मैं साहित्य के साथ-साथ पत्रकारिता तथा उच्च शिक्षा के क्षेत्रों में भी सक्रिय रहा हूँ। तीनों क्षेत्रों में मैंने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रश्न का सामना किया है। आम तौर पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को ‘‘बोलने की आजादी’’ के रूप में समझा जाता है, लेकिन वह सिर्फ बोलने की आजादी नहीं, उसमें और भी कई चीजें आती हैं। भाषण या वक्तव्य देने से लेकर लिखने और पत्र-पत्रिकाएँ प्रकाशित करने, चित्र और व्यंग्य चित्र बनाकर उन्हें प्रदर्शित और प्रकाशित करने, नाटक और नुक्कड़ नाटक लिखने-करने, डॉक्यूमेंटरी और फीचर फिल्में बनाने-दिखाने, रेडियो और टेलीविजन के कार्यक्रम प्रस्तुत करने, सार्वजनिक मंच या सोशल मीडिया पर दूसरों से सहमत-असहमत होते या मतभेद और विरोध प्रकट करते हुए अपने विचार व्यक्त करने, सड़कों पर जुलूस निकालने और नारे लगाने, धरना-प्रदर्शन और घेराव-हड़ताल करने, साहित्यिक-सांस्कृतिक आंदोलन चलाकर और सामाजिक-राजनीतिक संगठन बनाकर मनुष्य को बेहतर मनुष्य तथा दुनिया को बेहतर दुनिया बनाने तक के विभिन्न काम करने की स्वतंत्रता।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को इस व्यापक अर्थ में समझने पर ही उसके दमन या हनन और उसे प्राप्त करने के लिए किये जाने वाले संघर्ष का अर्थ समझ में आता है। 1975 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इमरजंेसी और सेंसरशिप लगाकर केवल प्रेस की आजादी पर प्रतिबंध नहीं लगाया था। उन्होंने उसके जरिये नागरिक स्वतंत्रताओं और जनता के जनवादी अधिकारों का हनन भी किया था। वह इमरजेंसी तो 1977 में हट गयी, लेकिन एक अघोषित इमरजेंसी और सेंसरशिप अब भी लगी हुई है, जो उत्तरोत्तर सघन होती जा रही है। उसके अंतर्गत कभी कानून बनाकर और अक्सर गैर-कानूनी तरीकों से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दमन और हनन किया जाता है।
कानून बनाकर ऐसा करने का उदाहरण है 2008 में भारत सरकार द्वारा सन् 2000 के सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम में धारा 66-ए को जोड़ा जाना (जिसे अभी मार्च, 2015 में सर्वोच्च न्यायालय ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर लगाया गया अनुचित अंकुश मानकर निरस्त किया है)। इस धारा के अनुसार पुलिस को यह अधिकार था कि वह चाहे जिस अभिव्यक्ति को अपराध मानकर दमनात्मक कार्रवाई कर सके। उदाहरण के लिए, फेसबुक पर एक टिप्पणी लिखने वाली लड़की को ही नहीं, उस टिप्पणी को ‘लाइक’ करने वाली एक दूसरी लड़की को भी पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। सर्वोच्च न्यायालय ने इस धारा को निरस्त कर दिया, बहुत अच्छा किया।
लेकिन गैर-कानूनी तरीकों से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का जो दमन और हनन किया जाता है, उसका क्या? पिछले काफी समय से धार्मिक या सांप्रदायिक आधारों पर बने विभिन्न प्रकार के लोगों के समूह और संगठन लेखकों, कलाकारों, संस्कृतिकर्मियों, सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं, अखबारों और टी.वी. चैनलों के दफ्तरों आदि पर लगातार और उत्तरोत्तर बड़ी संख्या में हमले कर रहे हैं। यह एक प्रकार की अघोषित इमरजेंसी और नितांत गैर-कानूनी, बल्कि आपराधिक किस्म की सेंसरशिप है, जिससे किसी लेखक-पत्रकार को खामोश कर दिया जाता है, किसी अखबार या टी.वी. चैनल का स्वर बदल दिया जाता है, किसी कलाकार को देश छोड़कर दूसरे देश में जा बसने को मजबूर कर दिया जाता है, किसी सामाजिक या राजनीतिक कार्यकर्ता को जान से मार दिया जाता है, तो किसी साहित्यकार को जीते-जी अपनी साहित्यिक मृत्यु की घोषणा करने के लिए बाध्य कर दिया जाता है। इस इमरजेंसी और इस सेंसरशिप के रहते अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का क्या अर्थ रह जाता है?
