मार्क्स के चिंतन का क्षेत्र व्यापक था. हालांकि उसका मूल चिंतन अर्थशास्त्र और राजनीति से संबंधित है. उसकी सबसे महान कृति ‘पूंजी’ अर्थशास्त्र जैसे निष्ठुर माने जाने वाले विषय की भी मानवतावादी दृष्टि से विवेचना करती है. पूंजीवाद की तार्किक आलोचना करते हुए वह उसे कठघरे में ले जाती है. लेकिन मार्क्स का बुद्धि–विस्तार वहीं तक सीमित नहीं है. अर्थशास्त्र और राजनीति के अतिरिक्त उसने दर्शन, इतिहास, समाज आदि पर गंभीर लेखन किया था. वाल्तेयर, रूसो, प्रूधों,हीगेल, रिकार्डो आदि से प्रभावित मार्क्स द्वंद्ववाद का समर्थक था. चूंकि द्वंद्व के लिए दो पक्षों का आमने–सामने होना आवश्यक है, इसलिए उसने सृष्टि में स्थूल के अस्तित्व को स्वीकार किया और तदनुसार भौतिकवादी यथार्थ को प्रमुखता दी. मार्क्स का दर्शन–संबंधी ज्ञान भी अद्भुत और श्लाघनीय था. यदि वह किसी कारण राजनीति और अर्थशास्त्र के अध्ययन से बचता तो निश्चय ही दर्शन के क्षेत्र में अपनी खास पहचान बनाता. तब उसकी चिंतनधारा हीगेल के दर्शन की कुछ और गांठें खोलती. उसको कुछ नया विस्तार देती. मार्क्स के दार्शनिक विचारों की झलक, उसकी ज्ञान–मीमांसा मुख्यतः ‘आ॓न दि ज्यूइश क्वश्चन’, ‘थीसिस आ॓न फायरबाख’ आदि में देखने को मिलती है. उसने ये पुस्तकें क्रमशः ब्रूनो बायर और फायरबाख की पुस्तकों की आलोचना करते हुए रची थीं. ये दोनों विद्वान भी हीगेल के अनुयायी थे. दोनों ने अपनी–अपनी तरह से हीगेल के दर्शन को विस्तार दिया था. हीगेल से ही प्रेरित मार्क्स का द्वंद्वात्मक भौतिकवाद अपने आप में एक विलक्षण स्थापना थी,जिसने उसको भौतिकवादी दार्शनिकों की पहली कतार में सम्मिलित कर दिया था.
मार्क्स के अनुसार चूंकि पदार्थ से चेतना की निष्पत्ति होती है, इसलिए ज्ञान का स्वरूप भी अनिवार्यतः वास्तविक होना चाहिए. यानी हम जो सोचते हैं, निष्कर्ष निकालते हैं, वह वास्तविक और विश्वसनीय है. कर्ता अथवा भोक्ता कर्म का सृजन नहीं करता. बल्कि कर्म वस्तु रूप में संसार में अलग से उपलब्ध रहता है. वह क्रियाओं और मानव–संबोधि की अनिवार्य परिणति के रूप में सामने आता है. वह कर्ता से भिन्न, उससे परे और स्वतंत्र है. ज्ञान–प्राप्ति के वास्तविक स्रोत मनुष्य के इंद्रियानुभव, दृश्य, मनोवेग, मस्तिष्क में पहले से ही मौजूद मानसिक छवियां आदि हैं, जिनके वह संपर्क में आता है. मार्क्स के अनुसार इस अखिल बृह्मांड में कुछ भी ऐसा नहीं है, जिसको जाना न जा सके. जो इंद्रियों का विषय न होकर सर्वथा अज्ञेय हो. जो है, उसकी स्वतंत्र सत्ता है, पूर्णतः ज्ञेय है, इंद्रियों के माध्यम से उसको जाना जा सकता है. चूंकि दृश्यमान जगत एक वास्तविक सत्ता है,इसलिए उससे उपजा ज्ञान भी वास्तविक है.
मार्क्स स्वयं वैज्ञानिक नहीं था. मगर वह यूरोप के वैज्ञानिक प्रबोधन का कायल था. ज्ञानार्जन की वैज्ञानिक पद्धति पर उसका अटूट विश्वास था. इसलिए उसने सतत प्रेक्षण और विश्लेषण पर आधारित वैज्ञानिक ज्ञान का पक्ष लिया था. उसके अनुसार ज्ञान के वास्तविक स्रोत वैज्ञानिक प्रेक्षण और विश्लेषण हैं. वे तकनीकी व्यवहार हैं, जो वैज्ञानिकता की कसौटी से आविष्कृत किए जाते हैं.उनके निष्कर्षों को जाना–परखा जा सकता है. सामान्य परिस्थितियों में वे सार्वकालिक होते हैं. मार्क्स ने अनुभववाद को भी सीमांकित किया था. उसके अनुसार अकेले अनुभव से वास्तविक ज्ञान तक पहुंच पाना संभव नहीं. जब तक उसको बुद्धि की कसौटी पर परखा, तकनीकी युक्तियों से जांचा न जा सके. उल्लेखनीय है कि तकनीकी विकास ने अनुभववाद की विकृतियों को सामने ला दिया था.अनुभव स्थिति–सापेक्ष होते हैं. इसलिए अनुभव के दौरान व्यक्ति के पूर्वाग्रहों के उसके निष्कर्षों पर हावी होने का खतरा सदैव बना रहता है. यद्धपि ज्ञान का आशय अनिवार्यरूप से ज्ञान ही है. अनुभव से अर्जित बोध को वैज्ञानिक प्रबोध में बदलने के लिए, आंकड़ों के संश्लेषण–विश्लेषण द्वारा अंतिम निष्कर्ष तक पहुंचने के लिए वैचारिक चैतन्य अनिवार्य है. तभी उनपर गहराईपूर्वक विचार संभव है.मार्क्स ने अनुभववाद की आलोचना की थी. उसके अनुसार अनुभववाद बुर्जुआ वर्ग की गपशप है,वाग्विलास है. धोखा है, सत्य से परे ले जाने वाला है.
मार्क्स ने अनुभवाद को अपरिपक्व विचार माना था. मगर उसका बुद्धिवाद से भिन्न था. उसका बुद्धिवाद असल में अनुभववाद और यथार्थवाद के बीच की चीज था. किंतु अपनी प्राथमिकताओं के चलते वह इसपर अधिक काम न कर सका. सच तो यह है कि मार्क्सवादी ज्ञानमीमांसा के समर्थक विद्वानों ने अभी तक खुद को सामान्य स्तर का अनुभववादी और अनुभवहीन यथार्थवादी ही सिद्ध किया है. मार्क्सवादी भौतिकवाद की विशिष्टता इस तथ्य में निहित है कि इसकी वास्तविक छवि दूसरे के भीतर नजर आती है, जिसमें व्यावहारिकता का संपुट है और पर्याप्त लचीलापन है.मार्क्सवादी चिंतन की मूल अवधारणा है कि हमारी चेतना के समस्त तत्व हमारी आर्थिक आवश्यकताओं से निर्धारित होते हैं. वही हमारे आचरण और सामाजिक व्यवहार को तय करते हैं.इससे यह संकेत भी मिलता है कि समाज के प्रत्येक वर्ग का स्वतंत्र दर्शन और विज्ञान होता है. यह विज्ञान और मानव समाज के संबंधों की अनिवार्यता की ओर भी इंगित करता है. मार्क्स के अनुसार सर्वथा निरपेक्ष और समाज से परे विज्ञान की अभिकल्पना असंभव है. यही वह सत्य है जो सफलता की ओर ले जाता है, और यही वह कोशिश है जो सत्य की स्थापना के लिए नए मापदंड गढ़ती है.
अनुभववाद और बुद्धिवाद के बीच यह बहस कोई नई और अनोखी नहीं थीं. मार्क्स से पहले ही अनुभववादी जा॓न ला॓क और बुद्धिवादी देकार्त के अनुयायियों के बीच शताब्दियों लंबी बहस छिड़ चुकी थी. इस बहस को इटली के महान दर्शनशास्त्री इमानुएल कांट ने पटरी पर लाने का काम किया था.उसके बाद हीगेल का आदर्शवादी द्वंद्ववाद भी विपरीत ध्रुवों के मध्य समन्वय का प्रयास जैसा था.मगर मार्क्स को हीगेल के आदर्शवाद पर भरोसा न था. उसने हीगेल के द्वंद्वात्मक दर्शन की सामाजिक परिस्थितियों के आधार पर समीक्षा की और उसके माध्यम से सामाजिक संघर्षों की व्याख्या करने का प्रयास किया. इस प्रयास में उसको सफलता भी मिली. यही कारण है कि माक्र्सवाद के बीच बुद्धिवाद और अनुभववाद दोनों ही दर्शन एक–दूसरे के समानांतर गतिमान दिखाई पड़ते हैं. उनके बीच समन्वय की कोई कोशिश नजर नहीं आती. मगर उसका यह एकदम सुस्पष्ट संदेश है कि हमारा ज्ञान परमसत्य की खोज के लिए समर्पित है, लेकिन क्षण–विशेष के अनुसार देखें अथवा सीमित अर्थों में उसका आकलन करें तो वे आपस में बड़ी आसानी से एक–दूसरे के संबंधी और पराश्रित हैं. मार्क्स का विचार था कि सत्य हमारी आवश्यकताओं से जुड़ा है, उनपर आश्रित है तो हमारा ज्ञान न तो यथार्थ का अनुगामी बन सकता है, न उसकी पूरक छायाप्रति.
