कर्नाटक विधानसभा
के चुनाव परिणामों के विश्लेषण खूब आ चुके। हम उनकी चर्चा नहीं करेंगे। पर यह तो
सोचना पड़ेगा कि संसद और सड़कों पर विपक्ष गत् दो वर्षो से यूपीए सरकार के स्तीफे की
माँग करता रहा है। ज्यादातर टीवी चैनल भी केन्द्र सरकार के खिलाफ र्मोचा खोले हुए
हैं ।
मध्यम वर्गीय
लोगों के बीच मौजूदा सरकार की छवि लगातार गिर रही है या गिरायी जा रही है। फिर
क्यों कर्नाटक की जनता ने सोनिया गांधी की पार्टी के सिर पर ताज रख दिया ? क्या इसलिए कि कर्नाटक की जनता के लिए
भ्रष्टाचार कोई मुद्दा नहीं था या फिर उन्हें भाजपा का भ्रष्टाचार यूपीए से ज्यादा
लगा। पहली बात सही नहीं हो सकती। दूसरी बात अगर सही है तो भाजपा किस नैतिक आधार पर
केन्द्र मे भ्रष्टाचार के विरुद्ध दिन- रात तूफान मचाती आ रही है ? इसका अर्थ यह भी नहीं हुआ कि कर्नाटक की जनता
कांग्रेस के भ्रष्टाचार को अनदेखा करने को तैयार है। तो फिर कर्नाटक का संदेश क्या
है ?
बात सुनने मे
कड़वी लगेगी। नैतिकता का झंडा उठाने वाले इस पर भृकुटि टेढी करेंगे। पर अब तो यह ही
लगता है कि हम शोर चाहे कितना ही मचा लें, पर भ्रष्टाचार से हमें कोई परहेज नहीं
है। सदाचारी वो नहीं है जिसे मौका ही नहीं मिला। सदाचारी तो वो होता है, जो मौका मिलने पर भी ड़गमगाता नहीं। हम अपने
इर्द -गिर्द देखें तो पायेंगे कि ऐसे सदाचारी आज उगंलियों पर गिने जा सकते हैं। वरना जिसे, जहाँ, जब मौका मिलता है, बिना मेहनत के
फायदा उठाने से चूकता नहीं। इसीलिए भ्रष्टाचार के विरुद्ध शोर हम चाहे जितना मचा
लें, पर चुनाव मे वोट देने की
प्राथमिकताएं अलग रहती हैं। इसलिए मायावती हारती हैं तो मुलायम सिंह यादव जीत जाते
हैं। वे हारते हैं, तों बहन जी जीत
जाती हैं। करुणानिधि हारते हैं तो जयललिता जीत जाती हैं और जब जयललिता हारती हैं
तो करुणानिधि जीत जाते हैं। प्रकाश सिंह बादल हारते हैं तो कैप्टन अमरेन्द्र सिंह
जीत जाते हैं, और उनके हारने पर
बादल की जीत होती है। हर विपक्षी दल सत्ता पक्ष पर भारी भ्रष्टाचार करने का आरोप लगाता
है। ये नूरा कुश्ती यूँ ही चलती रहती है और टिप्पणीकार, स्तम्भकार और टीवी एंकर उत्तेजना में भरकर ऐसा माहौल बनाते
हैं मानो आज जैसा भ्रष्टाचार पहले कभी नहीं हुआ या भविष्य में नहीं होगा। वे
आरोपित मंत्रियों, अफसरों का स्तीफा
मांगने मे हफ्तों और महीनों गुजार देते हैं। अगर उनकी माँग पर स्तीफे ले भी लिए
जाये तो क्या गांरटी है कि उसके बाद देश मे घोटाला नहीं होगा ? मर्ज गहरा है और ऊपरी मरहम से दूर नहीं होगा।
इसलिए अब ज्यादा समय और उर्जा घोटालों के उजागर होने पर खर्च करने की बजाय इसके
समाधान पर लगाना चाहिए। जब किसी भी टीवी शो पर मैं ये मुद्दा उठाता हूँ तो एंकर
बातचीत को मौजूदा घोटाले की ओर वापस ले आते हैं। पर आप भी जानते हैं कि ऐसे सभी
हंगामे कुछ दिन तूफान मचाकर शांत हो जाते हैं। कुछ भी नही बदलता।
भ्रष्टाचार के
मुद्दे पर हमें अपनी समझ गहरी बनाने की
जरूरत है। जैसे हर रोग के लिए उसका विशेषज्ञ ढूँढा जाता है वैसे ही भ्रष्टाचार से
