महान देशभक्त
लाला लाजपतराय ने कहा था ''क्रान्तियों और
क्रान्तिकारी आन्दोलन तो सामाजिक सच्चाईयाँ हैं, इनके बिना समाज कभी प्रगति नहीं कर सकता है।''
आधुनिक भारत में साम्प्रदायिकता के विकास के
लिये ब्रिटिश शासन और ''फूट डालो और राज
करो'' की उनकी नीति जिम्मेदार
है लेकिन ''फूट डालों और राज करो''
की नीति सिर्फ साम्प्रदायिकता के स्तर पर ही
व्यक्त नहीं हुई, उस समय भारतीय
समाज में जो विभाजन मौजूद थे उन सामाजिक विभाजनों को भी इसलिये प्रोत्साहित किया
गया ताकि राष्ट्रीय एकता के उदय को रोका जा सके एक अंचल को दूसरे अंचल के खिलाफ,
एक जाति को दूसरे जाति के खिलाफ, लड़ाकुओं को नरम पंथियों के खिलाफ, वामपंथियों को दक्षिण पंथियों के खिलाफ और यहाँ
तक कि एक वर्ग को दूसरे वर्ग के खिलाफ भिड़ा देने की कोशिश की गई, वस्तुत: स्वतंत्रता संग्राम के आखिरी दौर में
उपनिवेशवाद का यही मुख्य स्तम्भ बन गया, इसमें कोई संदेह नहीं है कि साम्प्रदायिकता को औपनिवेशिक हुकूमत का शक्तिशाली
समर्थन नहीं मिला होता, तो उसका इस हद तक
विकास नहीं हुआ होता कि वह देश को दो टुकड़ों में बाँट सके।
''साम्प्रदायिक प्रचार के
प्रभाव में आकर लोग अपने शोषण,अत्याचार और पीड़ा
के वास्तविक स्त्रोत को पहचानने में असमर्थ हो जाते हैं और उनके एक छदम
साम्प्रदायिक कारण की कल्पना कर लेते हैं।''
देश के अनेक
राजनीतिक नेता समाज में चल रही उथल-पुथल को समझते हैं। लेकिन अपने स्वयं के तथा दल
के स्वार्थों पर आंच न आए, इस कारण वे
विभिन्न जातियों को आपस में लड़ाते रहते हैं। इसी कारण राजकीय शक्ति का भी बिखराव
नजर आता है। अन्य कुछ राजनीतिक नेताओं को समाज के भीतर क्या चल रहा है, इसका वास्तविक ज्ञान नहीं होता।
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दूसरी ओर समाज चाहता है कि उसका प्रत्येक सदस्य उसके विकास के लिए वह सबकुछ करे, जो वह कर सकता है. उतना करे, जितना उसका सामथ्र्य है. इसके साथ ही वह स्थापित मर्यादाओं का पालन करे तथा दूसरों को भी ऐसा करने की प्रेरणा दे. समाज नहीं चाहता कि उसका कोई भी सदस्य स्थापित व्यवस्था को उस सीमा तक भंग करे कि वह दूसरों के लिए परेशानी का कारण बन जाए, जिससे अशांति पैदा हो और सामाजिक ऊर्जा का बड़ा हिस्सा केवल शांति–व्यवस्था के नाम पर खपाना पड़े. वह चाहता है कि सदस्य इकाइयां जीवन की तयशुदा मर्यादाओं का पालन करें.सामाजिक आचारसंहिता को भंग न होने दें, जो लोकसाहित्य, सांस्कृतिक–सामाजिक रीति–रिवाजों,संबंधों, कला संस्कारों आदि के रूप में प्रकट होती है. यह भिन्न–भिन्न माध्यमों से एक ही बात को बार–बार सामने लाती है कि लोग अपने और दूसरों के कल्याण के लिए समर्पित हों. किसी के प्रति कोई दुराव, वैमनस्य आदि न पालें. यदि सब एक ही प्रकृति से जन्मे हैं, तो उनमें छोट–बढ़ाई क्या!संत–महापुरुष अपने जीवन–कर्म से यही संदेश देते आए हैं—‘एक नूर से सब जग उपज्या कौन भले को मंदे.’ गुरु नानक की यह वाणी कम शब्दों में ही जीवन–सत्य से साक्षात करा देती है. संकेत यही कि जन्म से सब एक हैं. एक ही प्रकृति की संतान. इसलिए आवश्यक है कि सब एक–दूसरे का सम्मान करें. परस्पर पूरक बनकर रहें. पर आदमी की तरह उसकी बनाई व्यवस्थाओं की भी उम्र निर्धारित होती है. इसलिए व्यवस्थाओं की समीक्षा, आलोचना, उनमें परिवर्धन, संशोधन आदि की संभावना भी हमेशा बनी रहती है.
