सामाजिक जनबन्धुओं नमस्कार
सूरज निकल रहा है रैगर समाज का अब युग बदल रहा है रैगर समाज का ।।
आओ सब सहयोग से संपन्न करे हम दीपक जो जल रहा है रैगर समाज का ।।
मुझे यह जानकार अत्यधिक प्रसन्नता होती है कि आपके सकारात्मक सहयोग और सुझावों के कारण रैगर समाज में जाग्रति और विकास की सम्भावना बढ़ी हैए लेकिन कुछ वर्षों से समाज के सम्मानीय प्रतिष्ठित चिंतकों के परस्पर सुझावों और विचारों के आदान.प्रदान में शिथिलता निर्मित हो गयी है l जिसके कारण सामाजिक विकास और जाग्रति के प्रेरक कार्यक्रमों में शून्यता आने का भय बन रहा है। समाज के प्रतिष्ठित शुभचिंतक होने के नाते हमारा समाज आपसे अपेक्षा करता है कि आप समाज के प्रति अपनी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी को ध्यान में रखते हुए हमारे समाज के सभी वर्गों के सर्वांगणीय विकास के लिए आपके प्रेरक सुझाव और विचारों को लिखकर प्रेषित करेंगे। जिससे प्रेरणा लेकर समाज तीब्र गति से विकास और जागृति की ओर बढ़ेगा। जैसा कि आप सभी जानते है कि समाज कल्याण के लिए अभी तक अनेक समितियों का गठन और पंजीयन हुए है सभी समितियां समय समय पर प्रतिवर्ष एक विशाल कार्यक्रम /परिचय सम्मलेन का आयोजन करने की कल्पना करती है और कुछ हद तक सफल भी होती है l लेकिन कभी भी परिचय सम्मलेन करा लेने मात्र से समाज कल्याण विकाश और परिवर्तन सम्भव नहीं हो सकता क्योंकि परिचय सम्मलेन करने से समाज की मनोदशा नहीं बदलती, बल्कि रैगर समाज के अमीर लोग कभी भी इन सम्मेलनो से जुड़े ही नहीं जिसके कारण माध्यम बर्ग भी इन सम्मेलनो से दूर भागने लगे है कभी भी वे अपने बेटे.बेटियों को मंच के ऊपर आने ही नहीं देते। एसी स्तिथि में इन सम्मेलनो की सफलता पर प्रश्न चिन्ह खड़ा होना लाजमी है l
मै सोचता हु कि समाज कल्याण की समितियों को बेसिक मुद्दों पर कार्य करने कि आवश्यकता है। ये बेसिक मुद्दे मैं आपके सामने रखते हुए आपसे अपने बहुमूल्य सुझाव जानना चाहता हु। आपसे मै अपेक्षा करता हु कि आप अपने सुझावो को मुझ तक अनिवार्य रूप से पहुचाएंगे।
- इन तथ्यों पर काम किस तरह से होना चाहिए l
- इन तथ्यों को साकार करने के लिए आपके क्या सुझाव है l
- इन तथ्यों को साकार करने के लिए क्या परेशानिया हो सकती है और इन परेशानियों से निपटने के क्या विकल्प हो सकते है l
- समाज की विभिन्न पंजीकृत समितियों को सामाजिक कल्याण के लिए निम्न तथ्यों पर और कार्य पर तथ्य ;1 से ;4, 2 तथ्यों तक आपके सुझाव आमंत्रित है|
प्रत्येक समुदाय की अनेक आवश्यकतायें तथा समस्यायें होती है | इन आवश्यकताओं की पूर्ति एवं समस्यायों के समाधान के समुदाय का रहन-सहन ऊँचा उठता है तथा वह दिन-प्रतिदिन प्रगति की ओर अग्रसर होता है | जो समुदाय उचित शिक्षा की व्यवस्था नहीं कर पाता वह अपने सीमित क्षेत्र में अपनी सीमित आवश्यताओं और ढंगों वाली संस्कृति से ही लिपटा रहता है | इससे उसकी निर्धनता ज्यों की त्यों बनी रहती है | अत: प्रत्येक समुदाय अपनी प्रगति के लिएय नई पीढ़ी को अच्छी से अच्छी शिक्षा की व्यवस्था करने का प्रयास करता है | यही कारण है कि प्राचीन काल से लेकर अब तक समुदाय ने अपने प्रगति के लिए राजनितिक एवं आर्थिक परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए शिक्षा सदैव अपने आदर्शों और उद्देश्यों के अनुसार मोड़ा है तथा अब भी मोड़ रहा है | इसलिए स्कूल को समाज लघुरूप की संज्ञा दी जाती है | ध्यान देने की बात है कि समुदाय शिक्षा संस्था के रूप में बालक को औपचारिक तथा अनौपचारिक दोनों रूप से शिक्षित करता है | निम्नलिखित पक्तिओं में हम शिक्षा संस्था के रूप में समुदाय के महत्व तथा उसके द्वारा बालक पर पड़ने वाले प्रभावों एवं कार्यों पर प्रकश डाल रहें हैं –
बालक की शिक्षा में समुदाय का महत्व
समुदाय ब्लाक की शिक्षा का एक महत्वपूर्ण सक्रिय तथा अनौपचारिक साधन हैं | जिस प्रकार बालक की शिक्षा पर परिवार तथा स्कूल का गहरा प्रभाव पड़ता है, उसी प्रकार समुदाय भी बालक के व्यवहार में इस प्रकार से परिवर्तन करता है कि वह उस समूह के कार्यों में सक्रिय रूप से भाग लेने के योग्य बन जाता है जिसका वह सदस्य है | इसलिए यह कहावत अब भी चली आ रही है कि प्रत्येक बालक वैसा ही बन जाता है जैसा कि समुदाय के बड़े लोग उसे बनाना चाहते हैं | वास्तविक यह है की बालक जन्म से लेकर केवल पारिवारिक वातावरण में ही विकसित नहीं होता अपितु उसके विकास में समुदाय के विस्तृत वातावरण का भी गहरा प्रभाव पड़ता है | ये समुदाय के वातावरण को ही तो चमत्कार जिसमें रहते हुए बालक की प्रवृति, विचारधारा तथा आदतों का निर्माण होता है एवं उसकी संस्कृति, रहन-सहन तथा भाषा पर एक अमित छाप दिखाई पड़ती है | ध्यान देने की बात है कि समुदाय का वातावरण बालक की अनुकरण करने की जन्मजात प्रवृति को विशेष रूप से प्रभावित करता है | इसीलिए बालक उन लोगों का अनुकरण करने लगता है | जिनके कि वह सम्पर्क में आता है यदि वह अपने गाँव या नगर में रहने वाले गवैयों के सम्पर्क में आता है तो तो उसे गाने में रूचि उत्पन्न हो जाती है | ऐसे ही यदि वह श्रमिकों के सम्पर्क में आता है, तो उसे श्रम के प्रति श्रद्धा होने लगती है | इस प्रकार मेलों, जुलूसों, तथा उत्सवों एवं समुदाय के विभिन्न कार्यों में या तो सक्रिय रूप में भाग लेते हुए अथवा अनुकरण द्वारा बालक हर समय कुछ न कुछ सीखता ही रहता है | कहने का तात्पर्य यह है कि प्रत्येक बालक पर उस समुदाय का प्रभाव पड़े बिना किसी भी दशा में नहीं रह सकता जिसका कि वह सदस्य है | चूँकि प्रत्येक समुदाय की भाषा तथा संस्कृति अलग-अलग होती है, इसलिए प्रत्येक समुदाय के बालकों की संस्कृति भाषा तथा दृष्टिकोण एवं व्यवहार में स्पष्ट अन्तर दिखाई पड़ता है | इस दृष्टि से परिवार तथा स्कूल की भांति समुदाय भी बालक की शिक्षा का एक महत्वपर्ण साधन है | विलियम ए० ईगर ने ठीक ही लिखा है – “ चूँकि स्वाभाव से मानव सामाजिक प्राणी है, इसलिए उसमें वर्षों के अनुभव से सीख लिया है कि व्यक्तित्व तथा समहुहिक क्रियाओं का विकास सर्वोतम रूप में समुदाय द्वारा ही किया जा सकता है | “
