सामाजिक संरचना प्रमुख समाजशास्त्री प्रतिपाध विषय हैं ।नगरीय सामाजिक संरचना की अपनी विशिष्ट प्रक्रति है ।नगरीय सामाजिक संरचना से भिन्न है ।परन्तु जैसा कि हम पहले भी लिख चुके हैं कि यह भिन्नता हमें ध्रुवीय उदाहरणों में ही मिलती है ।इसी आधार पर हमने गत अध्याय में ग्रामीण एवं नगरीय जीवन में भिन्नताओं का उल्लेख करने का प्रयास किया है ।सामाजिक संरंचना का विश्लेषण करने की दृष्टि से विभिन्न समाजशास्त्रियों ने भिन्न-भिन्न मार्ग अपनाये हैं ।मर्टन ने समाज विशेष में व्यक्ति की सामाजिक स्थिति एवं कार्यों के आधार पर इस विश्लेषण का सुझाव देते हैं ।हम भी यहां नगरीय समाज की प्रमुख संस्थाओं का विवेचन करके नगरीय सामाजिक संरचना का विश्लेषण करने का प्रयास करेंगे ।हम प्रमुखत: परिवार, वर्ग व्यवस्था, मनोरंजन की संस्थाओं एवं नगरीय सरकार पर विचार करेंगे ।प्रथम हम नगरीय परिवार की व्याख्या कनरे का यत्न करेंगे ।परन्तु पूर्व इसके हम नगरीय सामाजिक संरचना की सामान्य विशेषताओं का यहां उल्लेख करना आवश्यक समझते है ।
नगरीय सामाजिक संरचना की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं - नगरीय समाज की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं –
- अस्थायित्वता – नगरीय सामाजिक संरचना की एक प्रमुख विशेषता अस्थायित्वता है ।व्यक्ति यहां केवल अस्थायी सम्बन्ध रख पाता है ।व्यक्ति रोज नये-नये लोगों से मिलता है और सम्बन्ध जोड़ता है एवं पुराने लोगों को भूल जाता है ।उसे इतने अधिक लोगों से सम्बन्ध रखना पड़ता है कि हर एक को भली-भांति स्मरण रखना असम्भव हो जाता है ।यहां सम्बन्ध प्राथमिक न होकर द्वितीय होते हैं ।यहाँ व्यक्ति की स्थिति भी सदा बदलती रहती है ।इस समबन्ध में विर्थ महोदय ने कहा है कि ये सम्बन्ध व्यक्तियों पर आधारित नहीं होते हैं बल्कि अवैक्तिक होते हैं , ये दिखावटी, कृत्रिम अस्थायी, परिवर्तनशील, और कार्य विशेष से ही सम्बंधित होते हैं ।नगर के व्यक्ति के सम्बन्ध तर्क पर आधारित होते हैं ।इन सामाजिक सम्बन्धों के कारण नये सामाजिक संगठन एवं सामाजिक संरचना का जन्म होता है ।
- अल्पज्ञता – नगरीय समाज में व्यक्तियों के सामाजिक सम्बंध कृत्रिम एवं औपचारिक होते हैं ।व्यक्ति यहां सबके सम्बन्ध में पूरी जानकारी नहीं रख पाता क्योंकि उसके पास इतना समय नहीं रहता है और न तो सम्बन्ध रखने की कोई आवश्यकता ही होती है ।उसका व्यवहार घनिष्ट नहीं होता है, अपितु बनावटी होता है ।वह ‘हलो मित्रता’ में विश्वास करता है ।कहीं मिले गये तो बड़े ही तपाक से मलेंगे और हलो शब्द से सम्बोधित करेंगे और उसके आगे केवल स्वार्थ की बात होगी ।यहां व्यक्ति स्वार्थपरता से परिपूर्ण होता है ।
- गुमनामता – नगरीय समाज में व्यक्ति सदस्य गुमनाम रहना ज्यादा पसंद करता है ।नगर के भीड़ में कौन किसको पहचानता है ।सब लोग अपने-अपने काम में लगे रहते हैं ।इतने अधिक व्यक्ति होते हैं कि कोई किसी को नहीं पहचानता ।एक ऐसा न पहचानने का दृष्टिकोण भी बन जाता है ।
- बेमेलता – नगरीय सामाजिक संरचना की एक विशेषता यह है कि यहां पर बेमेलता पायी जाती है ।विभिन्न प्रजातियों, क्षेत्रों, धर्मों, व्यवसायों एवं भाषाओं के व्यक्ति रहते हैं ।यहां सामाजिक सामंजस्य का अभाव पाया जाता है ।
- व्यक्तिवादिता – नगरीय समाज के मूल्य व्यक्तिवाद पर आधारित होते हैं ।हर व्यक्ति अपने दृष्टिकोण से सोचता, विचारता एवं कार्य करता है ।सामूहिकता के आधार पर विचार नहीं किया जाता है ।
- व्यवसायों की बहुलता एवं भिन्नता – नगरीय समाज में अनके प्रकार के भिन्न-भिन्न व्यवसाय होते हैं ।श्रम-विभाजन बहुत अह्दिक होता है ।एक व्यवसाय में लगा हर व्यक्ति दुसरे व्यवसाय के विषय में जानकारी नहीं रखता है ।
नगरीय परिवार की विशेषताएं – नगरीय परिवार की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं :
- 1. पितृसत्तात्मक अधिकार में कमी – भारतीय ग्रामीण में परिवारों में पिता या पति की अधिक शक्ति एवं अधिकार प्राप्त होते हैं ।यहां तक कि पितृसत्तात्मक परिवार अपनी पत्नी तथा बच्चों के बेच भी सकता है ।स्त्रियों का सम्पत्ति में कोई भी अह्दिकर नहीं है ।बच्चे तथा स्त्रियाँ प्रत्येक दृष्टि से पितृसत्तात्मक पितृस्थान पर आश्रित हैं ।पिता परिवार का स्वामी तथा राजा होता है ।
