युवा कौन है...युवा किसे कहें...युवा कहलाने की कसौटी और पहचान क्या है ? सिर्फ उम्र, नवीनतम फैशन, होश रहित जोश, अपनी ध्वंशात्मक शक्ति का तूफानी उबाल या वर्तमान की विद्रूपताओं को चुनौती देकर नया भविष्य गढ़ने का संकल्प...? आदर्शों के लिए मृत्यु तक का वरण करने की तैयारी, हमारे नवयुवक 21 वीं सदी के भारत को स्वर्ग बनाना चाहते हैं.. या यह कहना कि हमारी युवा पीढ़ी नालायक है, कुछ नहीं कर सकती, दोनों में सच क्या है ? युवा पीढ़ी कोई स्वप्न नहीं, वास्तविकता है। उसके सामने खड़ी समस्या भी कोई स्वप्न नहीं बल्कि एक कचोटती हुई चुनौती है।
आप रोज नवजवानों को कालेज जाते, काम ढूंढते, काम पर जाते, भीख मांगते, चोरी करते, मारामारी और दादागिरी करते देखते हैं...क्या आप सचमुच उसे ऐसा करते देखते हैं ? आपने उन्हें मुट्ठी भर अनाज के लिए दिन भर खेतों में मजदूरी करते देखा है ? हां कहना आसान है, मगर सच्चाई कुछ और है..?
जनगणना के समय 18 वर्ष का हो जाने पर मतदान का हक प्राप्त करने पर उन्हें युवा कहेंगे या जीन्स और टी शर्ट पहनकर विचरण करने वाले, कैम्पस में नशीली दवाओं का प्रदूषण फैलाने वाले युवा कहलाने के हकदार हैं ? हजारों की संख्या में रचनात्मक कार्य का किसी प्रेरणादायी व्याख्यान को सुनने के लिए उमड़ते हुए लोगों की हम बात कर रहे हैं...अथवा उन युवकों की बात कर रहे हैं जो आंखों में स्वप्न और ओठों पर संकल्प करते हैं..? एक अमेरिकी हिप्पी चरस का कश लेते हुए बताता है-''...जब मैं छोटा था तब झार में मेरे पापा मुझसे कहते थे कि अगर किसी का फोन आये तो कह देना कि मैं घर में नहीं हूं.. दिन भर झूठ बुलवाते थे और रात में कहते थे कि अच्छे बच्चे हमेशा सच बोला करते हैं, तुम भी कभी झूठ मत बोलना'' अब बताइये मैं क्या करता ? इस अमेरीकी युवक की बातों ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया। आखिर हम अपनी युवा पीढ़ी के समक्ष क्या आदर्श प्रस्तुत करते हैं ? उन्हें हम जो कहते हैं और जो करते हैं, उसमें कहीं फर्क तो नहीं है..?
