Thursday, March 30, 2017

पुलिस और विज्ञानं का जीवन से सीधा रिश्ता है

5 साल की गुड़िया के साथ दरिन्दों ने पाश्विकता से भी ज्यादा बड़ा जघन्य अपराध किया पर दिल्ली पुलिस के सहायक आयुक्त ने 2 हजार रुपये देकर गुड़िया के माँ-बाप को टरकाने की कोशिश की । जब जनआक्रोश सड़कों पर उतर आया तो प्रदर्शनकारी महिला को थप्पड़ मारने से भी गुरेज नहीं किया। इतनी संवेदनशून्य क्यों हो गयी है हमारी पुलिस ? जब जनता के रक्षक ऐसा अमानवीय व्यवहार करें तो जनता किसकी शरण मे जायें ?
आज देश बलत्कार के सवाल पर उत्तेजित है। चैनलों और अखबारों मे इस मुद्दों पर गर्मजोशी मे बहसें चल रही हैं । पर यह सवाल कोई नहीं पूछ रहा कि बलात्कारी कौन हैं ? क्या ये सामान्य अपराधी हैं जो किसी आर्थिक लाभ की लालसा में कानून तोड़ रहे हैं या इनकी मानसिक स्थिति बिगड़ी हुई है। अपराध शास्त्र के अनुसार ये लोग मनोयौनिक अपराधी की श्रेणी में आते हैं। जिनकों ठीक करने  के लिए दो व्यवस्थायें हैं। पहली जब इन्हें अपराध करने के बाद जेल में सुधारा जाय और दूसरी इन्हें अपराध करने से पहले सुधारा जाय। आजादी के बाद हमने व्यवस्था बनाई थी कि हम अपराधी का उपचार करेगें। लेकिन गत 65 वर्षों में हम इसका भी कोई इतंजाम नही कर पाये। तमाम समितियों और आयोगों की सिफारिशें थी कि जेलों में दण्डशास्त्री हुआ करेगें। लेकिन आज तक इनकी नियुक्ति नहीं की गई। इनका काम भी जेलो मे रहने वाले पुलिसनुमा कर्मचारी ही कर रहे हैं । जब गिरफ्तार होकर जेल मे कैद होने वाले अपराधियों के उपचार की यह दशा है तो जेल के बाहर समाज मे रहने वाले ऐसे अपराधियों के सुधार का तो खुदा ही मालिक है। 1977 में जेलों से सजा पूरी करके छूटे लोगों का अध्ययन करने पर चैंकाने वाले तथ्य सामने आये हैं। जेलों मे रखकर अपराधियों के सुधार के जो दावे तब तक किये जा रहे थे, वे खोखलें सिद्ध हुए। इस स्थिति में आज तक कोई बदलाव नही आया है। ऐसा क्यों हुआ ? इसका एक ही जवाब मिलता है कि हमारे पास अपराधियों के उपचार (सुधार) में सक्षम व अनुभवी विशेषज्ञों का नितांत अभाव है। फिर कैसे घटेगी बलात्कार की घटनायें।
जब-जब देश में कानून व्यवस्था की हालत बिगड़ती हैं। तब-तब पुलिसवालें जनता के हमले का शिकार बनते हैं। सब ओर से एक ही मांग उठती है कि पुलिस नाकारा है, पर यह कोई नहीं पूछता कि राष्ट्रीय पुलिस आयोग की सिफारिशों का क्या हुआ ? क्यों हम आज भी आपिनवेशिक पुलिस व्यवस्था को ढ़़ो रहे हैं ? 30 वर्ष पहले इस आयोग की एक अहम सिफारिश थी कि पुलिस के प्रशिक्षण को प्रोफेशनल बनाया जाये। उन्हें अपराध शास्त्र जैसे विषय प्रोफेशनलों से सिखाये जायें। जबकि आज पुलिस प्रशिक्षण संस्थानों में जो लोग नवनियुक्त पुलिस अफसरों को ट्रेनिंग देते हैं, उन्हें खुद ही अपराध शास्त्र की जानकारी नहीं होती। अपराध के सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और मनोवैज्ञानिक पक्ष को जाने बिना हम समाधान नहीं दे सकते। इसलिए पुलिस प्रशिक्षण के संस्थानों मे जाने वाले नौजवान अधिकारी अपने प्रशिक्षण मे रुचि नहीं लेते। भारतीय पुलिस सेवा का प्रोबेशनर तो आई. पी. एस. मे पास होते ही अपने को कानूनविद् मानने लगते हैं । उसकी इन पाठयक्रमों में कोई जिज्ञासा नहीं होती। हो भी कैसे जब उसे प्रशिक्षण देने वाले खुद ही अपराध शास्त्र के विभिन्न पहलूओं को नहीं जानते तो वे अपने प्रशिक्षणार्थियों को क्या सिखायेंगे ?
