Wednesday, April 10, 2013

सज-धज बैठी गोरड़ी, कर सोल्हा सिणगार ।

सज-धज बैठी गोरड़ी, कर सोल्हा सिणगार
सै घट रो मोर मन, सोच -सोच भरतार |
नैण कटारी हिरणी, बाजूबंद री लूम
पतली कमर में खणक रही, झालर झम-झम झूम |
माथे सोहे राखड़ी, दमके ज्यों रोहिड़ा रो फूल।
कानां बाटा झूल रह्या , सिर सोहे शीशफूल। ||
झीणी-झीणी ओढ़णी,पायल खणका दार।
बलखाती चोटी कमर, गर्दन सुराहीदार ||
पण पिया बिना हो सके पूरण यो सिणगार |
पधारोला कद मारुसा , था बिन अधूरी नार |
सखी- साथिन में ना आवडे., ना भावे कोई कोर
सासरिये में भी ना लगे, यो मन अलबेलो चोर ||
अपणो दुःख किण सूं कहूँ , कुण जाण म्हारी पीर
अरज सुण नै बेगा आवो, छोट की नणंद का बीर ||
मरवण था बिन सुख गयी, पिला पड़ ग्याँ गात
दिन तो फेर भी बितज्या, या साल्ल बेरण रात | —

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