एक बार रूस के प्रसिद्ध दार्शनिक गुर्जिफ अपने कुछ शिष्यों के साथ टिकलिस नामक शहर में गये। उनके शिष्यों को वहां यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि पूरा शहर नींद में डुबा हुआ है। व्यापारी नींद में व्यापार कर रहे हैं, ग्राहक नींद में खरीददारी कर रहे हैं। एक शिष्य ने अपने गुरू से पूछा-'कमाल है, ये सब नींद में है। मगर एक बात मुझे समझ में नहीं आती कि जब मैं तीन माह पूर्व यहां आया था तब ऐसा कुछ नहीं था।' गुर्जिफ ने कहा-'उस वक्त तुम नींद में थे, आज तुम जागे हुए हो। जब तुम सो रहे थे तब ये सभी सो रहे थे जो तुम्हें जागते प्रतीत हुए। इसी प्रकार आज तुम जागे हुए हो तो तुम्हें ये सब सोते प्रतीत हो रहे हैं।' हमारा हाल ही कुछ ऐसा है कि हम नौजवानों को देखते हैं मगर उनकी संवेदनाओं को समझ नहीं पाते। हम रोजमर्रा की नींद में हैं- सुबह से शाम तक सभी काम आदत से करते हैं। रास्ते पर निकलकर अच्छे रास्ते पर चलना, अच्छे दफ्तर में ऊंचे पद पर कार्य करना, आना जाना सभी काम नींद में करते हैं।
गुजरात और असम आंदोलन :-
गुजरात में युवाओं ने भ्रष्ट्राचार आंदोलन के द्वारा तत्कालीन मुख्य मंत्री श्री चिमन भाई पटेल की सरकार का तख्ता पलट दिया था। युवा शक्ति का अंदाजा सन् 1977, 1980 और 1989 के लोकसभा चुनाव में देखने को मिला था। मार्च 1977 के लोकसभा चुनाव में जनता पार्टी की जीत उनके किसी धुरंधर नेता के करिश्मों से नहीं हुई थी बल्कि श्री जयप्रकाश नारायण के नाम पर न्योछावर हो जाने वाले नवजवानों के कारण हुई थी। सन् 1980 में ये नवजवान उनकी गतिविधियों से भलीभांति परिचित हो गये थे अत: जनता पार्टी के वही नेता चुनाव में बुरी तरह पराजित हो गये। ठीक इसी प्रकार सन् 1989 में भी हुआ था। असम में कॉलेज के कुछ विद्यार्थियों ने मिलकर असम गण परिषद बनाया और ऐसा करिश्मा कर दिखाया कि अगले चुनाव में उनकी सरकार बन गयी। इससे सिद्ध हो गया कि युवा चाहे तो कुछ भी कर सकते हैं।
जे राजनीति में होता है वही साहित्य और कला के क्षेत्र में भी होता है। एक विद्रोही नवयुवक जिन मापदंडों के लिए विद्रोह करता है उसे प्राप्त कर लेने पर उसका विद्रोह समाप्त हो जाता है। अर्नाल्ड टायनबी ने अपनी पुस्तक 'सरबाइविंब द फ्यूचर' में नवजवानों को सलाह देते हुए लिखा है कि 'मरते दम तक जवानी के जोश को कायम रखना।' अधिकांश नवयुवक पहले विद्रोह करते हैं और उम्र के साथ साथ उसका विद्रोह समाप्त होते जाता है। फिर वे स्वयं वही करने लगते हैं जिनके कभी वे खिलाफ थे। यदि आप जीवन भर अपने जोश को कायम नहीं रख सकते तो आप यह मौका खे रहे हैं। कला में, संगीत में अथवा पारिवारिक जीवन में यही सब होता है। स्वयं अपनी जिंदगी में जिन विडंबनाओं को सहते हैं, वह दूसरों को सहनी न पड़े, इस बात का सभी ध्यान नहीं रखते। हर बहू सास बनने पर बहू की तरह सोचना छोड़ देती है। इस एक मात्र खतरे का अगर युवा पीढ़ी निवारण कर सके तो भविष्य उनके हांथों संवर सकता है। युवा पीढ़ी अपने दंभ से थक गई है। यदि वह पारदर्शक बनने का संकल्प करें तो वह कुछ भी कर सकता है। युवा वर्ग से हमने कभी कभी ऐसे चमत्कार होते देखा है जिसकी हमने कल्पना तक नहीं की थी। सुकरात नवयुवकों से बातें करते थे। उनके लिए गोष्ठी आयोजित करते थे। नवयुवकों का दिमाग उपजाऊ जमीन की तरह होता है। उन्नत विचारों का बीज बो दें तो वही ऊग आता है। ऐथेंस के शासकों को सुकरात का इसलिए भय था कि वह नवयुवकों के दिमाग में अच्छे विचारों के बीज बोने की क्षमता रखता था। आज इसका सर्वथा अभाव है। इस पीढ़ी में सोचने वालों की कमी नहीं है मगर उनके दिलों दिमाग में विचारों के बीज पल्लवित कराने वाले दिनोंदिन घटते जा रहे हैं। कला, संगीत और साहित्य के क्षेत्र में भी ऐसे कितने लोग हैं जो नई प्रतिभाओं को उभारने का ईमानदारी से प्रयास करते हैं ?