देश में अपराध शास्त्र के विशेषज्ञ थोक में नहीं मिलते। जो हैं उनकी कद्र नहीं की जाती। इंड़ियन इस्टीटयूट ऑफ क्रिमिनोलोजी एण्ड फोरेन्सिक साइंसिज दिल्ली में ऐसे विशेषज्ञों को एक व्याख्यान का मात्र एक हजार रुपया भुगतान किया जाता है। जबकि कार्पोरेट जगत में ऐसे विशेषज्ञों को लाखों रुपये का भुगतान मिलता है जो उनके अधिकारियों को ट्रेनिंग देते हैं। सी. बी. आई. ऐकेडमी का भी रिकार्ड भी कोई बहुत बेहतर नहीं है। जबकि अपराध शास्त्र एक इतना गंभीर विषय है कि अगर उसे ठीक से पढ़ाया जाये तो पुलिसकर्मी व अधिकारी अपना काम काफी संजीदगी से कर सकते हैं। वे एक ही अपराध के करने वालों की भिन्न-भिन्न मानसिकता की बारीकी तक समझ सकते हैं। वे अपराध से़ पीड़ित लोगों के साथ मानवीय व्यवहार करने को स्वतः पे्ररित हो सकते हैं। वे अपराधों की रोकथाम में प्रभावी हो सकते हैं । पर दुर्भाग्य से केन्द्र और राज्य सरकारों के गृह मंत्रायालयों ने इस तरफ आज तक ध्यान नहीं दिया। पुलिसकर्मियों के प्रशिक्षण के कार्यक्रम तो देश मे बहुत चलाये जाते हैं, बड़े अधिकारियों को लगातार विदेश भी सीखने के लिए भेजा जाता है, पर उनसे पुलिस वालों की मनोदशा व गुणवत्ता में कोई फर्क नहीं पड़ता।
विज्ञान का जीवन से सीधा नाता है। यह जीवन को बना भी सकता है और बिगाड़ भी सकता है। भारत में वैज्ञानिक समझ की हजारों वर्ष पुरानी परपंरा है। जिसे नरअंदाज करने के कारण हम बार-बार धोखा खा रहे हैं और पश्चिम की आयातित वैज्ञानिक सोच पर निर्भर रहकर अपना नुकसान कर रहे हैं। आज शहरी विकास हो, औद्योगिक विकास हो,बांधों का निर्माण हो या न्यूक्लियर रिएक्टर की स्थापना हो, बिना इस बात का ध्यान दिए की जा रही है कि उस क्षेत्र में भूकंप आने की संभावना कितनी प्रबल है घ् ऐसा नहीं है कि भूकंप आने की संभावना का पता न लगाया जा सके। देश में ही ऐसे वैज्ञानिक हैं, जिन्होंने अपने अध्ययन के आधार पर भारत सरकार को एक दशक पहले ही इस समझ के बारे में प्रस्ताव दिया था। पर उनकी उपेक्षा कर दी गयी। नतीजा आज बार-बार भूकंपों में तबाही मच रही है। पर उससे बचने के ठोस और सार्थक उपायों पर आज भी सरकार की नजर नहीं है।
श्री सूर्यप्रकाश कूपर एक ऐसे ही वैज्ञानिक हैं, जिनकी खोज न केवल चैंकाने वाली होती है, बल्कि प्रकृति के रहस्यों को समझकर जीवन से जोड़ने वाली भी। पर सरकारी तंत्र का हिस्सा न बनने के कारण उनके सार्थक शोधपत्रों को भी वांछित तरजीह नहीं दी जाती। भूकंप के मामले में श्री कपूर का कहना है कि जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया ने जो सीजमिक जोन मैप ऑफ इण्डियापिछले 15 सालों से जारी किया हुआ है और वही भूचाल के विषय में प्रमाणिक आधार माना जाता है, भारी दोषों से भरा है। उदाहरण के तौर पर इस नक्शे में भूचाल की संभावना वाले जो क्षेत्र इंगित किये गये हैं, वे कश्मीर, पंजाब और हिमाचल, उत्तर-पूर्वी राज्यों और उत्तरी गुजरात तक सीमित है। जबकि हमने इन क्षेत्रों के बाहर भी लाटूर, किल्लारी, कोइना, जबलपुर व भ्रदाचलम आदि में भूचालों की भयावहता को झेला है। सरकार की इस नासमझी का कारण यही नक्शा है, जो किसी ठोस सिद्धांत पर आधारित नहीं है। बल्कि तुक्के के आधार पर इसमें निष्कर्ष निकाले गये हैं। दूसरी तरफ भूचाल की सही संभावना जानने का एक ज्यादा प्रमाणिक मापदण्ड है। जिसका आधार है ग्लोबल हीट फ्लो वैल्यू। इस आधार पर जो नक्शा तैयार किया जाता है, वह भी ज्योलिजकल सर्वे ऑफ इण्डिया के द्वारा ही तैयार होता है। फिर भी इस जानकारी को भूचाल की प्रकृति समझने में प्रयोग नहीं किया जा रहा। जबकि इसकी भारी सार्थकता है।