बालक पर समुदाय के शैक्षिक प्रभाव
प्रत्येक समुदाय बालक पर औपचारिक तथा अनौपचारिक दोनों प्रकार के प्रभाव डालता है | निम्नलिखित पक्तियों में हम बालक पर समुदाय के औपचारिक प्रभावों पर प्रकाश डाल रहें हैं -
1) शारीरिक विकास पर प्रभाव – यूँ तो बालक के शारीरिक विकास पर परिवार तथा स्कूल आदि संस्थाओं का भी गहरा प्रभाव पड़ता है, परन्तु इस सम्बन्ध में समुदाय के वातावरण का प्रभाव भी कुछ कम नहीं पड़ता है | समुदाय स्थानीय संस्थाओं का निर्माण करता है | ऐसी संस्थाएं गांवों तथा नगरों के मौहल्लों एवं गली-कूंचों में सफाई का प्रबन्ध करती है और जगह-जगह पर बागों एवं पार्कों की व्यवस्था करती है | साफ और स्वच्छ वातावरण में रहने से बालक में सफाई की आदत पड़ जाती है तथा बागों एवं पार्कों के खुले वातावरण में खेलने-कूदने, भागने-दौड़ने और घुमने-फिरने से बालक को स्वच्छ एवं परिवत्र वायु प्राप्त होती है | सफाई में रहने तथा स्वच्छ एवं परिवत्र वायु मिलने से बालक का स्वास्थ्य ठीक रहता है | इससे उसका सम्यक शारीरिक विकास होता है | यही नहीं, समुदाय संगठित स्वास्थ्य केन्द्रों तथा चिकित्सालयों की भी व्यवस्था करता है | इन स्थानों से बालक को भी स्वास्थ्य एवं शारीरिक विकास के विषय में पर्याप्त ज्ञान प्राप्त होता है | संक्षेप में, स्थानीय संस्था द्वारा व्यविस्थित किये हुए विभिन्न साफ स्वास्थ्य एवं रमणीय स्थानों तथा विभिन्न स्वास्थ्य सम्बन्धों संस्थाओं के द्वारा बालक के स्वास्थ्य एवं शारीरिक विकास पर शातिशील प्रभाव पड़ता है |
2) मानसिक विकास पर प्रभाव – समुदाय जगह-जगह पर पुस्तकालयों की व्यवस्था करता है जिससे बालक के ज्ञान में वृद्धि होती है | यही नहीं, वह समय समय पर वाद-विवाद प्रतियोगिताओं, मुशायरों, कवि सम्मेलनों तथा नाना प्रकार की गोष्ठियों की भी व्यवस्था करता है | इन सबसे बालक का मनोरंजन भी होता है और मानसिक विकास भी |
3) सामाजिक विकास पर प्रभाव – समुदाय में समय-समय पर सामाजिक सम्मलेन, मेले तथा उत्सव एवं धार्मिक कार्य होते रहते हैं | बालक इन सब में प्रसन्नतापूर्वक भाग लेते हुए समुदाय के विभिन्न व्यक्तिओं से सम्पर्क स्थापित करता है | इस सब लोगों के साथ-साथ मिल-जुलकर रहने से तथा कार्य करने से बालक में सामाजिकता को भावना विकसित हो जाती है | इस सामाजिकता के विकसित होने से उसे सामाजिक रीती-रिवाजों, परम्पराओं, मान्यताओं तथा विश्वासों एवं आदर्शों का ज्ञान प्राप्त होता है | इससे उसमें सहानभूति, सहयोग, सहनशीलता, समाज-सेवा एवं त्याग अनके सामाजिक गुण का विकास हो जाता है | यही नहीं, सामुदायिक वातावरण में रहते हुए उसे कर्तव्यों और अधिकारों तथा स्वतंत्रता एवं अनुशासन का भी वास्तविक अर्थ पता चल जाता है | और वह शैने-शैने जान लेता है कि अधिकारों तथा स्वतंत्रता के साथ अनुशासन परम आवश्यक है | इस प्रकार बालक के सामाजिक विकास पर भी समुदाय का गहरा प्रभाव पड़ता है |
4) सांस्कृतिक विकास पर प्रभाव – प्रत्येक समुदाय की अपनी निजी संस्कृति होती है | इन संस्कृति की छाप समुदाय के प्रत्येक सदस्य पर लगी होती है | जब बालक समुदाय के सांस्कृतिक तथा धार्मिक उत्सवों में भाग लेता है अथवा समय-समय पर बड़े-बूढों को अपनी संस्कृति का आदर एवं संरक्षण करते हुए देखता है तो अनुकरण द्वारा वह भी अनजाने ही उस समुदाय की संस्कृति को अपना लेता है | यही कारण है की प्रत्येक बालक पर उसकी समुदाय की बोलचाल, भाषा तथा आचरण की गहरी छाप लगी होती है | इस छाप के अन्तर को शहरी तथा ग्रामीण समुदाय के बालकों में स्पस्ट रूप से देखा जा सकता है | संक्षेप में, बालक के सांस्कृतिक विकास पर समुदाय की अमिट छाप लगी रहती है |
5) चारित्रिक तथा नैतिक विकास पर प्रभाव – यूँ तो बालक के चारित्रिक तथा नैतिक विकास पर परिवार का ही विशेष प्रभाव पड़ता है, परन्तु इस सम्बन्ध में समुदाय का प्रभाव भी कुछ कम नहीं पड़ता | यह प्रभाव अच्छा भी हो सकता है और बुरा भी | यदि समुदाय का वातावरण शुद्ध, अनुशासित एवं सरल होता है तो बालक के चारित्रिक एवं नैतिक गुण विकसित होते हैं, अन्यथा अनैतिक | इस प्रकार के नैतिक तथा अनैतिक चरित्र को परिवार के पश्चात समुदाय ही प्रभावित करता है |
6) राजनितिक विचारों पर प्रभाव – समुदाय के विभिन्न सदस्यों से वाद-विवाद करने, उठने-बैठने तथा नेताओं के भाषण को सुनाने से बालक को विभिन्न राजनितिक विचारधाराओं का ज्ञान हो जाता है | वह बिना किसी पुस्तक को पड़े ही जान लेता है की संसार में कौन-कौन से राजनितिक विचारधारायें मुख्य है तथा किस-किस देश में कौन-कौन से राजनितिक विचारधाराओं प्रचिलित है | इन्हीं राजनितिक विचारधाराओं में से ही वह किसी एक को स्वयं भी अपना लेता है | इस प्रकार समुदाय का राजनितिक प्रभाव बालक के राजनितिक विचारों को अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है |
7) व्यवसायिक विकास पर प्रभाव – समुदाय का प्रभाव बालक के व्यवसायिक विकास पर भी प्रभाव पड़ता है | बालक यह देखता रहता है कि उसके समुदाय के लोग किस व्यवसाय के द्वारा अपनी आर्थिक आवशयकताओं की पूर्ति करते हैं | शैने-शैने: वह भी उसी व्यवसाय में रूचि लेने लगता है | अन्त में उसी व्यवसाय को वह स्वयं भी अपना लेता है | हमारे ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी यह बात देखने में आती है कि यदि कोई बालक ऐसे व्यवसाय करने लगता है जिसे समुदाय नहीं चाहता, तो समुदाय उस बालक को उस समय तक के लिए बहिष्कृत कर देता है जब तक वह उस व्यवसाय को छोड नहीं देता | इस प्रकार समुदाय का बालक के व्यवसायिक विकास पर भी शक्तिशाली प्रभाव पड़ता है |
