Thursday, June 9, 2016

समाज क्या है

परिवार

मुख्यतपरिवार के अंतर्गत पतिपत्नी और उनके बच्चों का समूह माना जाता हैपरंतु विश्व के अधिकांश भागोंमें परिवार का अर्थ एक सम्मिलित रूप से निवास करने वाले रक्त संबंधियों का वह समूह है जिसमें विवाह औरदत्तक प्रथा (गोद लेनेद्वारा परिवार की स्वीकृति प्राप्त व्यक्ति भी सम्मिलित होते हैं।

'मानव समाज में परिवार एक बुनियादी तथा सार्वभौमिक इकाई है। यह सामाजिक जीवन की निरंतरताएकताएवं विकास के लिए आवश्यक प्रकार्य करता है। अधिकांश पारंपरिक समाजों में परिवार सामाजिकसांस्कृतिक,धार्मिकआर्थिक एवं राजनीतिक गतिविधियों एवं संगठनों की इकाई रही है। आधुनिक औद्योगिक समाज मेंपरिवार प्राथमिक रूप से संतानोंत्पत्तिसामाजीकरण एवं भावनात्मक संतोष की व्यवस्था से संबंधित प्रकार्यकरता है।'

परिवार से अभिप्राय

विश्व के सभी समाजों में शिशु का जन्म और पालन पोषण का उत्तरदायित्व परिवार का ही होता है। शिशुओं कोसंस्कार देने और समाज के आचारव्यवहार और नियमों में दीक्षित करने का दायित्व मुख्यतपरिवार का हीहोता है। इसी परम्परा और नियम के द्वारा समाज की सांस्कृतिक विरासत और संस्कृति एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ीको स्वभाविक रूप से हस्तांतरित होती रहती है।

'भारत में ख़ासकर गांवों में परिवार बड़े हैं। लेकिन शहरों में परिवार छोटे हैं। शहरों में बच्चे को मां बाप के साथछोटे से मकान में रहना पड़ता है। कुछ परिवारों में बच्चा अपने चाचा, चाची, मां, पिताके साथ रहता है। परन्तुइन सभी परिवारों में मां बच्चे के बीच सबसे अधिक नजदीकी रिश्ता है। बच्चे के विकास में भी मां की ही सबसेज़्यादा बड़ी भूमिका रहती है। बच्चा पैदा होने के बाद से मां के आंचल में रहते हुये भी सीखना शुरू कर देता है। मांकी लोरियां उसे सिर्फ़ सुलाती ही नहीं उसके अन्दर प्रारंभ से ही सुननेध्यान देने और समझने की क्षमता भीविकसित करती हैं। दूसरी ओर मां-पिता या बाबा-दादी, नाना-नानी द्वारा सुनायी गयी कहानियां उसकानैतिक,चारित्रिक विकास करने के साथ ही उसके अंदर मानवीय मूल्यों की नींव भी डालती हैं। इसीलिये मांको पहली शिक्षक भी कहा जाता है।' 

परिवार का आधार

परिवार के सदस्यों की सामाजिक मर्यादा और सीमा परिवार से ही निर्धारित होती है। नर नारी के यौन संबंधों काआधार मुख्यतपरिवार के अंतर्गत परिवार की सीमा में निहित होता है। वर्तमान में औद्योगिक सभ्यता सेउत्पन्न जनसंकुल समाज और नगर को यदि इसके अंतर्गत ना लेकर छोड़ दिया जाए तो व्यक्ति का परिचयमुख्यतउसके परिवार और कुल पर आधारित ही होता है।

समाज की उत्‍पत्ति :
आदिकाल का मानव ही हमारे समाज का जन्‍मदाता है । समाज शब्‍द सभ्‍य मानव जगतका सूक्ष्‍म स्‍वरूप एवं सार है । सभ्‍य का प्रथम अक्षर मानव का प्रथम अक्षर माजगत का प्रथम अक्षर इन तीनों प्रथम अक्षरों के सम्मिश्रण से समाज शब्‍द की उत्‍पत्ति हुई, जो सभ्‍य मानव जगत का प्रतिनिधित्‍व एवं प्रतीकात्‍मक शब्‍द है ।

समाज की संज्ञा :
एक से अनेक व्‍यक्तियों के समूह को परिवार तथा एक परिवार से अनेक परिवारों के समूह प्रतिनिधित्‍व को समाज की संज्ञा दी गई है ।

समाज का निर्माता :
बन्‍धु ही समाज का सच्‍चा निर्माता, सतम्‍भ एवं अभिन्‍न अंग है । बन्‍धु, समाज का सूक्ष्‍म स्‍वरूप और समाज, बन्‍धु का विशाल स्‍वरूप है । अत: बन्‍धु और समाज एक-दूसरे के पूरक तथा विशेष महात्‍वाकांक्षी है ।