मार्क्स की दार्शनिक विचारधारा अकाट्य नहीं है. उसमें जगह–जगह विरोधाभास नजर आते हैं. इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि वह एक एक्टीविस्ट लेखक था. उसकी प्राथमिकताएं भिन्न थीं.वह मजदूर आंदोलन के द्वारा पूंजीवाद के जिन्न को कैद करने का सपना देखता था. उसका अध्ययन व्यापक था. अपनी वैचारिक आस्था से प्रतिबद्ध मार्क्स के विचारों में ईमानदारी है. उसका आग्रह सामाजिक–राजनीतिक क्रांति समाज में आमूल परिवर्तन के प्रति था. अपने विचारों के बल पर उसने समाज के बड़े वर्ग को बहुत गहरे तक प्रभावित किया है. इसलिए किसी के लिए भी उसकी उपेक्षा कर पाना असंभव है. उसके दर्शन–संबंधी विचारों की सीमा और उनके विरोधाभास के बावजूद उनमें इतना कुछ है, जिसके कारण वह शताब्दियों से विद्वानों को प्रभावित करता आया है. भविष्य में भी उसके विचारों की प्रासंगिकता बनी रहेगी, इसमें संदेह नहीं. सच तो यह है कि उनीसवीं शताब्दी का वह अकेला दार्शनिक था, जिसने आम और खास सभी को समानरूप से प्रभावित किया और आज भी जब परिवर्तनकारी राजनीति पर चर्चा होती है, मार्क्स का नाम सम्मान के साथ लिया जाता है.
धर्म–संबंधी विचार
उपभोक्ता वस्तु, श्रम, उत्पादन–संबंध, अधिलाभ आदि अर्थशास्त्रीय विषयों पर मार्क्स ने ‘पूंजी’ में गहन विमर्श किया है. वह एक ओर तो इन विषयों की वस्तुनिष्ठ ढंग से समीक्षा करता है,उपभोक्ता और वस्तु के स्थूल संबंधों को दर्शाता है, वहीं दूसरी ओर उसके मन में पैठा दार्शनिक स्थितियों की गहराई में जाकर तात्विक विवेचना करता है. वह अर्थशास्त्र को दार्शनिक आधार देता है. दर्शन का मानवीकरण करते हुए वह उसको सर्वहारा वर्ग की समस्याओं के निदान के लिए एक जरूरी उपकरण का रूप देता है. यही वह गुण है, जो उसके आर्थिक चिंतन को मौलिक और अनूठा सिद्ध करता है. पूंजी में मार्क्स ऐतिहासिक भौतिकवाद की चर्चा करते हुए यह प्रमाणित किया है कि मानवीय चेतना के सभी तत्व मनुष्य की अर्थ–संबंधी आवश्यकताओं का परिणाम हैं, जो सतत परिवर्तनशील हैं. यह नियम धर्म, आस्था, सौंदर्यशास्त्र और नैतिकता पर भी समानरूप से लागू होता है. जहां तक नैतिकता का संबंध है, ऐतिहासिक भौतिकवाद हमें ऐसा कोई सार्वकालिक सूत्र उपलब्ध नहीं कराता, जिससे यह सिद्ध हो कि नैतिकता समाज निरपेक्ष है. सच तो यह है कि नैतिकता और समाज परस्पर आबद्ध होते हैं. समाज से परे उसकी नैतिकता के कोई मायने नहीं. उल्लेखनीय है कि प्रत्येक समाज की अपनी नैतिकता होती है. ऐसे में सर्वहारा वर्ग के लिए नैतिकता के मापदंड क्या हों? मार्क्स सर्वहारा वर्ग को सर्वाधिक प्रगतिशील इकाई मानता था. उसके अनुसार सर्वहारा वर्ग का एकमात्र नैतिककर्म यह होगा कि वह बुर्जुआ वर्ग को उखाड़ फेंके और एक नए समाज की रचना पर काम करे. इसके लिए यदि हिंसा का सहारा लेना पड़े तो क्षम्य है. मार्क्स के अनुसार बड़े उद्देश्य के लिए इस तरह की हिंसाएं स्वीकार्य हैं.
सौंदर्यशास्त्र में स्थितियां और जटिल हो जाती हैं. हमें बिना हिचक यह मान लेना चाहिए कि प्रत्येक वस्तु में एक अंतर्निहित गुण होता है, जो उसको अन्य वस्तुओं से अलग और विशिष्ट बनाता है,वही गुण उस वस्तु के सौंदर्यबोध के लिए आधार का काम करता है, जिसके अनुसार उस वस्तु का सुंदर अथवा कुरूप होना तय किया जाता है. कोई वस्तु समाज के प्रत्येक व्यक्ति की प्रशंसा प्राप्त कर सके, प्राणीजगत के प्रत्येक सदस्य को प्रिय हो, यह संभव नहीं. इसके विपरीत यदि कोई वस्तु व्यक्ति–विशेष की अनिवार्यता है, तो वह उसके बाह्यः रूप की उपेक्षाकर उसकी प्रशंसा ही करेगा.वस्तु का लोकप्रिय होना, सभी के लिए प्रशंसनीय होना, विकासवाद से भी जुड़ा है. यदि किसी प्राणी को किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं है, तो वह वस्तु सुंदर होने के बावजूद उसकी प्रशंसा अथवा सहानुभूति प्राप्त करने में असमर्थ सिद्ध होगी. समाज में प्रत्येक वर्ग की कुछ सामान्य आवश्यकताएं होती हैं, जो दूसरे समाज के सदस्यों से अलग होती हैं. उन्हीं के आधार पर वह समाज वस्तु–विशेष का अपने पक्ष में मूल्यांकन करता है. मूल्यांकन के परिणाम ही वस्तु–विशेष को लेकर उसके सौंदर्यबोध का निर्धारण करते हैं. इस विश्लेषण के उपरांत मार्क्स जीवन में कला की उपयोगिता की समीक्षा पर आता है.
‘कला जीवन के लिए’ या ‘कला सिर्फ कला के लिए’—विद्वानों के बीच यह एक पुरानी बहस है.मार्क्स इस बहस में नहीं पड़ता. बल्कि जैसी कि उम्मीद की जाती है, वह प्रतिबद्ध ढंग से सर्वहारावर्ग का पक्ष लेता है. निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले ही वह स्पष्ट कर देता है कि जीवन से निरपेक्ष कला का कोई मूल्य नहीं है. कला का सौंदर्य इसमें हैं कि वह जनसाधारण के जीवन को कितना सुखी और समृद्ध बनाती है. या वैसी प्रेरणाएं जगाती है, जिससे इस वर्ग के पूंजीवादी शोषण से मुक्ति का रास्ता साफ हो सके. इसलिए वह कला को जीवन से जोड़ता है. क्योंकि जीवन को सौंदर्यवान बनाने के लिए उसकी उपयोगिता असंद्धिग्ध है. लेकिन कला को सर्वहारा वर्ग की वीरता के उन कारनामों का दस्तवेजीकरण करना चाहिए जो वह समाजवादी दुनिया की स्थापना के लिए संघर्ष के दौरान प्रदर्शित करता है. वह कलाओं का समाजीकरण कर, जनमानस पर उनकी पकड़ को बढ़ाना चाहता है. प्रकारांतर में इस पकड़ का उपयोग वह सामाजिक परिवर्तन के लिए करना चाहता है.
धर्म को लेकर मार्क्स का कुछ ऐसा ही सोचना था. वस्तुतः धर्म ही वह चीज है, जिसको लेकर मार्क्स शुरू से बेहद आलोचक था. मार्क्स द्वारा प्रणीत द्वंद्वात्मक भौतिकवाद धर्म को विकास के लिए अनावश्यक और प्रतिरोधी मानता है. उसके अनुसार धर्म झूठी और मनगढ़ंत बातों का ऐसा गुंबद तैयार करता है, जो न केवल विज्ञान–विरुद्ध होती हैं, बल्कि मनुष्य को डरपोक और प्रतिगामी भी बनाती हैं. इसलिए केवल विज्ञान ही मनुष्य को वास्तविक ज्ञान की ओर ले जाने में सक्षम है.वह आलोचना, समीक्षा अथवा पुनः विवेचन का अवसर ही नहीं देता. हर धर्माचार्य धार्मिक प्रतीकों,रीति–रिवाजों को आस्था का विषय बनाकर जनमानस पर आरोपित करता है. धार्मिक चर्चाओं के दौरान वह सिर्फ विश्वास पर जोर देता है और किसी भी प्रकार के संदेह आदि को अधार्मिक कहकर नकारता है. परिणामतः धार्मिक अंधविश्वास मानवीय विवेक को कुंठित करने का प्रयास करते हैं.इससे ज्ञान का स्वाभाविक विकास अवरुद्ध हो जाता है. धार्मिक प्रतीकों, पूजा–पद्धतियों और उनसे जुड़े कर्मकांडों का मूल स्वरूप सामंतवादी होता है, जो मानवीय अधिकारों का हनन कर, मनुष्य के नैसर्गिक विकास पर बुरा असर डालती हैं. चूंकि धर्म सामान्यतः मानवीय विवेक की उपेक्षा करता है,इसलिए इससे वैचारिक जड़ता का विकास होता है.
