Wednesday, February 17, 2016

जाति की जड़ कहाँ है? वहीं, जहाँ वर्ण वर्चस्वी नस्ली अर्थव्यवस्था की नींव है

सबसे पहले साफ यह कर दूं कि कि कोई होगा ईश्वर किन्हीं समुदाय केलिए, कोई रब भी होगा, कोई खुदा होगा तो कोई मसीहा , फरिश्ता और अवतार। उनकी आस्था और उनके अरदास पर हमें कुछ भी कहना नहीं है जिनपर नियामतों और रहमतों की बरसात हुई हैं। हमें उनकी आस्था और भक्ति से तकलीफ भी नहीं है और न हमारी हैसियत शिकायत लायक है।
हम सिरे से आस्था से बेदखल हैं। किसी ईश्वर, किसी मसीहा और किसी अवतार ने हमें कभी मुड़कर भी नहीं देखा। इसलिए नाम कीर्तन की उम्मीद कमसकम हमसे ना कीजिये। बेवफा भी नहीं हम। लेकिन हमसे किसी ने वफा भी नहीं किया।
हमने न किसी धर्मस्थल में घुटने टेके हैंं और न किसी पुरोहित का यजमान रहा हूं और न किसी पवित्र नदी या सरोवर में अपने पाप धोये हैं। न मेरा कोई गाडफादर या गाड मादर है। हम किसी गाड मदर या गाडफादर के नाम रोने से तो रहे।
यह हम पहली बार नहीं लिख रहे हैं और शुरु से हम लिखते रहे हैं , बोलते रहे हैं कि मनुस्मृति कोई धर्म गर्ंथ नहीं है , वह मुकम्मल अर्थशास्त्र है और वह सिर्फ शासक वर्ग का अर्थशास्त्र है जो प्रजाजनों को सारे संसाधऩों, सारे अधिकारों और उनके नैसर्गिक अस्तित्व और पहचान को जाति में सीमाबद्ध करके उन्हें नागरिक और मानवाधिकारों से वंचित करके सबकुछ लूट लेने का एकाधिकारवादी वर्चस्ववादी रंगभेदी नस्ली अर्थतंत्र और समाजव्यवस्था की बुनियाद है। मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था और ग्लोबल हिंदू साम्राज्यवाद का फासीवादी मुक्तबाजारी बिजनेस फ्रेंडली विकासोन्मुख राजकाज भी वही मनुस्मृति अनुशासन की अर्थव्यवस्था की निरंकुश जनसंहार संस्कृति की बहाली है।
सच यह है कि इस कार्यभार को स्वीकार करने में कोई बहुजन पढ़ा लिखा किसी भी स्तर पर तैयार नहीं है और बाबा साहेब के अनुयायी होने का एक मात्र सबूत उसका यह है कि या तो जय भीम कहो, या फिर जय मूलनिवासी कहो या फिरनमो बुद्धाय कहो और हर हाल में अपनी अपनी जाति को मजबूत करते रहो।
जाति-व्यवस्था बुरी हो सकती है। जाति के कारण व्यक्ति का व्यवहार इतना बुरा हो सकता है कि उसे अमानवीय कहा जा सकता है। परन्तु यह सब होने पर भी यह मानना पड़ेगा कि हिन्दू जाति को इसलिए स्वीकार करते हैं क्योंकि वे मानवता के भाव से अपरिचित हैं। वे जाति-धर्म पर इस लिए अमल करते हैं क्योंकि वे बहुत धार्मिक लोग हैं। सच तो यह है कि लोगों को जाति-धर्म मानने के लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता। मेरे विचार में अगर कुछ गलत या बुरा है तो वह उनका धर्म है जिसने जाति भाव को जन्म दिया है। अगर यह सही है तो स्पष्ट है कि सही दुश्मन जिस के खिलाफ लड़ने की ज़रूरत है वह व्यक्ति नहीं, जो जाति-व्यवस्था को मानते हैं, बल्कि वह शास्त्र हैं जो जाति-धर्म की शिक्षा देते हैं।”- डॉ. आंबेडकर ( भगवान दास की पुस्तक “दलित राजनीति और संगठन” से साभार)
गौर करने वाली बात तो यह है कि बाबा साहेब ने जातिव्यवस्था की जड़ें कर्मकांडी धर्म में बताया था।
अंबेडकर विचारधारा और उनके जाति उन्मूलन के एजेंडे के मुताबिक धर्म में ही जाति व्यवस्था की जड़ें हैं और इस धर्म का विरोध होना चाहिए।धर्म रहा तो न समता संभव है और न सामाजिक न्याय। वर्गविशेष, जन्मजात जाति व्यवस्था में सवर्ण खासतौर पर ब्राह्मण के खिलाफ नहीं है बाबासाहेब का जाति उन्मूलन का एजेंडा। इसे बहुजन समाज को जितना समझना चाहिए,ब्राह्मण और सवर्णों की समझ भी उतनी ही जरूरी है। दोनों पक्ष जब जाति का बहिष्कार करें और जब उत्पादन प्रणाली में वंश और जाति की जन्मजात व्यवस्था खत्म हो, तभी जाति उन्मूलन संभव है।
समता और सामाजिक न्याय की वर्गविहीन जाति विहीन नस्ली भेदभाव विहीन समाज की परिकल्पना ही नहीं है बौद्धमत, बल्कि भारतीय और वैश्विक संदर्भ में उसका इतिहास भी है गौतम बुद्ध का पंचशील जो कर्मकांडी वर्ण वर्चस्वी धर्म और खासतौर पर धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद का निषेध करता है।

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