8) अन्य साधनों के द्वारा प्रभाव – समुदाय बालक को शिक्षित करने के लिए रेडियो, सिनेमा, नाट्यशाला अभिनय केन्द्रों, अजायबघर, चित्रशालाओं तथा पत्र-पत्रिकाओं एवं वाचनालयों आदि अनौपचारिक साधनों की भी व्यवस्था करता है | इन साधनों के द्वारा बालक को समुदाय की विभिन्न समस्याओं तथा उनके सुलझाने के ढंगों का ज्ञान प्राप्त होता है | इस प्रकार समुदाय बालक पर अनौपचारिक साधनों के द्वारा ऐसे प्रभावों को डालता रहता है जिसने उसका सर्वांगीण विकास होता है |
समुदाय के शैक्षिक कार्य
समुदाय का बालक की शिक्षा पर औपचारिक तथा अनौपचारिक दोनों प्रकार से प्रभाव पड़ता है | उक्त पंक्तिओं में हमने बालक पर समुदाय द्वारा निम्नलिखित पक्तियों में बालक पर औपचारिक रूप से पड़े वाले प्रभावों की चर्चा कर रहे हैं –
(1) स्कूलों की स्थापना – समुदाय विभिन्न प्रकार के स्कूलों का निर्माण करता है जिससे समुदाय की संस्कृति सुरक्षति रह सके, विकसित हो सके तथा उसे भावी पीढ़ी के बालकों तथा बालिकाओं को हस्तांतरित की जा सके | बहुत से समुदाय तो अपने निजी सांप्रदायिक स्कूलों की स्थापना भी करते हैं जिनमें बालकों को अपने सम्प्रदाय विशेष की सेवा तथा कल्याण के लिए प्रशिक्षित किया जा सके |
(2) शिक्षा के उद्देश्य का निर्माण तथा शिक्षा पर नियंत्रण – समुदाय शिक्षा के उद्देश्यों का निर्माण करता है तथा उन्हें प्राप्त करने के लिए विभिन्न स्कूलों में प्रदान की जाने वाली शिक्षा पर नियंत्रण भी रखता है |
(3) सार्वजनिक शिक्षा की व्यवस्था – समुदाय शिक्षा के विभिन्न स्तरों को निश्चित करता है तथा सार्वभौमिक शिक्षा की व्यवस्था करता है |
(4) पाठ्यक्रम का निर्माण – शैक्षिक उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए पाठ्यक्रम की आवश्यकता होती है | अत: समुदाय आधारभूत पाठ्यक्रम तथा शिक्षा संगठन की रूपरेखा भी तैयार करता है |
(5) व्यवसायिक तथा औधोगिक शिक्षा की व्यवस्था – वर्तमान युग में व्यवसायिक एवं औधोगिक शिक्षा परम आवश्यक है | अत: समुदाय विभिन्न प्रकार के व्यवसायिक, औधोगिक तथा तकनीकी स्कूलों का निर्माण करता है |
(6) प्रौढ़ शिक्षा – समुदाय की उन्नति के लिए बालक तथा बालिकाओं की शिक्षा तो आवशयक है ही, परन्तु इससे भी अधिक उन प्रौढ़ को शिक्षा की आवशयकता है जिनके कन्धे पर समुदाय की विभिन्न आवशयकताओं तथा समस्याओं को सुलझाने का भार है | अत: समुदाय प्रौढ़ एवं विकलांगता शिक्षा का भी उचित प्रबन्ध करता है |
(7) स्कूलों के लिए धन की व्यवस्था – शैक्षिक संस्थाओं को सुचारू रूप से चलने के लिए धन की आवशयकता पड़ती है | अत: समुदाय इन संस्थाओं के भवन निर्माण, फर्नीचर, तथा शिक्षकों के वेतन आदि विभिन्न बातों के लिए अधिक से अधिक धन की व्यवस्था करता है |
(8) नागरिकों तथा स्कूल के नेताओं में सहयोग – स्कूलों की प्रगति के लिए नागरिकों तथा स्कूल के नेताओं में सहयोग होना परम आवशयक है | अत: समुदाय शिक्षा के विकास हेतु केवल आर्थिक सहायता देकर स्कूलों पर नियंत्रण ही नहीं रखता अपितु नागरिकों तथा स्कूल के नेताओं में सहयोग भी स्थापित करता है |
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट हो जाता है कि जहाँ समुदाय एक ओर बालक को शिक्षित करने के लिए अनौपचारिक प्रभाव डालता है, वहाँ दूसरी ओर औपचारिक रूप से भी कोई कसर बाकी नहीं छोड़ता |
शिक्षा के साधन के रूप में समुदाय के गुण
समुदाय द्वारा प्रदान की जाने वाली शिक्षा के अग्रलिखित गुण हैं –
(1) समुदाय द्वारा दी गई शिक्षा अर्थयुक्त होती है
(2) समुदाय शिक्षा में उपयोगिता के सिद्धांत पर बल देता है | इस सिद्धांत के अनुसार प्राप्त की हुई शिक्षा उन्ही लक्ष्यों पर बल देती है, जो व्यक्ति तथा समुदाय दोनों के लिए लाभप्रद होते हैं |
(3) समुदाय द्वारा प्रदान की हुई शिक्षा बालक को वास्तविक जीवन के अनुभवों से अवगत कराती है | बालक वस्तुओं का प्रत्येक्ष रूप से निरिक्षण करते हैं | इससे उन्हें उन वस्तुओं के विषय में सच्चा ज्ञान प्राप्त हो जाता है |
(4) समुदाय क्रिया के सिधान्त पर विशेष बल देता है | क्रिया के द्वारा बालक को मौखिक बातचीत की अपेक्षा आवशयक बातों का ज्ञान सफलतापूर्वक हो जाता है |
(5) समुदाय बालक को अपनी संस्कृति का ज्ञान देता है |
(6) समुदाय बालक को अधिकारों तथा कर्तव्यों का ज्ञान देकर उन गुणों को विकसित करता है, जो एक नागरिक के लिए आवशयक है |
(7) समुदाय बालक को रचनात्मक चिन्तन के अवसर प्रदान करता है जिससे वह उतरदायित्वपूर्ण एवं आत्म-निर्भर बन जाता है |
शिक्षा के साधन के रूप में समुदाय के दोष
शिक्षा के साधन के रूप में समुदाय के निम्नलिखित दोष है –
(1) समुदाय अपनी स्वार्थ-सिद्धि के लिए शिक्षा को अपने हाथ का खिलौना बना लेता है |
(2) समुदाय अपनी श्रेष्टता को बनाये रखने के लिए अपने सदस्यों का अपने प्रति अन्ध-विश्वास विकसित करता है | इससे किसी अमुक समुदाय के सदस्यों का अन्य समुदायों के सदस्यों के प्रति आक्रामक दृष्टिकोण विकसित हो जाता है, जो उचित नहीं है |
(3) समुदाय साम्प्रदायिक भावनाओं को प्रोत्सहित करता है | प्राय: साम्प्रदायिक स्कूल-बालकों में संकुचित दृष्टिकोण तथा संकीर्ण साम्प्रदायिक भावना विकसित करते हैं | हमसे एक-दुसरे के प्रति घ्रणा का बीजारोपण हो जाता है | परिणामस्वरूप समुदायों में आपसी द्वन्द, तनाव तथा झगड़ों की सम्भावना बढ़ जाती है |
(4) समुदाय दमन की नीति को अपनाता है | इस नीति को अपनाते हुए वह अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए बालक की स्वतंत्रता का गला घोंटना में तनिक भी नहीं हिचकिचाता |
(5) चूँकि समुदाय के द्वारा संकुचित दृष्टिकोण एवं साम्प्रदायिक भावना विकसित होती है, इसलिए समुदाय जनतांत्रिक भावना के विकास में बाधा उत्पन्न करता है |
समुदाय को शिक्षा का प्रभावपूर्ण साधन बनाने के लिए सुझाव
समुदाय को शिक्षा का प्रभावपूर्ण साधन बनाने के लिए हम निम्नलिखित सुझाव पर प्रकाश डाल रहे हैं –
