पदों के लालच में सामाजिक नैता
कुशालचन्द्र एडवोकेट, M.A., M.COM., LL.M., D.C.L.L., I.D.C.A., C.A. INTER..
सामाजिक विकास व उसके नेतृत्व पर चर्चा करें। तो दिखाई देता है कि जो भी व्यक्ति समाज का नेतृत्व कर रहे है उनमें से अधिकतम 99 प्रतिशत मनोनित नेता बने बैठे है यह वही तथाकथित सामाजिक नेता है जो प्रधान चुनाव के नेतृत्व में साम-दाम-भेद का उपयोग करते हुए चुनाव में सहयोगी रहे। जो किमत इन सहयोगियों ने चुकाई, उसकी वसूली करने का समय चल रहा है। इसी काम कि प्रक्रिया में पदों का मनोनयन चल रहा है पदों की बंदर-बाट में समाज के प्रति उनका समर्पण, त्याग, काम, योग्यता, आधार नहीं है। इनकी चापलूसी आधार है।
योग्यता का यहा कोई लेना-देना नही हैं। केवल मात्र एक योग्यता है कि आप प्रधान नेतृत्व के प्रति कितने बड़े चापलूस या चमचे हो। जितने बड़े चापलूस या चमचे, उतना बड़ा पद।
ऐसा ही आजाद भारत मे हो रहा है राजनीति मे बाबासाहेब इन्हे एजेण्ट, दलाल, भड़वा, गद्दार, कुत्ता कहते थे।
यह समाज के वास्तविक प्रतिनिधि न होकर प्रधान नेतृत्व के चमचे है। अब आप ही बताये ऐसे चमचे समाज का क्या विकास करेंगे। यह एक ऐसा धोखा है जो पिछले कई दशको से समाज को दिया जा रहा है।
कही-कही तो विरोधी व्यक्तियों ने भी प्रधान नेतृत्व से समझोता कर लिया, जो उनके विरोधियों की टीम से चुनाव लड़ रहे थे और आज पदों के चक्कर में अपने आत्मसम्मान को एक तरफ रखकर छोटे-छोटे पदों की दौड़ में शामिल हो गये है।
स्थिति बड़ी अजीबो-गरीब है। प्रश्न उठता है कि क्या समाज विशेष की संस्थाओं के पद हासिल करना इतना महत्वपूर्ण हो गया है। जिसके लिए बड़े पैमाने पर चापलूसी करनी पड़ रही है जैसे कोई पॉवरफुल या राजनैतिक सत्ताधारी पार्टी या सरकारी का पद हो जबकि यहा तो समाज की सेवा करना है ।
वेसे समाज के विकास में योगदान देने के लिए किसी भी स्तर से पद की जरूरत नहीं है। बिना पदों के भी समाज के विकास में भूमिका निभाई जा सकती है और समाज के प्रति सर्मपण त्याग काम की भावना स्वतः ही पदों को सजृत कर देती है।
क्योंकि समाज का विकास पदों से नहीं बल्कि समाज के लिए रचनात्मक काम करने से होता है। जिसके लिए रचनात्मक सोच व समर्पण त्याग होना जरूरी है। आज समाज का जो भी पिछड़ापन है उसके लिए समाज का बुध्दिजीवी वर्ग जिम्मेवार है और एक बड़ा कारण समाज मे विद्वान लोगों की कमी होना है।
बुध्दिजीवी व्यक्ति अपनी बुध्दि का उपयोग अपन निजी स्वार्थ के लिए करता है जबकि विद्वान व्यक्ति अपनी बुध्दि का उपयोग जनकल्याण के लिए करता है।
आज जो भी समाज सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक पिछड़ेपन के शिकार है उसका सबसे बड़ा कारण उसमें विद्वान अर्थात् विचारक व्यक्तियों की कमी है जो समाज को सही दिशा मार्गदर्षन दे सकें और अपने विचारों से सन्तुष्ट कर सकें।
आज पढ़े लिखे बुध्दिजीवी सामाजिक संस्थाओं का नेतृत्व कर रहे है यह एकेडमिक रूप से तो शिक्षित है लेकिन सामाजिक शिक्षा में अशिक्षित है अर्थातृ यह सामाजिक शिक्षा में अनपढ़ है।