ग्लोबल हीट फ्लो वैल्यूका आधार वह नई वैज्ञानिक खोज है, जिसमें दुनिया के वैज्ञानिकों ने यह माना है कि पृथ्वी के केन्द्र (नाभि) में आठ किमी व्यास का एक न्यूक्लियर फिशन रिएक्टरलगातार चल रहा है। जिसमें से लगातार भारी मात्रा में गर्मी पृथ्वी की सतह पर आती है और वायुमण्डल में निकल जाती है। पृथ्वी सूर्य से जितनी गर्मी लेती है, उससे ज्यादा गर्मी वापस आकाश में फैंकती है। जहाँ इस ऊर्जा की तीव्रता अधिक है, वहाँ ही ज्वालामुखी फटते हैं। जिनकी संख्या दुनिया में 550 से ऊपर है। इनमें वो ज्वालामुखी शामिल नहीं है जो शांत हैं। इसके अलावा लगभग एक लाख गरम पानी के चश्मे भी इसी ऊर्जा के कारण पृथ्वी की सतह पर जगह-जगह सक्रिय हैं, जिनसे गरम पानी के अलावा गर्मी और भाप वायुमण्डल में जाती है। इस ग्लोबल हीट फ्लो वैल्यू मैप (नक्शे)को अगर ध्यान से देखा जाये और पिछले तीन हजार साल के बड़े भूकंपों के भारत के इतिहास पर नजर डाली जाये तो यह साफ हो जायेगा कि जहाँ-जहाँ हीट फ्लो वैल्यू’ 70 मिली वॉट प्रति वर्गमीटर से ज्यादा है, वहीं-वहीं भारी भूकंप आते रहे हैं। कितनी सीधी सी बात है कि जब हमारे पास हीट फ्लो का प्रमाणिक नक्शा मौजूद है, वह भी सरकार की एजेंसी द्वारा तैयार किया गया, फिर हम क्यों उन इलाकों में शहरी विकास, औद्योगिक विकास, बड़े बांध व नाभिकीय रिएक्टरों का निर्माण करते हैं? क्या हमारी सरकार को अपने देश के लोगों की जान और माल की चिंता नहीं? सामान्य जानकारी है कि भूचाल तब आते हैं जब पृथ्वी के अन्दर की यह गर्मी जमा होकर तीव्रता के साथ पृथ्वी की सतह को फाड़ती हुई बाहर निकलती है, ठीक उसी तरह जैसे प्रेशर कुकर में अगर सेफ्टी वॉल्व से भाप न निकाली जाये तो कुकर फट जाता है।

स्वतंत्र आविष्कारक श्री कपूर का कहना है कि अगर गरम पानी के इन चश्मों या कुण्डों पर एक उपकरण, जिसे वाईनरी साइकिल पावर प्लाण्टकहते हैं, लगा दिये जायें, तो यह संयत्र उस गरमी की ही बिजली बना देगा। उससे दो लाभ होंगे, एक तो यह ऊर्जा विनाशकारी होने की वजाय दस हजार छः सौ मेगावाट तक बिजली का उत्पादन कर देगी और दूसरा इसकी जमावट पृथ्वी के भीतर कभी उस सीमा तक नहीं हो पायेगी कि वह भूकंप का कारण बने। सोचने वाली बात यह है कि इतनी सरल सी जानकारी देश के कर्णधारों को रास नहीं आती। वे पश्चिमी देशों की तरफ समाधान की तलाश में भागते हैं और अपनी मेधा को सामने नहीं आने देते। ऐसा नहीं है कि श्री कपूर की बात को हल्के तरीके से लिया जाये। स्वंय तत्कालीन विज्ञान एवं तकनीकि मंत्री श्री कपिल सिब्बल ने सुनामी के बाद श्री कपूर के संभाषण सिस्मोलॉजी डिवीजनकी कॉन्फ्रेंस में करवाया था। यानि देश के सर्वश्रेष्ठ वैज्ञानिकों ने इनकी बात को सुना और सराहा, फिर क्यों उस पर अमल नहीं किया जाता?

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