(1) आदर्श उदाहरण- समुदाय को बालक के समक्ष समाज सेवा तथा न्याय आदि के आदर्श एवं सहयोगपूर्ण उदाहरण करने चाहियें जिससे वह सामाजिक संसार से व्यवस्थापना कर सकें तथा उसकी प्रगति में यथाशक्ति योगदान दें सकें |
(2) व्यापक दृष्टिकोण – समुदाय का दृष्टिकोण केवल संकुचित साम्प्रदायिकता तथा जातीयता तक ही सीमित न होकर व्यापक होना चाहिये | दुसरे शब्दों में समुदाय को चाहिये कि वह अपने प्रभावों को केवल विशेष समुदाय अथवा जाति तक ही सीमित न रखे अपितु विशाल समुदाय अर्थात विश्व तक पहुंचायें | इस दृष्टि से विभिन्न समुदायों में व्यक्तिगत स्वार्थ एवं शत्रुता की भावना नहीं होनी चाहिये | भारत में लोग संकुचित, साम्प्रदायिकता तथा जातीयता के विचारों, पक्षपातों, तथा सामाजिक बन्धनों से इतने जकडे हुए हैं कि उनको आत्म-प्रकाशन एवं आत्म-अनुभूति के अवसर ही नहीं मिल पते | यदि समुदाय का लक्ष्य मानव की सच्ची सेवा करना है, तो उसे इन पक्षपातों तथा बन्धनों को तोड़े देना चाहिये |
(3) व्यक्तित्व का अधिकतम विकास- प्रत्येक बालक की रुचियाँ, क्षमतायें तथा विचार अगल-अलग होते हैं | उसके इस विशेष व्यक्तित्व का अधिकतम विकास होना चाहिये | परन्तु देखा यह जाता है कि समुदाय बालक के व्यक्तित्व का दमन करके उसे केवल साम्प्रदायिकता के आधार पर समान स्तर तक की विकसित होने के लिए बंध्या करता है | यही कारण है कि भारत में अब भी प्राय: ग्रामीण क्षेत्रों में बालक को उसी व्यवसाय को अपनाने के लिए बाध्य किया जाता है, जो उसकी जाती में पीढ़ी दर पीढ़ी चला आ रहा है | विवाह-आदि सम्बन्ध में तो साम्प्रदायिकता तथा जातीयता के बन्धन और भी जटिल हैं | यह उचित नहीं है | समुदाय को चाहिये कि वह बालक के विशेष व्यक्तित्व का आदर करे तथा उसे विकसित करने के लिए हर सम्भव प्रयास करे |
(4) शैक्षणिक वातावरण – चूँकि सामाजिक वातावरण का बालक के बनाने और बिगाड़ने में गहरा हाथ होता है, इसलिए समुदाय का कर्त्तव्य है कि वह बालकों को बुरे वातावरण से बचाकर अच्छे से अच्छा शैक्षिक वातावरण प्रस्तुत करे जिससे उसके व्यक्तित्व का उचित दिशा में सर्वोतम विकास हो सके |
(5) सामुदायिक स्कूलों की स्थापना – समुदाय के अशिक्षित प्रौढ़ व्यक्तियों को शिक्षित करने के लिए स्कूलों की व्यवस्था होनी परम आवशयक है | इससे वे नई पीढ़ी के बालकों को समय की मांग के अनुसार शिक्षा प्राप्त करने में सहयोग दे सकेंगे | इस सम्बन्ध में सामुदायिक-केन्द्रित स्कूल विशेष सहायता प्रदान कर सकेंगे |
(6) शिक्षा बालक की आवश्यकता तथा समाज की मांग के अनुसार – स्कूल को चाहिये कि वह एक ओर बालक की आवशयकताओं तथा दूसरी ओर समुदाय की मांगों के अनुसार शिक्षा की प्रक्रिया को संचालित करे | ऐसी शिक्षा प्राप्त करके न तो बालक को ही सामुदायिक विकास के कार्यों में भाग लेते हुए किसी कठिनाई का अनुभव होगा और न ही समुदाय की यह धारणा बनेगी कि स्कूल बालक को केवल मानसिक शिक्षा ही दे रहा है अपितु ऐसी शिक्षा दे रहा है जो सम्पूर्ण समुदाय के लिए लाभप्रद है | यदि स्कूल समुदाय को इस प्रकार की सहायता देता रहेगा तो समुदाय का कार्य अत्यंत प्रभावशाली बन जायेगा |
(7) आलोचनात्मक शक्तिओं का विकास – प्रत्येक समुदाय की अपनी निजी संस्कृति होती है | अत: प्रत्येक समुदाय अपने बालकों को केवल अपनी ही संस्कृति का ज्ञान देना परम कर्त्तव्य समझता है | यह उचित नहीं है | समुदाय को चाहिये कि वह बालक को केवल सांस्कृतिक सम्पति का ज्ञान ही न दे अपितु उसमें ऐसी आलोचनात्मक शक्तिओं का विकास भी रहे जिनके आधार पर वह अपनी संस्कृति का उचित मुल्यांकन कर सके तथा उसके ** दूर भी कर सके |
(8) अन्य साधनों के साथ सहयोग – समुदाय को शिक्षा का प्रभावशाली साधन बनाने के लिए यह आवश्यक है कि वह परिवार, स्कूल, तथा राज्य जैसी महत्वपूर्ण संस्थाओं के साथ निकटतम सम्पर्क स्थापित करे | माता-पिता, शिक्षकों तथा राज्यों के अधिकारी वर्ग को भी समुदाय की उन्नति के लिए अधिक से अधिक सहयोग प्रदान करना चाहिये |
(9) राज्य की सहायता – समुदाय को शिक्षा का शक्तिशाली साधन बनाने के लिए राज्य का सहयोग भी परम आवश्यक है | राज्य को चाहिये कि वह समुदाय द्वारा खोले गये स्कूलों को अधिक से अधिक आर्थिक सहायता दे, उसका निरिक्षण करे तथा सामाजिक सुरक्षा के नियमों का पालन करे | यही नहीं, राज्य को सामुदायिक केन्दों, सामाजिक शिक्षा योजनाओं, रेडियो प्रसारण, नि:शुल्क फिल्म शो तथा चलते फिरते पुस्तकालयों की व्यवस्था भी करनी चाहिये |
उक्त सभी बातों से समुदाय की दशाओं में आवश्यक सुधार होंगे तथा वह शिक्षा का एक लाभप्रद साधन बन जायेगा |
धर्म का अर्थ और परिभाषा
धर्म का अर्थ
संकुचित अर्थ में धर्म है – किसी अमुक धर्म के प्रति अखण्ड श्रध्दा रखना | इस अर्थ में केवल धार्मिक अंधविश्वास, कर्म-कांड, पूजा करना, माला जपना, श्लोकों का उच्चारण करना, तिलक लगाना, तथा नमाज पढना आदि क्रियाओं को ही धर्म की संज्ञा दी जाती है | इसके विपरीत व्यापक अर्थ में धर्म का अर्थ कुछ और ही है | इस अर्थ में ह्रदय तथा चरित्र की पवित्रता, नैतिकता तथा जनसेवा एवं आध्यात्मिक विकास ही सच्चा धर्म है | वास्तविकता यह है कि धर्म का क्षेत्र किसी मन्दिर, मस्जिद, तथा गिरजाघर तक ही सिमित नहीं होता है अपितु सच्चे धर्म का क्षेत्र मानव का समूर्ण जीवन होता है | इस दृष्टि से जब कभी और जहाँ कहीं भी हम किसी सिद्धांत को मानव हित में प्रययोग करते हैं, वह सिद्धांत वहीँ पर और उसी समय धर्म बन जाता है | इस प्रकार हम देखते हैं कि धर्म अत्यंत व्यापक शब्द है | इसके अन्तर्गत वे सभी उत्कृष्ट विचार, आदर्श एवं मूल्य आ जाते हैं जिन्हें किसी राष्ट्र के विद्वानों मानव तथा उसके परमात्मा के सम्बन्धों को स्पष्ट करने के लिए संग्रहित किया है संक्षेप में, धर्म केवल बौद्धिक कल्पना ही नहीं अपितु विभिन्न राष्ट्रों के उन आध्यात्मिक मूल्यों का संग्रह है | जिनका संस्कृति तथा सभ्यता से घनिष्ठ सम्बन्ध होता है | इस प्रकार व्यापक अर्थ के अनुसार मानवीय जीवन में आध्यात्मिक मूल्यों को विकसित करना तथा प्रत्येक आत्मा से और अन्त में आत्मा को परमात्मा से सम्बंधित कर देना सच्चा धर्म है |