धर्म भय और असुरक्षा की भावना से जन्मता है. वह मनुष्य को ईश्वर जैसी भ्रांत शक्तियों के आगे नतमस्तक होने को उकसाता है. भयभीत मनुष्य बाहरी मदद की अपेक्षा करता है और अपने समाज की मदद न मिलने पर अतींद्रिय शक्तियों के आगे झुकता चला जाता है. इससे उसके धार्मिक–आर्थिक और सामाजिक शोषण की संभावना को विस्तार मिलता है. उसके अंतर्मन में पैठा हुआ भय एवं चुनौतियों से पलायन का स्वभाव उसे अपने उत्पीड़कों के आगे झुकने, उत्पीड़न के कारणों से विमुख रहने, मृत्योपरांत न्याय की आस में जीने, अभावों को अपनी नियति मान लेने को विवश कर देता है. वह अपनी खुद की शक्ति और क्षमताओं को समाज के शीर्षस्थ वर्गों की शक्ति और क्षमताएं मानने लगता है. जिससे उसका अपने प्रति अविश्वास लगातार बढ़ता जाता है. धर्म मनुष्य को भाग्यवादी बनाता है. वह उसके आत्मविश्वास का हनन कर, उसको दासभाव से भर देता है.परिणामस्वरूप वह उन शक्तियों से न्याय और कल्याण की अपेक्षा करने लगता है, जिनका कोई अस्तित्व ही नहीं है. बल्कि जिनकी सोची–समझी अभिकल्पना समाज के शीर्षस्थ वर्गों द्वारा निहित स्वार्थों के लिए, समाज के सर्वहारावर्ग के शोषण तथा उसको उलझाए रखने के लिए की गई है.
मार्क्स के अनुसार भू–सामंत, पूंजीपति जैसे उत्पीड़क वर्ग धर्म का सम्मान करने का दिखावा करते हैं.वे धर्म को पवित्र विश्वास के रूप में जनमानस पर आरोपित करते रहते हैं. इसके पीछे उनका वास्तविक उद्देश्य समाज के बहुसंख्यक मेहनतकशों, शिल्पकारों, किसानों और मजदूरों को अपने चंगुल में बांधे रखने का होता है, ताकि उसके माध्यम से वे उनपर राज्य कर सकें. धर्म मानवीय विवेक का हनन कर व्यक्ति को रूढ़िवादी एवं पलायनोन्मुखी बनाता है. उसकी सामंती वृत्तियां पूंजीपतियों और सामंतों के लक्ष्य को आसान और संभव बनाती हैं. सामंतीवर्ग की विलासिता और शोषण–आधारित समृद्धि को धर्म दैविक वरदान सिद्ध करने का प्रयास करता है, इससे सर्वहारा के मन में यह विश्वास जगने लगता है कि शीर्षस्थ वर्ग की अतुलनीय संपन्नता और सुख–वैभव ईश्वरीय वरदान हैं. उसके द्वारा पूर्वजन्म में किए गए पुण्यों का फल है. परिणामस्वरूप एक ओर तो वह समाज के उत्पीड़क वर्ग को बड़ा और महान समझने लगता है. दूसरी ओर वह स्वयं कुंठाग्रस्त होकर पलयानवादी बन जाता है. उसका ध्यान शीर्षस्थ वर्गों की शोषणकारी नीतियों और उस भेदकारी व्यवस्था से हट जाता है, जो धर्म के सहारे फूलती–फलती है तथा प्रकारांतर में समाज में ऊंच–नीच एवं सांप्रदायिक वैषम्य को बढ़ावा देती हैं. धर्ममय आचरण द्वारा अपरिमित पारलौकिक सुख–समृद्धि की मरीचिका, सर्वहारा वर्ग को हालात से समझौता करने, धर्म की लकीर पीटते रहने तथा दूसरों का अनुगामी बनने के लिए प्रेरित करती है. वह क्रांति की संभावनाओं पर कुठाराघात करती है, जिससे समाज पर यथास्थितिवाद हावी होता चला जाता है. धर्म के इन्हीं प्रतिगामी गुणों के कारण मार्क्स उसके संपूर्ण उन्मूलन के पक्ष में था. सर्वहारा के शोषण को दूर करना है तो उसको धर्म से दूर रखना होगा, नैतिकता और सौंदर्यशास्त्र तो परिवर्तनशील हैं, धर्म के आमूल उन्मूलन के साथ ही वे भी पटरी पर लौट आएंगे—ऐसा मार्क्स का मानना था.
इस संदर्भ में उसने अपने गुरु हीगेल को भी आड़े हाथों लिया था. अपनी पुस्तक ‘फिला॓स्फी आ॓फ राइट’ में धर्म की आवश्यकता को रेखांकित करते हुए हीगेल ने कहा था कि ‘धर्म का प्राथमिक उद्देश्य सामाजिक एकता का विस्तार है.’ धर्म मानव–समूहों को परस्पर करीब लाता है. पूजा, पद्धति,संस्कार आदि के माध्यम से उनमें ऎक्यभाव कायम करता है. इसकी आलोचना करते हुए मार्क्स ने लिखा था कि धर्म का एकमात्र लक्ष्य राजनीतिक–आर्थिक–सामाजिक असमानता की सुरक्षा और उसको बढ़ावा देना है. आस्था को केंद्र बनाकर लोगों को तर्क एवं ज्ञान–विज्ञान से विमुख रखना है. हीगेल के ‘धर्म के आदर्शात्मक योगदान’ की बखिया उधेड़ते हुए मार्क्स ने धर्म को प्रतिगामी शक्ति और ‘संसार की उल्टी मति को दर्शाने वाला…’ बताया था. धर्म का निषेध करते हुए उसने कहा था कि मनुष्यता का वास्तविक कल्याण इसमें है कि वह विज्ञान की शरण ले. धर्म के जुए को अपने कंधे से उतार फेंके. जीवन की समस्याओं के निपटान हेतु विवेक और तर्कबुद्धि से काम ले. उसने आगे लिखा था कि धर्म—
‘इस संसार की विपरीत मति है…दर्शनशास्त्र का सर्वप्रथम कर्तव्य, जो इतिहास के भले के लिए होगा, यह है कि वह इसके अपवित्र चेहरों पर पड़े नकाब को उतार फेंके. एक बार जब धर्म का वास्तविक चेहरा समाज के सामने आएगा, तब समाज फिर से अपने पवित्र रूप में लौटने लगेगा.’
मार्क्स ने धर्म की उपस्थिति को मनुष्यता का द्दास माना है. उसके अनुसार धर्म मनुष्य को स्वार्थी बनाता है. इससे मुक्ति तभी संभव है, जब सर्वहारा वर्ग अपनी एकजुटता की क्रांतिकारी ताकत को पहचानकर मुक्ति–संघर्ष के लिए उन्मुख होगा. पूंजी एवं धर्म की अधिसत्ता को उखाड़ फेंकेगा. धर्म की विरूपताओं तथा उसकी अनावश्यकता पर विचार करते हुए मार्क्स अंत में प्रूधों से इस मायने में सहमति दर्शाता है कि समाज में निजी संपत्ति की मान्यता समाप्त होनी चाहिए. साथ ही वह प्रूधों से एक कदम आगे बढ़ जाता है, जिसने निजी संपत्ति की अवधारणा का केवल विरोध किया था.यह नहीं बताया था कि इस लक्ष्य को प्राप्त कैसे किया जा सकता है. मार्क्स को सर्वहारा वर्ग की शक्ति और संकल्प में भरोसा था. इसलिए उसने इसी वर्ग का आह्वान किया था कि वह निजी संपत्तिधारकों को उखाड़ फेंके. उत्पादन के समस्त साधनों को अपने कब्जे में लेकर एक समरस समाज की स्थापना की शुरुआत करे. यह बुर्जुआ वर्ग द्वारा श्रमिक वर्ग के शताब्दियों से चलते आ रहे शोषण के अंत की दिशा में पहला कदम होगा, जिसकी अंतिम परिणति वर्गहीन, शोषण–मुक्त साम्यवादी समाज की स्थापना में होगी. यह सर्वहारा क्रांति के बाद की अवस्था है.
वैज्ञानिक समाजवाद
समाजवाद मार्क्स का विचार नहीं था. मगर आधुनिक विद्वानों में ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो उसको समाजवाद का चैंपियन स्वीकारते हैं. जबकि उसके निर्भीक एवं ओजस्वी लेखन से प्रभावित कुछ विद्वान उसे ‘क्रांतिकारी साम्यवाद’ का जन्मदाता कहते हैं. जिससे उसका आशय था—सर्वहारा क्रांति पर आधारित वर्गहीन समाज की स्थापना, जो माक्र्सवाद का प्रमुख लक्ष्य था. पूंजीवाद और सामंतवाद के वर्चस्वयुक्त दौर में वह सचमुच क्रांतिकारी स्थापना थी. ऐसा ही सपना मार्क्स ने1848 में कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो के माध्यम से देखा था. मगर उसने जिस प्रकार एक के बाद एक आर्थिक एवं सामाजिक पहलुओं का तार्किक विश्लेषण किया है, उसको देखते हुए उसके समाजवादी चिंतन को ‘वैज्ञानिक समाजवाद’ का नाम देना ही समुचित होगा, जैसा कि ऐंगल्स ने भी माना था.उल्लेखनीय है कि क्रांतिकारी साम्यवाद सर्वहारा–क्रांति का परम लक्ष्य है. वह श्रमिक अधिनायकवाद के बाद की स्थिति है. मार्क्स को सर्वहारावर्ग से काफी उम्मीदें थीं. उसका मानना था कि क्रांति के पहले चरण में सर्वहारावर्ग बुर्जुआ वर्ग को अपदस्थ कर सत्ता पर कब्जा कर लेगा. उसके बाद वह वर्गहीन समाज की स्थापना के लिए योजनाबद्ध तरीके से काम करेगा. वैज्ञानिक समाजवाद एक ऐतिहासिक अवस्था है, जो उत्पादन के संसाधनों के अनुसार सामज की सहज परिणति है. प्रथम दृष्ट्या ‘क्रांतिकारी साम्यवाद’ और ‘वैज्ञानिक समाजवाद’ एक–दूसरे के प्रतिस्पर्धी जान पड़ते हैं. ‘वैज्ञानिक समाजवाद’ सामान्यतः मार्क्स के समाजवादी विचारों को मान्य ठहराता है.