समाज की आवश्‍यकता क्‍यों ? : (संरचना, रूपरेखा एवं समाज प्रगति में संगठन की उपयोगिता)
स्‍वस्‍थ रीतियों-नीतियों को निर्धारित कर उसके निर्वाह तथा हमारी सामूहिक अनेक जटिलतम समस्‍याओं के निराकरण एवं निदान हेतु समाज की परम् आवश्‍यकत प्र‍तीत हुई । सामूहिक एकता एवं बन्‍धुत्‍व बनाये रखने, आपसी भेद-भाव मिटाने, शिष्‍टाचार एवं अनुशासन कायम करने, सद्विचारों की आदानता-प्रदानता, सामूहिक जीवन सुरक्षा हेतु, जीवन के समस्‍त संस्‍कारों, पर्व-उत्‍सवों पर सामूहिक रूप से एकत्रित होने के लिए, हवन-यज्ञ, धार्मिक स्‍थल, धर्मशाला, औषधालय, विद्यालय, पुस्‍तकालय, सार्वजनिक स्‍थल, क्रिडांगन, व्‍यायामशाला, सभा-भवन आदि के निर्माण एवं रख-रखाव, शुद्ध स्‍वस्‍थ एवं स्‍वच्‍छ वातावरण बनाने हेतु, सामूहिक प्रयास से नारे, गीत, व्‍याख्‍यान, फिल्‍म, प्रदर्शनी, पत्रिका प्रकाशन से समूचे भारत के कोने-कोने में बिखरे बन्‍धुओं को एकता के सूत्र में बांधने हेतु प्रबुद्ध बंधुओं का एक मंच बनाया गया । समता, सद् पेरणा एवं आदर्श स्‍थापित करने की समाज में संगठन की बड़ी उपयोगिता हो जाती है । समाज में संगठन व एकता एक प्रबल शक्ति एवं चमत्‍कार का द्योतक है । संगठन व एकता बड़े से बड़ा कार्य करने की अपार क्षमता रखता है । हम संगठित होकर समाज की सेवा एवं विकास कार्यों को तत्‍परता के साथ पूरा कर सकते हैं । तन-मन-धन तीन महाशक्तियों के सभागम से समाज का चहुमुखी विकास संभव हो सका है । संगठित होकर ही हम समाज की प्रत्‍येक क्षेत्र में निरंतर प्रगति एवं उपलब्धियों के बारे में स्‍वस्‍थ चिंतन कर उसे एक नई दिशा प्रदान कर सकते है । समाज के पिछड़ेपन को हम संगठित होकर ही दूर कर पायेंगे । अत: हमें संगठित रहने की परम् आवश्‍यकता है ।

समाज के सर्वागीण विकास में शिक्षा की उपादेयता :
यदि हमारा समाज शिक्षित होगा तो उसमें बद्धि और ज्ञान का प्रकाश विद्यमान रहेगा । शिक्षा के समावेश में समाज के लिए प्रत्‍येक क्षेत्र में संपर्क एवं संबंध स्‍थापित करने में सुगमता बनी रहती है । शिक्षा से हमारी संकुचित विचार धारा उच्‍च एवं वृहद विशाल विचार धारा में परिवर्तित हो सकती है । शिक्षित समाज निरंतर विकसित होकर प्रगतिशील बना रहता है । शिक्षा के प्रसार से समाज में चेतनशीलता एवं जागृति का सदैव तेजस्‍व कायम रहता है । शिक्षित समाज वर्तमान दौर में हर जटिलता का दृढता से सामना करने में सक्षम होता है । शिक्षा से ही हम अपनी पहचान कायम कर भली-भांति पूर्वक अपना परिचय दे सकते है । शिक्षित समाज एक-जुट होकर अपने समस्‍त अभाव को दूर कर सकता है । अपनी भूल एवं त्रुटियों का सुधार कर शिक्षित समाज ही विकास-पथ की ओर अग्रसर हो सकेगा । उन्‍नतिशील, प्रगतिशील समाज के निर्माण के लिए हमें शिक्षित होना परम् आवश्‍यक है, तभी हम अपने दिव्‍य-स्‍वप्‍नों को साकार कर सकेंगें । समाज शिक्षित हाकर ही प्रगति-पथ पर अपने निश्चित लक्ष्‍य की प्राप्‍ति कर सकता है ।

समाज में युवाओं का महत्‍व और उनका बौद्धिक विकास :
युवा हमारे परिवार के कुल दीपक और समजा के भावी कर्णधार, नई पौघ, निर्माता एवं समाज की आधार शीला है । अत: हमें बालकों को कु-पोषण, संक्रामक रोग, बुरी आदतों, कु-संस्‍कारों से बचाने के लिए पूर्ण जागरूक रहना होगा । उनके बौद्धिक विकास, सु-संसकारों एवं चरित्र निर्माण हेतु हमें पूर्ण सजगता बरतनी होगी । उनके उज्‍जवल भविष्‍य के निर्माण हेतु उन्‍हें शिक्षा दिलाने की परम् आवश्‍यकता है । उनके लिए हमें विद्यालय एंव सार्वजनिक पुस्‍तकालय स्‍थापित करने होगें । बालाकों के शारीरिक गठन को सुदृढ बनाने हेतु व्‍यायामशाला एवं खेल मैदान का निर्माण करना होगा । उनके सुरूचि पूर्ण साधन उपलब्‍ध कराने होंगे ।