नगरीय सामाजिक संरचना में यधपि परिवार पितृसत्तात्मक होते हैं परन्तु नगरों में पितृसत्तात्मक के ये अधिकार अति न्यून रह गये हैं ।उसके समस्त अधिकार छिन गये हैं ।पिता परिवार के वैधानिक मुखिया है ।उसकी तुलना इंग्लैंड के राजा से की जा सकती है ।नगरीय परिवार का मुखिया वैधानिक अधिकारी है न कि निरंकुश पितृसत्ता का ।आधुनिक कानूनों के अनुसार स्त्रियों तथा बच्चों को अनके अधिकार प्राप्त हो गये हैं ।बच्चों पर माता तथा पिता दोनों का समान अधिकार होता है ।स्त्रियों की सामाजिक स्थिति ऊँची होती जा रही है ।पुरुष तथा स्त्री की स्थिति परिवार में समान होती है ।समसत्तात्मक परिवार नगरों में पाये जाते हैं ।बच्चो की शक्ति भी बढ़ती जा रही है ।माउरर ने उचित ही लिखा है , “वास्तव में परिस्थितियों में प्रबलता प्राप्त करने की ओर धयान देते हैं जिसमें बच्चा की नीति को निश्चित करती है ।अत: झुकाव सन्तानात्मक परिवार की ओर है जिसमें बच्चा प्रबल कार्य करता है “ यदि बच्चों की शक्ति इसी प्रकार बढ़ती जा रही है तो शीघ्र ही नगरीय परिवार सन्तानात्मक परिवार हो जायेगा ।
- परिवार के आकार में हास्र – नगरीय परिवार का आकार छोटा होता है ।पति, पत्नी, तथा बच्चों के अतिरिक्त अन्य सम्बन्धी साथ में बहुत कम रहते हैं ।अधिकतर नवविवाहित-युग्म अपने सास श्वसुर के साथ रहना पसंद नहीं करते हैं ।इतना ही नहीं अपितु कुछ देशों में तो बच्चे उत्पन्न करना भी माता-पिता उपयुक्त नहीं समझते हैं ।अमेरिका में नि:संतान परिवारों की संख्या अत्यधिक है ।जनगणना के अनुसार 48.9 प्रतिशत परिवारों में 18 वर्ष से कम उम्र का कोई भी बालक नहीं पाया गया तथा 21.3 प्रतिशत परिवारों में 18 वर्ष से कम उम्र का केवल 1 बालक पाया गया ।इंग्लैंड तथा वेल्स में 1951 ई० में औसत परिवार का आकार 3.72 व्यक्ति था ।1951 ई० में ही 6,89,000 व्यक्ति बिना घरबार के अकेले रहते हुए पाये गये ।अमेरिका में तो जनसंख्या अत्यधिक गिरती जा रही है तथा नेताओं को इसकी बड़ी चिंता है ।फाल्सम ने लिखा है “दो बच्चों का परिवार आजकल या व्यापक सामाजिक नियम या आदर्श है ।” अमेरिका नगरीय परिवारों के प्रतिमानों का एक छोर है ।भारत में नगरीय सामाजिक संरचना में एकांकी परिवार को अच्छा माना जाता है ।यहां परिवार नियोजन का प्रचलन अधिक है ।
नगरीय परिवार में कृषि का कार्य न होने के कारण अधिक सदस्यों की आवश्यकता नहीं पड़ती ।अन्य आर्थिक कारक भी परिवार के आकार को छोटा रखते हैं ।प्राकृतिक रूप से भी नगरीय परिवार बड़ा नहीं हो पाता है क्योंकि यहां सन्तान निरोध के अनके साधन उपलब्ध हैं ।इन कारकों के फलस्वरूप नगरीय परिवार आकार की दृष्टि से बहुत छोटा है ।नगरीय पारिस्थितिकीय परिस्थितियाँ भी छोटे परिवार के प्रोत्साहित करती है ।
- अस्थायी परिवार – नगरीय परिवार अस्थायी होता है ।यहां सामाजिक गतिशीलता अत्यधिक है ।इसके फलस्वरूप परिवार एक स्थान से दुसरे स्थान को जाते रहते हैं ।यहां विवाह शीघ्रता में होता है तो विवाह विच्छेद भी अत्यधिक पाये जाते हैं ।भारत में जैसे रुढ़िवादी एवं धर्मपरायण देश में भी विवाह-विच्छेद स्वीकार कर लिया है ।अमेरिका में 1940 ई० में 168 बाल विवाहों में पाये गये ।नगरों में प्रेम विवाह का प्रचालन बढ़ता जा रहा है ।ये विवाह अधिक समय तक निरन्तर नहीं रह पाते ।इस कारण भी विवाह-विच्छेद की संख्या अधिक होती है ।
- घर अमहत्वपूर्ण – नगरीय परिवार के लिए घर नाम की वस्तु कोई महत्त्व नहीं रखती ।लोग किराये के मकानों तथा होटलों में रहना अधिक पसंद करते हैं ।नगरीकृत देश अमेरिका के विषय में यह अत्यंत सत्य है ।डॉ प्लांट ने लिखा है ।माउरर ने भी लिखा है कि शिकागों में टेलीफोन रखने वाली जनसंख्या एक स्थान पर औसत रूप से 2.83 वर्ष रहती है ।नगरों में भीड़-भाड़ की समस्या बड़ी व्यापक है ।इसलिए भी घर का महत्त्व क्षीण होता जा रहा है ।
- नातेदारी : कम महत्वपूर्ण – नगरीय परिवार के लिए नातेदारी का अधिक महत्त्व नहीं है ।लोग अपने रिश्तेदारों से अधिक सम्बन्ध नहीं रखते ।ग्रामों में व्यक्ति अपनी सामाजिक स्थिति को निश्चित करने के लिए अपने रिश्तेदारों का पूर्ण विवरण दिया करता है ।यहां परिवार उसकी सामाजिक स्थिति निश्चित करता है ।नगरीय परिवार इस दृष्टि से कोई महत्व नहीं है ।व्यकित आपके कार्य एवं योग्यता के द्वारा अपनी सामजिक स्थिति को प्राप्त करता है ।इन कारणों के फलस्वरूप नातेदारी का नगरीय परिवार के लिए कोई महत्त्व नहीं है ।नातेदारी रूढ़िवादिता से परिवापूर्ण मानी जाती है ।इससे सामाजिक नियंत्रण की संभावना अधिक होती है ।इसलिए नगरों में स्वछन्द प्रकृति का व्यक्ति इससे बचने की चेष्टा में रहता है ।
