सामूहिक विवाह समाज के भगीरथ बंधुओ द्वारा समाज हित में एक सार्थक सोच व अंगद कदम हैं। सामूहिक विवाह मात्र एक विवाह का आयोजन भर नहीं हैं अपितु इसके प्रभाव व समाज हित में लाभ बड़े दूरगामी हैं।
मोटे-मोटे तौर पर सामाजिक प्रभावो में हम इस पहल से शादियो की दिन ब दिन बढती फिजूल खर्ची को आइना दिखा रहे हैं वहीँ समाज के आर्थिक रूप से कमजोर तबके की सहायता भी कर रहे हैं। हालाँकि सामाजिक स्तर पर सब समान हैं। फिर भी यह एक जमीनी सच्चाई हैं की सामूहिक विवाह की अवधारणा के विकास में एक आधारभूत तत्व यह भी था की समाज के आर्थिक रूप से कमजोर परिवारो से शादी रूपी खर्चे के पहाड़ का बोझ कम किया जाये। हालाँकि अब समाज में यह भी पहल हो रही हैं की आर्थिक रूप से सम्पन्न उच्च व मध्यम तबके को भी इसमें अपनी उपस्थिति दर्ज़ करवानी चाहिए। पर यह सब स्वेच्छा से हो तो सोने पर सुहागा होगा क्योंकि वर्तमान में मैं समाज पर किसी तरह के प्रतिबंध की असार्थक कल्पना नहीं कर सकता। और मेरे स्वविचारो में शादी पूर्णतः निजी समारोह हैं और निजी रूप से ही प्रत्येक को इसके आयोजन का अधिकार भी हैं।
दूरगामी परिणाम देखे तो सामूहिक विवाह की पहल से हम कन्या भूर्ण हत्या पर भी एक हद तक सोच बदलने में कामयाब होंगे और दहेज़ रूपी दानव का भी निवारण कर रहे हैं। कन्या भूर्ण हत्या में एक अहम् किरदार माँ बाप के मन उसकी शादी के खर्चे का भी होता हैं जिसका हम इस पहल से निदान कर रहे हैं।
पर यह सब होते हुए भी मेरे मन में एक शंका या उलझन अब भी बरक़रार हैं। समाज के बुद्धिजीवी और न्यायप्रिय तो अवगत ही हैं की दहेज़ प्रथा समाज के लिए सबसे अनैतिक, असामाजिक और जहरीली समस्या हैं। हालाँकि सच्चाई यह भी हैं की इस कुप्रथा का हमारे समाज में इतना जहर देखने को नहीं मिला। फिर भी ताने देने के रूप मे हो या परिवार में माया का असर दिखाने के लिए अब भी ये समाज में विद्यमान हैं। पर इसे निर्मूलन करने के लिए बढ़ते कदम और समाज की चेतना का इसके प्रति कड़े रुख से में अभिभूत हूँ। लेकिन समाज के एक कदम से में स्तब्ध हूँ की दहेज़ प्रथा की शैशव अवस्था को हम अनोपचारिक रूप से सामूहिक विवाह में बढ़ावा दे रहे हैं। निमंत्रण पत्रिका, निर्देश पत्रिका में इसका प्रसार-प्रचार हो रहा हैं। समाज के भामाशाहो से विनती व आह्वान होता हैं की वे अपनी इच्छानुसार वस्तुए व आभूषण भेट दे सकते हैं।
क्या हम दहेज़ को पिछले दरवाजे से वैधानिक बना रहे हैं। अगर हम ये माने की ये सब भेट दहेज़ नहीं हैं और दहेज़ को हम कदापि बढ़ावा नहीं दे रहे हैं तो इन उपहारों और भेटो का फिर स्वरूप् क्या हैं। प्राचीन काल में दहेज़ प्रथा भी मात्र उपहारों और भेंटों का एक मिश्रण भर थी जिसे परिवार वाले अपनी बेटी को सहायतार्थ स्वरूप् विदाई के अवसर पर देते थे। कालान्तर में इसने अनिवार्यता का चोला ओढ़ लिया और गंभीर समस्या बन गयी। मुझे डर हैं क्या हम सामाजिक स्तर पर भी इस और बढ़ रहे हैं? अगर हाँ तो फिर इसके परिणाम गंभीर होंगे। हालाँकि एक तर्क यह भी हैं की यह तो समाज की और से उपहार स्वरुप भेट हैं पर तब मेरा प्रश्न यह होगा की माँ बाप के उपहारों और भेट को भी जायज ठहराना होगा। अगर यह सर्वउचित हैं तो वह भी परमउचित होना चाहिए। हम बुराई का आकलन इस तरह नहीं कर सकते की यह मात्र 10% घातक हैं और दूसरी 100% हैं। और अगर फिर हमारा मानक यह ही हैं तो हमें आत्मनिरीक्षण की जरुरत होगी की हम कहा खड़े हैं और चलने की दिशा क्या हैं।
सोभाग्य से इस वर्ष गोडवाड़ में संपन्न सामूहिक विवाह में मुझे शामिल होने का सुअवसर मिला। मेरा बहुत बहुत साधुवाद हैं उस आयोजन के आयोजको को जिन्होंने बहुत ही बेहतरी से समाज के पर्व को सम्पन्न किया था। निबोरनाथ में सड़क किनारे एक चाय की दुकान पर चाय की चुस्किया ले रहा था पास में समाज की कुछ बहनें और माताये भी बातों में व्यस्त थी। उनकी एक बात ने मुझे अंदर से झकझोर कर रख दिया। सोचा की क्या हमारी स्थिति “नो दिन चले अढ़ाई कोस” वाली हो रही हैं ?