हेनरी मिलर ने एक बार कहा था-'मैं जमीन से उगने वाले हर तिनके को नमन करता हूं। इसी प्रकार मुझे हर नवयुवकों में वट वृक्ष बनने की क्षमता नजर आती है। हर क्षेत्र में चाहे वह कला, संगीत और साहित्य का हो, राजनीति और विज्ञान का हो, उसमें नई प्रतिभाएं उभरती रहती हैं। विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या हम उन्हें उभरने का पूरा मौका देते हैं ?' उनकी बातों में मुझे सत्यता लगती है। हमें इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। इसी प्रकार नवयुवकों में अन्याय का सामना करने के लिए जोश और जिगर होना चाहिए। महादेवी वर्मा के शब्दों में 'बलवान राष्ट्र वही होता है जिसकी तरूणाई सबल होती है। जिसमें मृत्यु को वरण करने की क्षमता होती है, जिसमें भविष्य के सपने होते हैं और कुछ कर गुजरने का जज्बा होता है, वही तरूणाई है।' महादेवी वर्मा जब ऐसा कहती हैं तो इसका अर्थ होता है- मृत्यु को मार डालना। तरूणाई अनजानी भूमि पर जन्म लेकर विकसित होती है। उसके सामने चुनौतियां अधिक होती है मगर इन चुनौतियों का मुंहतोड़ जवाब देने का जज्बा उनमें होनी चाहिए। युवाशक्ति यदि ठान ले तो देश में बहुत बड़ा उलट फेर कर सकती है, आजादी का सदुपयोग कर सकती है, बशर्ते हम उन्हें मौका दे, उनके उपर विश्वास करें..? हमें गंभीरता से विचार करना चाहिए कि आखिर ऐसी कौन सी परिस्थितियां हैं जो इस पीढ़ी को उनके उद्देश्यों से विमुख कर देती है, उन्हें असंयमित और अनुशासनहीन बना देती है।
कुंठा, निराशा और हिंसा :-
आज हमारी शिक्षा रोजगारोन्मुखी न होकर बेरोजगारोन्मुखी होकर रह गयी है। माता-पिता अपने बच्चों को सही शिक्षा और दिशा देने में असफल रहे हैं। एक सर्वेक्षण से पता चलता है कि चालीस प्रतिशत माता-पिता ही अपने बच्चे को शिक्षा के लिए सही मार्गदर्शन दे पाते हैं शेष भगवान भरोसे चलता है। इनके बच्चे बाइचान्स अच्छी शिक्षा लेकर अच्छे पदों पर रोजगार प्राप्त करने में सफल हो जाते हैं बाकी बेलाइन हो जाते हैं। ये अपनी जिंदगी से निराश होकर चोरी, डकैती, गुंडागर्दी आदि के रास्ते निकल पड़ते हैं। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार किसी भी तरह की निराशा हिंसा को जन्म देती है। यही निराशा अवसर पाकर विस्फोटक रूप धारण कर लेती है। यह एक खतरनाक संकेत है जिसका निराकरण समय रहते करना आवश्यक है।
सर्वेक्षण से पता चलता है कि इसका सबसे बड़ा कारण है- आर्थिक विषमता। बेरोजगारी से त्रस्त नवयुवकों के लिए मौका मिलते ही किसी लूट में शामिल हो जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। टाटा इंस्टीटयूट ऑफ सोसल सांइन्सेस के अपराध विज्ञान के विभागाध्यक्ष के अनुसार नवयुवकों का किसी लूटपाट में शामिल होने का कारण नि:संदेह आर्थिक विषमता है। लेकिन पुलिस सूत्रों के अनुसार ब्रिटिश शासन काल के मंदी के दौर में ऐसी कोई घटनाएं नहीं घटती थी। तब समाज में आदर्शो के प्रति गहरा मूल्यबोध था। आज हमारे समाज में कोई मूल्य, कोई आदर्श नहीं रह गया है। मूल्यों का अंकुश समाप्त हो जाने के कारण हिंसा और लूटपाट की घटनाओं का विस्फोट स्वाभाविक है। इसके लिए आज की युवा पीढ़ी को दोष देना उचित नहीं होगा। