाज को बिना कुछ दिये, बिना त्याग के ही समाज के वोट बैंक का उपयोग, अपने स्वार्थ के लिए करना चाहते है और अपने आपको उनका नेता बनाना चाहते है । जो वोट बैंक के सोदे से ज्यादा कुछ नही । ऐसे लोगों की समाज और राजनैतिक पार्टियो मे क्या हैसियत होगी, आप और हम अच्छी तरह जानते है । ऐसे लोगो समाज को अपने फायदे के लिये, ठगने के प्रयास मे लगे हुए है । जो एक धोके से ज्यादा कुछ नही है ।
समाज को भी ऐसे लोगो का समर्थन नही करना चाहिये, जो अपने स्वार्थ पूर्ति के लिए समाज के सम्मेलन, एकजुटता, विकास की बात करते है । उन्हे यह पूछना चाहिये कि इतने दिन कहा थे, यह समाज और इनकी संस्थाऐ तो यही थी । इसमे कुछ अच्छी छवि वाले समाजसेवी भी ठगे जा रहे है । उन्हे भी इसका अहसास नही हो रहा है । ऐसे लोग, जो समाज के विकास की बात करते है, उनके पिछले इतिहास और कारनामों पर नजर डाले तो पता चलता है कि, उनमे व्यावहारिकता का गुण भी नही है । उनमे यदि विशेष गुण मौजूद है तो वह है कि, अपने ही लोगो के साथ धोखा करना, ठगना, उनको ठाल बनाकर, अपने नीजी स्वार्थपूर्ति के लिए उपयोग केसे किया जाए ।
तो फिर प्रश्न उठता है कि हमे और हमारी संस्थाओं को क्या करना चाहिये, हमे हमारे बीच मे ही वर्षों से कार्यरत सामाजिक कार्यकताओ को राजनीति के मेदान मे आगे लाया जाना चाहिये । चाहे वो हमारा निजी विरोधी ही क्यों न हो । हमारा निजी विरोध किसी से हो सकता है, लेकिन समाजसेवा करने वाले का समाज विरोधी नही होता है । जिससे समाज को सच्चे समाजसेवी नेता मिलेगे, जो प्रत्येक उतार-चढाव पर समाज के साथ खड़े रहते है । जिसका उदाहरण हमारे सामने है गुर्जर आरक्षण जिसमे क्या विधायक, पूर्व विधायक, मन्त्री हो या सन्त्री, सभी मूसतेदी के साथ समाज की सेवा मे खड़े है, अपने-अपने मोर्चे पर । हमे ऐसे लोगो को राजनीति मे आगे लाना होगा । तभी हमारे अधिकार सुरक्षित रहेगे और हमारा विकास भी मजबूती के साथ होगा । जहॉ तक, अच्छे भाषण देने की बात है, तो इसके लिए बहुत साफ है कि, भाषणों से पेट नही भरता है । ऐसे भाषण जो केवल सुनने मे अच्छे लगते हो , जिस पर केवल तालीयॉ बजायी जा सकती, यह कोई सिनेमा हॉल नही है, ना ही हम दर्शक है । ऐसे लोगो को स्‍वयं अपने त्याग को पहले निर्धारित चाहिये, उन्हे अपने अन्दर झांकना चाहिये कि, जो वे बोल रहे है, क्या वे स्‍वयं उन पर चलते है । यदि हॉ तो चलकर उदाहरण प्रस्तुत करे । यदि नही तो, अपने भाषणों को अपने पास रखे, हमारी भावी पीढ़ी मे यह दुष्प्रभाव पैदा ना करे, कुछ करके दिखाये । हमे यह नही भूलना चाहिये कि, हमने समाज को क्या दिया है, ताकि हम इस समाज मे पैदा होने के ऋण के कुछ हिस्से को चुका सके, अन्यथा ऐसा ना हो कि, हम कर्जदार ही मर जाये । जो किसी श्राप से कम नही है ।

उन सभी लोगो को मेरा सन्देश है कि, जो अपनी उम्र के अन्तिम पड़ाव मे है, यह मंथन करे कि, उन्होने इस समाज मे पैदा होकर समाज को क्या दिया है ? अपने दुनिया छोड़ने से पहले से कुछ ऐसा कर जाये, जिसे आपकी आने वाली पीढ़ी, सलाम कर सके । क्‍योंकि जो आप और हम नही कर पाये, उसकी उम्मीद आने वाली पीढ़ी से करना मूर्खता है ।

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