रोहित जी, रवीश को लिखे पत्र में आपने खुद को पत्रकार और साथ ही राष्ट्रवादी भी बताया है। यानी राष्ट्रवादी पत्रकार। यह पत्रकारिता की कौन विधा है आजतक मेरी समझ में नहीं आयी। लेकिन पत्रकारिता का सच यही है कि जिस सांप्रदायिकता के खिलाफ लड़ते हुए गणेश शंकर विद्यार्थी जी शहीद हुए थे। आज वही पत्रकारिता कैराना में कश्मीर ढूंढ रही है। और नहीं मिलने पर कश्मीर बना देने पर उतारू है। और आप इस पत्रकारिता के पक्ष में है। न केवल पक्ष में हैं बल्कि मजबूती से उसके साथ खड़े भी हैं। अब आप खुद ही फैसला कीजिए कि आप कैसी पत्रकारिता कर रहे हैं? ऊपर से राष्ट्रवादी भी बताते हैं। अगर अल्पसंख्यकों के खिलाफ जहर उगलना राष्ट्रवाद है, गरीब जनता के खिलाफ कारपोरेट लूट को बढ़ावा देना राष्ट्रवाद है, अमेरिका के तलवे चाटना राष्ट्रवाद है, सत्ता की सेवा ही अगर राष्ट्रवाद की कसौटी है तो ऐसे राष्ट्रवाद को लानत है। लेकिन सच्चाई यह है कि न तो आप पत्रकार हैं और न ही राष्ट्रवादी बल्कि आप भक्त हैं। जो काम कभी राजे-रजवाड़ों के दौर में चारण और भाट किया करते थे वही आप इस लोकतंत्र के दौर में कर रहे हैं। उनका काम घूम-घूम कर जनता के बीच सत्ता का गुणगान करना था। मौजूदा समय में वही काम आप स्टूडियो में बैठ कर रहे हैं।
दरअसल पत्रकारिता को लेकर काफी भ्रम की स्थिति बनी हुई है। पत्रकारिता का मूल चरित्र सत्ता विरोधी होता है। यानी चीजों का आलोचनात्कम विश्लेषण। वह तटस्थ भी नहीं होती। व्यापक जनता का पक्ष उसका पक्ष होता है। और कई बार ऐसा भी हो सकता है कि सत्ता के खिलाफ विपक्ष के साथ वह सुर में सुर मिलाते दिखे। ऐसे में उसे विपक्ष का दलाल घोषित करना बेमानी होगा। क्योंकि उस समय दोनों जनता के सवालों पर सरकार की घेरेबंदी कर रहे होते हैं। इससे जनता का ही पक्ष मजबूत होता है। दरअसल पत्रकारिता तीन तरह की होती है। एक मिशनरी, दूसरी नौकरी और तीसरी कारपोरेट। पहला आदर्श की स्थिति है। दूसरी बीच की एक समझौते की। और तीसरी पत्रकारिता है ही नहीं। वह मूलतः दलाली है। चिट्ठी में आपने काफी चीजों को गड्ड-मड्ड कर दिया है। आप ने उन्हीं भक्तों का रास्ता अपनाया है। जो बीजेपी और मोदी के सिलसिले में जब भी कोई आलोचना होती है। तो यह कहते पाए जाते हैं कि तब आप कहां थे। जब ये ये हो रहा था। और फिर इतिहास के कूड़ेदान से तमाम खरपतवार लाकर सामने फेंक देते हैं। और पूरी बहस को ही एक नया मोड़ दे देते हैं। यहां भी आपने वही किया है। बजाय मुद्दे पर केंद्रित करने के कि एम जे अकबर जैसा एक संपादक-पत्रकार जो बीजेपी की नीतियों का धुर-विरोधी रहा है। वह एकाएक उसका प्रवक्ता और सरकार का हिस्सा कैसे बन गया? इसमें यह बहस होती कि क्या कोई अपने विचार से एक झटके में 180 डिग्री पल्टी खा सकता है? ऐसे में उसकी साख का क्या होगा? इससे पत्रकारिता और उसकी विश्वसनीयता को कितनी चोट पहुंचेगी? क्या सत्ता के आगे सारे समझौते जायज हैं? और ऐसे समझौते करने वालों को किस श्रेणी में रखा जाए? क्या सत्ता का अपना कोई सिद्धांत नहीं होता है? विचारधारा और सिंद्धांतविहीन राजनीति कहीं बाझ सत्ता और पत्रकारिता को तो जन्म नहीं दे रही है?
