Friday, June 10, 2016

समाज -3

जिस परिवार, समाज, प्रान्त और देश में एकता का आदर होता है, जहाँ के लोग इसकी अहमियत समझते हैं वहां के लोग उन्नति करते हैं। जो जाति इसका उचित सम्मान करती है वह जाति उन्नति के मार्ग पर अग्रसर होता है और जिस समाज में एकता का अभाव है वहां घोर अशांति का साम्राज्य कायम हो जाता है। जिस समाज के अन्दर एकता की प्रतिष्ठा धूमिल हो जाती है, वहां नाना प्रकार की कुप्रथाएं,घिनौनी कुरीतियाँ तथा भद्दे कुसंस्कार जन्म ले लेते हैं। एक हाथ से ताली नहीं बजती, एक पहिये के बिना गाड़ी नहीं चलती, उसी प्रकार एकता के बिना समाज सुगठित नहीं हो सकता है। चीटियाँ जो एक क्षुद्र जीव है, लेकिन वह एक्ताव्द्ध होकर निरंतर काम करती रहती है। एक-एक फूल के पिरोने से माला बनती है, एक-एक ईंट जोड़ने से ईमारत खड़ी हो जाती है, अक्षरों के मेल से शब्द और शब्दों के मेल से बड़े-बड़े ग्रंथों का निर्माण होता है, नालियों से बड़े नाले, नालों से नदियाँ, और कई नदियों के मिलने से सागर बनता है, उसी प्रकार जबतक परिवार में, समाज में एकता वद्ध जीवन का संचार नहीं होगा तबतक उस समाज की उन्नति असंभव है। एकता का ही परिणाम था कि सात समुन्दर पार से अंग्रेज भारत में व्यापार करने आया था और यंहा के आपसी फूट का फायदा उठाकर पुरे देश में शासन कायम कर लिया और 200 वर्षों तक इस देश पर शासन किया। अतएव हम सबों को आपसी वैमनष्यता, इर्ष्या- द्वेष, आदि का परित्याग कर एकता पर ध्यान देने की जरूरत है। हमारे बीच भले ही कितने मतभेद हों, पर यदि कोई बाहरी संकट आये तो सबको एकजुट होकर उसका मुकाबला करना चाहिए।
एकता का अर्थ यह नहीं होता कि किसी विषय पर मतभेद ही न हो। मतभेद होने के बावजूद भी जो सुखद और सबके हित में है उसे एक रूप में सभी स्वीकार कर लेते हैं। सामाजिक एकता से अभिप्राय है सभी नागरिक सामाजिक प्रेम से ओत-प्रोत हों सभी नागरिक पहले रैगर हों, फिर गोत्रों।
एकता ही समाज का दीपक है- एकता ही शांति का खजाना है। संगठन ही सर्वोत्कृषष्ट शक्ति है। संगठन ही समाजोत्थान का आधार है। संगठन बिन समाज का उत्थान संभव नहीं। एकता के बिना समाज आदर्श स्थापित नहीं कर सकता।, क्योंकि एकता ही समाज के लिए अमोघ शक्ति है, किन्तु विघटन समाज के लिए विनाशक शक्ति है।
सामाजिक एकता का मतलब ही होता है, समाज के सब घटकों में भिन्न-भिन्न विचारों और विभिन्न आस्थाओं के होते हुए भी आपसी प्रेम, एकता और भाईचारे का बना रहना। सामाजिक एकता में केवल शारीरिक समीपता ही महत्वपूर्ण नहीं होती बल्कि उसमें मानसिक,बौद्धिक, वैचारिक और भावात्मक निकटता की समानता आवश्यक है।
विघटन समाज को तोड़ता है और संगठन व्यक्ति को जोड़ता है। संगठन समाज को उन्नति के शिखर पर पहुंचा देता है। आपसी फूट एवं समाज का विनाश कर देती है। धागा यदि संगठित होकर एक जाए तो वह हाथी जैसे शक्तिशाली जानवर को भी बांध सकता है। किन्तु वे धागे यदि अलग-अलग रहें तो वे एक तृण को भी बंधने में असमर्थ होते हैं। विघटित ५०० से संगठित ५ श्रेष्ठ हैं। संगठन किसी भी क्षेत्र में क्यों न हो, वह सदैव अच्छा होता है- संगठन ही प्रगति का प्रतीक है, जिस घर में संगठन होता है उस घर में सदैव शांति एवं सुख की वर्षा होती है।
चाहे व्यक्ति गरीब ही क्यों न हो, किन्तु यदि उसके घर-परिवार में संगठन है अर्थात सभी मिलकर एक हैं तो वह कभी भी दुखी नहीं हो सकता, लेकिन जहाँ या जिस घर में विघटन है अर्थात एकता नहीं है तो उस घर में चाहे कितना भी धन, वैभव हो किन्तु विघटन, फूट हो तो हानि ही हाथ आती है..
संगठन ही सभी शक्तियों की जड़ है,एकता के बल पर ही अनेक राष्ट्रों का निर्माण हुआ है,प्रत्येक वर्ग में एकता के बिना देश कदापि उन्नति नहीं कर सकता। एकता में महान शक्ति है। एकता के बल पर बलवान शत्रु को भी पराजित किया जा सकता है।
बिखरा हुआ व्यक्ति टूटता है- बिखरा समाज टूटता है- बिखराव में उन्नति नहीं अवनति होती है- बिखराव किसी भी क्षेत्र में अच्छा नहीं। जो समाज संगठित होगा, एकता के सूत्र में बंधा होगा, वह कभी भी परास्त नहीं हो सकता- क्योंकि एकता ही सर्वश्रेष्ठ शक्ति है, किन्तु जहाँ विघटन है, एकता नहीं है उस समाज पर चाहे कोई भी आक्रमण कर विध्वंस कर देगा। इसलिए ५०० विघटित व्यक्तियों से ५ संगठित व्यक्ति श्रेष्ठ हैं, बहुत बड़े विघटित समाज से छोटा सा संगठित समाज श्रेष्ठ है। यदि समाज को आदर्शशील बनाना चाहते हो तो एकता की और कदम बढाओ।
समाज एकता की चर्चा करने के पूर्व आवश्यकता है- घर की एकता, परिवार की एकता की। क्योंकि जब तक घर की एकता नहीं होगी- तब तक समाज, राष्ट्र, विश्व की एकता संभव नहीं। एकता ही समाज को विकासशील बना सकती है। समाज के संगठन से एकता का जन्म होता है एवं एकता से ही शांति एवं आनंद की वृष्टि होती है।
समाज में एकता की भावनाएं रखेंगे तो समाज स्वस्थ और प्रगतिशील होगा
ऋग्वेद मंत्रों (10.191.2,3) में कहा गया है कि हे मनुष्यों, तुम सब के विचार एक जैसे हो, मन एक समान हो। मिलकर चलो, परस्पर मिलकर बात करो। तुम्हारे मन एक होकर ज्ञान प्राप्त करे। अगर परस्पर विरोधी दिशाओं में चलोगे तो समाज को हानि होगी। जब हमारे संकल्प समान होंगे, हृदय परस्पर मिले हुए होंगे, हम सभी को मित्र की दृष्टि से देखेंगे तो समाज सुगठित रहेगा। जब हम सबके विचार, समिति, मन और चित्त समान उद्देश्य वाले होंगे तो हम परस्पर मिलकर रह सकंेगे। जब हम कदम से कदम मिलाकर चलते हैं तो सफलता मिलती है। समाज में मनुष्य एक दूसरे से प्रेमपूर्वक और शालीनता पूर्ण व्यवहार करें।
वेद उपदेश देते हैं कि हमें अपने देश और देशवासियों की कीर्ति के लिए मिलकर काम करना चाहिए। इतना ही नहीं, हमें दूसरी धार्मिक निष्ठाओं व आकांक्षाओं का पूर्ण आदर करना चाहिए। हम अपनी मातृभूमि के ऋणी हैं क्योंकि इसने बहुत ही दयालुतापूर्ण, आकर्षक और उपयोगी द्रव्य साधन प्रदान किए हैं और इसलिए हमें इनकी ऐसे आराधना चाहिए जैसे हम ईश्वर की उपासना करते हैं। जब हम दूसरों में अपना प्रतिबिम्ब और अपने में दूसरों का प्रतिबिम्ब देखेंगे तो शान्ति बने रहेगी और उसे कोई भी भंग नही कर सकेगा। वेदों में विचारों की सार्वभौमिक अनुरूपता की बात की गई है।
तुलसीदास जी भी कहते हैं -
जहाँ सुमति तँह सम्पत् नाना,
जहां कुमति तंह विपद् निधाना।।
परस्पर मिलकर विचार करो। विचारों से वाणी शुद्ध बनेगी और वाणी से कार्याे में एकता आएगी। जब हम सब मिलकर विचार करने में समर्थ होते हैं तो अपने हित और दूसरों के कल्याण के समन्वय का ज्ञान होने लगता है। इस संसार में हर प्रकार के लोग हैं और सब को यह जीवन यात्रा करनी है। विद्वानों, देवों का स्वाभाव रहा है कि साथ चलें, साथ संवाद करें और मिलकर विचार करें क्योंकि ऐसे स्वाभाव वाले लोग दूसरों के हित में अपना हित समझते हैं। समाज में रहने का यह एक मूल मंत्र है और केवल आत्महित न देखकर परहित भी देखना होगा। सृष्टि की यही स्थिति है सह-अस्तित्व का विधान्। केवल विवेकहीन अपने हित और स्वार्थ को सर्वोपरि रखते हैं।