इंदिरा गांधी द्वारा थोपी गयी इमरजेंसी का विरोध करने वाले लोगों के बीच हिंदी कवि गजानन माधव मुक्तिबोध की कविता ‘अँधेरे में’ की ये पंक्तियाँ बहुत लोकप्रिय हुई थीं :
अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे
उठाने ही होंगे।
तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब।
अब फिर से ये पंक्तियाँ दोहरायी जाने लगी हैं, तो एक प्रकार से यह अच्छी ही बात है। लेकिन मुझे लगता है कि इन पंक्तियों का वास्तविक अर्थ न तब समझा गया था, न अब समझा जा रहा है। मुझे याद है कि इमरजेंसी के दौरान इन पंक्तियों को अक्सर दोहराने वाले एक पत्रकार मित्र से मैंने पूछा था कि ‘‘अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाने’’ और ‘‘मठ और गढ़ सब तोड़ने’’ का क्या अर्थ है। उनका उत्तर था, ‘‘प्रेस की आजादी के लिए हम सारे खतरे उठाकर भी लड़ेंगे’’ और ‘‘जिस सरकार ने यह इमरजेंसी लगायी है, उसे बदलकर रख देंगे’’। सीमित अर्थों में उनका उत्तर सही था, लेकिन मैं उससे संतुष्ट नहीं था। एक दिन मैंने उन्हें मुक्तिबोध की पूरी कविता सुनाकर पूछा कि इसमें जो ‘‘रक्तालोक स्नात-पुरुष’’ है, जिसे मुक्तिबोध ने ‘‘रहस्यमय व्यक्ति’’ कहा है, उसे ध्यान में रखते हुए बताइए कि कविता की इन पंक्तियों का क्या अर्थ है :
वह रहस्यमय व्यक्ति
अब तक न पायी गयी मेरी अभिव्यक्ति है,
पूर्ण अवस्था वह
निज-संभावनाओं, निहित प्रभाओं, प्रतिभाओं की
मेरे परिपूर्ण का आविर्भाव,
हृदय में रिस रहे ज्ञान का तनाव वह,
आत्मा की प्रतिमा।
पत्रकार मित्र बेचारे क्या बताते! मैं तीन दशकों तक दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी का प्राध्यापक रहा हूँ और मैंने हिंदी के कई प्रख्यात प्रोफेसरों तथा अग्रणी आलोचकों को इस कविता का अनर्थ करते देखा है। यहाँ कविता की व्याख्या करने का अवकाश नहीं है, इसलिए मैं संक्षेप में और संकेत में कहना चाहता हूँ कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का वास्तविक अर्थ केवल ‘‘बोलने की आजादी’’ या ‘‘प्रेस की आजादी’’ नहीं, कुछ और है। उसका वास्तविक अर्थ मनुष्य को अभी तक प्राप्त अभिव्यक्ति की क्षमता के आधार पर नहीं, बल्कि ‘‘अब तक न पायी गयी’’ अभिव्यक्ति की क्षमता के आधार पर ही समझा जा सकता है।
मेरे विचार से मुक्तिबोध यह कहना चाहते हैं कि मनुष्य अब तक अपनी संपूर्ण प्रगति और उन्नति के बावजूद पूर्ण मनुष्य नहीं बन पाया है, जबकि उसके जीवन का उद्देश्य पूर्ण मनुष्य बनना ही है। मनुष्यता की पूर्ण अवस्था वह है, जिसमें मनुष्य की अपनी संभावनाओं का, उसमें ‘‘निहित प्रभाओं, प्रतिभाओं’’ का ‘‘परिपूर्ण आविर्भाव’’ हो। जब तक ऐसा नहीं है, तब तक मनुष्य अपूर्ण है, आधा-अधूरा है, उसकी अभिव्यक्ति भी आधी-अधूरी है; क्योंकि वह अपूर्ण मनुष्य होने के कारण अपनी मनुष्यता की पूर्ण अभिव्यक्ति में सक्षम नहीं है। वर्तमान समाज और राज्य की व्यवस्था में मनुष्य को अभिव्यक्ति की जो क्षमता प्राप्त है, वह अपूर्ण है, अविकसित है। वह भविष्य की किसी बेहतर व्यवस्था में ही पूर्ण रूप से विकसित होगी। मनुष्य अपनी अभिव्यक्ति में तभी स्वतंत्र होगा, जब वह पूर्ण मनुष्य बनकर अपनी ‘‘अब तक न पायी गयी अभिव्यक्ति’’ को प्राप्त कर लेगा।