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद ऊपरी तबके का एक ही लक्ष्य पैसा कमाना रहा है, चाहे इसके लिए उन्हें अपना ईमान बेचना क्यों न पड़े और यही आदर्श हमने अपनी युवा पीढ़ी के सामने रखा है। वस्तुत: आज की मूल्यहीन पीढ़ी हमारी बुजुर्ग पीढ़ी का उत्पाद है। अमीरी और गरीबी के बीच बढ़ती खाई का नग्न रूप आंखों को चूभता है। रही सही कसर को पूरा किया है टी. वी. ने। हिन्दी फिल्मों में प्रदर्शित सेक्स और हिंसा का ग्लैमराइजेशन युवक युवतियों के मन में वैसे ही जीवन जीने की लालसा पैदा कर देती है। इनमें बढ़ रही हिंसा और लूटपाट को उपर्युक्त सामाजिक और आर्थिक संदर्भ में देखा जा सकता है। अमीरी गरीबी के बीच बढ़ती खाई, बेरोजगारी, सामाजिक रिश्तों का अभाव, पारिवारिक विघटन, उपभोगवादी संस्कृति का प्रसार, कानून व्यवस्था के प्रति घटता सम्मान और टूटते सामाजिक राजनैतिक मूल्यों ने इन युवकों के भीतर निराशा पैदा कर दिया है जिसका एकमात्र निकासी उन्हें हिंसा और लूटपाट में मिलता है।
कर्म ही श्रेष्ठ है :-
जिस व्यक्ति ने अपना भविष्य निर्धारित कर लिया है तो उन्हें यह मानकर चलना चाहिए कि लक्ष्य के मार्ग में जो विपत्तियां आयेंगी उसका हम मुकाबला करेंगे। वह लक्ष्य ही क्या जिसकी पूर्ति में संघर्ष नहीं किया। हंसते हुए कष्टों को झेलना, विपत्तियों का स्वागत करना तथा अपने कर्म पर अडिग रहना, कर्तव्य के प्रति अटूट श्रद्धा उत्पन्न करती है। अपने निर्धारित लक्ष्य की सफलता के लिए कर्म ही श्रेष्ठ है। भाग्यवादी लोग आलसी होते हैं और भगवान भरोसे जीवन व्यतीत करते हैं। कर्मशील व्यक्ति भाग्य के बजाय अपने कर्म में विश्वास रखता है।
रोजगारोन्मुखी शिक्षा :-
शिक्षा के द्वारा हम न केवल अतीत के पृष्ठों को ही नहीं उलटते बल्कि उनकी अच्छाईयों करके स्वस्थ्य, सुंदर और सुखद भविष्य के निर्माण करते हैं। राष्ट्रीय विकास के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए शिक्षा के माध्यम से योजनाबद्ध सामाजिक परिवर्तन लाया जा सकता है। आज हमारी शिक्षा का माध्यम यह होना चाहिए कि हम आत्मनिर्भर बन सके। सरकार और अभिभावकों को अब समझ में आ गया कि शिक्षा को रोजगार परक होना चाहिए। इसके लिए वे अपने बच्चों को इसके लिए प्रेरित भी करने लगे हैं। शिक्षा को वास्तविक जीवन और उत्पादकता के साथ जोड़ना नितांत आवश्यक है। इसके लिए कार्य अनुभव को शिक्षा का आवश्यक अंग बनाना जरूरी है। शिक्षा को व्यवसायिक रूप देने का अर्थ है युवा पीढ़ी में ज्ञान, कौशल और अभिरूचि का पूर्ण विकास होना चाहिए जिससे आगे चलकर ये जो भी व्यवस्था अपनायें उसमें उनकी शिक्षा का समुचित उपयोग हो सके। कुछ लोगों का मत है कि सामान्य शिक्षा प्राप्त व्यक्ति की तुलना में व्यवसाय से जुड़े व्यक्ति केवल व्यवसायिक होकर रह जाते हैं।