- स्त्रियों की परिवर्तित स्थिति – पुरुष परिवार का निरंकुश स्वामी नहीं है ।स्त्री के अधिकार परिवार में अधिक हैं ।कुछ देशों में तो स्त्रियों के अधिकार इतने बढ़ गये हैं कि लोगों को सन्देह है कि निकट भविष्य में परिवार मातृसत्तात्मक न बन जाय ।माउरर ने लिखा है ,”यधपि अब भी पति परिवार को नाम प्रदान करता है तथा उसकी पत्नी उसका उपनाम अधिक औपचारिक अवसरों पर प्रयोग किया करती है, इन तथ्यों के होते हुए भी पति अब अनके परिवारों में परिवार का मुखिया नहीं रहा ।वह अब पारिवारिक दायरे में उस निरंकुश राजा के सामान भी नहीं रहा, जिसके शब्द ही विधि हों ।वस्तुत: वह (पिता) भाग्यशाली है यदि उसके बच्चे उसे हस्तक्षेप करने वाले बाहरी व्यक्ति के समें नहीं समझते हैं अथवा प्रबन्ध करने वाले उस संबंधी की तरह जिसे सहयोग की बच्चों के किसी कार्यक्रम के प्रति उसकी पत्नी के विरोध को समाप्त करने के लिए आवशयक हो ।”
इसके विपरीत पत्नी पारिवारिक दायरे में अपने आपको अपने पति से उच्चतर नहीं हो पूर्णत: समान अवश्य समझती है ।वह पारिवारिक समूह के भाग्य को सहानभूतिपूर्वक नियंत्रित करती है लेकिन अल्प प्रतिज्ञ व्यक्ति की तरह नहीं ।वह दास वृत्ति करने वाली गुलाम नहीं हैं ।जहां तक बच्चों का प्रश्न है पिता से अधिक उसकी (माता की) आज्ञाओं पर धयान दिया जाता है ।स्पष्ट है कि पिरवार में स्त्रियों ने आर्थिक स्वतंत्रता के साथ-साथ सामाजिक तथा राजनैतिक शक्ति को भी प्राप्त किया है ।इसके फलस्वरूप परिवार में उनकी स्थिति उच्च है ।
- स्त्रियों के कार्य के प्रति – औद्योगिकक्रांति के फलस्वरूप विवाहित स्त्रियों का घर में काम बहुत हल्का हो गया है ।आर्थिक आवश्यकताएं भी इतनी बढ़ गयी हैं कि साधारण परिवारों को आमदनी पूरी नहीं पड़ती है ।इन कारणों से साधारणत: नगरीय परिवार की स्त्रियों के लिए यह अनिवार्य हो गया है और उन्हें बहार कार्य करना पड़ता है ।कुछ स्त्रियाँ जो उच्च शिक्षा प्राप्त करती हैं ।उदहारण के लिए, सामाजिक गतिविधियों जैसे महिला समिति, ताश खेलना, चाय पार्टी, राजनितिक गतिविधियाँ, सामाजिक सेवा कार्य, अन्य परमार्थीक तथा धार्मिक कार्य तथा कला एवं साहित्यिक गतिविधियाँ इत्यादि ।इन सबको नगरीय परिवार में स्त्रियों की स्थिति एवं कार्यों में महान परिवर्तन दिखाई देता है ।स्त्रियाँ स्वतंत्र रूप में सार्वजानिक जीवन में भाग ले सकती हैं ।वे घर के पिंजरे में बंद रहने वाली चिड़ियाएँ नहीं है ।
- यौन के प्रति बदलती धारणाएं – यौन के प्रति भी नगरी में विशष्ट धारणाएं पाई जाती हैं ।स्त्रियाँ तथा पुरुष साथ-साथ घूम-फिर सकते हैं तथा सम्बन्ध रख सकते हैं ।यौन के विषय में ज्ञान बढ़ता जा रहा है ।यौन शिक्षा पर अत्यधिक बल दिया जाता है ।स्त्रियों की यौन संबंधी स्वतंत्रता के कारण विवाह के पूर्व यौन सम्बन्धों की संख्या अधिक है ।इस दृष्टि से अधिक कहना कठिन है क्योंकि यह गुप्त कार्य तथा इनका अध्ययन अत्यंत कठिन है ।फिर भी इस प्रकार के कुछ अध्ययन अमेरिका इत्यादि देशों में किये गए हैं ।इन प्रवृतियों के कारण स्त्रियों का आधार भी बदला हुआ है ।फाल्सम ने उचित ही लिखा है, “पुन: आधुनिक लैंगिक स्वतंत्रता स्त्रियों को साधारण स्त्रियों में आदर्शस्वरुप बनने के लिए बाध्य करने के विपरीत उन्हें उनके व्यक्तित्व एवं आवश्यकता के अनुसार मौलिक रूप से प्रथक लैंगिक जीवन बिताने की अनुमति दे देती है ।” स्त्रियों तथा पुरुषों दोनों को ही यौन सम्बन्धों के समान अधिकार प्राप्त हैं ।यौन नैतिकता का दोहरा सिद्धांत नहीं है ।सदरलैंड तथा वुडवर्ड ने उचित ही लिखा है ,”यौन रुढियों में परिवर्तन के द्वारा परिवार पर अत्यधिक प्रभाव पड़ा है ।”
नगरों में परिवार संस्था में विघटन के लक्षण प्रतीत होते हैं ।प्रसिद्ध समाजशास्त्री जिम्मर मेन ने अपनी पुस्तक क्रईसेस इन अमेरिकन फैमली में इस दृष्टि से व्यापक रूप में प्रकाश डाला है ।नगरों में परिवार संस्था का ग्रामों से मौलिक रूप नहीं पाया जाता ।भारतीय नगरीय संरचना में भी विघटन के कगार पर खड़ी है ।इस संस्था में आज अनेक समस्याएं परिव्याप्त हो गई हैं ।
नगरीय परिवार की समस्यायें :
(i) पारिवारिक तनाव – नगरीय परिवार की सबसे बड़ी समस्या पति और पत्नी का सम्बन्ध है ।प्राचीन युग एवं आधुनिक युग में संघर्ष चल रहा है ।पति अपने को ऊंचा समझता है और पत्नी आपके को निम्न ।पूर्वकाल में स्त्री का कोई महत्त्व नहीं था ।वह बिना पढ़ी-लिखी एवं हर दृष्टिकोण से पति पर निर्भर थी ।जब वह पूर्ण स्वतंत्र एवं आत्मनिर्भर होती जा रही है ।यधपि सिद्धांत कर लिया गया है फिर भी एक-दुसरे के अधिकारों एवं कर्तव्यों की व्याख्या नहीं हो पायी है ।नगरों में पारिवारिक तनावों की संख्या अधिक पाई जाती है ।बच्चों में भी अनुशासनहीनता है ।