उनकी बातो में एक मुद्दा यह भी था की इस सामूहिक विवाह में जो भेंटे और उपहार आये हैं उससे अधिक तो फलाणे सामूहिक विवाह में आये थे। हालाँकि मात्र यह एक चर्चा की बात हो सकती हैं और इसे आयी गयी भी कर सकते हैं पर क्या हम ऐसा माहोल भविष्य के लिए बना रहे जहा समाज में कुछ ऐसे बोल भी प्रचलन में आने लगेंगे जहाँ एक बेटी के घरवालो को ये सुनने के लिए भी विवश किया जायेगा की आप से तो बेहतर सामूहिक विवाह में दिया जा रहा हैं।
एक और यक्ष प्रश्न मेरे जेहन में हैं की अगर….अगर भविष्य में खुदा न खास्ता शादी किसी कारणवस टूट जाये तो इन भेंटों और उपहारों पर किसका अधिकार होगा….वरपक्ष या वधूपक्ष का? और किसी एक का होगा तो आधार क्या होगा।
सच्चाई यह भी हैं की सामूहिक विवाह में समारोह स्थल पर पहुचने के लिए किये गए वाहन का खर्च आज भी प्रमुख खर्च के रूप में दोनों पक्षो का होता हैं और ऐसेमें इन उपहारों और भेट के कारण एक और वाहन की भी व्यवस्था करनी होती हैं।
सामूहिक विवाह न्यूनतम में अधिकतम के सिद्धान्त पर हो तो और भी बेहतर परिणाम होंगे।
आयोजन समितिया भी अपनी संरचना और संगठन में बदलाव करके और भी बेहतर कर सकते हैं। वर्तमान में मौजूद सभी सामूहिक विवाह आयोजक समितिया अगर अपने पदों में एक पद दूसरी आयोजक समितियों के प्रमुख या अध्यक्ष को एक आमंत्रित पदाधिकारी के रूप में लेकर उनसे भी महत्वपूर्ण विषय पर चर्चा और उनके अनुभवो का लाभ ले तो परिणाम उम्मीदों से भी आगे होंगे। एक दूसरे का अनुभव बेहतर के लिए प्रभावी होगा।
मोटे-मोटे तौर पर सामाजिक प्रभावो में हम इस पहल से शादियो की दिन ब दिन बढती फिजूल खर्ची को आइना दिखा रहे हैं वहीँ समाज के आर्थिक रूप से कमजोर तबके की सहायता भी कर रहे हैं। हालाँकि सामाजिक स्तर पर सब समान हैं। फिर भी यह एक जमीनी सच्चाई हैं की सामूहिक विवाह की अवधारणा के विकास में एक आधारभूत तत्व यह भी था की समाज के आर्थिक रूप से कमजोर परिवारो से शादी रूपी खर्चे के पहाड़ का बोझ कम किया जाये। हालाँकि अब समाज में यह भी पहल हो रही हैं की आर्थिक रूप से सम्पन्न उच्च व मध्यम तबके को भी इसमें अपनी उपस्थिति दर्ज़ करवानी चाहिए। पर यह सब स्वेच्छा से हो तो सोने पर सुहागा होगा क्योंकि वर्तमान में मैं समाज पर किसी तरह के प्रतिबंध की असार्थक कल्पना नहीं कर सकता। और मेरे स्वविचारो में शादी पूर्णतः निजी समारोह हैं और निजी रूप से ही प्रत्येक को इसके आयोजन का अधिकार भी हैं।
दूरगामी परिणाम देखे तो सामूहिक विवाह की पहल से हम कन्या भूर्ण हत्या पर भी एक हद तक सोच बदलने में कामयाब होंगे और दहेज़ रूपी दानव का भी निवारण कर रहे हैं। कन्या भूर्ण हत्या में एक अहम् किरदार माँ बाप के मन उसकी शादी के खर्चे का भी होता हैं जिसका हम इस पहल से निदान कर रहे हैं।
पर यह सब होते हुए भी मेरे मन में एक शंका या उलझन अब भी बरक़रार हैं। समाज के बुद्धिजीवी और न्यायप्रिय तो अवगत ही हैं की दहेज़ प्रथा समाज के लिए सबसे अनैतिक, असामाजिक और जहरीली समस्या हैं। हालाँकि सच्चाई यह भी हैं की इस कुप्रथा का हमारे समाज में इतना जहर देखने को नहीं मिला। फिर भी ताने देने के रूप मे हो या परिवार में माया का असर दिखाने के लिए अब भी ये समाज में विद्यमान हैं। पर इसे निर्मूलन करने के लिए बढ़ते कदम और समाज की चेतना का इसके प्रति कड़े रुख से में अभिभूत हूँ। लेकिन समाज के एक कदम से में स्तब्ध हूँ की दहेज़ प्रथा की शैशव अवस्था को हम अनोपचारिक रूप से सामूहिक विवाह में बढ़ावा दे रहे हैं। निमंत्रण पत्रिका, निर्देश पत्रिका में इसका प्रसार-प्रचार हो रहा हैं। समाज के भामाशाहो से विनती व आह्वान होता हैं की वे अपनी इच्छानुसार वस्तुए व आभूषण भेट दे सकते हैं।