शब्द आंग्ला भाषा में “रिलीजन” कहते हैं जो लैटिन भाषा के “re” तथा “legere” दो शब्दों से मिल कर बना है | इन दोनों शब्दों का अर्थ “To Bind Back” अर्थात सम्बन्ध स्थापित करना है | इस प्रकार “रिलीजन” अर्थात धर्म का अर्थ उस शक्ति से है जो एक मानव को दुसरे मानव से प्रेम, सद्भावन तथा अधिकारों एवं कर्तव्यों के बन्धन में बाँधकर आपसी सम्बन्ध स्थापित करता है | ध्यान देने की बात है कि यह सम्बन्ध उसी समय स्थापित हो सकता है जब हम जनसेवा की भावना से प्रेरित हो कर एक-दुसरे की भलाई करें | जनसेवा के लिए नम्रता, पवित्रता, दया तथा निष्पक्षता आधी गुणों का होना परम आवशयक है | नम्रता से प्रेम विकसित होता है और प्रेम से सहनशीलता, जो सच्चे धर्म की कुंजी है | उक्त सभी गुण धर्म के सार है | अत: हम संक्षिप्त रूप से गिस्बर्ट के शब्दों में कह सकते हैं कि “ धर्म दोहरा सम्बन्ध स्थापित करता है | पहला मानव और ईश्वर के बीच तथा दूसरा ईश्वर की सन्तान होने के नाते मानव और मानव के बीच “
धर्म की परिभाषा
धर्म के अर्थ को और अधिक स्पष्ट करने के लिए हम निम्नलिखित परिभाषायें दे रहें हैं –
(1) डासन – “जब कभी और जहां कहीं मनुष्य बाह्य शक्तियों पर निर्भरता का अनुभाव करता है, जो रहस्यपूर्ण और मनुष्य की शक्तियों से कहीं अधिक उच्चतम मानी जाती है, वही धर्म होता है | “
(2) काणट – “ धर्म हमारे सभी कर्तव्यों को दैवी आधार्शों के रूप में मान्यता देने को कहते हैं | “
(3) हेराल्ड होफडिंग- “धर्म का सार मूल्यों के धारण करने में विश्वास को कहते हैं | “
(4) ए०एन० व्हाइटहेड- “धर्म एक ऐसे तत्व का दर्पण है जो हमरे परे (बाहर) पीछे तथा भीतर तक है | “
(5) गिस्बर्ट- “धर्म परमात्मा या देवताओं के प्रति, जिसके उपर मनुष्य अपने निर्भर अनुभव करता है, गतिशील विश्वास और आत्म-समर्पण है |”
मानवीय जीवन तथा समाज में धर्म का महत्व तथा लाभ
धर्म के निम्नलिखित लाभ हैं –
(1) धर्म के द्वारा मानव में नम्रता, सहनशीलता तथा समानता आदि गुण विकसित होते हैं | इन गुणों के विकसित हो जाने से समाज सेवा की भावना विकसित होती है | इस भावना से प्रेरित होते हुए वह दुसरे व्यक्तियों का आदर करता है | जब व्यक्ति दुसरे व्यक्तियों का आदर तथा सेवा करता है, तो उसका अपना निजी व्यक्तित्व हो जाता है |
(2) धर्म मानव में ह्रदय में आशा का संचार करता है | इससे उसके मस्तिष्क को सुख और शांति मिलती है जिससे वह प्रत्येक कठिनाई का सामना बहादुरी के साथ करने योग्य बन जाता है |
(3) धर्म संस्कृति का वह जीवित पक्ष है जो मानव में अनके प्रकार के गुणों को विकसित करता है | इससे मानव के पारिवारिक, आर्थिक, सामाजिक तथा राजनितिक सभी प्रकार के जीवन पर धर्म की छाप लग जाती है |
उपर्युक्त पंक्तियों से स्पष्ट हो जाता है कि व्यक्ति तथा समाज दोनों के लिए धर्म का विशेष महत्व है |
धर्म और शिक्षा
धर्म और शिक्षा का गहरा सम्बन्ध है | एक सच्ची शिक्षा प्रणाली मानव में उन्हीं आदर्शों तथा मूल्यों को विकसित करती है जो संसार के समस्त धर्मों की प्रमुख दार्शनिक विचारधाराओं पर आधारित होते हैं –
ई०डी०वरटन के शब्दों में – धर्म और शिक्षा वास्तविक मित्र है | दोनों का सम्बन्ध प्राकृतिक तथा भौतिक जगत के विरुद्ध आध्यात्मिकता से है | दोनों मानव को उसके वातावरण के सम्पर्क में नहीं, अपितु उसकी दासता से मुक्ति दिलाने का प्रयास करते हैं | शिक्षा मां के दृष्टिकोण को व्यापक बनती है | यह मानव के व्यवहार को उन नैतिक तथा आध्यात्मिक मूल्यों के अनुसार परिवर्तित करती है जिन्हें धर्म के अन्तर्गत महत्वपूर्ण स्थान दिया जाता है | इन मूल्यों के आभाव में मानव के स्वार्थी स्थान नहीं दिया गया तो हम उस महान शक्ति को खो बैठेंगे जो सामाजिक संगठन को दृढ बनाने के लिए परम आवशयक है |
धर्म मानव में सहनशीलता तथा नम्रता आदि गुणों को विकसित करता है | इन गुणों के द्वारा शिक्षा जनतंत्र के आदर्श को सरलतापूर्वक प्राप्त कर सकती है | हमारे देश की धर्मनिरपेक्ष जनतांत्रिक भावना जिसका उद्देश्य सबको समान अवसर प्रदान करता हैं, स्वयं सच्ची धार्मिक भावना पर आधारित है | अत: अब इस बात की आवशयकता है कि हम अपने बालकों में आत्म-अनुशासन तथा कर्त्तव्यपरायणता की भावनायें विकसित करें जिससे वे अपने निजी स्वार्थों को त्याग कर दूसरों की भलाई के लिए सेवा का व्रत धारण कर लें |
धर्म तथा शिक्षा का सम्बन्ध इसलिए भी है की शिक्षा का समबन्ध संस्कृति से है और संस्कृति धर्म का एक महत्वपूर्ण अंग है | चूँकि संस्कृति को पाठ्यक्रम में अवश्य स्थान दिया जाता है, इसलिए धर्म भी पाठ्यक्रम का महत्वपूर्ण अंग है |
वर्तमान युग के जटिल समाज में प्रकृतिवाद तथा प्रयोजनवाद जीवन के नैतिक तथा आध्यात्मिक मूल्यों की रक्षा नहीं कर सकते | ये दोनों दर्शन मानव को जीवन के वास्तविक मूल्यों से अलग हटकर केवल एक भौतिक तथा मानवीय दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं जो पर्याप्त नहीं है | आवशयकता इस बात की है कि मानव को सत्यं, शिवं तथा सुन्दर जैसे चिरनतम मूल्यों को प्राप्त करने के लिए प्रेरित किया जाये जिससे वह एक सुखी, सफल एवं आनन्दमय जीवन व्यतीत करते हुए परब्रह्म परमेशवर के साथ साक्षात्कार कर सके | आदर्शवाद इन सभी मूल्यों को प्राप्त करने में सहयोग प्रदान करता है | अत: शिक्षा को आदर्शवाद पर आधारित होना चाहिये | ध्यान देने की बात है की आदर्शवाद पर धर्म की गहरी छाप लगी हुई है | अत: धर्म को शिक्षा से अलग करना आत्मा को शारीर से अलग करना है |