हमें विकास करना है तो हमे अपने इतिहास से सीखना होगा। बाबासाहेब डा. अम्बेडकर, जैसे महान विद्वान व्यक्ति, 7वीं पास ज्योतिबा फुले तथा अनपढ़ कबीर को अपना गुरू मानते थे क्योंकि ज्योतिबा फुले व कबीर सामाजिक शिक्षा के विद्वान थे क्योंकि सामाजिक शिक्षा से ही समाज का विकास किया जा सकता है और एकेडमिक शिक्षा से केवल पेट भराई या सरकारी नौकरी या जीवनयापन किया जा सकता है।
इसलिए ऐसे व्यक्ति क्या समाज का विकास करेंगे जिनकी प्राथमिकता संस्थाओ के पद हासील करना हो, ना कि विकास करना।
हमारे आस-पास ऐसें जितने भी एकेडमिक पढ़े लिखे लोग है उन्हें केवल उनकी शिक्षा या उच्च सरकारी पदों को देखकर सामाजिक संस्थाओं की बागडोर नेतृत्व सौंपना, मेरा मानना है कि यह बहुत बड़ी मुर्खता है क्योंकि एकेडमिक शिक्षा सरकारी नौकरी हेतु मापदण्ड हो सकती है लेकिन यह मापदण्ड सामाजिक संस्थाओं के नेतृत्व हेतु उचित नही है। यदि वास्तव में समाज का विकास करना है तो सामाजिक संस्थाओं के नेतृत्व का मापदण्ड उसके द्वारा समाज के लिए किये गये कार्य, समर्पण, त्याग होना चाहिये अन्यथा अपने चापलूसों, चमचों को खुश करो तथा अपना कार्यकाल मौज-मस्ती से पूरा करो। जो मिलता है उसे मिल-बाट कर खाओ।
अभी तक अधिकतर यहीं दिखाई देता आया है। ढ़ेर सारी माला, साफा, स्मृति चिन्ह पहने जाओ, लिए जाओ और समय पूरा होने पर घर जाओ।
कुशालचन्द्र एडवोकेट, M.A., M.COM., LL.M., D.C.L.L., I.D.C.A., C.A. INTER..
सामाजिक विकास व उसके नेतृत्व पर चर्चा करें। तो दिखाई देता है कि जो भी व्यक्ति समाज का नेतृत्व कर रहे है उनमें से अधिकतम 99 प्रतिशत मनोनित नेता बने बैठे है यह वही तथाकथित सामाजिक नेता है जो प्रधान चुनाव के नेतृत्व में साम-दाम-भेद का उपयोग करते हुए चुनाव में सहयोगी रहे। जो किमत इन सहयोगियों ने चुकाई, उसकी वसूली करने का समय चल रहा है। इसी काम कि प्रक्रिया में पदों का मनोनयन चल रहा है पदों की बंदर-बाट में समाज के प्रति उनका समर्पण, त्याग, काम, योग्यता, आधार नहीं है। इनकी चापलूसी आधार है।
योग्यता का यहा कोई लेना-देना नही हैं। केवल मात्र एक योग्यता है कि आप प्रधान नेतृत्व के प्रति कितने बड़े चापलूस या चमचे हो। जितने बड़े चापलूस या चमचे, उतना बड़ा पद।
ऐसा ही आजाद भारत मे हो रहा है राजनीति मे बाबासाहेब इन्हे एजेण्ट, दलाल, भड़वा, गद्दार, कुत्ता कहते थे।
यह समाज के वास्तविक प्रतिनिधि न होकर प्रधान नेतृत्व के चमचे है। अब आप ही बताये ऐसे चमचे समाज का क्या विकास करेंगे। यह एक ऐसा धोखा है जो पिछले कई दशको से समाज को दिया जा रहा है।
कही-कही तो विरोधी व्यक्तियों ने भी प्रधान नेतृत्व से समझोता कर लिया, जो उनके विरोधियों की टीम से चुनाव लड़ रहे थे और आज पदों के चक्कर में अपने आत्मसम्मान को एक तरफ रखकर छोटे-छोटे पदों की दौड़ में शामिल हो गये है।