सामाजिक उत्‍थान में नारी का महत्‍व, भूमिका एवं शिक्षा :
समाज के निर्माण में नारी का बहुत बड़ा एवं उच्‍चकोटी का योगदान है अत: उसका समाज में अत्‍याधिक महत्‍व हो जाता है । नारी समाज की जननी, चरित्रवान एवं गौरवमयी है । बच्‍चों में सु-संस्‍कारों की जन्‍मदात्री, लालन-पालन, चरित्र निर्माण और शिक्षा में पूर्ण सहयोगी तथा ममतामयी है । परिवार को सुचारू रूप से चलाने वाली कुशल गृहिणी, गृह लक्ष्‍मी एवं अन्‍नपूर्णा है । पति की छाया (जीवन संगिनी) बनकर निरंतर साथ निभाने वाली पवित्र गंगा की धारा और आर्थिक विकास में वह सह-भागिनी है । संकट की घड़ियों में वह धैर्यवान, शौर्यवान और शक्ति स्‍वरूपा है । सामाजिक रीतियों-नीतियों का कुशलता पूर्वक निर्वाह करने वाली सुलक्षणा है । अपनी कर्मठता से सबका हृदय जीतने वाली है । यदि ऐसी सुशील, विवेकशील नार शिक्षित हो, तो वह परिवार व समाज का गौरव है । नारी अधिक शिक्षा में प्राय: हम लोग बाधक होते हैं । नारी अधिक शिक्षित होकर क्‍या करेगी ! क्‍या उसे नौकरी पर जाना है ? ऐसे अनगिनत सवाल हम खड़े कर देते है । जरा, आप सोचे यदि नारी शिक्षित होगी तो वह अपने बच्‍चों को पढ़ा सकती है । पति के काम की चीजों को सुव्‍यवस्थित कर सकती है । अपने विचारों का आदान-प्रदान कर सकती है । आपके साथ सहयोग कर सकती है । पढ़-लिख कर नारी ज्ञान का दीपक प्रज्‍जवलित कर सकती है । शिक्षित नारी परिवार और समाज को सवांरने, उन्‍नतिशील बनाने में योगदान कर सकती है ।

समाज में बन्‍धु का महत्‍व एवं कार्य :
बन्‍धु समाज की बीज-शक्ति, महत्‍वपूर्ण अंग तथा निर्माता है । अनेक बन्‍धु परस्‍पर मिलकर ही समाज के रूप में प्रतिष्ठित होते हैं । एक बन्‍धु दुसरे बन्‍धु से एकता, प्रेम, सद्-भावना, सहयोग, आत्‍मीयता स्‍थापित करे, यही उसका कार्य तथा सामाजिक धर्म है । इन्‍हीं आधारों पर चलना यह उसका नैतिक कर्त्तव्‍य है । सामाजिक मंचों, संस्‍थाओं में वह सदस्‍य बनकर अपने तन, मन, धन से समाज सेवा करे । सामाजिक सभाओं, अधिवेशन, स्‍नेह-मिलन समारोह, सामूहिक यज्ञोपवीत समारोह, सामूहिक विवाह सम्‍मेहन, सामाजिक मेले, उत्‍सव इत्‍यादि में भाग लेवे । अपने परिवार की ओर से प्रतिनिधित्‍व कर समाज के प्रति अपना उतरदायित्‍व एवं कर्त्तव्‍य निभाये । समाज के हितार्थ अपने सद्-विचार प्रकट करे, जिससे समाज उन्‍नत एवं विकाय मय हो । सामाजिक कार्य व्‍यवस्‍थाओं में हाथ बंटाये और सामाजिक पदों पर आसीन होकर अपनी जिम्‍मेदारी का निर्वहन करे । इन सब कार्यों से वह समाज का गौरव बढ़ाने में अपना विशेष योगदान प्रदान कर सकता है ।

समाज में रीति-‍नीतियों का निर्धारण :
समाज में स्‍वच्‍छ एवं स्‍वस्‍थ रीति-नीतियों का होना अत्‍यंत आवश्‍यक है । इसके अभाव में समाज को कुरीतियों का भयंकर सामना करना पड़ता है, समाज विपरीत दिशा की ओर जाता हुआ नजर आने लगता है । अत: समाज द्वारा स्‍वच्‍छ एवं स्‍वस्‍थ रीति-‍नीतियों का प्रसार होना चाहिए, तभी विपरीततओं पर अंकुश लगेगा । समाज में षोढ़श संस्‍कारों हेतु ऐसी स्‍वच्‍छ एवं स्‍वस्‍थ रीति-नीतियां होनी चाहिए, जिससे समस्‍त वर्ग लाभ उछा सके । एक ऐसी सशक्‍त रेखा निर्धारित हो जिसका सभी निर्वाह कर सके, ऐसी ठोस रीति-नीतियों की परम् आवश्‍यकता है । यदि समाज में रीति-नीति पुस्तिका का प्रकाशन हो तो वर्तमान व भावी पीढ़ी के लिए बड़ी ही सुगमता होगी ।

समाज में कुरीतियों का निवारण :
समाज में बढती कुरीतियों का प्रचलन एक अत्‍यंत चिंताजनक विषय है । वे कुरीतियां जो हमारी प्रगतिशीलता में बाधक है, उन्‍हें हमें समूल हटाने की परम आवश्‍यकता है । ऐसी जकड़ी हुई प्राचीन परम्‍पराओं में नई सोच से सुधार और बदलाव लाने की आवश्‍यकता बढ़ गई है । समाज की कुरीतियों को एक-जुट होकर संघर्ष से ही हम दूर कर पायेंगे । आज की नयी पीढ़ी में बढ़ता नशीला जहर चिंतनीय है, जो पल-पल हमारे शरीर को खोखला कर अनेक बीमारीयों को जन्‍म देता है । ऐसी घातक बीमारीयों से शरीर को बचाने तथा स्‍वस्‍थता कायम करने के लिए समाजिक अभियान चलाने की आवश्‍यकता है । हमें विकृत समाज नहीं अपितु एक स्‍वस्‍थ समाज बनाने की परम् आवश्‍यकता है ।