उल्लेखनीय है कि मार्क्स अपने अर्थनीति संबंधी विचारों को किसी पर थोपता नहीं है. वह सीधे संवाद करता है. अपनी मान्यता के पक्ष में तर्क रखता है. उनकी विश्वसनीयता जांचने के लिए अध्ययन–मनन, आंकड़ों एवं तथ्यों का संचयन, पुनः उनका वर्गीकरण और विश्लेषण करता है. ये सब वैज्ञानिक पद्धति की विशेषताएं हंै. दूसरी ओर ‘क्रांतिकारी साम्यवाद’ मात्र यह संकेत करता है कि मार्क्स समाजवादी व्यवस्था का पक्षधर था, और उसको पूंजीवादी उत्पीड़न से बचाने के कारगर उपाय के रूप में देखता था. इसके लिए उसने सर्वहारा वर्ग का आवाह्न किया था कि वह एकजुट होकर पूंजीवादी व्यवस्था का बहिष्कार करे.
‘वैज्ञानिक समाजवाद’ के संबोधन से मार्क्स के जीवन के संघर्ष की झलक भी मिल जाती है. यहां याद दिलाना प्रासंगिक होगा कि मार्क्स ने राजनीतिक अर्थशास्त्र के क्षेत्र में गंभीर कार्य की शुरुआत1850 के दशक से की थी. 1848 में प्रकाशित ‘कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो’ में उसने सर्वहारा वर्ग से,संगठित होकर पूंजीवादी उत्पीड़न के विरोध में हल्ला बोलने का आवाह्न किया था. ‘सर्वहारा के पास खोने के लिए सिवाय अपनी जंजीरों के कुछ नहीं है, मगर जीतने के लिए दुनिया पड़ी है…दुनिया के मजदूरो एक हो जाओ!’ कम्यूनिस्ट मेनीफेस्टो के पहले संस्करण में मार्क्स द्वारा मजदूरों से की गई इस क्रांतिकारी अपील का जादुई असर हुआ था. उसी के आधार पर फ्रांसिसी क्रांति की इबारत लिखी गई थी. किंतु बाद के वर्षों में, विशेषकर पेरिस कम्यून की असफलता के पश्चात, मार्क्स का क्रांतिकारी गतिविधियों से भरोसा कम होने लगा था. 1872 तक आते–आते उसकी विचारधारा में उल्लेखनीय परिवर्तन आया था. वह मानने लगा था कि किसी भी राष्ट्र के पुनःनिर्माण के रास्ते, वहां की विशिष्ट परिस्थितियों पर निर्भर करते हैं. उसके विचारों में आ रहे परिवर्तन की झलक ‘कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो’ के दूसरे जर्मन संस्करण की भूमिका से मिल जाती है. उस भूमिका में मार्क्स और ऐंगल्स ने लिखा था—
‘हर जगह, प्रत्येक कालखंड में, जैसा कि मेनीफेस्टो में पहले ही दर्शाया गया है, उसके सिद्धांतों का व्यावहारिक उपयोग, स्थान–विशेष की तात्कालिक परिस्थितियों पर निर्भर करता है. अतएव, इसी कारण (कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो के) दूसरे अध्याय के अंत में प्रस्तावित क्रांतिकारी उपायों पर विशेष जोर नहीं दिया गया है. वह अनुच्छेद, अनेक मायनों में, आज की परिस्थितियों में बिलकुल नए शब्दों में लिखा जाएगा.’
जाहिर है कि मार्क्स के तेवरों में कमी आई थी. सशस्त्र क्रांति से उसका भरोसा घटा था. वह संघर्ष से सहयोग की ओर लौट रहा था. प्रश्न उठता है कि मार्क्स द्वारा प्रणीत ‘वैज्ञानिक समाजवाद’ आखिर है क्या? मार्क्स का राजनीति, इतिहास, अर्थशास्त्र और दर्शन–संबंधी ज्ञान बहुत गहरा था.वैज्ञानिक समाजवाद की उसकी अवधारणा वस्तुतः इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या से प्रेरित थी,जिसकी उसने ‘पूंजी’ में विस्तार सहित व्याख्या की थी. लेकिन उसके बीजतत्व उसकी पुस्तक ‘दि जर्मन आइडियोला॓जी’(1840) जो उसने हीगेल की आलोचना करते हुए लिखी थी, और ‘दि मेनीफेस्टो आ॓फ कम्युनिस्ट पार्टी’(1848) में सुरक्षित थे. ‘मेनीफेस्टो आ॓फ दि कम्युनिस्ट पार्टी’ के लिखे जाने तक उसका समाजवादी सपना अपना आकार ग्रहण कर चुका था. इस सपने को साकार कैसे किया जाए, उसका आगे का समूचा चिंतन–मनन इसी बौद्धिक छटपटाहट का परिणाम है.
मार्क्स के मन में समाजवाद के प्रति आस्था 1840 के आसपास ही उभरने लगी थी. ‘ए प्रीफेस टू ए कंट्रीब्यूशन टू क्रिटीक टू दि पा॓लिटीकल इकाना॓मी’ की भूमिका में उसने पूंजीवादी व्यवस्था में उत्पादक शक्तियों के मनमाने आचरण की ओर संकेत किया था. उसने लिखा था—
‘उत्पादक शक्तियों के निरंतर विकास के फलस्वरूप, जो महज उत्पादन और मालिकों के संबंध को दर्शाती हैं. उत्पादक शक्तियों के अतिरिक्त विकास के साथ–साथ मालिक–मजदूर संबंध एक बेड़ी में बदलने लगते हैं, ठीक यही समय होता है, जब कोई सामाजिक क्रांति जन्म लेती है.’
‘कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो’ में आधुनिक राज्य की विशेषताओं का उल्लेख करते हुए मार्क्स ने भू–संपत्ति से निजी अधिकारिता को समाप्त कर, उसे व्यापक लोकाधिकार के दायरे में लाने, बहुस्तरीय कराधान पद्धति लागू करने, उत्तराधिकार की प्रथा समाप्त करने, बैंकों के राष्ट्रीयकरण, संचार–यातायात–कल–कारखानों एवं उत्पादन के अन्य माध्यमों को केंद्र के अधिकार में लाने, बेकार पड़ी जमीन को खेती–योग्य बनाने, सभी के लिए काम की एकसमान अनिवार्यता का कानून लागू करने,कृषि और उद्योगों के समन्वय, शहर और कस्बे के अंतर को समाप्त कर जनसंख्या के एकसमान बंटवारे, बाल–मजदूरी प्रथा के उन्मूलन तथा सरकारी स्कूलों में सभी बच्चों के लिए निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था करने का आह्वान किया था. सामंतवादी वातावरण में जीते आए समाज के लिए ये स्थितियां बहुत सराहनीय थीं.
स्पष्ट है कि मार्क्स द्वारा प्रणीत समाजवाद पूंजीवादी व्यवस्था में उत्पादक शक्तियों एवं उत्पादन–संबंधों के अंतःसंघर्ष का परिणाम था. उसके निष्कर्ष कल्पना की उड़ान तक सीमित नहीं थे. विभिन्न समाजों के विकास का ऐतिहासिक अध्ययन करने के उपरांत वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि पूंजीवादी व्यवस्था में उत्पादक शक्तियों और सर्वहारा वर्ग के बीच संघर्ष अनिवार्य है. उसने इसको प्रकृति विज्ञान का सटीक परिणाम माना था. उसने लिखा था कि सामूहिक चेतना के उभार के दौर में मनुष्य कानूनी, राजनीतिक, धार्मिक, सौंदर्यवादी, दार्शनिक यानी कुल मिलाकर आदर्शवाद जैसे मुद्दों पर काफी सावधान हो जाता है. वह अपनी गरीबी, समाज पर आए आर्थिक संकट, सामाजिक–राजनीतिक–आर्थिक विषमता के कारणों की गंभीरतापूर्वक पड़ताल करने लगता है. जैसे–जैसे सच उसकी पकड़ में आता है, व्यवस्था के प्रति उसके मन में असंतोष उमड़ने लगता है. कालांतर में व्यक्ति का आक्रोश समूह के गुस्से में बदलता चला जाता है. यही जनाक्रोश बड़े राजनीतिक–आर्थिक परिवर्तनों को जन्म देता है. राजनीतिक इतिहास के अध्ययन के दौरान मार्क्स ने समय–समय पर आने वाले आर्थिक संकटों, गरीबी की बढ़ती रफ्तार, श्रमिकों की दुर्दशा तथा पूंजीपतियों की मनमानी के कारणों का गहरा अध्ययन किया था. उसके बाद ही वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि ये सभी संकट समाज की वास्तविक उत्पादक शक्तियों और छद्म उत्पादकों के बीच पनपे अंतर्विरोधों का परिणाम हैं.
मार्क्स का मानना था कि मानवीय चेतना समाज में प्रचलित जीविकोपार्जन के तरीकों, विशेषकर उत्पादन–संबंधों पर निर्भर करती है. उसको विश्वास था कि पूंजीवादी उत्पीड़न का दौर लंबा खिंचने वाला नहीं है. अपनी आर्थिक कठिनाइयों से त्रस्त होकर एक न एक दिन श्रमिक स्वयं विद्रोह पर उतर आएंगे. चूंकि वास्तविक उत्पादक वही हैं, अतएव वह पूंजीवाद का आखिरी समय होगा.भस्मासुर की भांति पूंजीवाद की मौत उसके अपने हाथ में है, कुछ ऐसा उसका सोच था. मार्क्स ने अपनी मान्यता इतने सुसंगठित और क्रमबद्ध ढंग से प्रस्तुत की थी कि उसको एकाएक नकार पाना असंभव था. तथ्यों के विश्लेषण के लिए उसने दर्शन, इतिहास, राजनीति, अर्थशास्त्र, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी को आधार बनाया था. ‘वैज्ञानिक समाजवाद’ का नाम उसको ऐंगल्स ने दिया था, जिससे उसका आशय उत्पादन का लाभ समाज के बहुसंख्यक वर्ग तक पहुंचाना था, जो पूंजीवादी व्यवस्था में असंभव हो चला था.