(ii) विवाह-विच्छेद – नगरीय परिवार की दूसरी प्रमुख समस्या विवाह विच्छेद का विकास होना है ।विवाह का आधार पवित्र समझौता न होकर वैज्ञानिक समझौता हो गया है ।जिसे चाहे जब तोडा जा सकता है ।विवाह का उदेश्य जीवन के कार्यों कि पूर्ति न होकर सुख, आनंद एवं भोग विलास की संतुष्टि हो गया है ।दोनों को आपस में बांधने से बंधन समाप्त हो गये हैं ।
(iii) माता-पिता व संतानों का संघर्ष – माता पिता एवं इनके बच्चे का संघर्ष दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है ।परिवार के साथ में कोई भी ऐसी शक्तियाँ नहीं हैं जिनके द्वारा माता पिता बच्चों पर नियंत्रण कर सकें ।परिवार के संरक्षकों व युवा संतानों में परस्पर मूल्यों का संघर्ष विकसित है ।युवाओं में अनुशासनहीनता बढ़ गई है ।
(iv) संतानों के पालन-पोषण की समस्याएं – पति और पत्नी दोनों ही घर के बाहर कार्य करने जाते हैं ।इसके कारण बच्चों के पालन-पोषण की समस्या बढ़ती जा रही है ।माता केवल घर की चाहदीवारी में न रह कर समाज के अन्य कार्यों एवं उत्सवों में भाग लेती है, इसके कारण वह बच्चों की देखभाल नहीं कर पति ।यधपि दूसरी व्यवस्थाएं की गई हैं, परन्तु वे संतोषजनक फल नहीं पा रही हैं ।
(v) सुरक्षा पर अभाव – पहले पति-पत्नी का सम्बन्ध स्थायी होता था और उसके कारण परिवार के सदस्यों में सुरक्षा की भावना रहती थी ।नगरीय पिरवार में इस भावना का लोप है क्योंकि दोनों को ही सदैव यह डर बना रहता है कि जाने कब दूसरा साथी मुझे छोड़ दे ।आपत्तिकाल में ऐसा अधिकांश रूप में देखा गया है कि किसी –न-किसी बहाने विवाह-विच्छेद हो जाता है ।
(vi) पारस्परिक विश्वास की कमी – पारस्परिक विश्वास की अत्यधिक कमी पायी जाती है ।एक दुसरे पर कोई विश्वास नहीं करता ।यह परिवार न होकर एक सयुंक्त समिति कंपनी हो गयी है ।
(vii) न्यून जन्म दर – जन्म दर दिन-प्रतिदिन गिरती जा रही है ।ऐसे बहुत से परिवार पाये जाते हैं, जिनसे बच्चे ही नहीं होते ।इसके कारण राष्ट्र की जनसंख्या को कम होती ही है साथ-ही-साथ परिवार अस्थायी होता जाता है ।बच्चों के कारण पति और पत्नी बंधन में बंध जाते हैं ।जिन परिवारों में बच्चे होते हैं उनमें विवाह विच्छेद कम होता है ।
क्या नगरों में पुरानी परम्परा के अनुसार परिवार रह सकता है ? – भारतीय नगरों में पुरानी परम्परा के अनुसार परिवारों का रह पाना बड़ा कठिन है क्योंकि आधुनिक समय में तीव्र एवं मौलिक परिवर्तन हो रहे हैं ।पुरानी परम्परा कृषि समाज के अनुसार है ।नगरीय परम्परा में और ग्रामीण परम्परा में परस्पर गहरा विरोध है ।स्वाभाविक है कि औधोगिकी और नगरीय समाजों में परिवार के नये प्रतिमान विकसित होंगे ।कोई भी संस्था क्यों न हो, संस्था का प्रमुख उदेश्य मानव आवश्यताओं की पूर्ति करना है ।जो संस्थाएं किसी समय में मानव आवश्यकताओं की पूर्ति करने में असमर्थ होते हैं, वे शैने:-शैने: समाप्त हो जाती है ।पुरानी परम्परा के परिवार आधुनिक समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर सकते हैं, इसलिए वे बने भी नहीं रह सकते हैं ।नगरों में परम्परागत परिवार के मौलिक कार्य करने वाली अनेक संस्थाओं का प्रचलन है ।इससे परिवार की कोई विशेष आवश्यकता अनुभव नहीं होती ।विशेष रूप से भारतीय नगरों में आज संयुक्त परिवार का तो कोई औचित्य प्रतीत नहीं होता ।
संयुक्त परिवार के दोष – समय के साथ-साथ संयुक्त परिवार तथा सामाजिक जीवन पिरवर्तित होता गया ।संयुक्त परिवार में अनके दोष उत्पन्न होते गये तथा वह समय की गति के साथ-साथ पग मिला न सका ।संयुक्त परिवार प्रथा के निम्न प्रमुख दोष हैं :
- औपचारिक सम्बन्ध – संयुक्त परिवार में सदस्यों की संख्या अधिक होने के कारण आपस में सम्बन्ध घनिष्ट नहीं हो पाते तथा औपचारिक रहते हैं ।इसके फलस्वरूप आत्मीयता का अभाव रहता है जो परिवार में मनोवैज्ञानिक असुरक्षा को प्रदान करता है ।गृह पर्यावरण शुष्क तथा नीरस रहता है ।
- द्वेष एवं क्लेश का केंद्र – संयुक्त परिवार एक ऐसा स्थान होता है कि जहां पर सैदव द्वेष एवं कलेश बना रहता है, क्योंकि एक सदस्य का दुसरे सदस्य के हितों का संघर्ष होता रहता है ।स्त्रियों में सदैव मनमुटाव रहता है तथा छोटी छोटी बातों पर झगड़े होते रहते हैं ।इस पारिवारिक कलह का फल परिवार का विनाश होता है ।सरकार ने उचित लिखा है ,” संयुक्त परिवार में पले हिन्दू ऐसे स्वर्ग की कल्पना नहीं कर सकते जहां संयुक्त कुटुम्ब न हो ।” इन दैनिक विवादों और कलहों ने संयुक्त परिवार का जीवन बड़ा दु:खमय तथा नारकीय बन जाता है ।संसार में यदि किसी को नरक का दर्शन करना हो तो वह एक झगड़ालू संयुक्त परिवार को देख ले ।परिवार के सदस्यों का बहुत सा उपयोगी समय एवं शक्ति कलह के जीवन में नष्ट हो जाती है ।इसका एक प्रमुख दुष्परिणाम मुकदमेबाजी है ।