इस प्रकार देखें, तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ है मनुष्य का मनुष्य होना और अपनी मनुष्यता को व्यक्त करने में सक्षम होना। लेकिन जो भूखा है, बीमार है, अशिक्षित है, बेरोजगार है, हर तरह से लाचार है और पशुओं का-सा जीवन जीता है, उसे आप अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दे भी दें, तो वह उसका क्या करेगा? वह स्वयं को व्यक्त करना चाहे और कर भी सके, तो क्या व्यक्त करेगा? कल्पना कीजिए कि आप एक ऐसे आदमी को देखते हैं, जो बेघर और बेरोजगार है, जो माँगकर या चुराकर या छीनकर या कूड़े-कचरे में से कुछ बीनकर खाता है। आप उसके पास जाते हैं और कहते हैं कि ‘‘तुझे बोलने की आजादी है, बोल, क्या बोलना है तुझे’’, तो वह क्या बोलेगा? बहुत मुमकिन है कि वह आपसे भीख माँगेगा और भीख न मिलने पर गंदी गालियों से आपको नवाजेगा।
दुर्भाग्य से हमारे देश में, और आज की पूरी दुनिया में भी, ऐसे ही अमानुषिक बना दिये गये लोगों की संख्या सबसे ज्यादा है। इसी अनुपात में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता या मनुष्यता की अभिव्यक्ति सबसे कम है। जो मनुष्य पशुवत जीवन जी रहा है, वह अपनी मनुष्यता की अभिव्यक्ति कैसे करेगा? वह तो पशुता को ही व्यक्त करेगा। अतः उसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देने का अर्थ है पहले उसे पशु से मनुष्य बनाना और फिर उसे अपनी मनुष्यता की अभिव्यक्ति में सक्षम बनाते हुए पूर्ण मनुष्यता की ओर ले जाना। यह काम आज की पूँजीवादी विश्व-व्यवस्था नहीं कर सकती, क्योंकि वही तो मनुष्यों को ऐसा अमानुषिक बनाती है। अतः यह हमारी, हम सबकी, जिम्मेदारी है। भाग्य, भगवान, सरकार या खुद उस अभागे पर यह जिम्मेदारी डालकर हम अपनी अभिव्यक्ति में स्वतंत्र होकर भी वास्तव में क्या व्यक्त करते हैं? कम से कम मनुष्यता तो नहीं ही!
दूसरी तरफ उन लोगों को देखें, जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सबकी नहीं, सिर्फ अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के रूप में देखते हैं। उन्हें लगता है कि जो हम जैसा नहीं है, वह मनुष्य नहीं है। जो हमारे धर्म का, हमारी जाति का, हमारी पार्टी का या हमारे विचारों का नहीं है, वह कोई मानवेतर प्राणी है, जो हमारा शत्रु है, और हमारा यह अधिकार है कि हम उसे या तो अपने वश में करके अपना गुलाम या पालतू पशु बना लें, या उसे मार डालें। आजकल अपने देश में, और दूसरे तमाम देशों में भी, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का यही रूप होता जा रहा है और इसकी भयानकता बढ़ती ही जा रही है। इसे हम सरेआम बरती और फैलायी जाने वाली घृणा, असहिष्णुता, हिंसा, बर्बरता, आतंकवाद आदि के विभिन्न रूपों में रोज देखते हैं। ऐसे लोगों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का वास्तविक अर्थ समझाना और उन्हें उनकी मनुष्यता की याद दिलाकर अमानुषिक कृत्यों से विरत करना भी हमारी, हम सबकी, जिम्मेदारी है। उन्हें मनुष्य बनाने की जिम्मेदारी हम उन व्यवस्थाओं पर नहीं डाल सकते, जो खुद ही उन्हें अमानुषिक, नृशंस और बर्बर बनाने के लिए जिम्मेदार हैं।
मेरे विचार से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ है स्वयं अपनी मनुष्यता को बचाते और बढ़ाते हुए दूसरों को मनुष्य बनाना। यह एक आदर्श है, किंतु असंभव आदर्श नहीं। खोजने चलें, तो हमें आज की घोर अमानुषिक परिस्थितियों में भी मनुष्यता के उदाहरण मिल जायेंगे। मसलन, आप उन लोगों को देखें, जो शिक्षित हैं, सुसंस्कृत हैं, सृजनशील हैं, सभ्य और शिष्ट हैं, उदार और सहिष्णु हैं और जो घर-बाहर दोनों जगह आजादी, बराबरी और भाईचारे के जनतांत्रिक मूल्यों के अनुसार आचरण करते