मार्क्स के अनुसार समाजवाद समाज की अनिवार्यता है. किसी समाज को यदि दीर्घजीवी होना है,उसको सुख–शांतिपूर्वक समृद्धि का भोग करना है तो उसको संपत्ति और संसाधनों के विकेद्रीकरण के सिद्धांत को स्वीकारना ही होगा. हर व्यक्ति की कुछ सामाजिक–जैविक आवश्यकताएं होती हैं. वे बिना किसी बाधा के न्यायोचित ढंग से पूरी होती रहें, यह समाजवाद का उद्देश्य है. उल्लेखनीय है कि मार्क्स के समय में ही सहकारिता आंदोलन का विकास हो चुका था. सहकारिता आधारित उद्यम पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के बेहतर विकल्प सिद्ध हो रहे थे. मार्क्स ने सहकारिता आंदोलन की प्रशंसा की थी, लेकिन उसका मानना था कि केवल सहकारिता द्वारा आर्थिक समरसता के लक्ष्य को प्राप्त कर पाना असंभव है. यही नहीं साहचर्य समाजवादियों राबर्ट ओवेन, फ्यूरियर, संत साइमन आदि को कल्पनाजीवी कहकर उसने उनका मजाक भी उड़ाया था. सहकारिता के प्रति कुछ ऐसा ही विचार मार्क्स के समकालीन विद्वान जाॅन स्टुअर्ट मिल का भी था. सहकारिता एवं स्पर्धात्मक अर्थव्यवस्था की बुराइयों पर निष्पक्ष ढंग से पुनःविचार कर कोई नया, कारगर रास्ता खोजने की जरूरत को लक्ष्य करते हुए मिल ने लिखा था—
‘प्रश्न यह नहीं है कि क्या स्पर्धायुक्त राज्य को उसकी स्वाभाविक दुष्टताओं से मुक्त कर दिया गया है, विशेषकर तब जबकि हम जानते हैं कि बुराई या कि दुष्टता मानवमात्र के स्वभाव में घुल चुकी है. प्रश्न यह भी नहीं है कि सहयोग और स्पर्धा में मानवसमाज के लिए अधिकतम खुशियों संवाहक बनने की योग्यता किसमें है, अथवा क्या स्पर्धात्मक व्यवस्था पर पुनर्विचार–मात्र से मानवमात्र की समस्त समस्याओं का निदान संभव है?असल में तो सहकारिता और स्पर्धा दोनों व्यवस्थाओं की कमजोरियों के निष्पक्ष तुलनात्मक अध्ययन से ही समाज की समस्याओं का समाधान खोजा जा सकता है.’
उल्लेखनीय है कि प्रायः सभी समाजवादी विचारकों ने पूंजीवादी व्यवस्था की बुराइयों और कमजोरियों का विस्तार से वर्णन किया है. उनमें से प्रत्येक ने अपनी–अपनी तरह से इन बुराइयों से मुक्ति के लिए वैकल्पिक अर्थव्यवस्था का सुझाव भी दिया है. मार्क्स भी इसका अपवाद नहीं है. किंतु मार्क्स को छोड़कर बाकी सभी के विश्लेषण की एक सामान्य कमजोरी यह है कि वे नई व्यवस्था में एकदम आदर्शात्मक स्थितियों की कल्पना करते हैं. यह मान लेते हैं कि नई व्यवस्था में व्यक्ति बिना किसी बाहरी दबाव के सिर्फ अपनी नैतिक अंतःप्रेरणाओं के आधार पर स्वयं को समाज की एक इकाई मानते हुए अपने हिस्से की सुविधाओं से समझौता कर लेगा. साथ ही वह समाज के विकास में अपनी क्षमतानुरूप अधिकतम योगदान भी करेगा. अतिरिक्त की वांछा ही नहीं होगी. इस तरह स्वार्थ भावना, आलस्य, लालच, विलासप्रियता आदि का अपने आप ही अंत हो जाएगा. वस्तुतः अधिकतम योगदान के बाद सामान्य सुविधाओं की प्राप्ति का दावा व्यक्ति को बहुत आकर्षित करने वाला नहीं है. यह आदर्श के रूप में भले स्वीकार्य हो, किंतु यथार्थ में भी उतना ही कारगर सिद्ध हो सकेगा, यह दावे के साथ नहीं कहा जा सकता. यदि सचमुच ऐसा हो भी जाए तो क्या वैज्ञानिक आविष्कारों और औद्योगिक प्रगति की इतनी ही गति संभव है? और यदि यह संभव नहीं है तो प्राकृतिक आपदाओं,जनसंख्या वृद्धि जैसी समस्याओं से कैसे निदान संभव है, इस बारे में नई व्यवस्था के लिए कोई सुझाव मार्क्स के पास नहीं था. देखा जाए तो यही मार्क्स के चिंतन की सीमा भी है. जितनी गंभीरता से वह पूंजीवाद की बुराइयों की चर्चा करता है, उसके छल–प्रपंचों को सामने लाता है, उतनी ही गंभीरता के साथ वह उसके विकल्पों पर बात नहीं कर पाता. वह सबकुछ सर्वहारावर्ग की नैतिकता पर छोड़ देता है. सर्वहारावर्ग के प्रति अपने अतिविश्वास के चलते वह भूल जाता है कि वह भी मानवीय कमजोरी का शिकार हो सकता है, उस अवस्था में सर्वहारावर्ग का अधिनायकत्व एक भीड़ के शासन की भांति, समाज को अराजक स्थितियों की ओर ले जा सकता है.
मार्क्स का समाजवाद उसके भौतिकवादी द्वंद्ववाद से प्रेरित था. उसका मानना था कि समाजवाद का सपना बिना श्रमिकों के संगठित और सक्रिय विरोध के असंभव है. दूसरे शब्दों में मार्क्स और ऐंगल्स पहले समाजवादी थे, जिन्होंने मजदूर संगठनों का समर्थन किया था. अधिकांश विद्वान मानते हैं सामाजिक परिवर्तन, समाज की सामान्य बौद्धिक हलचल का सुफल होता है, जिसको कुछ साहसी और विवेकवान महामानव, जनसमर्थन के बल पर संभव बनाते हैं. मार्क्स की राय इससे बिलकुल भिन्न थी. उसका मानना था कि इतिहास में—
‘पुराने सभी आंदोलन…अल्पसंख्यक वर्ग द्वारा अथवा अल्पसंख्यक वर्ग के हित में चलाए गए जनांदोलन थे. जबकि सर्वहारा का आंदोलन अपरिमित जनसमुदाय द्वारा ऊर्जस्वित एवं अपरिमित जनसमुदाय के हित में चलाया जाने वाला एक आत्मचेतित, आत्मनिर्भर आंदोलन है.’
‘अपरिमित बहुमत’ अथवा श्रमिकों की अद्वितीय एकता समाजवादी विचारों द्वारा संभव नहीं. उस समय के अधिकांश समाजवादी विचारक भी यही मानते थे. मगर उन सबसे हटकर मार्क्स का विचार था कि ऐसा संभव है. उसको विश्वास था कि इसके अवसर उग्र पूंजीवाद के गर्भ से ही जन्म लेंगे.पूंजीवाद की जकड़बंदी के बीच, उद्योगों के विकास के साथ–साथ श्रमिकों की संख्या भी बढ़ती जाएगी. फिर एक दिन वे न केवल संख्याबल में, बल्कि संगठित दल के रूप में भी महान ताकत होंगे. आगे, जैसे–जैसे पूंजीवाद और उसके कल–कारखानों का विकास होगा, इस संख्या में और अधिक वृद्धि होगी. भिन्न–भिन्न स्थानों पर रहने, तरह–तरह के कारखानों में काम करने के बावजूद, उनकी प्रमुख समस्याएं एक जैसी होंगी. प्रौद्योगिकी का जितना अधिक विकास होगा, परिष्कृत और स्वचालित मशीनों का आगमन भी उतना ही अधिक होगा. उनमें प्रयुक्त श्रम–विरोधी तकनीक श्रमिकों के हितों को नकारात्मक ढंग से प्रभावित करेगी, जिससे उनकी मजदूरी निरंतर घटती जाएगी. जो पुनः उनके असंतोष को उभारकर अपने अधिकारों के लिए संघर्ष की प्रेरणा देगी. यह क्रम एक वर्गहीन समाज की स्थापना तक सतत चलता ही रहेगा.
पूंजीवाद के उत्तरोत्तर उग्र होते तेवर सर्वहारा वर्ग को एकजुट होने को बाध्य करेंगे. एक दिन उसकी संगठित ताकत पूंजीवाद से मुक्ति का कारण बनेगी. संक्षेप में मार्क्स द्वारा प्रकल्पित ऐतिहासिक भौतिकवाद, इतिहास की भौतिकवादी अवधारणा, इस सामान्य तथ्य पर आधारित है कि उत्पादन ‘मानव–अस्तित्व का प्रथम आधार’ है. सामाजिक संबंध उत्पादन–संसाधनों के अनुसार बदलते रहते हैं.मनुष्य को इस स्थिति में होना चाहिए कि उसका जीवन इतिहास बन जाए. मार्क्स अपने प्रसिद्ध सिद्धांत, इतिहास की भौतिकवादी अवधारणा की व्याख्या ही इस प्रकार करता है. उसके अनुसार प्रत्येक सामाजिक सिद्धांत, उत्पादन तथा उत्पाद की अदला–बदली के सामान्य नियमों एवं स्थितियों से प्रभावित होता है. वही समाज के प्रत्येक आचरण और व्यवहार के लिए जिम्मेदार है. उसका मानना था कि समाज का विभिन्न वर्गों, राज्यों में वर्गीकरण—वहां प्रचलित प्रौद्योगिकी तथा उत्पादों की विपणन पद्धति द्वारा तय होता है. मशीनें मानवीय संबंधों के स्वरूप को तय करती हैं— मार्क्स की यह अवधारणा ही उसके ऐतिहासिक भौतिकवाद का प्राणतत्व है.