उचित मार्गदर्शन :-
उचित मार्गदर्शन के अभाव में आज की युवा पीढ़ी अपने मार्ग से भटक जाती है और कुंठाग्रस्त होकर जहां घातक आत्मवंचना एवं स्वयं के प्रति उदासीनता लिए दिग्भ्रमित हो रहा है, वहीं आज का शिक्षक और अभिभावक सामान्यतया उस आत्म केंद्रित, आत्मचिंतक तथा स्वकल्याण मग्न मनु जैसा हो गया है जो अपने ही प्रज्ञा से प्रसूत संतति के प्रति उदासीन है। अपने ही मानस पुत्रों के प्रति उसके इसके दुर्भाग्यपूर्ण कृत्य का परिणाम है-संपूर्ण दिग्भ्रमित, अनुत्तरदायी और अनुशासनहीन पीढ़ी। इस पर ध्यान दिया जाना अति आवश्यक है।
विश्वास को जगायें :-
मनुष्य के मन में दो शक्तियां निवास करती हैं-भय और विश्वास। ये दोनों शक्तियां मनुष्य की विचारधारा पर नियंत्रण पाने के लिए निरंतर एक दूसरे से संघर्ष करती है। आप जो भी निर्णय लेंगे उसे पूरा करने की क्षमता आप में निहित है। किंतु इसके लिए दृढ़ विश्वास और सतत् प्रयास करते रहना आवश्यक है। ऐसा कतई नहीं है कि ज्ञान का भंडार विश्व का महान कहलाने वाले व्यक्तियों के पास ही है, आप में भी ज्ञान के स्रोत हैं बशर्ते आप उसका दोहन करना जानते हों ? विश्वास में महान शक्ति निहित होती है। विश्वास शरीर की ऊर्जा को मुक्त कर देती है जिससे निर्णय लेने की शक्ति मिलती है। विद्वानों ने कहा भी है कि आत्महीनता विचारों का तराना है। उसके माधुर्य को आप अस्वीकार कर दीजिए। दर्पण के सामने खड़े होकर अपने स्वाभिमान को जगाइये, स्वयं को चुनौती दीजिए। सफलता या असफलता एक मानसिक स्थिति है इसे स्वीकार करना या न करना पूरी तरह आपके वश में है। आपका व्यक्तित्व एक दर्पण है। उसमें आप जितना झांकेंगे उतना ही वह आकर्षक बनेगा और दर्पण को आप जितना साफ करेंगे उतना ही वह चमकेगा, उसमें आपकी छवि उतनी ही स्पष्ट दिखाई देगी।
बदलता जीवन शैली और युवा :-
युवाओं की स्थिति आज कटी पतंग जैसी अथवा पुराण के त्रिशंकु जैसी अनिश्चित हो गयी है। जीवन के मूल्य तेजी से बदल रहे हैं। बल्कि यूं कहिए कि प्राचीन मूल्य नष्ट हो रहे हैं और नवीन मूल्यों का निर्माण नहीं हो पा रहा है। परिवर्तन की इस आपाधापी में हमारी युवा पीढ़ी प्राय: भ्रमित होती दिखाई देती है। हमारे उदीयमान नागरिक उचित अनुचित को पहचानने में अपने को असमर्थ पा रहे हैं। मूल्यों की इस अव्यवस्था में समाज और संस्कृति का विघटन होने लगा है। समाज में पलायन और बेगानेपन के स्वर गूंजने लगे हैं और मानव सभ्यता के सामने एक प्रश्न चिन्ह लग गया है।