निपटने की समझ रखने वालों को आज तक विश्वास मे नहीं लिया गया। नतीजतन इस भीषण रोग
को रोकने के लिए जो भी प्रयास किए जाते हैं, वे सब नाकाम रहते हैं। इसलिए नई सोच की जरूरत है ।
वैसे जहां भी हम
रहते हों, अपने-अपने दायरे मे आने
वाले लोगो से एक सर्वेक्षण करें और पूछे कि वे विकास चाहते हैं या भ्रष्टाचार
मुक्त समाज ? उनसे पूछा जाये
कि वे ईमानदार और पुराने ख्यालों का नेता पंसद करते हैं या उसे जो उनके काम करवा
दे, चाहे भ्रष्टाचार कितना भी
कर ले। जवाब चैंकाने वाले मिलेंगे। दरअसल पूरी तरह भ्रष्टाचार मुक्त कोई समाज या
देश आज तक नहीं हुआ। तानाशाही हो या लोकतंत्र, पूजीवादी व्यवस्था हो या साम्यवादी, सरकारी खजाना हमेशा लुटता रहा है। कड़े कानून भी हर नागरिक
को ईमानदार बनने के लिए मजबूर नहीं कर सकते। फिर भी ये सारे प्रयास इसलिए किये
जाते हैं कि जनता के मन मे शासन व पुलिस का और दण्ड मिलने का भय बना रहे। ऐसे में
अगर हम लगातार सत्ता केन्द्रों पर हमले करके उसे नाकारा और भ्रष्ट सिद्ध करें तो
समाज से भ्रष्टाचार तो दूर नहीं होगा, शासन का भय समाप्त हो जायेगा। जिससे समाज में अराजकता फैल सकती है। जो देश की
सुरक्षा को खतरा पैदा कर सकती है।
इसलिए जरूरत इस
बात की है कि भ्रष्टाचार के सवाल पर व्यक्तियों को निशाना न बनाकर भ्रष्टाचार
विहीन समाज की स्थापना का प्रयास करना चाहिए। जो भी चर्चा हो वह समाधान मूलक होनी
चाहिए। जिससे समाज मे हताशा भी कम फैले और आशा के साथ भ्रष्टाचार के जंगल से
निकलने के रास्ते खोजे जायें अगर हम ऐसा कर पाते हैं तो देश की जनता को राहत
मिलेगी वरना केवल अशांति और चिंता का वातावरण तैयार होगा जो देश के विकास मे बाधक
होगा।
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अमृतसर में अन्ना
हजारे ने जनता से पूछा है कि वह बताये कि भ्रष्टाचार से लडाई कैसे लडी जाए ? यह तो ऐसी बात हुई कि भगवान श्री कृष्ण कुरूक्षेत्र के मैदान में अर्जुन से
कहे कि तुम मुझे गीता का उपदेश दो। जनता तो बेचारी भ्रष्टाचार की शिकार है। उसे तो
खुद समाधान की तलाश है। अगर उसके पास समाधान होता तो देश मे अन्ना हजारे मशहूर
कैसे होते ? दरअसल समाधान अन्ना हजारे के पास भी नही है और
उनका मकसद समाधान ढूँढना भी नही है। मकसद है समाज मे असन्तोष पैदा करना और दुनिया
को यह बताना कि भारत मे प्रजातंत्र विफल हो गया है। वैसे भ्रष्टाचार के विरोध मे
उठने वाली जो भी मुहिम प्रचार के साथ उठायी जाती है और जिसका मकसद सत्तारूढ दल को
ही निशाना बनाना होता है। उस मुहिम का एक ही लक्ष्य होता है जो सत्ता मे है उन्हे
हटाओं और हमे सत्ता सौंपो या हमारे चेलों को सत्ता सौंपो। यह बात दूसरी है ऐसी
मुहिम चलाने के बाद जो दल सत्ता मे आता है वो भी भ्रष्टाचार दूर नही कर पाता।
वायदे केवल कोरे वायदे बनकर रह जाते हैं। भ्रष्टाचार कभी खत्म नही होता। उसकी
मात्रा घटती बढ़ती रहती है।
दरअसल भ्रष्टाचार
के विरूद्ध हर मुहिम के असफल होने के कई कारण होते है। जिनमे से सबसे महत्वपूर्ण
