Thursday, February 18, 2016

इतिहास में यह सब हुआ है। राष्ट्रविरोधी बताकर राजनीतिक विरोधियों की हत्याएं हुई हैं।

राष्ट्रवाद के साथ सबसे बड़ी खूबी यह है कि कोई भी बिना जाने इसे जानने का दावा कर सकता है। 19वीं सदी से पहले तो इसके बारे में कोई जानता ही नहीं था लेकिन पिछले 200 सालों में राष्ट्र और राष्ट्रवाद का स्वरूप उभरता चला गया। इन 200 सालों में राष्ट्रवाद के नाम पर फासीवाद भी आया जब लाखों लोगों को गैस चैंबर में डाल कर मार दिया गया। हमारे ही देश में राष्ट्रवाद का नाम जपते जपते आपात काल भी आया और दुनिया के कई देशों में एकाधिकारवाद जिसे अंग्रेजी में टोटेलिटेरियन स्टेट कहते हैं। जिसमें आप वो नहीं करते जो राज्य और उसके मुखिया को पसंद नहीं।
सत्ता पर जिस पार्टी का कब्ज़ा होता है वो पुलिस के दम पर आपके नाक में दम कर देती है। मेरी राय में राजनीतिक दलों के पास राष्ट्रवाद की अंतिम परिभाषा नहीं होती है न होनी चाहिए। मैंने कहा कि राजनीतिक दलों के पास राष्ट्रवाद की अंतिम परिभाषा तब होती है जब उनका इरादा लोकतंत्र को खत्म कर देना होता है।
क्या कभी आपने देखा है कि राजनीतिक दल के कार्यकर्ता किसी नीति, घटना और घोटाले के वक्त अपने ही दल के खिलाफ नारे लगा रहे हों कि उनके लिए दल नहीं देश महत्वपूर्ण है। ऐसा होता तो बीजेपी से पहले कांग्रेस के कार्यकर्ता 2जी घोटाले के खिलाफ़ सड़कों पर आ गए होते। ऐसा होता तो बीजेपी के कार्यकर्ता, नेता व्यापम घोटाले पर पार्टी से इस्तीफा दे देते। देश जब 200 रुपये किलो दाल खा रहा था तो अपनी ही सरकार के खिलाफ प्रदर्शन करते। केरल में आरएसएस कार्यकर्ता पी.वी. सुजीत की हत्या कर दी गई। क्या आप उम्मीद करेंगे कि कांग्रेस, सीपीएम के नेता इस हत्या कांड के खिलाफ सड़क पर उतरेंगे। क्या आप उम्मीद करेंगे कि बीजेपी के सभी नेता अपने ही नेता ओ.पी. शर्मा के खिलाफ सड़क पर उतरेंगे। निंदा परनिंदा छोड़ दीजिए। इसलिए दलों की राजनीति दलों के हित के लिए होती है। हिंसा का इतिहास आपको हर राजनीतिक दल की सरकार में मिलेगा। आप हर घटना को राष्ट्रवाद के चश्मे से नहीं देख सकते। दंगे किस दल की सरकार में नहीं हुए और किस दल का नाम नहीं आया है, तो क्या आप उन्हें गद्दार या राष्ट्रविरोधी कहेंगे।
मैं यह नहीं कह रहा है कि राजनीतिक दल के लोग देशभक्त नहीं होते। बिल्कुल होते हैं। हर दल अपनी सोच के हिसाब से देश को सजाने संवारे की कल्पना करता है। लेकिन जब धर्म, नस्ल, रंग, भाषा और यहां तक कि टैक्स के नाम पर राष्ट्रवाद को परिभाषित करने का प्रयास किया जाता है तो उसका इरादा राष्ट्रवाद नहीं होता। उसका इरादा कुछ और होता है। राष्ट्रवाद के नाम पर अपना एकाधिकार काम करना। हर दलील को चुप करा देना। जहां दल और नेता की चलती है। बाकी सब उसके इशारे पर चलते हैं।
जेएनयू में भारत को तोड़ने और बर्बादी के नारे लगाने वालों की अभी तक पहचान क्यों नहीं हुई है। क्यों सूत्रों के हवाले से खबरें आ रही हैं। सभी ने इनका विरोध किया है। जेएनयू के तमाम छात्रों और शिक्षकों ने भी। उनका विरोध कन्हैया कुमार की गिरफ्तारी को लेकर है जिसके खिलाफ अभी तक देशद्रोह के कोई सबूत नहीं मिले हैं। दिल्ली पुलिस कहती है कि अब अगर वो ज़मानत के लिए अप्लाई करेगा तो विरोध नहीं करेंगे। वो नौजवान है, उसे दूसरा मौका दिया जा सकता है। इस हृदय परिवर्तन से पहले गली गली में रैली कर जेएनयू को बदनाम किया गया कि वहां राष्ट्रविरोधी तत्व पढ़ते हैं। पटियाला हाउस कोर्ट में दूसरे दिन भी जो हुआ वो क्या है।