समाज में मितव्‍ययता/फिजुलखर्चीं पर अंकुश की आवश्‍यकता :
समाज का उच्‍च एवं संपन्‍न वर्ग अपने समस्‍त आयोजनों को बढ़ा-चढ़ा कर सम्‍पन्‍न करता है । निश्चित ही इससे समाज का मध्‍यम वर्ग तथा निम्‍न वर्ग प्रभावित हुए बिना नहीं रहता । वह भी कर्ज की सूली पर चढ़कर उसका अनुसरण करने लगता है और अपना सर्वस्‍व मिटा देता है । हमें ऐसे अनुसरण करने वालों को रोकना होगा तथा सर्वस्‍व विनाश से उनको बचाना होगा । ऐसा मार्ग प्रशस्‍त करने की आवश्‍यकता है कि शान भी बनी रहे और विनाश से बचा जा सके । ऐसे लोगों को नयी प्रेरणा देनी होगी कि फिजूलखर्ची के अनुसरणों से हम अपना बचाव कैसे कर सकते हैं । समाज में समय रहते ही इस मितव्‍ययता पर अंकुश लगाने की आवश्‍यकता है ।

सामूहिक यज्ञोपवीत एवं सामूहिक विवाह की उपयोगिता :

वर्तमान युग में पृथक रूप से यज्ञोपवीत एवं विवाह करते हैं । तो हमें बड़ी मात्रा में धन की व्‍यवस्‍था करनी पड़ती है, जो सम्‍पन्‍न एवं उच्‍च वर्ग के लिए तो सुगम होता है । परन्‍तु मध्‍यमवर्गीय एवं निम्‍नवर्गीय समाज बंधुओं के पास पर्याप्‍त धन सुलभ नहीं होता । अत: उन्‍हें बड़ी जटिलता से उक्‍त आयोजन सम्‍पन्‍न करने पड़ते हैं । कई बंधुओं की आर्थिक व्‍यवस्‍था तो ऐसी होती है कि आयोजन को पूरा करना भारी पड़ जाता है । ऐसी दशा में वह कर्ज का मार्ग चुनने के लिए मजबूर हो जाता है जिसे उसके भविष्‍य के मार्ग में अनेक बधाएं उत्‍पन्‍न हो जाती है और उसका विकास थम जाता है और निर्जीव सी हालत हो जाती है । ऐसी जटिल परिस्थितियों का एक ही समाधान है सामूहिक कार्यक्रमजिनके जरिये वह अपने आपको मिटाने से बचा सकता है । सामूहिक यज्ञोपवित व सामूहिक विवाह स्‍वच्‍छा के आधार पर समाज के द्वारा पूरे किये जाते हैं । इससे वह डूबने की जगह तिर जाता है । डूबते को तिनके का सहारा अर्थात् अधूरे को समाज का सहारा । ये आयोजन सामूहिक रूप से समाज द्वारा सम्‍पन्‍न किये जाते हैं । इनसे समाज के सभी वर्ग लाभान्वित होते हैं, क्‍योंकि समाज का लक्ष्‍य इन आयोजनों को सादगी से पूर्ण करना होता है ।