इस तरह मार्क्स की संकल्पना का समाजवाद कोई समाजार्थिक व्यवस्था न होकर इतिहास का वह दौर है, जिससे कोई समाज पूंजीवाद के पतन के बाद आवश्यक रूप से गुजरता है. मार्क्स की मंजिल समाजवाद नहीं था, बल्कि वह तो उसकी विचारयात्रा का पड़ाव मात्र है. समाजवाद से अगली स्थिति साम्यवाद की आती है, जिसमें व्यक्तिगत संपत्ति और सत्ताओं का लोप हो चुका होता है. क्रांति के पहले चरण में संगठित सर्वहारावर्ग बुर्जुआवर्ग को अपदस्थ कर समस्त संसाधनों पर अपना अधिपत्य जमा लेता है. मार्क्स इस अवस्था को सर्वहारा वर्ग के अधिनायकवाद की संज्ञा देता है. पूंजीवादी–सामंतवादी शोषण की स्थितियां दुबारा न जन्में, इसलिए वह एक के बाद एक सभी शक्ति–शिखरों को ध्वस्त करता चला जाता है. प्रकारांतर में एक वर्गहीन, सर्वकल्याणकारी, समानताधारित व्यवस्था का जन्म होता है. यही सर्वहारा–क्रांति का मूल उद्देश्य है.
पेरिस कम्यून में मार्क्स के आरंभिक समाजवाद की एक झलक हमें दिखाई देती है, जिसमें समाज के उत्पादन–तंत्र पर सर्वहारा वर्ग का अधिपत्य हो चुका है. पूरा का पूरा उत्पादनतंत्र श्रमिक–संगठनों के हाथों में है, जिसका संचालन व्यापक लोककल्याण की भावना के साथ किया जाता है. जहां न कोई मालिक है, न मजदूर. उत्पादकता बनाए रखने के लिए प्रोत्साहन योजनाओं की मदद ली जाती है. लोग बिना किसी बाहरी दबाव के स्वयंस्फूर्त भाव से काम में जुटे हैं. संभव है सामाजिक स्तरीकरण, आर्थिक भेदभाव के कुछ अवशेष उस अवस्था में भी शेष हों, लेकिन कालांतर में वे घटने लगते हैं और वह उस समय तक निरंतर घटते जाते हैं, जब तक कि पूंजीवादी अवशेषों का पूरी तरह लोप नहीं हो जाता. माक्र्सवादियों द्वारा अभिकल्पित समाजवाद में हर व्यक्ति अपनी क्षमता के अनुसार योगदान देता है, उसके अनुसार ही उसकी प्राप्तियां भी होती हैं. उनके अनुसार समाजवाद का सूत्रवाक्य है—
‘प्रत्येक से उसकी योग्यता के अनुसार, प्रत्येक को उसके योगदान के अनुरूप.’
समाजवाद की अगली अवस्था, साम्यवाद में हालात मानवीय हो जाते हैं. उत्पादन–तंत्र लौकिक स्वरूप धारण कर लेता है. उसमें मालिक–मजदूर का भेद मिट जाता है. कार्यरत श्रमिक अपना मालिक स्वयं होता है. वह उत्पादक भी होता है तथा उत्पादक–शक्ति भी. साम्यवादी व्यवस्था में उद्योग लोगों की जरूरत के माल का उत्पादन करते हैं. स्वयंस्फूर्त भावना से प्रेरित होकर प्रत्येक मनुष्य अपनी क्षमताओं के अनुसार भरपूर योगदान देता है. बदले में समाज की ओर से उसको उसकी आवश्यकता के अनुसार प्राप्तियां होती है. साम्यवाद की प्रेरक सिद्धांत है कि—
‘प्रत्येक से उसकी योग्यता के अनुसार काम, हरेक को उसकी आवश्यकता के अनुरूप दाम.’
सच यह भी है कि मानवीय आवश्यकताओं को किसी सीमा में बांध पाना असंभव है. इसलिए साम्यवाद में व्यक्ति को अपनी आवश्यकताओं का अनुकूल शेष समाज की आवश्यकताओं के साथ करने के लिए बाध्य किया जाता है. परिणामस्वरूप उपभोग को लेकर उसको अपनी विशिष्ट पसंदों को त्यागना पड़ता है. इसलिए कुछ विद्वान साम्यवाद को व्यक्तित्व निर्माण के लिए बाधक मानते हैं. यह एक तरह से मनुष्य के व्यक्तित्व विसर्जन के सिद्धांत पर टिका है, जिसमें उसकी व्यक्तिगत विशिष्टताओं के लोप की संभावना बढ़ जाती है. इससे उसके मन में आक्रोश जन्म लेने लगता है.मनुष्य का असंतोष साम्यवादी व्यवस्था के लिए हानिकर सिद्ध हो सकता है. किसी भी स्तर पर यदि किसी व्यक्ति को यह लगने लगे कि उसको होने वाली प्राप्तियां उसके द्वारा किए जा रहे योगदान के मुकाबले न्यून हैं, तब उसका उस व्यवस्था से विश्वास उठ सकता है. वह अपने काम के प्रति उदासीन हो जाता है, जिससे अंततः उत्पादकता में गिरावट की संभावना बढ़ जाती है. अतएव साम्यवाद के लिए वस्तुओं की प्रचुरता और स्वचालित उत्पादन होना आवश्यक है. ताकि मनुष्य के लिए अप्रीतिकर माने जाने वाले कार्यों को मशीनों द्वारा निपटाया जा सके. इस लक्ष्य को प्राप्त करना अकेले सर्वहारा वर्ग के लिए संभव नहीं है. दूरदृष्टा मार्क्स को इसका पूर्वानुमान था. किंतु उसको विश्वास था कि पूंजीवाद स्वयं साम्यवाद के अनुकूल स्थितियों का सृजन करेगा. कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो में इस स्थिति की परिकल्पना करते हुए लेखकद्वय मार्क्स और ऐंगल्स ने लिखा था—
‘प्रौद्योगिकी के विकास के साथ उद्योगों का विकास होगा, जिससे सर्वहारा वर्ग की संख्या में भी अनुकूल वृद्धि होगी. कालांतर में समाज में सर्वहाराओं की बहुलता हो जाएगी, जिससे उनकी शक्ति बढ़ेगी और उस शक्ति की अनुभूति भी. उच्चतकनीक–युक्त मशीनें श्रम के भेदभाव को समाप्त कर देंगी, जिसके परिणामस्वरूप सर्वहारा वर्ग के हितों और उसके जीवन में एकरूपता का विकास होगा. दूसरी ओर मजदूरी में सर्वव्यापी गिरावट आएगी और वह अपने न्यूनतम स्थिति में पहुंच जाएगी.’
मार्क्स ने आगे लिखा था कि न्यूनतम मजदूरी और संगठित शक्ति का एहसास सर्वहाराओं को संघर्ष के लिए प्रेरित करेगा. संगठित विरोध की संभावनाएं समाजवादियों की प्रेरणास्वरूप नहीं, बल्कि पूंजीवाद की ओर से उत्तरोत्तर बढ़ते दबावों के फलस्वरूप पैदा होंगी. ‘कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो’ में करीब 160 वर्ष पहले की गई यह परिकल्पना कितनी सटीक थी, इसका ताजा उदाहरण, ब्रेन जोन्स ने अपने लेख ‘मार्क्स की समाजवादी परिकल्पना’ में किया है. जोन्स ने यह लेख हाल के वैश्विक आर्थिक संकट की समीक्षा करते हुए लिखा है. अतः प्रकारांतर में यह लेख मार्क्स के विचारों की समसामयिकता का प्रमाण भी देता है. जोन्स ने लिखा है कि—
‘वर्ष 2008 में भीषण वैश्विक मंदी के फलस्वरूप प्राय सभी किस्म के उत्पादों की मांग में भारी गिरावट आई थी. निर्यात में कमी आने से कारखानों पर मुद्रा संकट आ गया. इस स्थिति से निपटने के लिए न्यू यार्क के एक उपनगर ब्रोंक्स में बिस्कुट बनाने की फैक्ट्री ‘स्टेला डी’ओरो’ के प्रबंधकों ने मंदी के फलस्वरूप आए मुद्रा संकट से उबरने के लिए श्रमिकों के वेतन में 25 प्रतिशत की कटौती की घोषणा कर दी. इस खबर के फैलते ही श्रमिकों में उबाल आ गया. बगैर इसकी चिंता किए कि औद्योगिक मंदी के दौर में, जब अधिकांश बड़ी कंपनियां छंटनी कर रही हैं, उनकी नौकरी के लिए भी खतरा उत्पन्न हो सकता है, वे हड़ताल पर चले गए. इससे मिलती–जुलती प्रतिक्रिया शिकागो में देखने को मिली. वहां की एक फैक्ट्री ‘रिपब्लिक विंडो एंड डोअर्स’ ने जब दिसंबर(2009) में कारखाने को बंद करने की कोशिश की. कामगारों का वेतन रोक लिया गया. इसपर श्रमिकों ने उग्र होकर प्रबंधन का विरोध किया. उनका उग्र रूप देखकर प्रबंधक भाग छूटे. श्रमिकों ने बंद कारखाने को अपने अधिकार में लेकर उत्पादन आरंभ कर दिया.श्रमिक एकता की ये अनूठी घटनाएं किसी कल्पना–जगत का हिस्सा नहीं है, बल्कि हमारे ही समय की, हमारी आंखों के सामने घटी सच्ची घटनाएं हैं. भले ही पूंजी के दम पर फलने–फूलने हमारा आधुनिक मीडिया इन घटनाओं को बहुत अधिक तूल न देता हो, अथवा जान–बूझकर उनपर पर्दा डाले रखता हो. पर इसमें कोई संदेह नहीं हक ऐसी घटनाएं घट रही हैं. श्रमिक अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हो रहे हैं. जिस द्वंद्वात्मकता के ऊपर मार्क्स का ऐतिहासिक भौतिकवाद का दर्शन आधारित है, ये घटनाएं उसका सर्वोत्तम उदाहरण हैं. इनमें श्रमिकों की संगठित शक्ति का सकारात्मक रूप देखने को मिलता है.श्रमिक–शक्ति का सकारात्मक उपयोग ही समाजवादी आंदोलन का प्राणतत्व है—‘यदि बुर्जुआ वर्ग एवं राजा–रानी के बीच हुए वर्ग–संघर्ष का परिणाम पूंजीवाद था, तो आधुनिक यानी बुर्जुआ वर्ग और सर्वहाराओं के वर्ग–संघर्ष की परिणति है—समाजवाद.’