- आर्थिक निर्भरता – संयुक्त परिवार के कारण परिवार के अधिकांश सदस्य आर्थिक दृष्टि से परिवार पर निर्भर रहते हैं ।इसका स्वाभाविक फल यह होता है कि लोग कामचोरी का स्वाभाव बना लेते हैं ।
- अकर्मण्य व्यक्तियों की वृधि – संयुक्त परिवार की व्यवस्था के कारण अकर्मण्यता को प्रोत्साहन मिलता है तथा अकर्मण्य व्यक्तियों की वृधि होती है ।बहुत से लोग केवल इसलिए कार्यं नहीं करते, क्योंकि उन्हें संयुक्त परिवार में सब सुविधाएँ उपलब्ध है ।इसका वास्तविक फल यह होता है कि परिवार के कमाने वाले सदस्य असंतोष प्रकट करते हैं ।
- कमाने वाले में असंतोष – संयुक्त परिवार के कमाने वाले सदस्यों में अधिकांशत: असंतोष बना रहता है, क्योंकि उनकी गाढ़ी कमाई दूसरों पर व्यय होती है तथा ये निठल्ले आनंद करते हैं ।काई बार तो कमाने वाले सदस्य परिश्रम भी कम करने लगते हैं, क्योंकि उस कमाई का फल उनको नहीं मिलता ।
- भय का पर्यावरण – संयुक्त परिवार में भय का पर्यावरण बना रहता है ।इसके फलस्वरूप सदस्यों का व्यवहार औपचारिक हो जाता है तथा उनका विकास नहीं हो पाता ।
- गोपनीय स्थान का अभाव – संयक्त परिवार में सदस्यों की संख्या अधिक होने के कारण गोपनीय स्थान का अभाव रहता है ।इसके फलस्वरूप पति-पत्नी एक-दुसरे से भी मिल नहीं पाते हैं ।लिंग सम्बन्ध अर्ध-सार्वजनिक बन जाते हैं ।बच्चों पर भी अनैतिक प्रभाव पड़ता है तथा उनकी आदतें बचपन से ही ख़राब होती है ।
- स्त्रियों की दुर्दशा – संयुक्त परिवार में स्त्रियों की दशा अत्यंत दयनीय रहती है ।स्त्री को अपने पति का सुख नहीं प्राप्त होता है ।डॉक्टर राज्नेद्र प्रसाद ने उचित लिखा है :”पति-पत्नी इतनी कृत्रिम एवं अस्वाभाविक परिस्थितियों में मिलते हैं कि उनमें प्रेम का विकास तो दूर की बात है, मामूली परिचय भी कम होता है।” स्त्रियों का जीवन केवल भोजन बनाने में ही बिताता है तथा उनके व्यक्तित्व का विकास बिल्कुल भी नहीं हो पाता ।सास, ननद, तथा बहु का झगड़ा सदैव होता रहता है ।बहु को ये लोग इतना तंग करते हैं कि उसका जीवन दुर्लभ हो जाता है ।अनके आत्महत्याओं की चर्चा नित्य होती रहती हैं ।स्त्री का जीवन संयुक्त परिवार में अवतरित सेवा का एक दीर्धकाल होता है तथा उसे दासी के समान कार्य करना पड़ता है ।इतना कार्य करते हुए भी उसका छोटी-छोटी बातों पर जानबूझ कर अपमान किया जाता है ।उस घर की कल्पना हम कर सकते हैं जिसमें स्त्रियाँ दुःख एवं दरिद्रता से पीड़ित सदैव भाग्य को कोसती रहती हैं ।
- बाल-विवाहों को प्रोत्साहन – संयुक्त परिवार बाल-विवाहों को प्रोत्साहित करता है ।बाल-विवाह प्रत्येक दृष्टि से हानिकारक है, परन्तु संयुक्त परिवार होने के कारण बच्चों का विवाह बहुत छोटी आयु में कर दिया जाता है ।विवाह करने वाले व्यकित को विवाह योग्य तथा पत्नी के पालन करने की क्षमता के विकसित होने का प्रश्न ही नहीं उठता ।जब तक वह विवाह के अर्थ को समझ पाता है तब तक अपने को अत्यधिक भार से दबा हुआ अनेक बच्चों का बाप पाता है ।
- अधिक संतान उत्पादन – संयुक्त परिवार के फलस्वरूप संताने भी अधिक होती हैं ।प्रथम तो बाल-विवाह होने के कारण अधिक संताने होती हैं, तथा द्वितीय कोई जिम्मेदारी न होने के कारण लोग अंधाधुंध सन्ताने उत्पन्न करते हैं ।
- व्यक्तित्व के विकास में बाधक – संयुक्त परिवार व्यक्तित्व के विकास में भी अनके बाधाएं उपस्थित करता है ।बाल्यावस्था से परतंत्र तथा परोपजीवी रहने से परिवार के सदस्यों में अपने पैरों पर खड़े होने की क्षमता नहीं विकसित होती ।स्वालंबन का पाठ वह नहीं पढ़ पाता ।वह अपनी आत्मा का विकास और वैयक्तिक योग्यताओं की वृधि भी नहीं कर सकता ।एक निरंकुश सत्ता के नीचे रहते हुए उकसा विकास कैसे संभव हो सकता है ? परिवार में सदस्यों की संख्या अधिक होने के कारण व्यक्तिगत धयान किसी की भी ओर नहीं दिया जा सकता ।ऐसे अवस्था में व्यक्तित्व के विकास का प्रश्न ही नहीं उठता ।कठोर अनुशासन के कारण व्यक्ति की क्षमताएं मर जाती है ।व्यैक्तिक स्वाधीनता का संयुक्त परिवार में कोई स्थान नहीं है ।
- अप्राकृतिक – संयुक्त परिवार अप्राकृतिक प्रतीत होते हैं, क्योंकि जो प्रेम बच्चे के प्रति माता और पिता का है वह दूसरों का नहीं हो सकता ।परन्तु संयुक्त परिवार में सदस्यों को इस बात के लिए परिस्थितियां विवश करती हैं ।वे अपने बच्चों की देख-रेख नहीं कर पाते ।पति और पत्नी केवल मैथुन करने भर के साथी रह जाते हैं ।
संयुक्त परिवार के उपरोक्त दोषों के अतिरिक्त अन्य कारण भी हैं जो इसे विघटित कर रहे हैं ।अब हम उन कारकों पर प्रकाश डालेंगे ।