आज युवा पीढ़ी दिग्भ्रमित है। हिंसक प्रवृत्तियाँ बलवती होती जा रही हैं। प्रत्येक क्षेत्र में असंतोष, अशांति, विध्वंस और विघटन की प्रवृत्तियां हावी हैं। ऐसे में हमें अपनी युवा पीढ़ी के प्रति उदारता दिखाते हुए उन्हें सहयोग करना चाहिए तभी एक नया सबेरा हो पायेगा।
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मनुज-समाज की यात्रा, क्षितिज की यात्रा से कम नहीं होती; जो कभी समाप्त नहीं होती । प्रत्येक आनेवाली पीढ़ी, अतीत और वर्तमान की कड़ी होती है , अगर हम इस बात को मान लें, तो युवावर्ग की भाषा को समझना आसान हो जायगा ; अन्यथा यह विकट है । आज के युवावर्ग ,अपनी विरासत से विचार –दर्शन बहुत कम ही पाते हैं, कारण माँ-बाप, दोनों का कामकाजी होना और एकल परिवार का होना । दोनों ही कारण ,बच्चों को एकांकी और चिड़चिड़ा बना दे रहा है । आखिर विचार-दर्शन उन्हें कौन करायेगा, जिसके बिना आज का युवावर्ग चौराहे पर खड़ा है,वे जायें तो किधर जायें । अपनी जीवन-गति का निर्माण करें, तो किस प्रकार करें ; कौन बतायेगा । ऐसे में तिराहों पर युवावर्ग का स्तम्भित होना स्वाभाविक है, लेकिन इस भटकाव को हम स्वाभाविक नहीं कह सकते ।
देश की आजादी के 66 साल बीत जाने के बावजूद देश की जितनी उन्नति होनी चाहिये थी, नहीं हो सकी । अन्यान्य कारणों के अलावा, न्वयुवकों का बेरोजगार होना तथा सही दिशा- निर्देश से वंचित रहना, मुख्य कारण है । उनमें धर्य नहीं है, वे चिंतित जीया करते हैं। अधिकतर जहाँ-तहाँ बैठकर गप्पेबाजी कर समय काटते हैं; वक्त की पाबंदी और अनुशासन का अभाव है । वे हमेशा तनाव की जिंदगी जीते हैं । धैर्य और सहनशीलता के घटते जाने का कारण, टेलीवीजन भी कम नहीं है; जो आज घर-घर की आवश्यकता के साथ-साथ बच्चों के जीवन विनाश का माध्यम बन गई है । बच्चे स्वीच आन करने के साथ ही, मार-धाड़, गोलियाँ बरसाना, खून करना, इससे भी बदतर है , गंदे-गंदे दृश्यों को दिखाना । ज्यादातर परिवार में सिर्फ़ माँ-बाप और बच्चे होते हैं । माँ-बाप का कामकाजी होने से बच्चों को रोकने-टोकने वाला नहीं होता है । वे दिन भर टी० वी० के आगे बैठकर, उन्हीं गंदे दृश्यों और मार-धाड़ देखते रहते हैं, जिससे उनकी मनोवृति अनुशासानहीन हो जाती है । नतीजा छोटी-छोटी बातों पर आक्रामक और हिंसक हो जाते हैं , जो उनके लिए हानिकारक तो है ही,परिवार के लिये भी बुरा होता है ।
सरकारी महकमें भी इन युवाओं को भटकाने का काम कम नहीं कर रहे हैं । पुलिस का असामाजिक तत्वों के प्रति नरम रवैया, पीड़ितों की उपेक्षा व रिश्वत्खोरी की लत की वजह से समाज में अपराध बढ़ते जा रहे हैं । पुलिस की लापरवाही व मनमाने व्यवहार से सुरक्षा का भरोसा समाप्त होता जा रहा है । पहले तो अपराधी पकड़े नहीं जाते, अगर कभी पकड़े गये, तो रिश्वत देकर छूट जाते हैं ।