स्थिति बड़ी अजीबो-गरीब है। प्रश्न उठता है कि क्या समाज विशेष की संस्थाओं के पद हासिल करना इतना महत्वपूर्ण हो गया है। जिसके लिए बड़े पैमाने पर चापलूसी करनी पड़ रही है जैसे कोई पॉवरफुल या राजनैतिक सत्ताधारी पार्टी या सरकारी का पद हो जबकि यहा तो समाज की सेवा करना है ।
वेसे समाज के विकास में योगदान देने के लिए किसी भी स्तर से पद की जरूरत नहीं है। बिना पदों के भी समाज के विकास में भूमिका निभाई जा सकती है और समाज के प्रति सर्मपण त्याग काम की भावना स्वतः ही पदों को सजृत कर देती है।
क्योंकि समाज का विकास पदों से नहीं बल्कि समाज के लिए रचनात्मक काम करने से होता है। जिसके लिए रचनात्मक सोच व समर्पण त्याग होना जरूरी है। आज समाज का जो भी पिछड़ापन है उसके लिए समाज का बुध्दिजीवी वर्ग जिम्मेवार है और एक बड़ा कारण समाज मे विद्वान लोगों की कमी होना है।
बुध्दिजीवी व्यक्ति अपनी बुध्दि का उपयोग अपन निजी स्वार्थ के लिए करता है जबकि विद्वान व्यक्ति अपनी बुध्दि का उपयोग जनकल्याण के लिए करता है।
आज जो भी समाज सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक पिछड़ेपन के शिकार है उसका सबसे बड़ा कारण उसमें विद्वान अर्थात् विचारक व्यक्तियों की कमी है जो समाज को सही दिशा मार्गदर्षन दे सकें और अपने विचारों से सन्तुष्ट कर सकें।
आज पढ़े लिखे बुध्दिजीवी सामाजिक संस्थाओं का नेतृत्व कर रहे है यह एकेडमिक रूप से तो शिक्षित है लेकिन सामाजिक शिक्षा में अशिक्षित है अर्थातृ यह सामाजिक शिक्षा में अनपढ़ है।
हमें विकास करना है तो हमे अपने इतिहास से सीखना होगा। बाबासाहेब डा. अम्बेडकर, जैसे महान विद्वान व्यक्ति, 7वीं पास ज्योतिबा फुले तथा अनपढ़ कबीर को अपना गुरू मानते थे क्योंकि ज्योतिबा फुले व कबीर सामाजिक शिक्षा के विद्वान थे क्योंकि सामाजिक शिक्षा से ही समाज का विकास किया जा सकता है और एकेडमिक शिक्षा से केवल पेट भराई या सरकारी नौकरी या जीवनयापन किया जा सकता है।
इसलिए ऐसे व्यक्ति क्या समाज का विकास करेंगे जिनकी प्राथमिकता संस्थाओ के पद हासील करना हो, ना कि विकास करना।
हमारे आस-पास ऐसें जितने भी एकेडमिक पढ़े लिखे लोग है उन्हें केवल उनकी शिक्षा या उच्च सरकारी पदों को देखकर सामाजिक संस्थाओं की बागडोर नेतृत्व सौंपना, मेरा मानना है कि यह बहुत बड़ी मुर्खता है क्योंकि एकेडमिक शिक्षा सरकारी नौकरी हेतु मापदण्ड हो सकती है लेकिन यह मापदण्ड सामाजिक संस्थाओं के नेतृत्व हेतु उचित नही है। यदि वास्तव में समाज का विकास करना है तो सामाजिक संस्थाओं के नेतृत्व का मापदण्ड उसके द्वारा समाज के लिए किये गये कार्य, समर्पण, त्याग होना चाहिये अन्यथा अपने चापलूसों, चमचों को खुश करो तथा अपना कार्यकाल मौज-मस्ती से पूरा करो। जो मिलता है उसे मिल-बाट कर खाओ।
अभी तक अधिकतर यहीं दिखाई देता आया है। ढ़ेर सारी माला, साफा, स्मृति चिन्ह पहने जाओ, लिए जाओ और समय पूरा होने पर घर जाओ।
No comments:
Post a Comment