नगरों में संयुक्त परिवार को विघटित करने वाले कारक
- वर्तमान आर्थिक व्यवस्था – संयुक्त परिवार को विघटित करने वाले कारकों में वर्त्तमान आर्थिक व्यवस्था महत्वूपर्ण है ।औद्योगिकक्रांति से आर्थिक उत्पादन की प्रक्रिया में मौलिक परिवर्तन हो गए हैं ।एक कृषि-प्रधान देश के स्थान पर नवीन औद्योगिकदेश का निर्माण हो रहा है ।हजारों किसान प्रात: काल, बैल तथा हल के साथ अपने संयुक्त परिवार से गावों से बहुत दूर खेतों की ओर न जाकर मिल की सीटी की ध्वनि पर बड़े-बड़े नगरों में अपने गावों से बहुत दूर मशीनों पर कार्य करने जाते हैं ।ग्राम उजड़ रहे हैं तथा नवीन विशाल नगर बस रहे हैं ।लोग अधिकाधिक अपने संयुक्त परिवारों को छोड़ कर अपने जीविकोपार्जन के स्थान पर जा रहे हैं ।परिवार उत्पादक की इकाई नहीं रह गया है ।व्यक्ति अपनी जीविका परिवार से दूर रहकर भी कमा सकता है ।कहने का तात्पर्य यह है कि वर्तमान नवीन आर्थिक व्यवस्था ने व्यक्ति को आर्थिक स्वालम्बन प्रदान किया है ।इसके फलस्वरूप संयुक्त परिवार विघटित होते जा रहे हैं ।
- पाश्चात्य सभ्यता का संघात – संयुक्त परिवार को विघटित करने का दूसरा कारक पाश्चात्य सभ्यता का संघात है ।नवीन विचारधारा देश में प्रचलित होती जा रही है ।पूर्व और पश्चिम में एक मौलिक मतभेद है ।पश्चिम के मनुष्य के अधिकारों पर अधिक बल दिया जाता है, पूर्व में कर्तव्यों पर ।पश्चिमी का सारा प्रयत्न इसी दिशा में है कि व्यक्तियों के स्वत्वों को सुरक्षित बनाया जाय ।पूर्वी सभ्यताएं इस बात पर जोर देते हुए नहीं थकती कि प्रत्येक मनुष्य को अपने दायित्व को पूर्ण करना चाहिए ।नवीन विचारधारा का प्रभाव हो रहा है ।आर्थिक क्षेत्र में पूंजीवाद, दार्शनिक क्षेत्र में सहिष्णुतावाद तथा सामाजिक एवं राजनितिक व्यवस्थाओं में समानता का सिद्धांत प्रचलित हो रहा है ।व्यक्ति का महत्त्व बढ़ रहा है ।इन प्रवृतियों स्वतंत्रता, सामाजिक स्वतंत्रता, आर्थिक स्वतंत्रता, पारिवारिक स्वतंत्रता तथा राजनैतिक स्वतंत्रता के आदर्श विकसित हो गये हैं ।समष्टिवाद का बोलबाला है ।इन परिवर्तनों के कारण संयुक्त परिवार की आधारभूत शिलाएं नष्ट होती जा रही है ।
- पाश्चात्य शिक्षा – पाश्चात्य शिक्षा भी संयुक्त परिवार को विघटित कर रही है ।इस शिक्षा के द्वारा नवीन विचार युवकों को प्राप्त होते हैं तथा इसका प्रभाव सामाजिक व्यवस्था पर पड़ता है ।
- स्त्री शिक्षा- स्त्री-शिक्षा के भी संयुक्त परिवार को विघटित कर रही है ।अधिकांश शिक्षित स्त्रियाँ संयुक्त परिवार में नहीं रहना चाहती ।आज की शिक्षित स्त्रियाँ परिवार के अस्वाभाविक जीवन को भय से देखती हैं ।स्त्री-शिक्षा भी बढ़ती जा रही है ।
- अंग्रेजों द्वारा हिन्दू कानून का प्रयोग – अंग्रेजी न्यायालयों द्वारा हिन्दू कानून को विज्ञानेश्वर तथा जीमूतवाहन के आधार पर मान लिया गया ।इन दोनों शास्त्रकारों ने संयुक्त परिवार प्रथा को स्वीकार किया है ।अंग्रेजी न्यायालय हिन्दुओं के पारिवारिक संगठन तथा संस्कृत भाषा से परिचित नहीं थे ।इसका फल यह हुआ है कि हिन्दू कानून का उद्विकास वहीँ पर रुक गया ।इन दोनों कानूनों विशेषज्ञों की व्याख्या स्वीकार करने के कारण दो विचारधाराओं का जन्म हुआ, द्यानाग तथा मिताक्षरा ।नन्दा पंडित, नीलकंठ तथा वालभटट के लेखों पर कोई भी धयान नहीं दिया गया ।परिणामस्वरूप हिन्दू कानून का विकास एवं गतिशीलता समाप्त हो गयी ।इसके अतिरिक्त अंग्रेजी कानून के न्याय के सिद्धांत को हिन्दू समाज पर लागू किया ।इसके कारण संयुक्त परिवार विघटित होता गया ।
- नवीन अधिनियमों का प्रभाव – ब्रिटिश शासन ने नये-नये अधिनियम पारित किये जो संयुक्त परिवार की प्रवृति के विरुद्ध थे ।ब्रिटिश न्यायालय भी इस प्रकार के निर्णय देते थे ।जिसके कारण संयुक्त परिवार को क्षति पहुंचती थी ।डॉक्टर राधाकमल मुखर्जी ने उचित ही लिखा है : “इस प्रकार संयुक्त परिवार एक बहुत महत्वपूर्ण विसेषता खो रहा है ।संयुक्त परिवार वर्त्तमान समय में न्यायालयों द्वारा प्रोत्साहित की जाने वाली व्यष्टिवादी प्रवृतियों का शिकार बन रहा है ।” संयुक्त परिवार में स्त्रियों को सम्पत्ति का अधिकार देकर और भी अधिक संयुक्त परिवार का विघटन किया जा रहा है ।आधुनिक अन्य विधान भी संयुक्त परिवार को विघटित कर रहे हैं ।डॉक्टर कपाडिया ने उचित ही लिखा है “वे (अधिनियम) न्यायालयों द्वार मौलिकता प्राप्त किये हुए विघटन के कार्य को आगे बढ़ाते हैं ।