क्या कोई भीड़ हाथ में तिरंगा लेकर खड़ी हो जाएगी तो वो हमसे आपसे ज़्यादा देशभक्त हो जाएगी। क्या अब तिरंगा लेकर लोगों को डराया जाएगा और इंसाफ के हक से वंचित किया जाएगा। सुप्रीम कोर्ट की नाराज़गी के बाद भी दूसरे दिन कन्हैया कुमार के साथ मारपीट की कोशिश हुई। सुप्रीम कोर्ट ने जिन वकीलों को कोर्ट के भीतर जाने की अनुमति दी थी उन्होंने बताया कि गालियां दी गई हैं। भय का माहौल है। सुप्रीम कोर्ट ने हस्तक्षेप कर सुनवाई रोक दी और कोर्ट रूम को खाली कराया। कन्हैया कुमार को 14 दिनों की न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया। तीस हज़ारी कोर्ट के वकीलों ने कहा है कि पटियाला कोर्ट मामले में यदि किसी वकील को गिरफ्तार किया गया तो दिल्ली पुलिस का विरोध किया जाएगा। दिल्ली के तमाम बार संघ हड़ताल पर जाने का विचार कर रहे हैं। सुनवाई हुई नहीं, फैसला आया नहीं लेकिन चैनलों और वकीलों और संगठनों ने आतंकवादी घोषित कर दिया। अगर ऐसी ही भीड़ आपको उठा ले जाए और हाथ में तिरंगा लेकर घोषित कर दे कि आतंकवादी हैं और मार दे तो आप इंसाफ के लिए कहां जाएंगे।
इतिहास में यह सब हुआ है। राष्ट्रविरोधी बताकर राजनीतिक विरोधियों की हत्याएं हुई हैं। जर्मनी में साठ लाख यहूदियों को गैस की भट्टी में झोंक दिया गया। ये राष्ट्रवाद के अपने ख़तरे हैं। इन ख़तरों पर हमेशा बात होनी चाहिए तब तो और जब लोग राष्ट्रवाद की खूबियां बघारने में जुटे हों।
कोलकाता की जाधवपुर युनिवर्सिटी में भी कुछ छात्रों ने आज़ादी के नारे लगाए और अफज़ल गुरु का समर्थन किया। इन्हें रेडिकल ग्रुप का बताया जा रहा है। एक छात्र ने सफाई दी कि हमने अभिव्यक्ति की आज़ादी के संदर्भ में आज़ादी का नारा लगाया तो एक छात्रा ने कहा कि उसने कश्मीर की आज़ादी और अफज़ल गुरु के लिए नारे लगाए हैं। मेरे नारे राष्ट्रविरोधी कैसे हो सकते हैं क्योंकि बीजेपी ने तो पीडीपी से मिलकर सरकार बनाई है और पीडीपी के लिए अफज़ल गुरु शहीद है। कई छात्रों ने ऐसी सोच का विरोध किया है और तमाम संगठनों ने निंदा की है। जाधवपुर यूनिवर्सिटी के वीसी ने कहा है कि जिन लोगों ने नारे लगाए वो विश्वविद्यालय के छात्र नहीं थे, बाहर के असामाजिक तत्व थे। वाइस चांसलर ने कहा है कि असमाजिक तत्वों की हरकत की वजह से छात्रों के लोकतांत्रिक अधिकार को नहीं छीनना चाहिए।
कानून के पन्ने पर देशद्रोह की अलग समझ है और जनता के दिलो दिमाग में अलग। इतिहास की किताबों में राष्ट्रवाद को लेकर अनंत व्याख्याएं हैं। अव्वल तो राष्ट्रवाद और देशभक्ति दोनों में ही मीलों का अंतर है। एक जटिल मसले का अगर हम बात-बात में राजनीतिक इस्तमाल करेंगे तो आप दर्शकों को राष्ट्रवादी होने से पहले इतिहास की दस बीस किताबें पढ़ लेनी चाहिए। राष्ट्रगान लिखने वाले टगौर ने राष्ट्रवाद को अजगर सापों की एकता नीति कहा था। इस तरह के उदाहरणों से भी हमारी समझ साफ नहीं होती है। मगर राष्ट्रवाद को उचक्कों की शरणस्थली भी कहा गया है और राष्ट्रवाद के लिए लोगों ने सर्वोच्च बलिदान भी दिये हैं।
जेएनयू में प्रोफेसरों ने राष्ट्रवाद पर अगले एक हफ्ते तक सार्वजनिक क्लास लगाने का फैसला किया है। पांच बजे से ये क्लास लगेगी। बुधवार को प्रोफेसर गोपाल गुरु ने हज़ारों छात्रों के बीच पहली क्लास ली। टॉपिक था राष्ट्र क्या है। इसके बाद प्रोफेसर जी अरुणिमा, तनिका सरकार, निवेदिता मेनन, आयशा किदवई, अचिन विनायक का राष्ट्रवाद पर लेक्चर होगा। ये खूबी आपको सिर्फ जेएनयू में मिलेगी। मेरी तरफ से दो गुज़ारिश है। एक कि यह ओपन क्लास हो सके तो हिन्दी में भी हो और दूसरा इसमें आरएसएस से जुड़े प्रोफेसरों को भी राष्ट्रवाद पर लेक्चर देने के लिए बुलाया जाए।
