Thursday, March 31, 2016

मार्क्स का राजनीतिक-सामाजिक दर्शन

मार्क्स के चिंतन का क्षेत्र व्यापक थाहालांकि उसका मूल चिंतन अर्थशास्त्र और राजनीति से संबंधित हैउसकी सबसे महान कृति ‘पूंजी’ अर्थशास्त्र जैसे निष्ठुर माने जाने वाले विषय की भी मानवतावादी दृष्टि से विवेचना करती हैपूंजीवाद की तार्किक आलोचना करते हुए वह उसे कठघरे में ले जाती हैलेकिन मार्क्स का बुद्धिविस्तार वहीं तक सीमित नहीं हैअर्थशास्त्र और राजनीति के अतिरिक्त उसने दर्शनइतिहाससमाज आदि पर गंभीर लेखन किया थावाल्तेयररूसोप्रूधों,हीगेलरिकार्डो आदि से प्रभावित मार्क्स द्वंद्ववाद का समर्थक थाचूंकि द्वंद्व के लिए दो पक्षों का आमनेसामने होना आवश्यक हैइसलिए उसने सृष्टि में स्थूल के अस्तित्व को स्वीकार किया और तदनुसार भौतिकवादी यथार्थ को प्रमुखता दीमार्क्स का दर्शनसंबंधी ज्ञान भी अद्भुत और श्लाघनीय थायदि वह किसी कारण राजनीति और अर्थशास्त्र के अध्ययन से बचता तो निश्चय ही दर्शन के क्षेत्र में अपनी खास पहचान बनातातब उसकी चिंतनधारा हीगेल के दर्शन की कुछ और गांठें खोलतीउसको कुछ नया विस्तार देतीमार्क्स के दार्शनिक विचारों की झलकउसकी ज्ञानमीमांसा मुख्यतः ‘आ॓न दि ज्यूइश क्वश्चन’, ‘थीसिस आ॓न फायरबाख’ आदि में देखने को मिलती हैउसने ये पुस्तकें क्रमशः ब्रूनो बायर और फायरबाख की पुस्तकों की आलोचना करते हुए रची थींये दोनों विद्वान भी हीगेल के अनुयायी थेदोनों ने अपनीअपनी तरह से हीगेल के दर्शन को विस्तार दिया थाहीगेल से ही प्रेरित मार्क्स का द्वंद्वात्मक भौतिकवाद अपने आप में एक विलक्षण स्थापना थी,जिसने उसको भौतिकवादी दार्शनिकों की पहली कतार में सम्मिलित कर दिया था.
मार्क्स के अनुसार चूंकि पदार्थ से चेतना की निष्पत्ति होती हैइसलिए ज्ञान का स्वरूप भी अनिवार्यतः वास्तविक होना चाहिएयानी हम जो सोचते हैंनिष्कर्ष निकालते हैंवह वास्तविक और विश्वसनीय हैकर्ता अथवा भोक्ता कर्म का सृजन नहीं करताबल्कि कर्म वस्तु रूप में संसार में अलग से उपलब्ध रहता हैवह क्रियाओं और मानवसंबोधि की अनिवार्य परिणति के रूप में सामने आता हैवह कर्ता से भिन्नउससे परे और स्वतंत्र हैज्ञानप्राप्ति के वास्तविक स्रोत मनुष्य के इंद्रियानुभवदृश्यमनोवेगमस्तिष्क में पहले से ही मौजूद मानसिक छवियां आदि हैंजिनके वह संपर्क में आता हैमार्क्स के अनुसार इस अखिल बृह्मांड में कुछ भी ऐसा नहीं हैजिसको जाना न जा सकेजो इंद्रियों का विषय न होकर सर्वथा अज्ञेय होजो हैउसकी स्वतंत्र सत्ता हैपूर्णतः ज्ञेय हैइंद्रियों के माध्यम से उसको जाना जा सकता हैचूंकि दृश्यमान जगत एक वास्तविक सत्ता है,इसलिए उससे उपजा ज्ञान भी वास्तविक है.