- नवीन सामाजिक सुरक्षाएं – वर्त्तमान समय में अनेक सामाजिक सुरक्षाओं की व्यवस्था की जा रही है ।प्राय: हर विभाग में ही अनिवार्य बीमा, प्रोविडेंट फंड, बोनस योजना इत्यादि का प्रबन्ध हो रहा है ।पेंशन भी इसी प्रकार की व्यवस्था है ।विभिन्न प्रकार के श्रमिकों के लिए जो भी कल्याण योजनाएं लागू की जा रही है ।वे सभी इनके अंतर्गत आ जाती है ।ये समस्त सामाजिक सुरक्षाएं परिवार की जड़ों को खोखला कर रही है ।
डॉ कपाडिया तथा डॉ देसाई दोनों ने ही यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि संयुक्त परिवार अभी भी प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं तथा एकांकी परिवार की पवृति अधिक नहीं है ।डॉ कपाडिया ने लिखा है , “इस प्रकार आज भी हिन्दू भावनाएं संयुक्त परिवार के पक्ष में हैं।” इन विद्वान समाजशास्त्रियों ने निष्कर्ष की प्रवृति से मेरा विनम्र मतभेद है ।” जहां तक डॉ देसाई द्वारा संयुक्त परिवार की परिभाषा का आधार परम्प्रात्मक लक्षणों के स्थान पर नवीन लक्षणों का है, वह एक सराहनीय तथ्य है ।उन्होंने इस पक्ष पर बल देकर संयुक्त परिवार के वास्तविक स्वरुप को स्पस्ट कर दिया है ।वास्तव में केवल परिवारों के पृथक रहने या भोजन करने इत्यादि से ही उन्हें एकांकी परिवार नहीं समझ लेना चाहिए ।इस पर भी यह निश्चित है कि संयुक्त परिवारों की संख्या में दिन-प्रतिदिन हास्र होता जा रहा है तथा एकांकी परिवारों की संख्या में वृधि होती जा रही है ।यह कहना उचित नहीं होगा होता कि एकांकी परिवारों की संख्या में वृधि हैं ।अन्यत्र इन दोनों ही लेखकों ने अप्रत्यक्ष रूप से इस तथ्य को स्वीकार किया है ।भारत के जनगणना आयुक्त के अनुसार एकांकी परिवार ग्रामों में 33 प्रतिशत तथा नगरों में 38 प्रतिशत पाये जाते हैं ।डॉ देसाई द्वारा निर्मित कठोर कसौटियों पर चढ़ने के उपरान्त उनके अध्ययन में 28 प्रतिशत परिवार एकांकी पाये गये ।भविष्य की गति इंगित करने के लिए परम्परा से इतना अंतर पर्याप्त है ।इसके लिए तथ्यों के होते हुए तर्क की आवश्यकता नहीं है ।डॉ कपाडिया ने भी लिखा है, “इन दोनों अन्वेषणों के परिणाम यह स्पष्ट करते हैं कि पिछले 20 वर्षों में स्न्तातकों का संयुक्त परिवार में रहना लगभग 5 प्रतिशत कम हो गया है ।परन्तु संयुक्त परिवार में रहने की इच्छा अत्यधिक बढ़ गयी है ।जो संयुक्त परिवार में रहना चाहते हैं उनकी संख्य दुगुनी हो गयी है तथा इसके विरोधियों की आधी रह गयी है ।
“परिवार की तुलना समाजशास्त्रिय अध्ययन” का अर्थ है कि परिवार का विभिन्न संस्कृतियों, समुदायों, क्षेत्रों आदि में पाये जाने वाले प्रतिमानों की तुलना की जाये ।यह बहुत ही अधिक व्यापक विषय एवं कार्य है ।
यहां हम ग्रामीण परिवार और नगरीय परिवार की तुलना करेंगे ।ग्रामीण परिवार परम्परात्मक परिवार होते हैं और नगरीय परिवार आधुनिक परिवार होते हैं ।अत: परम्परात्कम परिवार और आधुनिक परिवार की तुलना भी इससे स्पष्ट हो जायेगी ।
ग्रामीण परिवार और नगरिय परिवार की तुलना :
संचार सम्बन्धी :
(i) स्थायित्व : ग्रामीण परिवार की संरचना अधिक स्थायी एवं संगठित होती है, परन्तु तुलनात्मक दृष्टि से नगरीय परिवार की संरचना उतनी स्थायी एवं संगठित नहीं होती हैं ।अस्थायित्व नगरीयवाद का अभिशाप है ।
(ii) आकार – ग्रामीण परिवारों का आकार नगरीय परिवारों की तुलना में बड़ा होता है ।ग्रामों में कृषि के व्यवसाय के कारण बढ़े परिवार की आवश्यकता भी रहती है ।नगरीय परिवार का आकार लघू होता है और प्राय: यह मूल परिवार ही होती है, जिसमें पति, पत्नी और उनके बच्चे होते हैं ।जन्मदर भी ग्रामीण परिवारों की अधिक होती है, नगरीय परिवार के व्यक्ति अधिक बच्चे पसंद भी नहीं करते हैं ।
(iii) स्वरुप – ग्रामीण परिवार अभी अधिकांशत: विस्तृत परिवार अथवा संयुक्त परिवार होते हैं ।नगरीय परिवर अधिकांशत: एकांकी परिवार होते हैं ।
(iv) सामंजस्य – ग्रामीण परिवारों में अत्यधिक सामंजस्य पाया जाता है तथा पारिवारिक बन्धन अत्यंत शक्तिशाली होते हैं ।नगरीय परिवार में अपेक्षाकृत अति न्यून सामंजस्य पाया जाता है ।सदस्य अपनी खिचड़ी पकाते हैं ।
(v) मुखिया की सत्ता – ग्रामीण परिवार के मुखिया की सत्ता अपरिमित होती है ।वह ग्रामीण परिवारों का एकमात्र शासक होता है ।नगरीय परिवारों में मुखिया की सत्ता अधिक नहीं होती, कई बार तो बिल्कुल ही नहीं होती है ।
(vi) सामान्य जीवन – ग्रामीण परिवार में सामान्य जीवन की प्रमुखता पायी जाती है ।माता-पिता, बच्चे तथा अन्य संबंधी अधिकतर साथ-साथ कार्य करते हैं ।उनमें अत्यधिक सहयोग की भावना पायी जाती है ।नगरीय परिवारों में मान्य पारिवारिक जीवन का अभाव पाया जाता है ।परिवार के सदस्य अधिकांश समय घर के बाहर बीतते हैं तथा बहुत कम समय के लिए साथ-साथ रहते हैं ।डॉक्टर देसाई ने उचित ही लिखा है. “अत: नगरीय परिवार के सदस्यों के लिए घर केवल एक अस्थायी रात्रि का डेरा मात्र रह जाता है ।”