कारण यह है कि भ्रष्टाचार के कारणों की ही सही समझ अभी तक विकसित नही हुई है। हम
ढोल की पोल बजा रहे है। जिसे आम जनता भ्रष्टाचार मानती है, वो तो बहुत सतही नमूना है। असली भ्रष्टाचार तो सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग कर
जाते है या उद्योगपति करते है और बाकी देश को पता ही नही चलता। पर भीड़ की उत्तेजना
को बढ़ाकर ‘डेमोगोग‘ समाज मे प्रायः अशान्ति
पैदा करते हैं। भ्रष्टाचार की मुहिम लेकर चलने वाले अन्ना हजारे खुद यह दावा नही
कर सकते जो लोग उन्हे बार-बार मैदान मे खींचकर लाते है उनके दामन भ्रष्टाचार के
रंग मे नही रंगे है। पूरी तरह भ्रष्टाचार विहीन समाज कभी कोई हुआ ही नही। उसके
स्वरूप अलग अलग हो सकते है। इसलिए भ्रष्टाचार से लडाई के तरीके भी अलग-अलग होंगे।
पर जब तक भ्रष्टाचार के कारणों की सही समझ न हो, जब तक इस लड़ाई के लड़ने
वाले के दिल राग-द्धेष से मुक्त न हों, जब तक इस लडाई का मकसद
किसी एक दल को फायदा पहुचाना और दूसरे को नुकसान पहुंचाना न हो तब तो भ्रष्टाचार
विरोधी मुहिम जोर पकड़ती रहती है। जैसा इण्डिया अगेस्ट करप्शन के साथ हुआ। पर जैसे
ही इस मुहिम का नेतृत्व करने वाले के चरित्र का दोहरापन उजागर होता है वैसे ही ऐसी
मुहिम ठंडी पड़ जाती है।
कहने को तो हर
आदमी भ्रष्टाचार विहीन व्यवस्था चाहता है। पर तकलीफ उठाकर भ्रष्टाचार से लड़ने वाले
बिरले ही हाते है। पर वे इसलिए विफल हो जाते है क्योंकि उन्हे समाज के किसी भी
ताकतवर वर्ग का समर्थन नही मिलता। ऐसे योद्धा जान हथेली पर लेकर लड़ते है और
गुमनामी के अधेरे मे खो जाते हैं और दूसरी तरफ भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम के हीरो
असलियत में अनेकों समझौते किये हुए पाये जाते हैं। इसलिए वे मशहूर तो हो जाते हैं
सफल नहीं। अभी तो यह भी तय नही कि
भ्रष्टाचार समाज शास्त्र का विषय है, अपराध शास्त्र का, मनोविज्ञान का या दर्शन शास्त्र का। जब रोग का स्वरूप ही नही पता तो उसका
निदान देने वाला डॉक्टर कहां से आयेगा। नतीजा यह है कि 2500 साल पहले यूनान
के शहरों में भ्रष्टाचार के विरूद जनता की जो राय होती थी वह आज भी वैसे की वैसी
है। फिर भी न कुछ बदला न कुछ खत्म हुआ। दुनिया अपनी चाल से चल रही है।
इसका अर्थ यह नही
कि भ्रष्टाचार से लड़ा न जाए। पर जब भ्रष्टाचार का कारण आर्थिक विकास का मॉडल हो, धर्माचार्यो का आचरण हो, समाज का वर्ग विभाजन हो, प्राकृतिक संसाधनों की लूट हो,
इन संसाधनों पर आाम आदमी
के नैसर्गिक अधिकारों की उपेक्षा हो तो आप किससे कैसे और कहां तक लड़ेंगे ? जब हम पड़ोसी के घर भगतसिंह पैदा होने की कामना करेंगे, तो बदलाव कैसे आयेगा ? इसलिए जब-जब भ्रष्टाचार के विरूद्ध आवाज उठती
है, तो हम जैसे लोगो को, जो तकलीफ उठाकर ऐसी लम्बी
लडाई लड़ चुके है, ऐसी आवाज उठाने वालों के मकसद को लेकार तमाम
संशय होते हैं। जिनका समाधान न तो अन्ना के पास हैं और न उस जनता के पास जिससे वे
समाधान पूछ रहे हैं।
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