प्रश्न: सर, आपने कहा कि बाहरी ताकतों के इशारों पर मत नाचो, अपनी समझ के अनुसार चलो। पर अगर अपनी समझ के अनुसार चलूँ तो क्या प्रमाण है इस बात का कि जो होगा वो सही ही होगा? मैं कैसे जानूँ कि अगर मैं अपनी समझ से काम कर रहा हूँ तो मैं सही हूँ? कैसे पता?
वक्ता: तुम्हें अभी कैसे पता है कि जो हो रहा है वो ठीक है? तुम्हें अभी सही और ग़लत का कैसे पता है? अभी तुम्हें सही और गलत का बस इतना ही पता है कि किसी और ने तुम्हें सिखा दिया है कि क्या सही है और क्या गलत और तुमने मान लिया है कि अगर ऐसा हो जाए तो सही होता है, और ऐसा हो जाए तो गलत होता है। अब ये तो बड़ी गहरी बीमारी हो गयी कि सही और गलत भी वही है जो किसी और ने बता दिया। हमारे सही और ग़लत भी हमारे नहीं हैं, आयातित हैं। और अलग-अलग लोगों के सही और ग़लत उनके अपने दृष्टिकोण हैं। तुमने ये कैसे मान लिया कि वो सही और ग़लत जो तुम्हें सिखाये गए हैं वो सही ही हैं? तुम्हें सिखाया गया कि सफ़लता सही है और असफ़लता ग़लत है। तुम्हें सिखाया गया है कि इस प्रकार की नैतिकता सही है और उस प्रकार की अनैतिकता ग़लत है। तुम्हें कैसे पता कि सही और ग़लत जैसा कुछ होता भी है? क्या तुम ये नहीं जानते हो कि जो बात एक देश में सही है वो दूसरे देश में ग़लत है? क्या तुम नहीं जानते कि एक ही जगह पर जो आज सही है वो कल ग़लत था? क्या तुम ये नहीं जानते हो कि एक धर्म में जो बात सही है वो दूसरे धर्म में ग़लत है? एक घर में जो सही है दूसरे घर में वो ग़लत है, क्या तुम ये नहीं जानते? सही और ग़लत कुछ है ही नहीं सिवाय कुछ लोगों के व्यक्तिगत दृष्टिकोण के। इसी सही और ग़लत की घुट्टी हमें पिलायी गयी है और हम सोचते हैं कि जैसे ये कोई दैवीय बात है, जैसे वास्तव में कुछ सत्य होता है सही और ग़लत में।
न कुछ सही है और न कुछ ग़लत है, बस कुछ लोगों ने मान लिया है कि कुछ सही है और उस पर ठप्पा लगा दिया सही का। और कुछ लोगों ने मान लिया कि कुछ ग़लत है और उस पर ठप्पा लगा दिया ग़लत का। आज से दो सौ साल पहले इस देश में इस बात को सही माना जाता था कि पति मर जाये तो पत्नी उसके साथ आत्मदाह कर ले। आज आप में से कितने लोग ये चाहेंगे? इसी देश में, दो सौ साल पहले तक यह सही था। सही और ग़लत तो समय, काल, परिस्थिति, जगह, इन सब पर निर्भर बातें हैं, आदमी के मन से निकली हैं। तुम्हें किसने बोल दिया कि कुछ सही है ही? पर बहुत सारी बातों को तुम मन में बहुत गहरी जगह दे कर बैठे हो और तुम सोचते हो कि ये तो निश्चित रूप से सही हैं। तुम्हें लगता है शिक्षा निश्चित रूप से सही है, तुम्हें लगता है कि पैसे कमाना निश्चित रूप से सही है, तुम्हें लगता है कि आदर, सम्मान और ये जो तमाम तरह की बातें जो बचपन से तुम्हें सिखा दी गयीं, ये निश्चित रूप से सही हैं। तुम ये भूल जाते हो कि ये तुमको किसी ने दे दी हैं और जिसने तुमको दे दी हैं, उसको भी किसी और ने दे दी थीं। किसी के मन की पैदाईश हैं ये सारी बातें। दुनिया भरी हुई है ऐसे लोगों से जो सही ही सही करना चाहते हैं? हर बच्चे को बचपन से सिखाया जाता है कि झूठ मत बोलो, हिंसा मत करो, सम्मान करो, प्रेमपूर्ण रहो और दुनिया भरी हुई है हिंसा से, नफरत से, झूठ से, बलात्कारियों से और तुम कभी नहीं सोचते कि ये वही लोग हैं जिन्हें बचपन में तमाम सही सिखाया गया था और ग़लत से दूर रहने की हिदायत दी गयी थी।
