एससी एसटी एक्ट में ढील देना इसलिए ठीक नहीं है क्योंकि इस देश में अब भी दलित को घुड़सवारी करने पर उसे मौत के घाट उतार दिया जा रहा है
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कुछ बातें सुनने में बड़ी अच्छी लगती हैं. मसलन- सुप्रीम कोर्ट ने एससी-एसटी एक्ट को खत्म थोड़े ही किया है, इस एक्ट का दुरुपयोग न हो इसलिए गिरफ्तारी से पहले जांच को जरूरी कर दिया है. इस एक्ट में फेरबदल वाले सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद कुछ और अच्छी-अच्छी बातें अचानक से होने लगी हैं. जैसे- आरक्षण जाति के आधार पर नहीं बल्कि आर्थिक आधार पर मिलना चाहिए, बिना जाति पूछे सरकार हर गरीब के बच्चे को आरक्षण दे, दिव्यांगों को आरक्षण का लाभ मिले, अनाथों के लिए आरक्षण होना चाहिए, देश के लिए शहीद होने वाले सैनिकों के बच्चों को आरक्षण मिलना चाहिए.
इन अच्छी बातों के केंद्र में बस एक ही बात है कि आरक्षण जाति के आधार पर नहीं मिलना चाहिए. बहस को इस तर्क के आधार पर धार देने की कोशिश की जाती है कि अब कहां होते हैं दलितों पर अत्याचार, पहले कभी हुआ करता था ये सब, आजादी के इतने सालों बाद अब तो जातिगत आधार पर भेदभाव नहीं होते. इसलिए एससी-एसटी एक्ट पर दिए सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर इतना बवाल करने की जरूरत नहीं है. उलटे बहस तो इस बात पर होनी चाहिए कि क्यों न आरक्षण आर्थिक आधार पर दिया जाए.
एक बार को लगता है कि अगर आरक्षण जाति के आधार पर न होकर आर्थिक आधार पर दिया जाए तो इसमें बुराई क्या है. लेकिन यहां सवाल ये उठता है कि क्या दलितों और पिछड़ों को आरक्षण सिर्फ उनकी आर्थिक हैसियत दुरुस्त करने के लिए दिया गया था? और अगर ऐसा है भी तो क्या अब उनकी आर्थिक स्थिति दुरुस्त करने की नौबत खत्म हो चुकी है. एक बात समझने वाली है कि आरक्षण को सिर्फ आर्थिक नजरिए से देखकर इसे खत्म करने की बात करना नाइंसाफी होगी. ये सिर्फ आर्थिक स्थिति से जुड़ा मसला नहीं है. आरक्षण सिर्फ आर्थिक पिछड़ेपन के आधार पर नहीं बल्कि सामाजिक और राजनैतिक रूप से पिछड़े होने की वजह से भी दिया गया है. वो चाहे सुप्रीम कोर्ट का दलित एक्ट में फेरबदल का फैसला हो या फिर आरक्षण में बदलाव को लेकर जनमानस की बहस, इस पर गहराई से विचार करने की जरूरत है.
ज्यादा पुरानी बात नहीं है. पिछले हफ्ते की दो घटनाएं काफी हैं दलितों के प्रति हमारे समाज के क्रूर रवैये को दिखाने और समझाने के लिए. गुजरात के भावनगर में एक दलित युवक की सिर्फ इसलिए हत्या कर दी गई क्योंकि उसने ऊंची जाति के लोगों के सामने घोड़े पर चढ़ने का कसूर किया था. 21 साल के प्रदीप राठौर ने कुछ महीने पहले ही एक घोड़ा खरीदा था. पिता कह रहे थे कि बेटा बाइक खरीद ले लेकिन घुड़सवारी के शौक के चलते उसने बाइक के बजाए घोड़ा खरीद लिया. भावनगर के उमराला तहसील के उसके गांव टिंबी के ऊंची जाति के लोगों को ये पसंद नहीं आया.