राष्ट्रवाद 19वीं सदी की सबसे ताकतवर विचारधारा रही है जिसने हम इंसानों को हमेशा हमेशा के लिए बदल दिया। एक राष्ट्र एक भाषा एक संस्कृति जैसी सोच ने तमाम तरह की विविधताओं को कुचल दिया तो कहीं इन विविधताओं ने इस विचारधारा के खिलाफ संघर्ष करते हुए खुद को बचाए भी रखा। कई लोग कहते हैं कि सियाचिन में जान देने वाले सैनिक को क्या यह छूट है कि वो अफजल गुरु के लिए नारे लगाए। लेकिन क्या इसी देश में जंतर मंतर पर वन रैंक वन पेंशन की मांग कर रहे सैनिकों के कुर्ते नहीं फाड़े गए। मेडल नहीं खींचे गए। सैनिकों की चिन्ता है तो जंतर मंतर पर सैनिक महीनों बाद भी क्यों बैठे हैं। क्या वे देशद्रोही हैं। कुछ ने कहा कि टैक्सपेयर के पैसे से जेएनयू क्यों चले। इस तरह की बेतुकी दलील देने वाले यह भी कहते हैं कि आईआईटी, एम्स और आईआईएम के छात्र टैक्स पेयर के पैसे पर पढ़ते हैं और देश सेवा छोड़ विदेश नौकरी करने चले जाते हैं। टैक्स राष्ट्रवाद ने क्यों नहीं आवाज़ उठाई कि बैंक और उद्योंगों के लाखों करोड़ रुपये के कर्ज क्यों माफ हो रहे हैं और गरीब किसानों के क्यों नहीं। ज़ाहिर है टैक्स राष्ट्रवाद की दलील ग़रीब विरोधी है।
इकोनोमिक टाइम्स में आज स्वामिनाथन एस अंकलेसरिया अय्यर ने एक लेख लिखा है। लेख का उन्वान है कि राष्ट्रवाद विरोधी महज़ एक गाली है, एक मुक्त समाज में इसकी कोई जगह नहीं। उन्होंने एक मिसाल दी है। 1933 का साल था जब ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के छात्र संघ में इस बात पर बहस हुई कि यह सदन किसी भी परिस्थिति में राजा या देश के लिए नहीं लड़ेगा। प्रस्ताव पास हो गया और पूरे ब्रिटेन में खलबली मच गई। छात्रों की जमकर आलोचना हुई लेकिन किसी को देशद्रोह के मामले में गिरफ्तार नहीं किया गया। स्कॉटिश नेशनल पार्टी ब्रिटेन से अलग होना चाहती है। अपना स्काटिश राष्ट्र बनाना चाहती है तो क्या उनके नेताओं को देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर लिया जाए। ऐसा तो हुआ नहीं। अय्यर ने इस तरह के कई उदाहरण दिये हैं।
दुनिया के नक्शे में राष्ट्र के बनने की प्रक्रिया अभी भी मुकम्मल नहीं हुई है। कहीं राष्ट्र तबाह हो रहे हैं तो कहीं बिखर भी रहे हैं। हर साल कहीं नया झंडा बनता है तो कहीं पुराना गायब हो जा रहा है। जेएनयू की घटना के बाद बीजेपी और संघ इस बात को लोगों को तक पहुंचाने में सफल रहे कि राष्ट्रविरोधी नारों को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। जो भारत को तोड़ने की बात करेगा उसे गोली मार देने की बात तक कही गई। कानून अदालत का कोई लिहाज़ नहीं। राष्ट्रवाद कानून हाथ में लेने का लाइसेंस नहीं है। असम में ही बोडो अलग राज्य की मांग करते रहे हैं लेकिन उनके एक गुट के साथ कांग्रेस ने मिलकर चुनाव लड़ा था। इसी देश में अगल खालिस्तान की मांग को लेकर ख़ून खराबा हो चुका है। क्या राम जेठमलानी ने इंदिरा गांधी की हत्या से जुड़े लोगों का मुकदमा नहीं लड़ा था। क्या जेठमलानी को बीजेपी ने राज्य सभा का सदस्य नहीं बनाया। पार्टी में शामिल नहीं किया। पीडीपी की अफज़ल गुरु के बारे में क्या राय है कौन नहीं जानता। उनके साथ किसने सरकार बनाई कौन नहीं जानता।
दिक्कत ये है कि जब इतिहास पढ़ने की बारी आती है तो आप और हम इतिहास का मज़ाक उड़ाते हैं। फिर जब राजनीति करनी होती है तो इतिहास की अनाप शनाप व्याख्याएं करने लगते हैं। मौजूदा समय में राष्ट्रवाद का राजनीतिक इस्तेमाल राष्ट्रवाद की कोई नई समझ पैदा कर रहा है या जो पहले कई बार हो चुका है उसी का बेतुका संस्करण है। यह ख़तरनाक प्रवृत्ति है या लोग ऐसे ख़तरों से निपटने में सक्षम हैं।

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