अक्सर कहा जाता
है, ज्ञानी बनो. पुस्तकें ज्ञान का समंदर हैं. उन्हें पढ़ो.
जितना संभव हो ज्ञान को समेट लो. समेटते जाओ. ज्ञार्नाजन को अपना लक्ष्य मानकर
गुरु की शरण लो. उसकी कृपा से अपने अज्ञान के अंधेरे को दूर करो. लेकिन ज्ञान की
ललक में दौड़ते, भागते. उसकी तलाश में भटकते, ठोकरें खाते कभी-कभी यह विचार भी मन में कौंध उठता है कि ज्ञान आखिर है क्या? हम कैसे जाने कि ज्ञान के लिए हमारी दौड़-भाग का जो परिणाम निकला, देर तक भटकने के बाद जिस लक्ष्य पर हम पहुंचे हैं—वह सचमुच ज्ञान है? ज्ञान और अज्ञान के बीच सीमारेखा कैसे खींची
जाए? ज्ञान के कौन से लक्षण हैं जो उसको अज्ञान होने से बचाते
हैं? साधारणजन के लिए यह उतनी बड़ी समस्या नहीं है. वह गुरुजनों
पर विश्वास कर लेता है. धर्मग्रंथों में शताब्दियों पूर्व लिखी गई बातों से अपना
काम चला लेता है. उसके लिए ज्ञान स्थायी, अपरिवर्तनशील, कभी न बदलने वाला, युगांतर सत्य है. तर्कबुद्धि को किनारे रखकर वह
अपने आस्थावादी दिमाग से सोचता है. उसकी निगाह में गंगा शताब्दियों पहले जब प्रदूषण
जैसी कोई समस्या नहीं थी जितनी पवित्र थी, आज भी उतनी ही पवित्र है.
ऐसा व्यक्ति समाज की सामान्य समझ और रीति-रिवाजों से अनुशासित होता है. दूसरी ओर
जिज्ञासु व्यक्ति मानता है कि ज्ञानार्जन की प्रक्रिया अंतहीन है. वह अपने संदेहों
को सम्मान देता है. उसका विश्वास है कि ज्ञान सदैव अज्ञान की बांह पकड़कर चलता है.
दोनों के बीच इतना बारीक अंतर है कि ज्ञान कब अज्ञान की सीमा तक पहुंच जाए, और अज्ञान यह कहकर कि वह कम से कम इतना तो जानता ही है कि उसको फलां का ज्ञान
नहीं है—स्वयं को ज्ञानवान की परिधि में ले आता है. ऐसा व्यक्ति
किसी बंधी-बंधाई लीक पर चलने के बजाय अपना लक्ष्य स्वयं तय करता है. उसका बोध
निरंतर परिष्करण को उन्मुख रहता है. वह ज्ञान की चिरंतनता और सतत परिवर्तनशीलता पर
अटूट विश्वास रखता है.
ज्ञान की पूर्णता
संदेहों को विराम देती, तर्कों को समापन
की ओर ले जाती है. ज्ञान की संपूर्णता सदैव एक लक्ष्य होती है. जैसे ही किसी एक
रहस्य से पर्दा हटता है, दूसरा आवरण
चुनौती बनकर उपस्थित हो जाता है. यह सिलसिला निरंतर बना रहता है. व्यवहार में कहा
जाता है कि जहां ज्ञान है, वहां शंकाओं के
लिए कोई स्थान नहीं है. पर हकीकत है कि जहां शंकाएं हैं वहीं ज्ञान की खुली आमद
है. भले किसी को यह विचित्र लगे, पर सच यही है कि
हमारी शंकाएं हमारे ज्ञान के सफर को आगे बढ़ाती हैं. निरंतर बढ़ते रहने की प्रेरणा
देती हैं. पीटर अबेलार्ड के मन में भी कुछ प्रेरणादायी शंकाएं रही होंगी, जब उसने ये शब्द कहे—‘संदेह हमें जांच-पड़ताल को प्रेरित करती है और जांच-पड़ताल
हमें सत्य का रास्ता दिखा देती है.
क्या मनुष्य को हार
मान लेनी चाहिए? छोड़ दे कोशिश
प्रकृति को जानने-समझने की. इसके अबूझ रहस्यों से पर्दा हटाने का संकल्प भुला दे.
नहीं….इस विराट ब्रह्मांड और
अपनी समस्त ऐंद्रियक सीमाओं, विशिष्टताओं,
दुबर्लताओं और खूबियों के साथ मनुष्य अभी तक
जितना समेट पाया है, वह भी कुछ कम
संतोष की बात नहीं है. क्योंकि अपनी उस बीहड़ ज्ञान-यात्रा में मनुष्य को कदम-कदम
पर भीतरी और बाहरी संकटों से जूझना पड़ा है. और यह भी कि असंख्य जीवों और उनकी
असंख्य प्रजातियों में केवल मनुष्य ही है जो प्रकृति को चुनौती देने का साहस कर
पाया है. जिसने अवसर मिलते ही समय धारा के विपरीत चलने का साहस जुटाया है. इस
दुस्साहसी संकल्पयात्रा के लिए मानवी जिजीविषा को नमन करने का मन हो आता है. इसी
जिजीविषा के दम पर मानवी मेधा ने चुनौतियों को स्वीकारा है. मानवी संकल्प की
विराटता को दर्शाने के लिए यह कम नहीं है कि खरबों प्रकाश वर्ष में फैले ब्रह्मांड
को जानने का जो दावा करता है, उसकी अपनी
कद-काठी केवल पांच-छह फुट की है. उसका जीवन क्षणभंगुर है. मगर यह मानवी मेधा की
अदम्य ज्ञान लालसा ही है कि सत्य शोधन के पथ पर वह स्वयं को खुशी-खुशी बलिदान कर
देता है. चाहे वह जहर का प्याला पीने वाले सुकरात हों या हंसते हुए मौत को गले लगा
लेने वाला का॓परनिक्स. हमारा ज्ञान हमारी उपलब्धियां उन सबकी कर्जमंद हैं.
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