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट जो जाता है कि धर्म और शिक्षा दोनों का एक ही उद्देश्य है – मानव का सामाजिक तथा आध्यात्मिक विकास करना | इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए धर्म और शिक्षा का प्राचीन काल से ही घनिष्ट समबन्ध बना रहा है | प्राचीन युग में महान धार्मिक आचार्य की महान शिक्षाशास्त्री हुआ करते थे, जो लोगों को जीवन के मूल्यों से अवगत कराते थे तथा उनमें बौद्धिक तथा आध्यात्मिक गुणों को विकसित करके उन्हें वास्तविक जीवन के लिए तैयार करते थे | चूँकि धर्म और शिक्षा दोनों का एक ही उद्देश्य है, इसलिए दोनों में अटूट सम्बन्ध है | इसी सम्बन्ध को दृष्टि में रखते हुए डॉ राधाकृष्णन ने वर्तमान युग में धार्मिक शिक्षा पर बल देते हुए लिखा है – “ यदि हम केवल औधोगिक तथा व्यवसायिक शिक्षा पर बल देकर आध्यात्मिक शिक्षा की उपेक्षा करेंगे, तो सामाजिक बर्बरता तथा राक्षस राज्य के आने में कोई कसर न रह जायेगी | “ उन्होंने आगे लिखा है –“भारतीय परम्परा के अनुसार शिक्षा केवल जीविका कमाने का ही साधन नहीं है और न ही यह विचारों की पाठशाला तथा नागरिकता का स्कूल है | यह मानवीय आत्माओं को सत्य की खोज तथा गुणों को विकसित करने का प्रशिक्षण है | यह दूसरा जन्म है, द्वितीय जन्म है |”
धार्मिक शिक्षा का उद्देश्य
धार्मिक शिक्षा के अग्रलिखित उदेश्य हैं –
(1) नैतिक तथा आध्यात्मिक मूल्यों का विकास – धार्मिक शिक्षा मानव को किसी अमुक धर्म के गूढ़ तत्वों का ही केवल सूचनायें नहीं देती अपितु इसका मुख्य उद्देश्य मानव ने नैतिक तथा आध्यात्मिक मूल्यों को भी विकसित करना है | इन मूल्यों के विकसित होने पर मानव के मन की स्थिरता, उसकी इच्छा-शक्ति तथा उसके चित की एकाग्रता का विकास हो जाता है जिसके परिणामस्वरूप वह सत्य तथा असत्य, पाप तथा पुण्य एवं बुरे तथा भले में अन्तर समझते हुए जीवन के वास्तविक सुख और शान्ति का आनन्द लेने लगता है
(2) व्यापक दृष्टिकोण का विकास – धार्मिक शिक्षा मानव को प्रगतिशील एवं प्रकाश युक्त बनती है | इससे उसके जीवन का दृष्टिकोण व्यापक हो जाता है | चूँकि धर्म मानव को शान्तिप्रिय एवं सहनशील बनता है इसलिए धार्मिक शिक्षा प्राप्त करके मानव समाज सेवा की भावना से ओतप्रोत हो जाता है परिणामस्वरूप वह अपने नीजी स्वार्थों को त्याग कर दूसरों की भलाई करने में रूचि लेने लगता है | इससे सामाजिक नियंत्रण तथा सामाजिक एकता की उन्नति होती है एवं समाज की अनके बुराइयां शैने-शैने: स्वत: ही दूर हो जाती है |
(3) चरित्रों का विकास – धार्मिक शिक्षा बालक में सत्य, सदाचार, इमानदारी तथा नम्रता एवं सहयोग आदि अनके वांछनीय विकसित करके चरित्र का विकास करती है | मेडन वार्ड ने ठीक ही लिखा है – “ चरित्र की धार्मिक शक्ति में नम्रता सम्मलित है, जो किसी व्यक्ति की समूह के प्रति चिन्तन एवं सहयोगपूर्ण क्रिया करने के लिए नतमस्तक बना देती है |
(4) स्कूलों में जनतांत्रिक परम्पराओं का विकास – रायबर्न के अनुसार, धार्मिक शिक्षा का मानव के दैनिक जीवन में तो महत्वपूर्ण स्थान है ही, इससे जनतांत्रिक, स्कूलों की योजनाओं एवं परम्पराओं को सफल बनाने में भी अनके सुविधायें मिलती है | रास का भी मत है कि धार्मिक शिक्षा के द्वारा बालकों को सत्यं, शिवं और सुन्दरं जैसे चिरनतम मूल्यों को प्राप्त करने में सहयोग प्रदान किया जा सकता है | वास्तविकता यह है कि धर्म का सम्बन्ध दो बातों से होता है –(1) मानव का परमात्मा से सम्बन्ध तथा (2) मानव का संसार एवं उसके साथियों से सम्बन्ध | धार्मिक शिक्षा के द्वारा हम राष्ट्र के प्रत्येक बालक को सतर्क कर सकते हैं कि संसार में उसके अतिरिक्त कोई और भी है वह है परमब्रह्म परमेश्वर जो सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान, सर्व गुण सम्पन्न तथा दयालु है | वह सबको प्यार भी करता है तथा न्याय भी देता है | इससे बालक ऐसे कार्यों को करते हुए डरेंगे जिनसे दैनिक जीवन में तनावों और संघर्षों का जन्म होता है |
(5) संस्कृति का संरक्षण एवं विकास – धार्मिक शिक्षा संस्कृति का महत्वपूर्ण अंग होती है | अत: धार्मिक शिक्षा के द्वारा संस्कृति की सुरक्षा भी होती है और विकास भी | डॉ राधाकृष्णन का भी मत है कि सच्ची शिक्षा कार्य संस्कृति की सुरक्षा करना है तथा उसे वर्तमान आवश्यकता की पूर्ति के लिए विकसित करना है | यह कार्य केवल धार्मिक शिक्षा ही कर सकती है |
(6) बालक के सम्पूर्ण व्यक्तित्व का विकास – धार्मिक शिक्षा बालक का सर्वांगीण विकास करती है | दुसरे शब्दों में, बिना धार्मिक शिक्षा के बालक का सम्पूर्ण विकास होना असम्भव है | अत: धार्मिक शिक्षा बालक के सुद्रढ़ तथा स्वतंत्र व्यक्तित्व की आधारशिला है |
(7) मूल-प्रवृतियों का मर्गान्तिकरण एवं शोधन – धार्मिक शिक्षा बालक की मूल-प्रवृतियों का मर्गान्तिकरण एवं शोधन करके उसे समाज उपयोगी कार्यों को करने के लिए प्रेरित करती है | इससे बालक में सामाजिकता का विकास होता है जो स्वयं उसकी तथा समाज की उन्नति के लिए आवशयक है |
धार्मिक शिक्षा के दोष
संसार के प्रत्येक धर्म में चार मौलिक तत्व होते हैं – (1) गुण, (2) अन्धविश्वास, (3) संस्कार अथवा रीती-रिवाज तथा (4) दुसरे संसार का चित्र | गुण दो प्रकार के होते हैं – (1) धनात्मक आज्ञायें जैसे यह क्र, यह कर तथा (2) निषेधात्मक आज्ञायें जैसे यह मत कर, यह मत कर, यह मत कर | बालक के गुणों की शिक्षा का व्यापक रूप है तथा अंधविश्वासों संस्कारों एवं दूसरों संसार का ज्ञान देना संकुचित | बालक को संकुचित रूप से धार्मिक शिक्षा प्रदान करने के निम्नलिखित दोष हो सकते हैं –
(1) कट्टरता तथा संकीर्णता का विकास – संकुचित रूप में धार्मिक शिक्षा प्रदान करने से बालक किसी अमुक धर्म के अनुसार पूजा पाठ तथा कर्मकांड सीखा जाता है | इससे उसमें धार्मिक कट्टरता तथा संकीर्णता विकसित जो जाती है जिसके परिणामस्वरूप राष्ट्रीय एकता खतरे में पड़ सकती है | अत: धार्मिक शिक्षा व्यापक रूप में प्रदान की जानी चाहिये जिससे बालक संसार के समस्त धर्मों में एकता का दर्शन कर सके |