तुम सोचते नहीं हो कि एक-एक बच्चे से ये बातें कही जाती हैं, फिर भी दुनिया ऐसी क्यों है? वो ऐसी इसलिए है क्योंकि ये सब सही और ग़लत उधार की बातें हैं, इनका कोई अर्थ नहीं है। बच्चा इनको बाहरी-बाहरी तौर पर ले तो लेता है पर उनको कभी अपना जीवन नहीं बना पाता। बना सकता ही नहीं है क्योंकि ये बात उसकी समझ से नहीं आयी है, वो बस एक बाहरी प्रभाव है उसके ऊपर। माँ ने सिखा दिया है। और अगर बच्चा थोड़ा समझदार है तो पूछेगा माँ से कि माँ हिंसा गलत क्यों है, माँ सच क्यों बोलूँ? माँ के पास कोई जवाब नहीं होगा या अगर कोई होगा भी तो वही होगा जो उसे उसकी माँ ने दिया था। और अगर बच्चा शरारती है तो और पूछेगा, और थप्पड़ खा जाएगा। सही और ग़लत तो आदमी के मन की धारणाएँ हैं, तुम इन पर चल कर क्या पाओगे? तुम मुझसे पूछ रहे हो कि इस बात की क्या गारण्टी है कि अपनी समझ से जो किया जा रहा है वो सही ही है। कुछ भी सही-ग़लत होता ही नहीं तो गारण्टी कैसी। अब तुम थोड़े भौंचक्के हो गए हो।
तुम्हारे मन में सवाल चल रहा होगा कि तो क्या सब कुछ सही है, सब कुछ चलता है। सब सही ही सही है, सब ग़लत ही ग़लत है। अगर आखिरी तौर पर कुछ सही है तो वो यही है कि तुम अपनी समझ के अनुसार चलो, अपने होश में जियो और ग़लत बस यही है कि अपने होश में जीवन न बिताना। बेहोशी की स्थिति में तुम जो भी करोगे वही ग़लत है और अपने विवेक से, अपने होश में, तुम जो करोगे वही सही है। फिर भले ही पूरी दुनिया बोलती रहे कि ग़लत है, पर मान मत लेना। ठीक है, हो सकता है कि समाज के नियमों के अनुसार वो ग़लत हो, पर अस्तित्व के नियमों के अनुसार वो सही ही है। अस्तित्व के नियम और समाज के नियम मेल नहीं खाते, बल्कि बड़े विपरीत होते हैं। जीवन के नियम और समाज के नियम बिलकुल अलग़-अलग़ होते हैं। सही और ग़लत सामाजिक अवधारणाएँ हैं, समाज के नियम हैं। बात समझ रहे हो? ये गारण्टी मांगो ही मत कि मैं सही हूँ या ग़लत हूँ। तुम अपनी समझ से अगर कुछ कर रहे हो तो वो सही ही है, तुम्हें किसी के सर्टिफिकेट की आवश्यकता नहीं, तुम्हारी अपनी दृष्टि ही काफी है। अब ये बहुत बेचैन कर देने वाली बात है। ‘सर कोई नहीं मान रहा क्या तब भी हम सही हैं?’ हाँ, तब भी तुम सही हो। ‘सर पूरी दुनिया कह रही कि हम गलत हैं, क्या तब भी हम सही हैं?’ हाँ, तब भी तुम सही हो।
अगर वो बात गहराई से तुम्हारी समझ से निकली है, अगर वो बात तुमने किसी से सुनकर रट नहीं ली है, अगर वो बात किसी बाहरी प्रभाव का नतीजा नहीं है, अगर वो बात एक सामाजिक धारणा नहीं है जो तुमने ओढ़ ली है, तो निश्चित रूप से जो तुम कर रहे हो वही ठीक है, फिर भले ही वो नियमों के खिलाफ जाता हो, या कानून के खिलाफ जाता हो। थोड़ी भयानक सी बात है, डर लग रहा है। ‘क्या अपराधी बन जाएँ? सर जेल भेजना चाहते हो?’ डर शोभा नहीं देता, जवान लोग बैठे हो। गारण्टी मत माँगो। गारण्टी तो एक डरे हुए मन का लक्षण है कि ‘क्या गारंटी है?’ और दुकानदार बोल रहा है ‘दो महीने की’। जीवन कोई दुकान नहीं है जहाँ गारंटियाँ माँगने बैठ गए ।
– ‘संवाद’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।
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