(vii) पारिवारिक महत्त्व – ग्रामीण परिवार एक अत्यंत महत्वपूर्ण संस्था है तथा उसे ग्रामीण समाज का मूल आधार कहा जा सकता है ।नगरीय परिवार इतना महत्वपूर्ण नहीं है ।उसके सदस्य परिवार को त्याग कर भी सरलता से आन्दमय जीवनयापन कर सकते हैं ।
(viii) अन्योन्याश्रितता – ग्रामीण परिवारों में सदस्य एक दुसरे पर अत्यधिक मात्रा में अन्योन्याश्रित होते हैं ।वे एक-दुसरे के सहयोग के बिना जीवन नहीं चला सकते ।नगरीय परिवार में इतनी अधिक अन्योन्याश्रितता नहीं पायी जाती है ।नगरीय परिवार के सदस्य अधिक स्वतंत्र होते हैं ।
(ix) अनुशासन – ग्रामीण परिवार के सदस्य अधिक अनुशासित होते हैं ।वे परिवार के मुखिया एवं अन्य प्रमुख सदस्यों का अत्यधिक आदर करते हैं तथा उनकी आज्ञा का पालन करते हैं ।नगरीय परिवार के सदस्य अपेक्षाकृत कम अनुशासित होते हैं ।वे परिवार के मुखिया को अधिक महत्त्व नहीं देते तथा अपने स्वतंत्र विचार रखते हैं एवं स्वतंत्र रूप से कार्य करते हैं ।
(x) सामाजिक नियंत्रण – ग्रामीण परिवार अपने सदस्यों पर अत्याधिक सामाजिक नियंत्रण रखते हैं ।छोटा समुदाय होने के कारण कोई भी बात छिपी नहीं रह सकती ।इसके कारण परिवार का नियंत्रण अधिक रहता है ।नगरीय परिवार सामाजिक नियंत्रण की दृष्टि से पूर्णरूपेण असफल रहा है ।
(xi) सामाजिक संरचना में परिवार का महत्त्व – ग्रामीण परिवार का सामाजिक संरचना में अत्यधिक महत्त्व है ।ग्रामीण सामाजिक संरचना में परिवार ने सदैव ही महत्वपूर्ण स्थान रखा है ।ग्रामीण समाजिक संरचना ग्रामीण परिवार का सत्य प्रतिरूप है ।सिम्स ने लिखा है, “निश्चय ही यह (ग्रामीण परिवार) उसकी (ग्रामीण सामाजिक संरचना) सदैव से ही प्रमुख संस्था रही है, जो व्यक्ति को स्थिति प्रदान करती रही है तथा सामाजिक संरचना पर छाया रहता है और उसकी छाप हर संस्था पर स्पष्ट लक्षित होती है ।ग्रामीण समाज को ही परिवारात्मक समाज कहा गया है । नगरीय परिवार का महत्त्व समाजिक संरचना में उतना अधिक नहीं है ।नगरीय परिवार नगरीय सामाजिक संरचना की एक साधारण संस्था है ।नगरीय परिवार का अधिक प्रभाव नगरीय सामजिक संरचना पर नहीं पड़ता है ।
कार्य – ग्रामीण एवं नगरीय परिवारों के कार्यों में भी बहुत से अंतर हैं जो प्रमुख रूप से निम्न हैं :
(i) प्रानिशास्त्रीय कार्य - प्रानिशास्त्रीय कार्य निम्न हैं –
(अ) संतानोत्पत्ति, (ब) यौन-सम्बन्धों की संतुष्टि, (स) बच्चों का पालन-पोषण, (द) स्थान की व्यवस्था (य) भोजन एवं वस्त्र की व्यवस्था और (र) सदस्यों की शारीरिक रक्षा ।(अ) से लेकर (य) तक के कार्य तो ग्रामीण एवं नगरीय दोनों ही करते हैं कहीं-कहीं अंशों का अंतर है ।
सदस्यों की शारीरिक रक्षा का कार्य ग्रामीण परिवार को विशेष को विशेष रूप से करना पड़ता है और यह उसका विशेष उत्तरदायित्व एवं कर्त्तव्य समझा जाता है ।ग्रामों में शक्तिशाली परिवार के आधार पर ही शरीर की रक्षा की जा सकती है ।
(ii) आर्थिक कार्य – ग्रामीण परिवार अभी भी आर्थिक क्रियाओं के केंद्र है ।ग्रामीण परिवार का कार्य उत्पादन करना, वस्तुओं को बिक्री के योग्य बनाना, उनका विक्रय करना आदि सभी हैं ।नगरीय परिवार आर्थिक क्रियाओं का केंद्र नहीं रहा है वह तो केवल उपभोग का केंद्र रह गया है ।
(iii) सामाजिक कार्य :
(अ) सामाजिक स्थिति का निर्धारण – ग्रामीण परिवार अपने सदस्यों की समाजिक स्थिति निर्धारण करता है ।ग्रामीण समाज में व्यक्ति की सामाजिकता स्थिति के निर्धारण में परिवार का आधार सबे प्रमुख है ।चुनावों एवं राजनितिक व सामाजिक नेतृत्व में भी पिरवार का आधार बहुत महत्वपूर्ण रहता है ।नगरीय परिवार का महत्त्व सामाजिक स्थिति के निर्धारण में अब उतना नहीं है ।व्यक्ति अपनी सामाजिक स्थिति अर्जित करता है ।नगरों में व्यक्ति के गुणों एवं कार्यों का महत्व है न कि उसके परिवार का ।
(आ) सामाजिक नियंत्रण : ग्रामीण परिवार नगरीय परिवार की तुलना में सामाजिक नियंत्रण की दृष्टि से अधिक महत्वूपर्ण है ।
(इ) धार्मिक कार्य : धार्मिक कार्यों का प्रतिपादन ग्रामीण परिवारों में अधिक होता है ।नगरीय परिवार धार्मिक कार्यों के प्रति उदासीन हैं ।
http://hi.vikaspedia.in/health/nrhm/92891793094092f-93892e93e91c-915940-93894d93593e93894d92594d92f-93892e93894d92f93e90f902
Nice
ReplyDeleteV Good I like it lot of thanks for this👍🙏🙏
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