(2) वर्तमान जीवन की अज्ञानता का विकास – संकीर्ण धार्मिक शिक्षा बालक को परलोक के लिए तैयार करती है | इससे उसे वर्तमान की वास्तविकता तथा यथार्थ की ज्ञान नही हो पाता | परिणामस्वरूप वह जीवन की लम्बी यात्रा में चारों ओर भटकता फिरता है |
(3) अस्वस्थ दृष्टिकोण का निर्माण – संकुचित रूप से प्रदान की गई धार्मिक शिक्षा केवल किसी अमुक धर्म में अन्धविश्वास रखने तक ही सीमित रह जाती है | अंधविश्वासों में रंगी हुई शिक्षा बालकों में अस्वस्थ दृष्टिकोण का निर्माण कर सकती है | मुहीउदीन मो० सुल्तान के शब्दों में – “ ऐसी धार्मिक शिक्षा किशोर के संवेगात्मक जीवन में उथल-पुथल एवं संघर्ष उत्पन्न करा देती है | इससे दुहरे व्यक्तित्व का निर्माण हो जायेगा –संसारी मामलों में व्यापक, उदार तथा सहनशीलता एवं धार्मिक मामलों में संकुचित कट्टर तथा असहनशील |”
(4) समस्याओं की उत्पति – संकुचित धार्मिक शिक्षा से अनके धार्मिक समस्यायें उत्पन्न हो सकती है | प्रथम, स्कूल में अनके धर्मों के बालक शिक्षा प्राप्त करने आते हैं | यदि स्कूल में किसी विशेष धर्म की शिक्षा प्रदान की गई तो उससे दुसरे धर्मों मानने वाले बालकों को आपत्ति हो सकती है | दुसरे, धार्मिक शिक्षा प्रदान करने के लिए योग्य तथा अनुभवी शिक्षकों की आवश्यकता होगी जो आसानी से नहीं मिल सकते और चौथे, विभिन्न धर्मों के बालकों को उनके अलग-अलग धर्मों की शिक्षा प्रदान करने के लिए अलग-अलग स्कूलों का निर्माण करना होगा जिसके लिए धन चाहिये | संक्षेप में, किसी विशेष धर्म की शिक्षा प्रदान करने से अनके समस्याओं का जन्म होता है |
(5) महत्वपूर्ण समस्याओं का कोई समाधान नहीं – संकीर्ण धार्मिक शिक्षा प्रदान करने से स्कूल उन समस्याओं को नहीं सुलझा सकेगा जिनका वर्तमान युग के समुदाय में विशेष महत्व है तथा जिन पर स्कूल को विशेष ध्यान देना चाहिये | चूँकि समुदाय की समस्याओं ही स्कूल की समस्यायें ही स्कूल की समस्यायें होती है, इसलिए स्कूल को संकुचित धार्मिक शिक्षा के चक्कर में न पड़कर उन समस्याओं के ही सुलझाने में योग देना चाहिये जो अत्यंत महत्वपूर्ण है तथा जिनका सुलझाना उसका मुख्य कर्त्तव्य है |
(6) मानसिक द्वन्द का विकास – संकुचित धार्मिक शिक्षा बालक में पाप और पुण्य की भावनाओं को विकसित करके उसके मन में द्वन्द पैदा कर देती है | इस दृष्टि से धार्मिक शिक्षा व्यक्तिगत अनुभूति की वस्तु है | इसे सामूहिक ढंग से प्रदान करना उचित नहीं है |
पीछे की ओर ऐतिहासिक दृष्टि
विश्व के इतिहास पर विहंगम दृष्टिपात करने से पता चलता है कि धार्मिक तथा नैतिक सिधान्तों ने शिक्षा के उद्द्शेयों, पाठ्यक्रमों तथा शिक्षण पद्धतियों को प्राचीन युग में ही प्रभावित किया है | उस युग में धर्म ही बालक की शिक्षा का मुख्य साधन था | धर्म ने ही लोगों को एकता, सहयोग तथा शान्ति से रहना सिखाया था | इंग्लैंड में तो सुधार की लहर ने शिक्षा का समस्त उतरदायित्व धर्म (मठों तथा चर्चों) के ही उपर छोड दिया जाता था | शैने-शैने: मध्य युग में धर्म संकीर्ण रूप धारण कर लिया और उनिसवीं शताब्दी से धर्म निरपेक्ष शिक्षा की लहर आई जिसके फलस्वरूप शिक्षा को किसी अमुक धार्मिक सम्म्रदाय तक ही सीमित न रहने पर बल दिया जाने लगा |
अमेरिका में 20वीं शताब्दी के अन्तर्गत होने वाले धार्मिक स्कूल आन्दोलन, माध्यमिक शिक्षा आन्दोलन तथा चारित्रिक शिक्षा आन्दोलन के परिणामस्वरूप स्कूलों में सामान्य तथा उदार शिक्षा की व्यवस्था की गई | इससे शिक्षा के अन्तर्गत धार्मिक तटस्था की नीति को अमरीकी जनतंत्र के सिद्धांतों में सम्मलित कर लिया गया |
भारत तथा अन्य पूर्वी देशों में भी शिक्षा प्राचीनकाल से ही धार्मिक रही | मेक्डोनल का भी मत है कि भारतीय शिक्षा पर हजारों वर्ष पहले से ही धर्म की गहरी छाप रही है | उस युग में प्राय: धार्मिक व्यक्ति की शिक्षक हुआ करते थे, जो भावी पीढ़ी के मस्तिष्क में पवित्रता तथा नैतिकता की गहरी छाप लगा देते थे | बालक की शिक्षा को आरम्भ करने से पूर्व उपनयन संस्कार की पूर्ति करना, शिक्षा प्राप्त करते हुए समय-समय पर व्रत रखना, प्रात: तथा सायंकाल ईश्वर की महिमा का गुणगान करना एवं गुरु के घर में रहते हुए धार्मिक त्योहारों को मनाना आदि सभी बातें बालक के मस्तिष्क में पवित्रता तथा धार्मिकता की भावनाओं को विकसित करती थी तथा उसे आध्यात्मिक जगत की सत्यता का भी ज्ञान प्राप्त हो जाता था | इस प्रकार धार्मिक की देन है, परन्तु उसका मस्तिष्क, बुद्धि तथा आत्मा का सम्बन्ध उस आध्यात्मिक जगत से है जिनके नियमों के अनुसार उसके चरित्र का निर्माण होता है |
मुस्लिम काल में भी शिक्षा पूर्णरूपेण धार्मिक ही रही | प्रत्येक मस्जिद से लगे हुए सभी मकतबों में जहाँ एक ओर बालकों को कुरान की शिक्षा दी जाती थी वहाँ दूसरी ओर मदरसों के सम्पूर्ण पाठ्यक्रम पर भी धर्म की ही छाप लगी हुई थी |
ब्रिटिश शासनकाल में अंग्रेजों ने धार्मिक तटस्था के सिद्धांत को अपनाया तथा औपचारिक एवं सामान्य शिक्षा की व्यवस्था की | चुकी भारतीय लोगों का पालन-पोषण धार्मिक परम्पराओं के अनुसार हुआ था, इसलिए धर्म तथा संस्कृति उनके जीवन का अंग बन गए थे | अत: उन्होंने अंग्रेजों द्वारा शिक्षा के प्रति धार्मिक तटस्थता की नीति को अपनाने का विरोध किया | परिणामस्वरूप चारों और सांप्रदायिक स्कूल खुलने लगे | लोगों को विश्वास हो गया कि धर्म विहीन शिक्षा बालकों के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास नहीं कर सकती | अत: सन 1882 ई० के हन्टर कमीशन से लेकर पंजाब विश्वविधालय आयोग तक अंग्रेजी सरकार ने बिभिन्न आयोगों तथा समितियों की नियुक्ति की जिन्होंने किसी न किसी रूप में शिक्षा को धार्मिक पुट देने के लिए अनके सुझाव पस्तुत किये |
भारत जैसे धर्म-निरपेक्ष राज्य में धार्मिक शिक्षा की स्थिति
