सूचना का अधिकार अधिनियम, २००५
सूचना का अधिकार अर्थात राईट टू इन्फाॅरमेशन।
सूचना का अधिकार का तात्पर्य है, सूचना पाने का अधिकार, जो सूचना अधिकार कानून लागू करने वाला राष्ट्र अपने नागरिकों को प्रदान करता है। सूचना अधिकार के द्वारा राष्ट्र अपने नागरिकों को अपनी कार्य और शासन प्रणाली को सार्वजनिक करता है।
लोकतंत्र में देश की जनता अपनी चुनी हुए व्यक्ति को शासन करने का अवसर प्रदान करती है और यह अपेक्षा करती है कि सरकार पूरी ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा के साथ अपने दायित्वों का पालन करेगी लेकिन कालान्तर में अधिकांश राष्ट्रों ने अपने दायित्वों का गला घोटते हुए पारदर्शिता और ईमानदारी की बोटियाँ नोंचने में कोई कसर नहीं छोड़ी और भ्रष्टाचार के बड़े-बड़े कीर्तिमान कायम करने को एक भी मौक अपने हाथ से गवाना नहीं भूले। भ्रष्टाचार के इन कीर्तिमानों को स्थापित करने के लिए हर वो कार्य किया जो जनविरोधी और अलोकतांत्रिक हैं।
सरकारे यह भूल जाती है कि जनता ने उन्हें चुना है और जनता ही देश की असली मालिक है एवं सरकार उनकी चुने हुई नौकर। इसलिए मालिक होने के नाते जनता को यह जानने का पूरा अधिकार है, कि जो सरकार उनकी सेवा है, वह क्या कर रही है ?
प्रत्येक नागरिक सरकार को किसी ने किसी माध्यम से टेक्स देती है। यहां तक एक सुई से लेकर एक माचिस तक का टैक्स अदा करती है। सड़क पर भीख मांगने वाला भिखारी भी जब बाज़ार से कोई सामान खरीदता है, तो बिक्री कर, उत्पाद कर इत्यादि टैक्स अदा करता है।
इसी प्रकार देश का प्रत्येक नागरिक टैक्स अदा करता है और यही टैक्स देश के विकास और व्यवस्था की आधारशिला को निरन्तर स्थिर रखता है इसलिए जनता को यह जानने का पूरा हक है कि उसके द्वारा दिया गया, पैसा कब, कहाँ, और किस प्रकार खर्च किया जा रहा है ?
इसके लिए यह जरूरी है कि सूचना को जनता के समक्ष रखने एवं जनता को प्राप्त करने का अधिकार प्रदान किया जाए, जो एक कानून द्वारा ही सम्भव है।
अंग्रज़ों ने भारत पर लगभग 250 वर्षो तक शासन किया और इस दौरान ब्रिटिश सरकार ने भारत में शासकीय गोपनीयता अधिनियम 1923 बनया, जिसके अन्तर्गत सरकार को यह अधिकर हो गया कि वह किसी भी सूचना को गोपनीय कर सकेगी।
सन् 1947 में भारत को स्वतंत्रता मिलने बाद 26 जनवरी 1950 को संविधान लागू हुआ, लेकिन संविधान निर्माताओ ने संविधान में इसका कोई भी वर्णन नहीं किया और न ही अंग्रेज़ो का बनाया हुआ शासकीय गापनीयता अधिनियम 1923 का संशोधन किया, आने वाली सरकारों ने गोपनीयता अधिनियम 1923 की धारा 5 व 6 के प्रावधानों का लाभ उठकार जनता से सूचनाओं को छुपाती रही।
सूचना के अधिकार के प्रति कुछ सजगता वर्ष 1975 के शुरूआत में “उत्तर प्रदेश सरकार बनाम राज नारायण” से हुई। मामले की सुनवाई उच्चतम न्यायालय में हुई, जिसमें न्यायालय ने अपने आदेश में लोक प्राधिकारियों द्वारा सार्वजनिक कार्यो काव्यौरा जनता को प्रदान करने का व्यवस्था किया। इस निर्णय ने नागरिको को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19(ए) के तहत अभिव्यक्ति की, स्वतंत्रता का दायरा बढ़ाकर सूचना के अधिकार को शामिल कर दिया।
वर्ष 1982 में द्वितीय प्रेस आयोग ने शासकीय गोपनीयता अधिनियम 1923 की विवादस्पद धारा 5 को निरस्त करने की सिफारिश की थी, क्योंकि इसमें कहीं भी परिभाषित नहीं किया गया था कि ’गुप्त’ क्या है और ’शासकीय गुप्त बात’ क्या है ? इसलिए परिभाषा के अभाव में यह सरकार के निर्णय पर निर्भर था कि कौन सी बात को गोपनीय माना जाए और किस बात को सार्वजनिक किया जाए। बाद के वर्षो में साल 2006 में ’विरप्पा मोइली’ की अध्यक्षता में गठित ’द्वितीय प्रशासनिक आयोग’ ने इस कानून को निरस्त करने का सिफारिश किया।
सूचना के अधिकार की मांग राजस्थान से प्रारम्भ हुई। राज्य में सूचना के अधिकार के लिए 1990 के दशक में जनान्दोलन की शुरूआत हुई, जिसमें मजदूर किसान शक्ति संगठन (एम.के.एस.एस.) द्वारा अरूणा राय की अगुवाई में भ्रष्टाचार के भांडाफोड़ के लिए जनसुनवाई कार्यक्रम के रूप में हुई।