बेगुनाहों को पकड़कर जेल भेज देना, उनके साथ मारपीट करना,कभी-कभी तो थाने में मारते-मारते मार देना है । इन सब कारणों से युवावर्ग अपने को असहाय महसूस करते हैं, जिससे गुस्सा और बदले की भावना उत्पन्न हो जाती है और वे संयम खो बैठते हैं ।
सरकार की ओर से धर्म व जाति के नाम पर आरक्षण ,तो आग में घी डालने का काम कर रहा है । नेता युवाओं का इस्तेमाल, प्रदर्शन,रैली व हड़ताल जैसे कामों के लिए करते हैं । इससे युवा क्या सीखेंगे ? इस तरह युवाओं की उर्जा गलत जगह प्रयोग कर, ये नेतागण,अपनी पार्टी के वोटों के लिए, इनकी जिंदगी से खिलवाड़ करते हैं । इससे इनके स्वभाव से धैर्य व नैतिकता गायब होने लगा है । माँ-बाप के पास समय नहीं होता ; आया या पड़ोसी जैसा सिखाते हैं, बड़े होकर वे उस प्रवृति के हो जाते हैं । इनमें इनका कसूर नहीं, कसूर है---माँ-बाप,समाज और सरकार का,जो इन्हें अच्छी राह दिखा नहीं पा रहे हैं, बल्कि दिन व दिन इन्हें गहरी खाई की ओर धकेल रहे हैं । ये भूल रहे हैं,जब-तक युवा नहीं जागेगा, देश नहीं जागेगा ।
यौवन जिंदगी का सर्वाधिक मादक अवस्था होता है । इस अवस्था को भोग रहा युवक वर्ग ,केवल देश की शक्ति ही नहीं, बल्कि वहाँ की सांस्कृतिक आत्मा का प्रतीक भी होता है । अगर हम यह मानते हैं कि, यह संसार एक उद्यान है, तो ये नौजवान इस उद्यान की सुगंध हैं । युवा वर्ग किसी भी काल या देश का आईना होता है जिसमें हमें उस युग का भूत, वर्तमान और भविष्य , साफ़ दिखाई पड़ता है । इनमें इतना जोश रहता है कि ये किसी भी चुनौती को स्वीकारने के लिये तैयार रहते हैं । चाहे वह कुर्बानी ही क्यों न हो, नवयुवक अतीत का गौरव और भविष्य का कर्णधार होता है और इसी में यौवन की सच्ची सार्थकता भी है ।
हमारे दूसरे वर्ग, बूढ़े- बुजुर्ग जिनके बनाये ढ़ाँचे पर यह समाज खड़ा रहता आया है; उनका कर्त्तव्य बनता है कि इन नव युवकों के प्रति अपने हृदय में स्नेह और आदर की भावना रखें, साथ ही बर्जना भी । ऐसा नहीं होने पर, अच्छे-बुरे की पहचान उन्हें कैसे होगी ? आग मत छूओ, जल जावोगे; नहीं बताने से वे कैसे जानेंगे कि आग से क्या होता है ? माता-पिता को या समाज के बड़े-बुजुर्गों को भी, नव वर्ग के बताये रास्ते अगर सुगम हों, तो उन्हें झटपट स्वीकार कर उन रास्तों पर चलने की कोशिश करनी चाहिये ।