15 अगस्त सन 1947 ई० को हम अंग्रेजी नियंत्रण से मुक्त हो गये | चूँकि भारत विभिन्न धर्मों का देश है, इसलिए हमारे नेताओं ने धार्मिक तटस्थता की नीति को ही स्वीकार किया | उन्होंने सोचा कि यदि बालकों को संकुचित रूप से किसी विशेष धर्म की शिक्षा प्रदान की गई, तो उन्हें यह विश्वास हो जायेगा कि उनका ही धर्म संसार के सभी धर्मों से उत्तम है | ऐसे संकुचित धार्मिक शिक्षा से बालकों में जातीयता, प्रान्तीयता तथा साम्प्रदायिकता की संकीर्ण एवं कट्टर आवांछनीय भावनायें विकसित हो जाएँगी जिससे राष्ट्रीय एकता को खतरे में पड़ने का भय है | चूँकि ऐसी धार्मिक शिक्षा से लाभ के स्थान पर हानि होने का भय था इसलिए महात्मा गाँधी ने भी बेसिक शिक्षा की योजना से धर्म की शिक्षा को निकल दिया था |
धार्मिक शिक्षा के उपर्युक्त दोषों की दृष्टि में रखते हुए भारतीय संविधान में धार्मिक शिक्षा की ओर से निरपेक्षता का भाव प्रकट किया गया है | धारा 19 के अनुसार भारत में प्रत्येक नागरिकता को आध्यात्मिक स्वत्नत्रता है जिसके अनुसार वह किसी भी धर्म को माने, उसका आचरण करे तथा उसका प्रचार करे | धारा 21 के अनुसार किसी भी नागरिक पर धार्मिक संस्था के लिए अथवा किसी मत के लिए कोई कर नहीं लगाया जा सकता है | धारा 22 के अनुसार किसी भी राजकीय स्कूल में किसी भी धर्म की शिक्षा नहीं दी जा सकती है | परन्तु हाँ, केवल वे संस्थाएं ही धार्मिक शिक्षा प्रदान कर सकती है जिनको किसी ट्रस्ट ने धार्मिक शिक्षा ही देने के लिए स्थापित किया हो | ध्यान देने की बात है कि ऐसी संस्थाओं में किसी बालक को उसकी ततः उसके अभिभावकों की इच्छा को बिना धार्मिक कृत्यों में भाग लेने के लिए विवश नहीं किया जा सकता है | माध्यमिक शिक्षा आयोग ने भी भारत में धार्मिक शिक्षा के सुझाव प्रस्तुत करते हुए लिखा है – “संविधान के अनुसार स्कूलों में धार्मिक शिक्षा नहीं दी जा सकती | वे केवल ऐच्छिक आधार पर और स्कूल की पढाई के घण्टों के अतिरिक्त धार्मिक शिक्षा दे सकते हैं | ऐसी शिक्षा विशेष धर्म के बालकों को ही और अभिभावकों तथा स्कूल प्रबंधकों की इच्छा से ही दी जा सकती है | इस सुझाव को प्रस्तुत करने से हम यह बताना चाहते हैं कि स्कूल में भेदभाव द्वेष, धार्मिक घ्रणा तथा कट्टरता को प्रोत्साहित न किया जाये |
उपर्युक्त पंक्तिओं से स्पष्ट हो जाता है कि हमारे राज्य का अपना कोई निजी धर्म नहीं है | इसका धर्म तो केवल जनतंत्र की सत्यता है, जो स्वयं ही एक महान धर्म है | वास्तविकता यह है कि जनतंत्र और धर्म के व्यापक अर्थ में कोई अन्तर नहीं है | धर्म के व्यापक अर्थ में हम बालक के अन्दर उन्हीं गुणों को विकसित करना चाहते हैं जो संसार के सभी धर्मों में सामान रूप में पाए जाते हैं | जनतंत्र भी बालकों में इन्हीं गुणों को विकसित करना चाहता है | इस दृष्टी से जनतंत्र और धर्म एक ही है |
स्कूलों में धार्मिक शिक्षा की व्यवस्था करते समय सावधानी
भारतीय स्कूलों में धार्मिक शिक्षा की व्यवस्था करते समय निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना चाहिये –
संकीर्ण धार्मिक शिक्षा बालक को परलोक के लिए तैयार करती है | इससे उन्हें वर्तमान जीवन की वास्तविकताओं तथा यथार्थताओं का ज्ञान नहीं हो पाता | यह अनुचित है | अत: बालकों को दुसरे संसार का ज्ञान न देकर समुदाय की वास्तविकता समस्याओं को सुलझाने के लिए तैयार करना चाहिये |
स्कूल में धार्मिक शिक्षा प्रदान करते समय किसी अमुक धर्म के अंधविश्वासों तथा संस्कारों का ज्ञान न दिया जाये | इससे शिक्षा ब्रह्म आडम्बरों से भर जाती है | इस दृष्टि से बालक को उन गुणों अथवा सत्यों का ज्ञान कराया जाना चाहिये जो संसार के सभी धर्मों में सामान रूप से पाये जाते हैं |
उक्त गुणों की शिक्षा देने के लिए स्कूल के वातावरण की रचना इस प्रकार से की जानी चाहिये कि बालक में सभी गुण स्वयं ही विकसित हो जायें |
बालकों को धार्मिक शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से बाध्य न किया जाये |
शिक्षक का जीवन ऐसा आदर्शपूर्ण होना चाहिये जिसका अनुकरण करते हुए बालक उत्तम आचरणों को सीखने के लिए स्वयं ही प्रेरित होते रहें |
धार्मिक शिक्षा पर इनता बल न दिया जाये कि स्कूल, मंदिर, मस्जिद, गिरिजा तथा गुरुद्वारा बन जाये |
स्कूल में धार्मिक शिक्षा अभिभावकों की इच्छा के अनुसार दी जानी चाहिये |
बालकों में सभी धर्मों के सामान गुण विकसित करने के लिए संसार के सभी प्रसिद्ध सन्तों एवं महापुरुषों की जीवन-कथाओं, धार्मिक कथाओं, दृष्टान्तों, कहानियों तथा परम्परगत-कत्थाओं का अध्ययन कराया जाना चाहिये
किशोर तथा किशोरिओं का आलोचनात्मक दृष्टिकोण विकसित हो जाता है | अत: उन्हें वास्तविक अनुभव करने के अवसर प्रदान किये जाने चाहियें एवं समय-समय पर स्कूल में धार्मिक पुरुषों के जन्म दिवस भी मनाये जाने चाहियें |
धर्म में व्यापक रूप से उस विषय में अधिक महत्व दिया जाना चाहिये जो समय-सारणी के अनुसार पढाया जाता है | वास्तविकता यह है कि धर्म की छाप तो स्कूल की प्रत्येक क्रिया पर प्रत्येक समय पूर्णरूपेण पड़नी चाहिये | इसके लिए स्कूल का समस्त वातावरण अत्यंत प्रभावशाली होना चाहिये | इससे बालक स्वयं ही अच्छे आचरणों की ओर आकर्षित होते रहेंगे |
धार्मिक शिक्षा प्रदान करते समय विभिन्न धर्मों के अन्ध-विश्वासों, संस्कारों तथा परलोक की गूढ़ बातों की तुलना अथवा उनके विषय में किसी प्रकार का कोई विरोध प्रकट नहीं करना चाहिये | इससे बालकों में अपने धर्म के प्रति संकीर्णता तथा कट्टरता विकसित हो जाती है तथा वे अन्य धर्मों से घ्रणा करने लगता है | धार्मिक शिक्षा तो ऐसी होनी चाहिए जिससे संसार के सभी वर्गों की एकता का आभास हो सके | इसके लिए सभी धर्मों में सामान रूप से पाए जाने वाले गुण ही उपयुक्त है | गाँधी जी का भी मत था कि- “ नैतिक सिद्धांत सभी धर्मों में समान है | इन सबका ज्ञान बालकों को आवश्य दिया जाना चाहिये | “
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