मार्क्स स्वयं वैज्ञानिक नहीं थामगर वह यूरोप के वैज्ञानिक प्रबोधन का कायल थाज्ञानार्जन की वैज्ञानिक पद्धति पर उसका अटूट विश्वास थाइसलिए उसने सतत प्रेक्षण और विश्लेषण पर आधारित वैज्ञानिक ज्ञान का पक्ष लिया थाउसके अनुसार ज्ञान के वास्तविक स्रोत वैज्ञानिक प्रेक्षण और विश्लेषण हैंवे तकनीकी व्यवहार हैंजो वैज्ञानिकता की कसौटी से आविष्कृत किए जाते हैं.उनके निष्कर्षों को जानापरखा जा सकता हैसामान्य परिस्थितियों में वे सार्वकालिक होते हैंमार्क्स ने अनुभववाद को भी सीमांकित किया थाउसके अनुसार अकेले अनुभव से वास्तविक ज्ञान तक पहुंच पाना संभव नहींजब तक उसको बुद्धि की कसौटी पर परखातकनीकी युक्तियों से जांचा न जा सकेउल्लेखनीय है कि तकनीकी विकास ने अनुभववाद की विकृतियों को सामने ला दिया था.अनुभव स्थितिसापेक्ष होते हैंइसलिए अनुभव के दौरान व्यक्ति के पूर्वाग्रहों के उसके निष्कर्षों पर हावी होने का खतरा सदैव बना रहता हैयद्धपि ज्ञान का आशय अनिवार्यरूप से ज्ञान ही हैअनुभव से अर्जित बोध को वैज्ञानिक प्रबोध में बदलने के लिएआंकड़ों के संश्लेषणविश्लेषण द्वारा अंतिम निष्कर्ष तक पहुंचने के लिए वैचारिक चैतन्य अनिवार्य हैतभी उनपर गहराईपूर्वक विचार संभव है.मार्क्स ने अनुभववाद की आलोचना की थीउसके अनुसार अनुभववाद बुर्जुआ वर्ग की गपशप है,वाग्विलास हैधोखा हैसत्य से परे ले जाने वाला है.
मार्क्स ने अनुभवाद को अपरिपक्व विचार माना थामगर उसका बुद्धिवाद से भिन्न थाउसका बुद्धिवाद असल में अनुभववाद और यथार्थवाद के बीच की चीज थाकिंतु अपनी प्राथमिकताओं के चलते वह इसपर अधिक काम न कर सकासच तो यह है कि मार्क्सवादी ज्ञानमीमांसा के समर्थक विद्वानों ने अभी तक खुद को सामान्य स्तर का अनुभववादी और अनुभवहीन यथार्थवादी ही सिद्ध किया हैमार्क्सवादी भौतिकवाद की विशिष्टता इस तथ्य में निहित है कि इसकी वास्तविक छवि दूसरे के भीतर नजर आती हैजिसमें व्यावहारिकता का संपुट है और पर्याप्त लचीलापन है.मार्क्सवादी चिंतन की मूल अवधारणा है कि हमारी चेतना के समस्त तत्व हमारी आर्थिक आवश्यकताओं से निर्धारित होते हैंवही हमारे आचरण और सामाजिक व्यवहार को तय करते हैं.इससे यह संकेत भी मिलता है कि समाज के प्रत्येक वर्ग का स्वतंत्र दर्शन और विज्ञान होता हैयह विज्ञान और मानव समाज के संबंधों की अनिवार्यता की ओर भी इंगित करता हैमार्क्स के अनुसार सर्वथा निरपेक्ष और समाज से परे विज्ञान की अभिकल्पना असंभव हैयही वह सत्य है जो सफलता की ओर ले जाता हैऔर यही वह कोशिश है जो सत्य की स्थापना के लिए नए मापदंड गढ़ती है.
अनुभववाद और बुद्धिवाद के बीच यह बहस कोई नई और अनोखी नहीं थींमार्क्स से पहले ही अनुभववादी जा॓न ला॓क और बुद्धिवादी देकार्त के अनुयायियों के बीच शताब्दियों लंबी बहस छिड़ चुकी थीइस बहस को इटली के महान दर्शनशास्त्री इमानुएल कांट ने पटरी पर लाने का काम किया था.उसके बाद हीगेल का आदर्शवादी द्वंद्ववाद भी विपरीत ध्रुवों के मध्य समन्वय का प्रयास जैसा था.मगर मार्क्स को हीगेल के आदर्शवाद पर भरोसा न थाउसने हीगेल के द्वंद्वात्मक दर्शन की सामाजिक परिस्थितियों के आधार पर समीक्षा की और उसके माध्यम से सामाजिक संघर्षों की व्याख्या करने का प्रयास कियाइस प्रयास में उसको सफलता भी मिलीयही कारण है कि माक्र्सवाद के बीच बुद्धिवाद और अनुभववाद दोनों ही दर्शन एकदूसरे के समानांतर गतिमान दिखाई पड़ते हैंउनके बीच समन्वय की कोई कोशिश नजर नहीं आतीमगर उसका यह एकदम सुस्पष्ट संदेश है कि हमारा ज्ञान परमसत्य की खोज के लिए समर्पित हैलेकिन क्षणविशेष के अनुसार देखें अथवा सीमित अर्थों में उसका आकलन करें तो वे आपस में बड़ी आसानी से एकदूसरे के संबंधी और पराश्रित हैंमार्क्स का विचार था कि सत्य हमारी आवश्यकताओं से जुड़ा हैउनपर आश्रित है तो हमारा ज्ञान न तो यथार्थ का अनुगामी बन सकता हैन उसकी पूरक छायाप्रति.