ऐसे आज 21वीं सदी की युवा शक्ति की सोच में,और पिछले सदियों के युवकों की सोच में जमीं-आसमां का फ़र्क आया है । आज के नव युवक , वे ढ़ेर सारी सुख-सुविधाओं के बीच जीवन व्यतीत करने की होड़ में अपने सांस्कृतिक तथा पारिवारिक मूल्यों और आंतरिक शांति को दावँ पर लगा रहे हैं । सफ़लता पाने की अंधी दौड़, जीवन शैली को इस कदर अस्त-व्यस्त और विकृत कर दिया है कि आधुनिकता के नाम पर पश्चिमी सभ्यता का अनुसरण ,उनके जीवन को बर्वाद कर दे रहा है । उनकी सहनशीलता खत्म होती जा रही है । युवकों के संयमहीन व्यवहार के लिए हमारे आज के नेता भी दोषी हैं । आरक्षण तथा धर्म-जाति के नाम पर इनका इस्तेमाल कर, इनकी भावनाओं को अपने उग्र भाषणों से भड़काते हैं और युवाओं की ऊर्जा का गलत प्रयोग कर अपने स्वार्थ की पूर्ति करते है ;जिसके फ़लस्वरूप आज युवा वर्ग भटक रहा है । धैर्य, नैतिकता, आदर्श जैसे शब्द उनसे दूर होते जा रहे हैं । पथभ्रष्ट और दिशाहीन युवक, एक स्वस्थ देश के लिए चिंता का विषय है । आज टेलीवीजन , जो घर-घर में पौ फ़टते ही अपराधी जगत का समाचार, लूट, व्यभिचार, चोरी का समाचार लेकर उपस्थित हो जाता है,या फ़िर गंदे अश्लील गानों को बजने छोड़ देता है । कोई अच्छा समाचार शायद ही देखने मिलता है । ये टेलीवीजन चैनल भी युवा वर्ग को भटकाने में अहम रोल निभा रहे हैं । दूसरी ओर इनकी इस दयनीय मनोवृति के लिये उनके माता-पिता व अभिभावक भी कम दोषी नहीं हैं । वे बच्चों की मानसिक क्षमता का आंकलन किये बिना उन्हें आई० ए० एस०, पी०सी० एस०, डाक्टर, वकील, ईंजीनियर आदि बनाने की चाह पाल बैठते हैं और जब बच्चों द्वारा उनकी यह चाहत पूरी नहीं होती है, तब उन्हें कोसने लगते हैं । जिससे बच्चों का मनोबल गिर जाता है । वे घर में तो चुपचाप होकर उनके गुस्से को बरदास्त कर लेते हैं; कोई वाद-विवाद में नहीं जाते हैं, यह सोचकर,कि माता-पिता को भविष्य के लिये और अधिक नाराज करना ठीक नहीं होगा । लेकिन ये युवक जब घर से बाहर निकलते हैं, तब बात-बात में अपने मित्रों, पास-पड़ोसी से झगड़ जाते हैं । इसलिये भलाई इसी में है कि बच्चों की मानसिक क्षमता के अनुसार ही माँ-बाप को अपनी अपेक्षा रखनी चाहिये । अन्यथा उनके व्यक्तित्व का संतुलित विकास नहीं हो पायेगा ; जो कि बच्चों के भविष्य के लिये बहुत हानिकर है ।
मेरा मानना है कि युवा वर्ग में इस प्रकार का चिंताजनक व्यवहार देश की भ्रष्ट, रिश्वतखोर व्यवस्था है । जहाँ ये अपने
को असहाय महसूस करते हैं । उनके भीतर पनपती कुंठा, इस प्रकार उग्र रूप्धारण करती है । आज युवा वर्ग एम०ए०, इंजीनियरिंग आदि की पड़ाई करके भी बेरोजगार हैं । कारण आज शिक्षा और योग्यता से ज्यादा महत्व सिफ़ारिश का है । जिन बच्चों को माँ-बाप , अपना घर गिरवी रखकर, उधार-देना कर, मजदूरी कर पढ़ाते हैं ; यह सोचकर कि पढ़ाई खतम होने के बाद, बेटा कोई नौकरी में जायगा, तब इन सब को लौटा लूँगा । मगर जब वे पढ़-लिखकर भी बेरोजगार, दर-दर की ठोकरें खाते फ़िरते हैं, तब युवा वर्ग में आक्रोश जन्म लेता है । जो आये दिन हमें हिंसक प्रवृतियों के रूप में देखने मिलता है । जब तक समाज में ये ऊँच-नीच, नौकरशाही रहेगी , युवा वर्ग कुंठित और मजबूर जीयेंगे ।