1989 में कांग्रेस की सरकार गिरने के बाद बीपी सिंह की सरकार सत्ता में आई, जिसने सूचना का अधिकार कानून बनाने का वायदा किया। 3 दिसम्बर 1989 को अपने पहले संदेश में तत्कालीन प्रधानमंत्री बीपी सिंह ने संविधान में संशोधन करके सूचना का अधिकार कानून बनाने तथा शासकीय गोपनीयता अधिनियम में संशोधन करने की घोषणा की। किन्तु बीपी ंिसह की सरकार तमाम कोशिसे करने के बावजूद भी इसे लागू नहीं कर सकी और यह सरकार भी ज्यादा दिन तक न टिक सकी।
वर्ष 1997 में केन्द्र सरकार ने एच.डी शौरी की अध्यक्षता में एक कमेटी गठित करके मई 1997 में सूचना की स्वतंत्रता का प्रारूप प्रस्तुत किया, किन्तु शौरी कमेटी के इस प्रारूप को संयुक्त मोर्चे की दो सरकारों ने दबाए रखा।
वर्ष 2002 में संसद ने ’सूचना की स्वतंत्रता विधेयक(फ्रिडम आॅफ इन्फाॅरमेशनबिल) पारित किया। इसे जनवरी 2003 में राष्ट्रपति की मंजूरी मिली, लेकिन इसकी नियमावली बनाने के नाम पर इसे लागू नहीं किया गया।
संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यू.पी.ए.) की सरकार ने 12 मई 2005 में सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 संसद में पारित किया, जिसे 15 जून 2005 को राष्ट्रपति की अनुमति मिली और अन्ततः 12 अक्टूबर 2005 को यह कानून जम्मू-कश्मीर को छोड़कर पूरे देश में लागू किया गया। इसी के साथ सूचना की स्वतंत्रता विधेयक 2002 को निरस्त कर दिया गया।
इस कानून के राष्ट्रीय स्तर पर लागू करने से पूर्व नौ राज्यों ने पहले से लागू कर रखाथा, जिनमें तमिलनाडु और गोवा ने 1997, कर्नाटक ने 2000, दिल्ली 2001, असम, मध्य प्रदेश, राजस्थान एवं महाराष्ट्र ने 2002, तथा जम्मू-कश्मीर ने 2004 में लागू कर चुकेथे।
सूचना का तात्पर्यः-
रिकार्ड, दस्तावेज, ज्ञापन, ईःमेल, विचार, सलाह, प्रेस विज्ञप्तियाँ, परिपत्र, आदेश, लांग पुस्तिका, ठेके सहित कोई भी उपलब्ध सामग्री, निजी निकायो से सम्बन्धित तथा किसी लोक प्राधिकरण द्वारा उस समय के प्रचलित कानून के अन्तर्गत प्राप्त किया जासकता है।
सूचना अधिकार का अर्थः-
इसके अन्तर्गत निम्नलिखित बिन्दु आते है-
1. कार्यो, दस्तावेजों, रिकार्डो का निरीक्षण।
2. दस्तावेज या रिकार्डो की प्रस्तावना। सारांश, नोट्स व प्रमाणित प्रतियाँ प्राप्त करना।
3. सामग्री केप्रमाणित नमूने लेना।
4. प्रिंट आउट, डिस्क, फ्लाॅपी, टेप, वीडियो कैसेटो के रूप में या कोई अन्य इलेक्ट्रानिक रूप में जानकारी प्राप्त की जा सकती है।
सूचना का अधिकार अधिनियम् 2005 के प्रमुख प्रावधानः
5- समस्त सरकारी विभाग, पब्लिक सेक्टर यूनिट, किसी भी प्रकार की सरकारी सहायता से चल रहीं गैर सरकारी संस्थाएं व शिक्षणसंस्थान आदि विभाग इसमें शामिल हैं। पूर्णतः से निजी संस्थाएं इस कानून के दायरे में नहीं हैं लेकिन यदि किसी कानून के तहत कोई सरकारी विभाग किसी निजी संस्था से कोई जानकारी मांग सकता है तो उस विभाग के माध्यम से वह सूचना मांगी जा सकतीहै।
6- प्रत्येक सरकारी विभाग में एक या एक से अधिक जनसूचना अधिकारी बनाए गए है, जो सूचना के अधिकार के तहत आवेदन स्वीकार करते हैं, मांगी गई सूचनाएं एकत्र करते हैं और उसे आवेदनकर्ता को उपलब्ध कराते हैं।
7- जनसूचना अधिकारी की दायित्व है कि वह 30 दिन अथवा जीवन व स्वतंत्रताके मामले में 48 घण्टे के अन्दर (कुछ मामलों में45 दिन तक) मांगी गई सूचना उपलब्ध कराए।
8- यदि जनसूचना अधिकारी आवेदन लेने से मना करता है, तय समय सीमा में सूचना नहीं उपलब्ध् कराता है अथवा गलत या भ्रामक जानकारी देता है तो देरी के लिए 250 रुपए प्रतिदिन के हिसाब से 25000 तक का जुर्माना उसके वेतन में से काटा जा सकता है। साथ ही उसे सूचना भी देनी होगी।
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