‘‘सर्व आशा मम मित्रं भवन्तु’’ (अथर्वेद 19.15.6) हम सब आपस में मित्र हों। जिस तरह भी मैं देखूं हर एक को मैं अपना मित्र समझूं। यह मंत्र मनुष्य समाज को यह प्रेरणा देता है कि हम मन और मस्तिष्क से एक साथ हों ताकि एकता बनी रहें। जब तक हम समाज में एकता की भावनाएं रखेंगे हमारा समाज स्वस्थ और प्रगतिशील होगा। धैर्य, आत्म, संयम, प्रेम, आनन्द, सन्तोष इन सब के प्रबंधित, संयमित करने की आवश्यकता है और ऐसा करना अकेले रहकर संभव नहीं है अर्थात् समाज के दूसरे सदस्यों के सहयोग के बिना नहीं कर सकते। कोई भी समाज समृद्ध नहीं हो सकता अगर इसके सदस्य स्वार्थी या ऐसे दोष वाले होंगे जो सहनशीलता की सीमा से बाहर हों। ऐसे समाज को केवल परिवर्तन की आंधी ही बदल सकती है। वेदों के उपदेश का सार है भाईचारा, दूसरों को हानि न पहुंचाना, दया, करूणा, सत्यनिष्ठा, साधुता। सभी दिशाओं में व हर समय भाईचारा और शांति बनी रहे।

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