मार्क्स के अनुयायी और वैज्ञानिक समाजवादी आज भी पेरिस कम्यून को समाजवाद की आदर्श व्यवस्था स्वीकारते हैं. जैसाकि पहले भी उल्लेख किया गया है, 1871 में आंदोलनरत श्रमिकों के एक समूह ने पेरिस के शासकों को अपदस्थ कर, वहां की सत्ता अपने कब्जे में कर ली थी. उन्होंने मिलकर अपनी सरकार का गठन किया. समुचित और कारगर प्रबंधन के लिए विभाग बनाए. बंद पड़े कारखाने श्रमिकों के नेतृत्व में मुनाफा उगलने लगे थे. लोकप्रतिनिधित्व को शासन–व्यवस्था का आधार बनाया गया. व्यवस्था थी कि जिन प्रतिनिधियों को शासन की जिम्मेदारी सौंपी जाएगी, वे अपने अधिकारों का सही प्रयोग करने, श्रमिकों के व्यापक हित में कार्य करने की शर्त पर ही सत्ता में बने रह सकते हैं. कर्तव्य–पालन में असमर्थ सिद्ध होने, भ्रष्टाचार में लिप्त होने अथवा अपने दायित्वों के प्रति उदासीनता दर्शाने पर उन्हें वापस बुलाने का अधिकार कम्यूनवासियांे को था. चुने गए प्रतिनिधियों को श्रमिकों की औसत मजूदरी के बराबर वृत्तिका प्रदान की जाती थी. कम्यून की व्यवस्था में स्त्रियों की समान भागीदारी थी. शिक्षा तथा अन्य मामलों में उन्हें पुरुष के बराबर अधिकार प्राप्त थे. मार्क्स ने लिखा है—
‘सभी शिक्षण संस्थान लोगों के लिए निःशुल्क उपलब्ध थे, उन्हें चर्च और सरकार के किसी भी प्रकार के हस्तक्षेप से सर्वथा मुक्त रखा गया था. इस प्रकार न केवल शिक्षा समाज के सभी वर्गों के लिए सहज उपलब्ध थी, बल्कि वैज्ञानिक शोधों को भी वर्गीय पूर्वग्रहों एवं सरकारी दबावों से परे रखा था.’
पेरिस कम्यून की पूरी व्यवस्था जनता द्वारा संचालित थी. आश्चर्यजनक रूप से श्रमिकों ने खुद को कुशल प्रबंधक सिद्ध किया था. उन्होंने कारखानों को अपने अधिकार में ले लिया था. कारखाने मुनाफा बटोर रहे थे. पूरे शहर में न कहीं पुलिस नजर आती थी, न अदालतें. बावजूद इसके अपराधों और लूटमार की घटनाओं में भारी कमी आई थी. बल्कि यह कहना चाहिए कि अपराधों का आश्चर्यजनक रूप से लोप हो चुका था. सबकुछ व्यवस्थित और नियंत्रण में था. सारी व्यवस्था लोककल्याण की अपेक्षाओं के अनुकूल थी. लोग बिना किसी बाह्यः दबाव के कर्तव्यपरायण बने हुए थे. पूंजीवादी व्यवस्था की पहचान बन चुके सामाजिक तनावों, अंतद्र्वंद्वों का कहीं स्थान न था.मार्क्स के अनुसार श्रमिक–समाज के लिए वे दिन ‘स्वर्ग का भ्रमण करने’(Stormed heaven) जैसे थे, जबकि धनवान पूंजीपति वर्ग विरोध में सिर्फ आर्तनाद कर रहा था. उस समय तक लोकतांत्रिक चेतना और उदार श्रमकानूनों की मांगों को आधी शताब्दी से अधिक का समय बीत चुका था. उस स्थिति का चित्रण करते हुए उत्साहित मार्क्स ने लिखा है—
‘यह एक आश्चर्यजनक सत्य है कि पिछले साठ वर्षों में श्रम–विमुक्ति के बड़े–बड़े दावों और उसके बारे में रचे गए ढेर सारे साहित्य के बावजूद ऐसा कहीं नहीं हुआ था, जब कामगारों ने संपूर्ण उत्पादनतंत्र को, दृढ़ इच्छा–शक्ति और विश्वास के साथ अपने हाथों में ले लिया हो.उसके साथ–साथ वे सभी, पूंजी और श्रम–बेगार के विपरीत ध्रुवों में बंटे होने के बावजूद,अपने समाज की आवाज बनकर पूरी विनम्रता के साथ उठ खड़े हुए हों…वे चिल्ला रहे थे कि कम्यून, संपत्ति के उन्मूलन के लिए दृढ़–संकल्पित, संपूर्ण मानवीय सभ्यता का आधार है.जी हां, मित्रो! कम्यून निजी संपत्ति को जो बहुसंख्यक कामगारों के श्रम को मुट्ठी–भर पूंजीपतियों की संपन्नता में बदलने की दोषी है, के उन्मूलन हेतु दृढ़ प्रतिज्ञ है. इसका उद्देश्य है, समाज की संपत्ति पर अनुचित ढंग से कब्जा जमाए बैठे लोगों को उनके स्वत्त्वाधिकार से वंचित कर देना. जी हां, इसका लक्ष्य है व्यक्तिगत संपत्ति को, जो फिलहाल सर्वभक्षी श्रम–शोषण और श्रम–दासता का मूल कारण है, उत्पादनतंत्र, भूमि और पूंजी आदि के प्रबंधन में व्यापक संशोधन कर, सर्वथा मुक्त और परस्पर सहयोगाधारित श्रम–व्यवस्था में ढाल देना. यही साम्यवाद है, ‘असंभव’ मान लिया साम्यवाद’
मार्क्स ने पेरिस कम्यून की स्थापना में सक्रिय भूमिका निभाई थी. वह प्रयोग हालांकि केवल 70दिनों ही खिंच पाया था. बिना किसी विशेष तैयारी के स्थापित पेरिस कम्यून का ऐसा अंत अस्वाभाविक–अप्रत्याशित भी नहीं था. बावजूद इसके उन 70 दिनों की अवधि में कम्यून के नेताओं ने कम्यून को समाजवाद की अपनी परिकल्पना के अनुसार व्यवस्थित करने का भरसक प्रयास किया था. हालांकि मार्क्स को उसी से संतुष्टि नहीं थी. उसके मतानुसार वह गैरपूंजीवादी समाज की स्थापना की दिशा में पहला कदम था. उसने लिखा भी था—
‘श्रमिक वर्ग को कम्यून से किसी चामत्कारिक परिणाम की अपेक्षा नहीं थी. उनके पास पहले से तैयार कल्पनालोक भी नहीं था, जिसको वे साकार कर सकें…वे जानते थे कि अपनी आत्ममुक्ति की कोशिश के बीच…उन्हें लंबे संघर्ष से गुजरना होगा. मानवसमाज,उसके रीति–रिवाजों और परिस्थितियों में बदलाव के अनेक ऐतिहासिक चरण उनको पार करने होंगे. उनके पास ऐसा कोई आदर्श नहीं था, जिसको वे साकार कर सकें, सिवाय इसके कि पतनोन्मुखी बुर्जुआ समाज के गर्भ में पहले से ही मौजूद तत्वों के आधार पर वे एक नए समाज की आधारशिला रख सकें.’