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मृतक दलित युवक प्रदीप राठौर
पहले एकाध बार धमकाया कि दलितों को ये हक नहीं कि वो घोड़े की सवारी करें. एक बार इलाके के एक दबंग ने घोड़ा चढ़ने पर जान से मारने की धमकी भी दी. इसके बाद भी प्रदीप ने अपनी घुड़सवारी जारी रखी तो उसकी हत्या कर दी गई. सोचिए कि इक्कीसवीं सदी के इस दौर में जब हम सबकी बराबरी की बात कर रहे हैं, वहां गुजरात जैसे तथाकथित विकसित राज्य में एक दलित की घोड़ा चढ़ने के जुर्म में हत्या कर दी जाती है. उत्तरी गुजरात के बनासकांठा और साबरकांठा में शादी विवाह में भी दलितों के घोड़ी चढ़ने पर ऊंची जाति के लोग आपत्ति जताते हैं. यहां दलितों के लिए घुड़सवारी करना अपराध है.
हम किस मुंह से बराबरी की बात करते हैं. समाज की सोच कहां बदली है कि सामाजिक हैसियत की बराबरी के मद्देनजर आरक्षण जैसी व्यवस्था में बदलाव की वकालत करें. इस मामले में भी एससी-एसटी एक्ट के तहत ही मामला दर्ज किया गया. अगर कानून के दुरुपयोग के मामले को ही समझना हो तो हम इसी मामले से इसे क्यों न समझें? ऊंची जाति के जिन लोगों ने घोड़ा चढ़ने की वजह से एक युवक की हत्या कर दी वो अपनी हैसियत और रुतबा बचाने के लिए कानून का किस स्तर और किस हद तक जाकर दुरुपयोग कर सकते हैं, इसे बताने की जरूरत भी नहीं है.
यूपी का एक मामला है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश के हाथरस जिले का एक दलित युवक पिछले कई महीनों से पुलिस प्रशासन से लेकर नेता मंत्री तक से गुहार लगा चुका है. हाथरस के बसई बबास गांव के 27 साल के संजय कुमार की मांग बस इतनी सी है कि उसे अपनी शादी में बारात निकालने की अनुमति दी जाए. कहने को संविधान ने उसे भी वो सब अधिकार दे रखे हैं, जो इस देश के सभी नागरिकों को हासिल हैं. लेकिन असलियत ये है कि संजय सिर्फ दलित होने की वजह अपनी दुल्हन के घर बारात लेकर नहीं जा सकता.
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इंडियन एक्सप्रेस की खबर के मुताबिक संजय की शादी नजदीक के कासगंज जिले के निजामाबाद में तय हुई है. जिस रास्ते से शादी की बारात गुजरनी है, वो ठाकुरों के मोहल्ले से होकर जाता है. और इलाके के ठाकुरों को ये मंजूर नहीं है कि दलितों की इतनी हैसियत हो कि वो अपनी बारात निकाल सकें. संजय हर सरकारी अधिकारी के सामने जाकर गिड़गिड़ाया. एसपी-डीएसपी से लेकर उसने सीएम और एससी-एसटी कमिशन तक को लिखा है. मीडिया से लेकर वो इलाहाबाद हाईकोर्ट की शरण में गया है. सबसे वो एक ही सवाल करता है- ‘क्या वो हिंदू नहीं है. जब संविधान कहता है कि देश के सभी नागरिक बराबर हैं. जब राज्य के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ कहते हैं कि हम सब हिंदू हैं तो फिर उसे ऐसी स्थिति का सामना क्यों करना पड़ रहा है.’
संजय बराबरी की ही बात कर रहा है. वो चाहता है कि जैसे दूसरी आम शादियों में घोड़ी पर सवार दूल्हे के साथ गाजे-बाजे के साथ बारात निकलती है और किसी को कोई दिक्कत नहीं होती. वैसी ही उसके बारात के साथ भी हो. लेकिन उसे डर है कि बराबरी की मांग की कीमत कहीं जान देकर न चुकानी पड़ी.
एससी एसटी एक्ट में ढील देना इसलिए ठीक नहीं है क्योंकि इस देश में अब भी दलित को घुड़सवारी करने पर उसे मौत के घाट उतार दिया जा रहा है. इस एक्ट के दुरुपयोग की बात कहके इसमें ढील देना इसलिए ठीक नहीं है कि तमाम दावों के बाद भी एक दलित को अपनी बारात निकालने तक का हक नहीं है. सामाजिक पिछड़ेपन को देखते हुए जातिगत आधार पर आरक्षण इसलिए जरूरी है क्योंकि अब तक जातिगत आधार पर ही भेदभाव हो रहा है.
https://hindi.firstpost.com/politics/why-strong-sc-st-act-is-important-in-this-country-bjp-dalit-atrocity-supreme-court-dalit-protest-101931.html
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