संगठनों में बंटता समाज :
जब समाज के विकास की बात हो और सामाजिक संस्‍थाओं व संगठनों पर चर्चा न हो, ऐसा हो नहीं सकता । आज हम उन्ही संस्थाओं और संगठनों की बात कर रहे हैं । जिनके ऊपर समाज के विकास की जिम्मेदारी है, उन्हीं संस्थाओं के पदाधिकारी समाज का बेड़ा गर्ग कर रहे हैं । यह अलग प्रश्न है कि, इन्होने समाज का कितना विकास किया है । इन संगठनों की गतिविधियों पर नजर डाले तो, यह बहुत साफ नजर आता है कि इनके पदाधिकारी समाज के विकास का ढ़िढोंरा तो, बहुत पीटते हैं, लेकिन विकास कही दिखाई नही देता है । वही ‘‘ढांक के तीन पांत’’
हमारा उदेश्य केवल आलोचना करना नही है, लेकिन यह सच्चाई है कि जिस प्रकार सामाजिक संगठनों के पदाधिकारी, एक से अधिक पदों पर रहकर समाज की सेवा करने का दिखावा करते हैं और अपने आपको समाजसेवी के रूप मे प्रचारित करते है, जबकि वे अपने कार्यों पर नजर डाले तो शून्य नजर आते हैं ।
ऐसे लोग समाज सेवा के नाम पर राजनैतिक रोटीया सेंकने का प्रयास कर रहे हैं । ऐसे लोगों की चुनाव के समय तो बाढ़ सी आ जाती है । ऐसी स्थिति मे प्रत्येक पदाधिकारी को अपने मन माफिक पद चाहिये और साथ ही, वे यह भी चाहते है कि, संस्थायें उनकी इच्छानुसार कार्य करे । जब उनकी इच्छा पूरी नही होती है, तो वे बना देते हैं ‘‘एक नया सामाजिक संगठन’’
नया सामाजिक संगठन बना तो देते हैं, लेकिन वे भूल जाते हैं कि, संगठन केवल बनाने से ही नही चलते । इन्हे चलाने और सफल बनाने के लिये चाहिये, कड़ा परिश्रम, त्याग, समर्पण, पर्याप्त समय और इससे भी ज्‍यादा जरूरी है उस संगठन में लोगों का विश्वास ।
नीत-नये संगठन बनाना बहुत आसान है, लेकिन उन्हे चलाना उतना ही मुश्किल । इसके लिये वर्षों की कड़ी मेहनत और बलिदान की आवश्यकता होती है । इन संगठनों को बनाने वाले अवसरवादी लोग केवल अल्पकालीन स्वार्थ पूर्ति के लिये बनाते हैं । स्वार्थ पूर्ति हो या न हो, समाज को तोड़ने या भम्रित करने का कार्य जरूर करते हैं । इससे समाज का नुकसान तो होता ही है, साथ ही समाज का राजनैतिक वजूद भी समाप्त होता है ।
नीत-नये संगठन बनाने की बीमारी ज्यादातर दलित-आदिवासी समाज मे व्याप्त है, जो इनके पिछड़ेपन का एक प्रमुख कारण है । जिसके लिये ज्यादातर ऐसे अवसरवादी और समाजसेवा की आड़ मे राजनीति करने वाले लोग जिम्मेदार है, जिनका उद्देश्य समाजसेवा की आड़ मे राजनीतिक हीत साधना है । जो आज समाज के ठेकेदार बने बैठे हैं ।
ऐसे नवनिर्मित संगठनों की सफलता की उम्मीद करना बेमानी है । क्योंकि इनके उद्देश्य मे निर्माता का, स्वार्थ निहित होता है, जिसमे समाज का विकास तो मात्र दिखावा है ।
अक्सर ऐसी संस्थाओं मे पदाधिकारी, वे लोग होते हैं जिन्हे अपनी वर्तमान संस्थाओं मे, अपना हीत साधने का अवसर नही मिला, इसलिये नये तथाकथित संगठन बनाकर अपना हीत साधने का प्रयास कर रहे हैं, जिससे अधिकतर समाज का युवा वर्ग भम्रित होता है और समाज की भावी पीढ़ी पर गहरा और नकारात्मक प्रभाव पड़ता है जो समाज के भविष्य के लिये अच्छा संकेत नही है ।
ऐसे नवनिर्मित संगठनों के पदाधिकारी, समाज की गतिविधियों मे जाते हैं और वर्षों से स्थापित संगठनों के विरोध मे प्रचार-प्रसार करते हैं, जिससे पूरे समाज की बदनामी होती है ओर उनका हीत भी पूरा नही होता है ।
कही-कही तो ऐसा देखने को मिलता है कि, वर्षों से स्थापित संगठनों, के पदाधिकारी होते हुये भी, नये संगठनों का निर्माण कर, समाज के विरूद्व प्रचार-प्रसार करते हैं । जो समाज की नकारात्मक छवि तो बनाते ही है, साथ ही समाज को कमजोर भी करते हैं । ऐसे पदाधिकारीयों को तुरन्त बर्खास्त किया जाना चाहिये । वे अपना कार्य करें, लेकिन पदों का दुरूपयोग ना करे । यह तो वही बात हो गई कि ‘‘जिस थाली में खाते हैं, उसी मे छेद करते हैं’’
जो किसी भी मायने मे सही नही है । ऐसे विभिषणों को बाहर का रास्ता दिखाया जाना चाहिये । यह लोग वर्षों से स्थापित संगठनों को कमजोर करने मे लगे है इनका सामूहिक रूप से बहिष्कार किया जाना चाहिये । यदि किसी पदाधिकारी को संस्था से शिकायत है तो इसे दुर करने के लिए लोकतान्त्रिक तरीके को अपना सकता है, लेकिन संस्था के अन्दर रहकर, उसे कमजोर करना किसी भी मायने मे न्यायोचित नही है ।
यदि कोई व्यक्ति किसी संस्था के महत्वपूर्ण पद पर रहकर, समान उद्देश्य की कोई अन्य संस्था का निर्माण करता है और वर्तमान संस्थाओं के विरूद्व प्रचार-प्रसार करता है तो, यह गैर-कानूनी होने के साथ-साथ गैर सामाजिक भी है ।
मेरा मानना है कि ऐसे लोग समाज सेवा की कार्य करना चाहते हैं तो, उन्हें पहले से स्थापित संगठनों मे रहकर ही अपना जनाधार बनाना चाहिये, क्योंकि यदि वे पहले से स्थापित संगठनों मे अपना जनाधार नही बना सकते तो, फिर वे नये स्थापित संगठनों को सफल भी नही बना सकते ।

इतिहास इस बात का गवाह है कि, संगठन की सफलता नेतृत्वकर्ता मे निहित है । सफल व्यक्ति कही भी चला जाये, सफल ही होता है । जितने भी सामाजिक, राजनैतिक संगठन देश-विदेश मे चलते है उनमे भाग लेने वाले लोग, वही रहते हैं, केवल नेतृत्व बदलता है ।

संस्थाओं के चुनाव और धन की बर्बादी :