समाज को
अवांक्षित विक्षोभ, आपसी अविश्वास,
असमानता, द्वंद्व, अशांति आदि से
बचाने के लिए एक कल्याणकारी व्यवस्था की अभिकल्पना हमारे पूर्वजों, उन मनुष्यों ने जिनकी विद्वता स्थापित थी,
जिनके दिलों में दूसरों के प्रति चिंताएं थीं,
जो बुद्धिमान, उदार, सहिष्णु, न्यायप्रिय, संवेदनशील और सबका भला सोचने वाले थे—ने आपस में मिल–बैठकर सबके हित के लिए की थी. ताकि संसाधनों के सदुपयोग तथा उनके द्वारा अर्जन–उपार्जन और संवितरण को लेकर किसी प्रकार का
झगड़ा–टंटा न रहे. लोग दूसरों
की जरूरतों का भी उतना ही ख्याल रखें, जितना वे अपनी जरूरतों का रखते हैं. इसके लिए जो आरंभिक व्यवस्था हुई, वह थी—परस्पर सहयोग और सहकार की. पूरा गांव एक परिवार होता था. लोग मिलकर खेती करते.
जितना अनाज होता उसमें से अपनी जरूरत के लिए रखकर शेष को सामूहिक भंडार के हवाले
कर देते. गांव का सम्मानित व्यक्ति उसकी देखरेख करता. आवश्यकता पड़ने पर उसमें से
जरूरतमंदों को अनाज लौटा दिया जाता. उत्सवधर्मी समाज था. फुर्सत के समय लोग नाच–गाना, मौज–मस्ती सब करते. जो
प्रकृति मुक्तमन से सबकुछ जीवन देती है, सारी सुविधाएं जुटाती है, अवसर मिलने पर
उसका आभार व्यक्त करना भी न चूकते थे—कामये दुःखताप्तनाम् प्राणिनाम् आर्तिनाशनं’—‘कामना है कि सभी मिलजुल कर रहें. प्राणीमात्र के दुखों का
नाश हो. कहीं कोई क्लेश, व्याधि, संकट, द्वेष आदि न हो.’ उनका अभीष्ट था—आवश्यकतानुसार दूसरों को सहयोग देना. उपलब्ध
सामग्री में सबके साथ मिल–जुल कर, सुख–दुख को मिल–जुलकर बांटते हुए,
जीवनयापन करना.
धरती सबकी है.
इसलिए सब सुखी हों. सभी निर्भय–निडर होकर विचरण
करें—‘सर्वे सुखिनः भवंतु,सर्वे संतु निरामयाः’ यह बहुत पुरानी सद्कामना है. उन दिनों की है, जब मनुष्य ने सभ्य होना सीखा ही था. यह बात
लंबे अनुभव से उसकी समझ में आई थी कि विकास के लिए सहअस्तित्व की भावना को समझना,
उसका सम्मान करना अत्यावश्यक है. फलस्वरूप जीवन
में स्थिरता आई,विकास का माहौल
बना. विकास की निरंतरता और सामाजिक समरसता के लिए नीति ग्रंथों में सभी को साथ
लेकर चलना, सभी के कल्याण की कामना
करना, मनुष्यमात्र का पुनीत
कर्तव्य बताया गया. व्यास मुनि ने लोकसंग्रह को अनासक्त कर्म बताया. लोकसंग्रह
यानी लोकहित में संपदाओं का अर्जन–उपार्जन. ‘निष्काम कर्मयोगी के समस्त फल सर्वकल्याण के
निमित्त होते हैं.’ उनको व्यक्ति के
अधिकार में न रखकर सर्वकल्याण के लिए समाज के अधिकार में रखना. कहा कि सर्वकल्याण
के लिए लोकसंग्रह अपरिहार्य है. जिसे आज समाजवाद कहते हैं, वह लोकसंग्रह की इसी भावना का विस्तार है.
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