और यही उन्होंने किया भी था. मार्क्स को विश्वास था समानता–आधारित समाज की स्थापना का सपना, साम्यवाद की प्राप्ति का लक्ष्य केवल श्रमिकवर्ग की संगठित एकता द्वारा संभव हो सकता है. लेकिन श्रमिकों द्वारा स्थापित वह व्यवस्था, समाजवादी व्यवस्था आदर्श न होकर साम्यवादी आदर्श की स्थापना का आरंभिक चरण होगी. पूंजीवाद से मुक्ति की पहली अवस्था को, समाजवाद को मार्क्स ने ‘सर्वहारा की तानाशाही’ का नाम दिया है, जिसमें सबकुछ समाज के बहुसंख्यक वर्ग की इच्छा से, बहुसंख्यक वर्ग द्वारा, बहुसंख्यक वर्ग के कल्याण की कामना के साथ संचालित किया जाता है. ‘सर्वहारावर्ग की तानाशाही’ में प्रयुक्त पद ‘तानाशाही’ की मार्क्स की अवधारणा हिटलर,मुसोलिनी और स्टालिन की तानाशाही की संकल्पना से एकदम परे थी. हिटलर का ‘तानाशाह’ असीमित शक्तियों का स्वामी था. उसपर किसी का अंकुश नहीं था. वह देश के संसाधनों का अपनी मर्जी से, सिर्फ अपनी सुख–सुविधाओं के लिए कर सकता था. दूसरों की सहमति–असमति उसके लिए महत्त्वहीन होती थी. ये तानाशाह अपनी महत्त्वाकांक्षाओं के लिए अपने देश और उसकी संप्रभुता को अक्सर दाव पर लगा देते थे.
मार्क्स ने तानाशाह की परिकल्पना रोमन साम्राज्य से ग्रहण की थी, जिसके सम्राट को व्यापक अधिकार होते थे, तो भी उसके अधिकारों की सीमा थी. इस बारे में मार्क्स ने अपने विचार 1871 में ‘फस्र्ट इंटरनेशनल’ की सातवीं सालगिरह पर हुए आयोजन के दौरान व्यक्त किए थे. उनके अनुसार ‘तानाशाह सर्वहारा’ वर्ग के रूप में मार्क्स की परिकल्पना श्रमिकों की ऐसी संगठित ताकत की थी,जिसके पास विकट परिस्थितियों में काम करने के लिए व्यापक अधिकार हों, लेकिन उसपर शेष समाज एवं श्रमिक संगठनों का पूरा नियंत्रण हो. मार्क्स का मानना था कि उत्पादनतंत्र पर श्रमिकों का कब्जा होने से लाभ का अधिकांश हिस्सा उनके हिस्से में जाएगा, इसलिए वे अपनी पूरी क्षमता के साथ उत्पादन प्रक्रिया में सहयोग करेंगे. पेरिस कम्यून के दौरान यह प्रमाणित भी हो चुका था.
यहां स्मरणीय है कि मार्क्स अथवा उसका मित्र ऐंगल्स समाजवाद और साम्यवाद का जन्मदाता नहीं हैं. ये दोनों पवित्र विचार तो मार्क्स तथा ऐंगल्स से बहुत पहले से ही दुनिया में उपस्थित रहे हैं.दुनिया–भर के विचारक समानता–आधारित, विकेंद्रीकृत अर्थव्यवस्था पर जोर देते आए थे. वेद–उपनिषद, बाईबिल, कुरआन आदि ग्रंथों में उपलब्ध संसाधनों का मिल–जुलकर भोग करने, मिल–बांटकर खाने, सबके साथ मित्रवत आचरण तथा आवश्यकता से अधिक संचय न करने का आग्रह किया जाता रहा है. एक वर्गहीन समाज की स्थापना का सपना प्लेटो, संत साइमन, हेनरी मूर, राबर्ट ओवेन, फ्यूरियर आदि विद्वानों ने अपने–अपने समय में देखा था. मार्क्स और ऐंगल्स इस विचार के प्रवत्र्तक मात्र थे. लेकिन समाजवाद को लेकर मार्क्स और ऐंगल्स की अवधारणा अपने पूर्ववर्ती विद्वानांे से एकदम भिन्न और आगे की थी. हेनरी मूर, संत साइमन राबर्ट ओवेन, फ्यूरियर आदि द्वारा परिकल्पित समाजवाद एक आदर्शवादी संरचना थी, जिसे वे अपने समय की त्रासिदयों यथा समाजार्थिक ऊंच–नीच, गरीबी आदि से उबरने के लिए विकल्प के तौर पर देख रहे थे. उनसे भिन्न मार्क्स और ऐंगल्स ने वैज्ञानिक समाजवाद की स्थापना पर जोर दिया था. ऐसी व्यवस्था जिसमें ऊंच–नीच के प्रतीक वर्गों का पूरी तरह लोप हो चुका हो. इन लेखकद्वय के मतानुसार आदर्शवादी समाजवाद जिसको उसके समर्थक विद्वानों ने ‘यूटोपिया’ कहा था, महज एक सद्विचार था. एक ऐसी आदर्शवादी परिकल्पना जो मनुष्य के नैतिक आग्रहों के फलस्वरूप आकार लेती है या जिसका बिंब प्रार्थना सभाओं के माध्यम से हमारे मनो–मस्तिष्क पर बना दिया जाता है, जिसका यथार्थ से कोई वास्ता नहीं होता.
मार्क्स और ऐंगल्स का वैज्ञानिक समाजवाद विज्ञान, कृषि, उद्योग, तकनीक आदि अन्यान्य क्षेत्रों में उत्पादक शक्तियों के विकास की स्वाभाविक एवं अवश्यंभावी अवस्था है. उसका ठोस एवं वैज्ञानिक आधार है. वह बाह्यारोपित न होकर समाज की स्वयंस्फूर्त एवं अनिवार्य प्रक्रिया है. मार्क्स के ऐतिहासिक भौतिकवाद का आशय ही था कि मानव–सभ्यता का विकास कृषि, विज्ञान, तकनीक,उद्योग आदि क्षेत्रों में हुए क्रमिक विकास का पर्याय है. ज्ञान–विज्ञान की उन्नति के साथ जैसे–जैसे उत्पादन के साधन विकसित हुए, मानव–समाज भी उसी रूप में बदलता गया. सभी कुछ नियमबद्ध एवं तार्किक ढंग से हुआ है. इसी कारण मार्क्स के आलोचक उसपर अक्सर यह आरोप लगाते हैं कि ऐतिहासिक भौतिकवाद की व्याख्या करते समय वह समाज की ‘प्रत्येक वस्तु एवं गतिविधि को अर्थकेंद्रित’ कर देता है. मगर ऐलन वुड समेत साम्यवादी विचारकों के अनुसार यह विचार मार्क्स के दर्शन की अधूरी समझ से पैदा हुआ भ्रम है. यह आरोप नया भी नहीं है. मार्क्स और ऐंगल्स के समय में ही ऐसे आरोप उनपर लगने लगे थे, जिनका उन्होंने विरोध भी किया था. ऐसे ही विवाद पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए फ्रांसिसी इतिहासकार ब्लोच को संबोधित पत्र में ऐंगल्स ने लिखा था—
‘इतिहास की भौतिकवादी संकल्पना के अनुसार, उसके प्रवाह को निर्धारित और नियंत्रित करने वाले वास्तविक तत्व, मूलतः जीवन में उत्पादन और पुनरुत्पादन की घटनाएं हैं—इससे अधिक का दावा न कभी मैंने, न ही कभी मार्क्स ने किया है. बावजूद इसके यदि कोई इनसे तोड़–मरोड़कर यह निष्कर्ष निकालता है कि आर्थिक तत्व ही समाज की प्रमुख दिशा–निर्धारक शक्तियां हैं, तो वह इसकी अर्थहीन व्याख्या, इनके ऊपर एक भद्दी और ओछी टिप्पणी मात्र है. आर्थिक मुद्दे आधार अवश्य हैं, मगर इस अधिरचना के अन्य बहुत से तत्व, वर्ग–संघर्ष के राजनीतिक रूपाकार यथा लंबे संघर्ष के उपरांत विजेता वर्गों द्वारा लागू किए गए विधान, तरह–तरह के कानून, रीति–रिवाज, इन सभी वास्तविक संघर्षों के फलस्वरूप दिलो–दिमाग में चलने वाले राजनीतिक, वैधानिक एवं दार्शनिक विचारधाराओं के द्वंद्व, धार्मिक विश्वास और उनके अनुसार जन्मे मत–मतांतर, भिन्न परिस्थितियों के बीच पनपे अंतःसंघर्ष की उपज हैं. किसी न किसी रूप में ये सभी ऐतिहासिक संघर्ष को प्रभावित करते हैं, बल्कि अक्सर उनके स्वरूप–निर्धारण के लिए कभी उत्प्रेरक तो कभी संतुलन बनाने का काम करते हैं.’
स्पष्ट है कि मार्क्स की साम्यवाद की परिकल्पना पूरी तरह आदर्श और वैज्ञानिक विश्लेषणों पर आधारित है, जिसमें वह मान लेता है कि अपनी आवश्यकता के अनुरूप प्राप्त करने के बाद भी कोई व्यक्ति उत्पादन में अपने सामथ्र्यानुसार सहयोग कर सकता है. मिल ने इसको कोरा आदर्शवाद कहा था. इसी आधार पर उसने मार्क्स के समाजवाद–संबंधी दृष्टिकोण की आलोचना भी की थी. मिल हालांकि स्वयं भी समाजवादी विचारों में आस्था रखता था, किंतु मार्क्स के लिए समाजवाद जहां ‘आवश्यकता–केंद्रित’(Matter of necessity) है, वहीं मानवमात्र की स्वाधीनता के प्रति आग्रहशील मिल के लिए समाजवाद व्यक्ति की ‘पसंद का विषय’(Matter of choice)है. समाजवाद की स्थापना के लिए मार्क्स ने श्रमिक–क्रांति द्वारा पूंजीवाद को उखाड़ फेंकने का आह्वान किया था. उसके द्वारा अभिकल्पित समाजवाद क्रांतिकारी, केंद्रीयकृत, सुनिर्धारित, वैज्ञानिक अवस्था है. दूसरी ओर मिल समाजवाद को सभी के लिए सुखदायी, विकेंद्रीकृत, विकासमान अवस्था मानता था, जिसमें समाज का प्रत्येक नागरिक अपनी स्वतंत्रता का अधिकतम भोग कर सके.
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