आज सामाजिक संस्थाओं के चुनाव की बात करे, तो हमे सर्वप्रथम इस बिन्दु पर विचार करना होगा कि, हमारे सामाजिक नेतृत्व का चुनाव कैसे किया जाना चाहिये, चुनाव कि बात करे तो इसमे इस बात की अहम् भूमिका है, कि सामाजिक संस्थाऐ समाज कि सेवाओं के लिए बनी है यह कोई राजनैतिक मंच नही है । जिस प्रकार राजनैतिक नेतृत्व के चुनाव मे साम, दाम, दण्ड, भेद की नीति का उपयोग किया जाता है, उसी प्रकार सामाजिक नेतृत्व के चुनाव मे ऐसी परिपाढी को अपनाया जाना, ना केवल उन्हे राजनैतिक मंच बनाने का प्रयास है अपितु यह समाज के अन्दर ही गुटबाजी पैदा करने का एक जरिया है, जो फूट डालो राज करो कि नीति पर आधारित है । जिससे समाज के विकास कि कल्पना करना निरर्थक है ।
प्रश्न यह उठता है, कि तो फिर सामाजिक संस्थाओं के नेतृत्व का चुनाव किस प्रकार किया जाये या किसी परिपाढी का उपयोग किया जाए । ऐसी स्थिति मे यह ध्यान रखने योग्य बिन्दु है कि सामाजिक संस्थाओं के चुनाव मे जिन साधनो का भी उपयोग होता है उसकी किमत प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से समाज को ही चुकानी पड़ती है, तो फिर चुनाव की क्या विधि या प्रक्रिया हो, यह एक बड़ा प्रश्न है ।
मेरा मानना है कि सामाजिक संस्थाओं के नेृतत्व का चुनाव जहा तक संम्भव हो निर्विरोध किया जाना चाहिये यदि किसी कारणवश आम सहमति बनाना संम्भव ना हो तो चुनाव की प्रक्रिया ऐसी होनी चाहिये कि कम से कम लागत आये, तथा चुनाव प्रक्रिया कि सम्पूर्ण व्यवस्था संस्था के हाथो मे होनी चाहिये, जिसमे प्रचार, प्रसार, विज्ञापन साम्रगी आदि शामिल है । उम्मीदवार के द्वारा किसी प्रकार का कोई खर्चा नही किया जाना चाहिये । चुनाव, राष्ट्रपति प्रणाली द्वारा कराया जाना चाहिये जिसमे केवल अध्यक्ष पद का ही निर्वाचन किया जाना चाहिये, तथा कार्यकारिणी के अन्य पदाधिकारियों जैसे-उपाध्यक्ष, सचिव, कोषाध्यक्ष कि नियुक्ति अध्यक्ष द्वारा की जानी चाहिये । संस्था द्वारा किये जाने वाले कार्यो का प्रस्ताव कार्यकारिणी द्वारा सहमत होने पर अध्यक्ष द्वारा संस्था की आम सभा मे रखा जाना चाहिये, तथा बहुमत द्वारा स्वीकृति मिलने पर उसे क्रियान्वित किया जाना चाहिये । ऐसी चुनाव प्रणाली मे अध्यक्ष के कार्यकाल की अवधि कम होनी चाहिये ताकि इस एकाधिकार प्रणाली का दुरूपयोग न कर सके । यह एक मितव्ययी प्रणाली है, वर्तमान समय मे विश्व के जिन राष्ट्रों मे यह प्रणाली लागू है वे आज सभी विकसित राष्ट्रों कि श्रैणी मे आते है जैसे-अमेरिका, फ्रांस, चीन, रूस, श्रीलंका आदि । आज दुनिया मे राष्ट्रपति लोकतान्त्रिक प्रणाली अधिक सफल है, जिन देशो मे लोकतान्त्रिक प्रणाली है, वे देश भष्ट्राचार, लालफिताशाही आदि अनेक बिमारियों से ग्रसित है, जिसका भारत, पाकिस्तान एक प्रमुख उदाहरण है । लोकतान्त्रिक प्रणाली मे आज जिस प्रकार कार्यकारिणी पदाधिकारियो के चुनाव होते है और उसके बाद जिस प्रकार कार्यकारिणी पदाधिकारियो मे संस्था के संचालन सम्बन्धी, गुटबाजी और विरोधाभाषी बयान आते है, उससे चुनाव प्रणाली और समाज के नेतृत्व पर प्रश्नचिन्ह खड़ा हो जाता है । आज देश और समाज मे कार्यरत जितनी भी संस्थाए असफल है, उसका मूल कारण लोकतान्त्रिक प्रणाली है, जिसका मूल कारण नियन्त्रण का अभाव है ।
सामाजिक संस्थाओं का मूल उदेश्य:- समाज को एक अच्छा नेृतत्व प्रदान करना और समाज के अधिकारो की रक्षा करते हुए सामाजिक उत्थान के लिए ठोस प्रयास करना । सामाजिक संस्थाओं कि चुनाव प्रक्रिया मे आमतोर पर उन सभी लोगो को शामिल किया जाना अनिवार्य है, जो संस्थाओं को सर्वाधिक दान देते है, तथा समाज के विकास मे हमेशा त्याग करने के लिए तत्पर रहते है । हमे ऐसे व्यक्तियों को आगे लाना होगा, तभी समाज का विकास सम्भव है ।
यदि कोई व्यक्ति सामाजिक चुनाव को अपनी आन-बान का प्रश्न बनाता है तो उससे सामाजिक ढाचें पर बुरा प्रभाव पड़ता है और सामाजिक गुटबाजी को बढ़ावा मिलता है यह किसी भी लियाज से समाज के लिए फायदेमंद नही है ।
चुनाव की प्रक्रिया मे आज जिस कार्यकारिणी पदाधिकारियो के चुनाव होते है और उसके बाद जिस प्रकार कार्यकारिणी और संस्था के संचालन मे गुटबाजी और विरोधाभाषी बयान आते है जिससे इस चुनाव प्रणाली और समाज के नेतृत्व पर प्रश्नचिन्ह खड़ा हो जाता है ।
वर्तमान समय मे जिस प्रकार सामाजिक संस्थाओ के चुनाव राजनैतिक अखाड़े की तरह लड़े जा रहे है, उससे समाज के विकास पर संदेह पैदा होता है । जिस प्रकार मतदाताओं को आने-जाने व खाना-पीने की सुविधा दी जाती है जिससे समाज के विकास पर विपरित प्रभाव पड़ता है जिससे उसके लाभदायक होने की उम्मीद करना बेमानी है ।
जिस प्रकार उम्मीदवार एक स्थान से दुसरे स्थान, दौरे पर दौर व प्रचार-प्रसार करते है, जिसका प्रतिफल चुनाव जीतने के बाद भी उन्हे शून्य से ज्यादा कुछ मिलने वाला नही है । इस परिपाठी को जब समाज के विद्धान और वरिष्ट व्यक्तियो द्वारा उपयोग किया जाता हो तो, ऐसी स्थिती मे समाज किस दिशा मे जायेगा, यह एक गम्भीर प्रश्न है ।
ऐसी परिपाठी के कारण ही आज चाहे वह देश का नेतृत्व हो या समाज या संगठन का सभी मे युवा वर्ग बहुत दूर-दुर तक नजर नही आता है जबकि इस देश की आबादी मे 70 प्रतिशत युवा वर्ग है, क्योकि उसके पास ऐसे अनावश्यक साधन नही है, जो चुनाव लड़ने के लिए चाहिये, जिसका परिणाम यह है कि सामाजिक संस्थाओं को कुछ लोगों ने पूंजीवादी व्यवस्था की तरह नियन्त्रित कर रखा है, जिससे ऐसा लगता है कि वह चुनिन्दा पूंजीपति वर्ग तक सीमित होकर रह गई है, जो केवल अपने नाम को रबड़ स्टाम्प बनाकर, बैठ गये है, जिससे समाज का भला होने वाला नही है । हमे ऐसी चुनावी व्यवस्था को अपनाना होगा, जो बहुत मितव्ययी हो और पारदर्शी हो जिसमे अधिकतम लोगो को नेतृत्व करने का मोका मिल सके, जो समाज की सेवा करना चाहते हो, ताकि समाज की युवा पीढ़ी मे नेतृत्व के गुण विकसित हो सके ।
जिस प्रकार समाज के एक छोटे से चुनाव मे 5-5 या 10-10 लाख रू. उम्मीदवारो द्वारा खर्च किये जाते है, यह समाज के लिए बहुत घातक है, यदि यह पैसा उम्मीदवार समाज के विकास मे सीधे खर्च करते है तो वे समाज के एक मुख्य प्रतिनिधि या किसी संस्था के अध्यक्ष से कम हैसियत नही रखते और वे समाज के एक जिम्मेदार, त्यागवान, विकासोन्मुखी चेहरा बनते है, जिसकी आज समाज को आवश्यकता है ।