इस मामले में एक पत्रकार का एक सत्ता में शामिल शख्स से सवाल बनता है। अकबर अब पत्रकार नहीं, मंत्री हैं। और सत्ता के साथ हैं। लेकिन मेरी समझ में यह नहीं आया कि अकबर या सत्ता पक्ष से जवाब आने का इंतजार करने की बजाय आप क्यों बीच में कूद पड़े। क्या आपने सत्ता की ठेकेदारी ले रखी है। या मोदी भक्ति इतने हिलोरे मार रही है कि एक आलोचना भी सुनने के लिए तैयार नहीं हैं। आपने जिन लोगों को खत न लिखने के बारे में रवीश से पूछा है। आइये अब उस पर बात कर लेते हैं। अमूमन तो अभी तक पत्रकारिता के पेश में यही बात थी कि पत्रकारों की जमात सत्ता पक्ष से ही सवाल पूछती रही है। और आपस में एक दूसरे पर टीका टिप्पणी नहीं करती थी। किसी का कुछ गलत दिखने पर भी लोग मौन साध लेते थे। लिहाजा किसी ने कभी भी किसी को खत नहीं लिखा। ऐसे में जो चीज हुई ही नहीं आप उसकी मांग कर रहे हैं। हां इस मामले में जब कुछ लोग पत्रकारिता की सीमा रेखा पार कर खुल कर सत्ता की दलाली और भ्रष्टाचार में आकंठ डूबते नजर आये। और पानी सिर के ऊपर चढ़ गया। तथा पत्रकारों की दलाली खासो-आम के बीच चर्चा बन गई। तब जरूर उनके खिलाफ लोंगों ने नाम लेकर बोलना शुरू कर दिया।
जैसा कि ऊपर मैंने कहा है कि आपने काफी चीजों को गड्ड-मड्ड कर दिया है। आपने जिन नामों को लिया है उनमें आशुतोष को छोड़कर सब पत्रकारिता की जमात के लोग हैं। बरखा और प्रणव राय को खत लिखने से पहले रवीश को इस्तीफे का खत लिखना पड़ेगा। वह सुधीर चौधरी जैसे एक बदनाम पत्रकार और कारपोरेट के दलाल को पत्र लिख सकते थे, जिसके खिलाफ बोलने से उनकी नौकरी के भी जाने का खतरा नहीं है। लेकिन उन्होंने उनको भी पत्र नहीं लिखा। हां इस मामले में रवीश कुमार व्यक्तिगत स्तर पर कहीं बरखा या फिर प्रणव राय को मदद पहुंचाते या फिर उसमें शामिल दिख रहे होते तब जरूर उन पर सवाल उठता। सुधीर चौधरी भी सुभाष चंद्रा के चैनल में एक कर्मचारी के तौर पर काम कर रहे होते तो किसी को क्या एतराज हो सकता था। लेकिन जब वह उनकी तरफ से उनके व्यवसाय और उससे संबंधित मामलों को निपटाने में जुट गए। तब उन पर अंगुली उठी।
रही आशुतोष की बात। तो एक चीज आप को समझनी होगी। पत्रकारिता अकसर जनता के आंदोलनों के साथ रही है। कई बार ऐसा हुआ है कि पत्रकारों के किसी आंदोलन का समर्थन करते-करते कुछ लोग उसके हिस्से भी बन गए। आशुतोष पर सवाल तब उठता जब अन्ना आंदोलन को छोड़कर वो कांग्रेस के साथ खड़े हो जाते। जिसके खिलाफ पूरा आंदोलन था। अब एक पेशे के लोगों को दूसरे पेशे में जाने से तो नहीं रोका जा सकता है। हां सवाल उठना तब लाजमी है जब संबंधित शख्स सत्ता की लालच में अपने बिल्कुल विरोधी विचार के साथ खड़ा हो जाए। इंदिरा गांधी की इमरजेंसी के खिलाफ एक्सप्रेस और जनसत्ता विपक्ष की आवाज बन गए थे। इस भूमिका के लिए उनकी तारीफ की जाती है। उन्हें विपक्ष का दलाल नहीं कहा जाता है। और यहां तक कि प्रभाष जोशी जी कांग्रेस के खिलाफ जो आमतौर पर सत्ता पक्ष रही, वीपी सिंह और चंद्रशेखर के ही साथ रहे। इसलिए समय, परिस्थिति और मौके का बड़ा महत्व होता है। सब को एक ही साथ एक तराजू पर तौलना कभी भी उचित नहीं होगा।
लेखक महेंद्र मिश्र राजनीतिक कार्यकर्ता व वरिष्ठ पत्रकार हैं।
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