क्या हम दहेज़ को पिछले दरवाजे से वैधानिक बना रहे हैं। अगर हम ये माने की ये सब भेट दहेज़ नहीं हैं और दहेज़ को हम कदापि बढ़ावा नहीं दे रहे हैं तो इन उपहारों और भेटो का फिर स्वरूप् क्या हैं। प्राचीन काल में दहेज़ प्रथा भी मात्र उपहारों और भेंटों का एक मिश्रण भर थी जिसे परिवार वाले अपनी बेटी को सहायतार्थ स्वरूप् विदाई के अवसर पर देते थे। कालान्तर में इसने अनिवार्यता का चोला ओढ़ लिया और गंभीर समस्या बन गयी। मुझे डर हैं क्या हम सामाजिक स्तर पर भी इस और बढ़ रहे हैं? अगर हाँ तो फिर इसके परिणाम गंभीर होंगे। हालाँकि एक तर्क यह भी हैं की यह तो समाज की और से उपहार स्वरुप भेट हैं पर तब मेरा प्रश्न यह होगा की माँ बाप के उपहारों और भेट को भी जायज ठहराना होगा। अगर यह सर्वउचित हैं तो वह भी परमउचित होना चाहिए। हम बुराई का आकलन इस तरह नहीं कर सकते की यह मात्र 10% घातक हैं और दूसरी 100% हैं। और अगर फिर हमारा मानक यह ही हैं तो हमें आत्मनिरीक्षण की जरुरत होगी की हम कहा खड़े हैं और चलने की दिशा क्या हैं।
सोभाग्य से इस वर्ष गोडवाड़ में संपन्न सामूहिक विवाह में मुझे शामिल होने का सुअवसर मिला। मेरा बहुत बहुत साधुवाद हैं उस आयोजन के आयोजको को जिन्होंने बहुत ही बेहतरी से समाज के पर्व को सम्पन्न किया था। निबोरनाथ में सड़क किनारे एक चाय की दुकान पर चाय की चुस्किया ले रहा था पास में समाज की कुछ बहनें और माताये भी बातों में व्यस्त थी। उनकी एक बात ने मुझे अंदर से झकझोर कर रख दिया। सोचा की क्या हमारी स्थिति “नो दिन चले अढ़ाई कोस” वाली हो रही हैं ?
उनकी बातो में एक मुद्दा यह भी था की इस सामूहिक विवाह में जो भेंटे और उपहार आये हैं उससे अधिक तो फलाणे सामूहिक विवाह में आये थे। हालाँकि मात्र यह एक चर्चा की बात हो सकती हैं और इसे आयी गयी भी कर सकते हैं पर क्या हम ऐसा माहोल भविष्य के लिए बना रहे जहा समाज में कुछ ऐसे बोल भी प्रचलन में आने लगेंगे जहाँ एक बेटी के घरवालो को ये सुनने के लिए भी विवश किया जायेगा की आप से तो बेहतर सामूहिक विवाह में दिया जा रहा हैं।
एक और यक्ष प्रश्न मेरे जेहन में हैं की अगर….अगर भविष्य में खुदा न खास्ता शादी किसी कारणवस टूट जाये तो इन भेंटों और उपहारों पर किसका अधिकार होगा….वरपक्ष या वधूपक्ष का? और किसी एक का होगा तो आधार क्या होगा।
सच्चाई यह भी हैं की सामूहिक विवाह में समारोह स्थल पर पहुचने के लिए किये गए वाहन का खर्च आज भी प्रमुख खर्च के रूप में दोनों पक्षो का होता हैं और ऐसेमें इन उपहारों और भेट के कारण एक और वाहन की भी व्यवस्था करनी होती हैं।
सामूहिक विवाह न्यूनतम में अधिकतम के सिद्धान्त पर हो तो और भी बेहतर परिणाम होंगे।
आयोजन समितिया भी अपनी संरचना और संगठन में बदलाव करके और भी बेहतर कर सकते हैं। वर्तमान में मौजूद सभी सामूहिक विवाह आयोजक समितिया अगर अपने पदों में एक पद दूसरी आयोजक समितियों के प्रमुख या अध्यक्ष को एक आमंत्रित पदाधिकारी के रूप में लेकर उनसे भी महत्वपूर्ण विषय पर चर्चा और उनके अनुभवो का लाभ ले तो परिणाम उम्मीदों से भी आगे होंगे। एक दूसरे का अनुभव बेहतर के लिए प्रभावी होगा।
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