समाज का नेतृत्व :


समाज के नेतृत्व का प्रश्न है तो हमे यह कभी नही भुलना चाहिये कि समाज को दिशा देना, नई सोच प्रदान करना, भावी पीढ़ी का मार्गदर्शन करना, समाज के लोगों मे त्याग की भावना पैदा करना, समाज के प्रति लोगो को उतरदायी बनाना, समाज के नेतृत्व करने वालों का ही कार्य है ।
जहॉ तक नेतृत्व के गुणों का प्रश्न है नेतृत्व वर्तमान प्ररिपेक्ष्य मे देखा जाय तो देश और समाज का नेतृत्व युवा पीढ़ी को सोपा जाना चाहिये और इसकी निगरानी और मार्गदर्शन समाज के वरिष्ठ, बुद्धिमान, डॉक्टर, इन्जिनियर, वकील, जजों द्वारा की जानी चाहिये क्योंकि यह ध्यान देने योग्य बात है कि गाड़ी बिल्कुल नर्इ हो और उसके डाईवर की उम्र 55 से 75 वर्ष की उम्र की हो, तो गाड़ी अपना अधिकतम माइलेज कैसे देगी । जिस व्यक्ति का जीवन अब अन्तिम पढाव मे चल रहा हो, वो समाज को मंजिल तक कैसे पहुचाऐगा यह एक विचारणीय प्रश्न है ।
जहा तक युवाओ को समाज का नेतृत्व सोपने का प्रश्न है, इसकी तो पुरी दुनिया गवाह है वर्तमान परिप्रेक्ष्य मे ऐसे अनेक उदाहरण है जिससे चाहे वो उधोगो मे टाटा ग्रुप के चेयरमेन कि बात हो जिसके लिए 45 वर्ष सायरश मिस्‍़त्री को चुना गया तथा राष्ट्रो मे अमेरिका, जिसमे हमेशा युवा राष्ट्रपति चुना जाता है यह पिछले 200 वर्षो से हो रहा है, और आज वह दुनिया मे नम्बर एक है ।
समाज मे एक नयी उर्जा का संचार करने के लिए नये उर्जावान नेतृत्व की आवश्यकता है । आज देश की आबादी का 70 प्रतिशत युवा वर्ग है, ऐसी स्थिती मे युवाओं को समझने के लिए, समाज कि बागडोर युवाओ के हाथो मे होनी चाहिये, चाहे वो कांग्रेस की कमान राहुल गॉधी के हाथो मे देने का मामला हो, या औधोगिक घरानो और देश के नेतृत्व की बात हो, नेतृत्व युवाओ को दिया जाना चाहिये लेकिन निगरानी वरिष्ट बुद्धिजीवियो द्वारा की जानी चाहिये ताकि समाज की गाड़ी अपना सम्पूर्ण माइलेज दे सके, क्योकि किसी गाडी़ को चलाने वाला डाइवर जब तक गाड़ी की तरह नया और युवा नही होगा तब तक गाड़ी का वास्तविक माइलेज हासिल नही किया जा सकता । यह बुरा मानने कि बात नही है, लेकिन यह एक सच्चाई है कि, आज समाज हो या देश, संस्थाऐ हो या संगठन, सभी का नेतृत्व 55 से 75 वर्षो के लोगो के पास किडनेप है, वो उन पर आधिपत्य जमाये बेठे है । उन्हे आज भी भम्र है कि समाज को हम ही नेतृत्व दे सकते है, उम्र के इस पडा़व मे भी उन्हे यह नही लगता है कि उन्हे अब नेतृत्व कि गद्धी को छोड़कर, समाज कि युवा पीढी़ को बागडोर सोपनी चाहिये, ताकि वो अपनी उर्जा और जोश का उपयोग करते हुए उसकी गति को बढावा दे ।
यह विचारणीय बात है की, किसी भी पद पर एक कार्यकाल किसी भी व्यक्ति को अपने आप को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त होता है, और इसके बाद भी आम जनता यदि नही चाहती, तो भी वह नेतृत्व करना चाहता है तो यह क्या है, ऐसे व्यक्ति द्वारा समाज और देश के साथ अपने आपको थोपने जैसा है, क्या एक कार्यकाल का समय उसे अपने आपको सिद्ध करने के लिए पर्याप्त नही था, जो वह केवल कुर्सी के लोभ के चक्कर मे उसे पकड़कर बेठाना चाहता है और क्या गारन्टी है कि वो अब कुछ नया कर देगा जो पिछले कार्यकाल मे नही कर पाया, इसकी उम्मीद करना बेमानी है ।
इसका सीधा प्रभाव देश की उस युवा पीढी पर पड़ता है । जिसे अच्छी सड़के, रोजगार, अच्छी शिक्षा, आधारभुत साधन मिलने चाहिये थे, जिसके लिए वो आज भी जूझ रहा है । इसमे किसका दोष है, युवा पीढी का या शासन करने वाले का ।