हैं। ऐसे लोग दुर्लभ नहीं हैं। खोजने चलेंगे, तो आप पायेंगे कि आपके आसपास ही ऐसे अनेक लोग हैं, जो आपके धर्म, आपकी जाति या आपकी-सी राजनीति वाले न होकर भी आपको मनुष्य मानते हैं। आप पायेंगे कि वे आपसे अपनी भिन्नता के आधार पर आपको अपने वश में करके अपना गुलाम या पालतू पशु बनाना अथवा ऐसा न कर पाने पर आपको मार डालना कत्तई न चाहते होंगे। वे ‘‘सर्वाइवल ऑफ दि फिटेस्ट’’ की जगह सब मनुष्यों को समान मानकर ‘‘जियो और जीने दो’’ वाली बात में, ‘‘मारो-खाओ हाथ न आओ’’ की जगह ‘‘दुनिया को बेहतर बनाओ’’ वाली बात में और ‘‘सबसे बड़ा रुपैया’’ की जगह ‘‘प्रेेम से बढ़कर कुछ नहीं’’ वाली बात में विश्वास करते होंगे। वे दूसरों में दोष और बुराइयाँ ही नहीं, गुण और अच्छाइयाँ भी देखते होंगे। हर बुराई या खराबी के लिए समाज या सरकार को जिम्मेदार ठहराने की जगह कुछ बुराइयों और खराबियों के लिए खुद को भी जिम्मेदार मानते होंगे। वे समाज या राज्य की व्यवस्था को डंडे के जोर पर ठीक कर सकने वाले किसी तानाशाह को देश का शासक बनाने वाली बात की जगह जनतंत्र को सच्चा जनतंत्र बनाने तथा उसे बचाने-बढ़ाने वाली बात में विश्वास करते होंगे।
आप पायेंगे कि आपके आसपास ऐसे लोग हैं और वे कम नहीं हैं। विश्वास न हो, तो उन लोगों को देखें, जिन्हें अपने परिजनों से स्नेह और गुरुजनों से प्रोत्साहन मिला है। जिन्हें अच्छे मित्रों का साथ और सहयोग प्राप्त है। जिन्होंने प्रेम किया है और प्रेम पाया है। जो ज्ञान-विज्ञान में निपुण और साहित्य-संगीत आदि के प्रेमी हैं। जिनके विचार ऊँचे और सामाजिक सरोकार बड़े हैं। जो स्वहित के साथ सर्वहित के लिए भी सक्रिय रहते हैं। जो अपने भविष्य के साथ-साथ अपने पड़ोसियों और देशवासियों के भविष्य के बारे में भी सोचते हैं। जो स्वयं को पूर्ण मनुष्य बनाने के साथ-साथ दुनिया के सभी मनुष्यों को पूर्ण मनुष्य बनाने का स्वप्न देखते हैं और उस स्वप्न को साकार करने के लिए अभिव्यक्ति की जो भी और जैसी भी स्वतंत्रता उन्हें प्राप्त है, उसका सदुपयोग करते हैं।
ऐसे लोग बोलेंगे, तो क्या बोलेंगे? वे एक तरफ मनुष्यों को अमानुषिक बनाने वाली व्यवस्था की आलोचना करेंगे, तो दूसरी तरफ अमानुषिक बना दिये गये लोगों को याद दिलायेंगे कि तुम्हें तुम्हारी मनुष्यता से वंचित कर दिया गया है, या पूर्ण मनुष्य बनने से रोक दिया गया है, इसलिए इस व्यवस्था को बनाये रखने के बजाय इसे बदलो। इस दुनिया को एक बेहतर दुनिया बनाओ।
लेकिन स्थापित व्यवस्थाएँ, चाहे वे किसी भी देश की हों, ऐसी स्वतंत्र अभिव्यक्ति को अपने लिए खतरनाक मानती हैं और उसका दमन करती हैं। ऐसी स्वतंत्र अभिव्यक्ति से उनके वे सब मठ और गढ़ असुरक्षित हो जाते हैं, जिनमें बैठकर वे मनुष्यों को अमानुषिक, गुलाम या पालतू पशु बनाती हैं। वे उनकी रक्षा के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दमन और हनन और तेजी से करती हैं। इससे अभिव्यक्ति के लिए जो खतरे पैदा होते हैं, एक नहीं अनेक होते हैं। इसीलिए मुक्तिबोध ‘‘सारे खतरे’’ उठाने की बात करते हैं। स्थापित व्यवस्था के मठ और गढ़ भी अनेक और कई प्रकार के होते हैं। इसीलिए मुक्तिबोध उन ‘‘सब’’ को तोड़ने की बात करते हैं।
इस प्रकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ है ऐसी बात बोलना, जिससे बोलने वाले की मनुष्यता व्यक्त होती हो और उसके साथ-साथ दुनिया के सभी मनुष्यों के लिए ‘‘अब तक न पायी गयी अभिव्यक्ति’’ को पाने की संभावना पैदा होती हो।