समाज के नेृतत्व मे गुणो की बात होतो, युवा पीढी़ के उच्च शिक्षित व आत्मनिर्भर लोगो को आगे लाये जाने की आवश्यकता है, क्योकि जो स्वयं आत्मनिर्भर नही होगा, वो समाज को क्या आत्मनिर्भर बनायेगा, क्योकि आत्मनिर्भर व्यक्ति ही समाज को दिशा दे सकता है क्योंकि वह हर रोज अपने आपको सफल बनाने के लिए समाज और देश मे अपने आपको रोज सिद्ध करता है ।
जहॉ तक हमारे सरकारी ऑफिसर व बुद्धिजीवी वर्ग की बात है वो यदि नेतृत्व करना चाहे तो उन्हे सरकारी सेवा मे, ‘‘ इन पावर ‘‘ रहते हुए समाज की सेवा करनी चाहिये ताकि वो अपने पावर, साधन, ज्ञान, उर्जा का उपयोग जिस क्षमता के साथ सरकार के लिये करते है, उसी क्षमता के साथ समाज के लिये कर सके, अन्यथा सेवानिवृति के बाद समाज के विकास कि बात करना, और उसे दिशा देना भ्रामक है क्योंकि सेवानिवृति के बाद उनके सारे हथियार, पावर, उम्र, उर्जा, क्षमता, जोश अन्तिम पड़ाव मे होते है, ऐसे मे समाज के नेतृत्व की बात करना, मेरा निजीमत है की यह समाज के साथ खिलवाड़ है, जिससे समाज का बहुत ज्यादा भला होने वाला नही है । ऐसे लोग ज्योही समाज के नेृतत्व को सम्भालने की बात करते है तो उनके द्वारा सरकारी सेवा मे रहते हुए, समाज के लिए किये गये कार्यो की तरफ सबका ध्यान जाता है, यदि उन्होने कुछ किया है तो उनके कार्यो को ध्यान मे रखते हुए ही उनके साथ समाज के लोग जुड़ते है और समाज के लोग उनका सहयोग करते है । इस दौरान सरकारी सेवा मे रहते हुए समाज के लोगो के प्रति उनका क्या रवैया रहा, यही उनकी सफलता को तय करता है । ऐसी स्थिति मे उनके पूरे केरियर के कार्यकलापो पर लोगो को टिप्पणी करने का मोका मिलता है जिससे नेतृत्व की प्रभावशीलता कम होती है, जबकि युवा नेतृत्व मे यह कमी नही होता है क्योंकि वह नया होता है ।
मेरा मानना है की समाज का नेतृत्व नये, उर्जावान, युवा, आत्मनिर्भर, त्यागवान, उच्च शिक्षित व्यक्ति के हाथो मे सोपा जाना चाहिये और ऐसे युवा वर्ग को ही समाज के विकास की धुरी बनाया जाना चाहिये, ताकि वो लम्बे समय तक समाज के विकास मे सहयोग दे सके और एक सिस्टम डवलेप हो सके अन्यथा जिस तरह रैगर समाज के राजनैतिक और सामाजिक नेतृत्व का पतन हुआ है उसके लिए समाज का उच्च शिक्षित वर्ग ही जिम्मेदार है समाज को दिशा देना या समाज का विकास करना, यह उनकी जिम्मेदारी मे आता है, जिससे वे पिछे नही हट सकते ।
अन्त मे एक बात कहना चाहूँगा की हम इतने काबिल बुद्धिमान, साधन सम्पन्न होने के बावजूद समाज को कुछ नही देते है तो इस समाज मे हमारा पैदा होना व्यर्थ है, क्योंकि हमे यह कभी नही भुलना चाहिये की समाज मे पैदा होने, विवाहित होने, मरने के बाद, अन्तिम यात्रा तक समाज से हमने बहुत कुछ पाया है, इसलिए हमे यह सोचना चाहिये की समाज को हमने क्या दिया है ।
आज युवा पीढी की बात करे तो देश और समाज की जनसंख्या मे 70 प्रतिशत युवा पीढी है तथा जनाधार भी देखा जाये तो उनका ही है, कार्यकर्ताओ की संख्या मे भी वे ही अधिक है, आने वाला कल भी उनका ही है, ऐसे मे उनको अनदेखा करना, मेरे मायने मे उचित नही है, हमे यह देखना चाहिये की आज हमारी भावी युवा पीढी क्या चाहती है, मेरा मानना है की आज की युवा पीढी, युवा नेतृत्व चाहती है, जो समाज के विकास की गति को बढावा दे ।


No comments:

Post a Comment