मार्क्स की दार्शनिक विचारधारा अकाट्य नहीं हैउसमें जगहजगह विरोधाभास नजर आते हैंइसका एक कारण यह भी हो सकता है कि वह एक एक्टीविस्ट लेखक थाउसकी प्राथमिकताएं भिन्न थीं.वह मजदूर आंदोलन के द्वारा पूंजीवाद के जिन्न को कैद करने का सपना देखता थाउसका अध्ययन व्यापक थाअपनी वैचारिक आस्था से प्रतिबद्ध मार्क्स के विचारों में ईमानदारी हैउसका आग्रह सामाजिकराजनीतिक क्रांति समाज में आमूल परिवर्तन के प्रति थाअपने विचारों के बल पर उसने समाज के बड़े वर्ग को बहुत गहरे तक प्रभावित किया हैइसलिए किसी के लिए भी उसकी उपेक्षा कर पाना असंभव हैउसके दर्शनसंबंधी विचारों की सीमा और उनके विरोधाभास के बावजूद उनमें इतना कुछ हैजिसके कारण वह शताब्दियों से विद्वानों को प्रभावित करता आया हैभविष्य में भी उसके विचारों की प्रासंगिकता बनी रहेगीइसमें संदेह नहींसच तो यह है कि उनीसवीं शताब्दी का वह अकेला दार्शनिक थाजिसने आम और खास सभी को समानरूप से प्रभावित किया और आज भी जब परिवर्तनकारी राजनीति पर चर्चा होती हैमार्क्स का नाम सम्मान के साथ लिया जाता है.

धर्मसंबंधी विचार

उपभोक्ता वस्तुश्रमउत्पादनसंबंधअधिलाभ आदि अर्थशास्त्रीय विषयों पर मार्क्स ने ‘पूंजी’ में गहन विमर्श किया हैवह एक ओर तो इन विषयों की वस्तुनिष्ठ ढंग से समीक्षा करता है,उपभोक्ता और वस्तु के स्थूल संबंधों को दर्शाता हैवहीं दूसरी ओर उसके मन में पैठा दार्शनिक स्थितियों की गहराई में जाकर तात्विक विवेचना करता हैवह अर्थशास्त्र को दार्शनिक आधार देता हैदर्शन का मानवीकरण करते हुए वह उसको सर्वहारा वर्ग की समस्याओं के निदान के लिए एक जरूरी उपकरण का रूप देता हैयही वह गुण हैजो उसके आर्थिक चिंतन को मौलिक और अनूठा सिद्ध करता हैपूंजी में मार्क्स ऐतिहासिक भौतिकवाद की चर्चा करते हुए यह प्रमाणित किया है कि मानवीय चेतना के सभी तत्व मनुष्य की अर्थसंबंधी आवश्यकताओं का परिणाम हैंजो सतत परिवर्तनशील हैंयह नियम धर्मआस्थासौंदर्यशास्त्र और नैतिकता पर भी समानरूप से लागू होता हैजहां तक नैतिकता का संबंध हैऐतिहासिक भौतिकवाद हमें ऐसा कोई सार्वकालिक सूत्र उपलब्ध नहीं कराताजिससे यह सिद्ध हो कि नैतिकता समाज निरपेक्ष हैसच तो यह है कि नैतिकता और समाज परस्पर आबद्ध होते हैंसमाज से परे उसकी नैतिकता के कोई मायने नहींउल्लेखनीय है कि प्रत्येक समाज की अपनी नैतिकता होती हैऐसे में सर्वहारा वर्ग के लिए नैतिकता के मापदंड क्या होंमार्क्स सर्वहारा वर्ग को सर्वाधिक प्रगतिशील इकाई मानता थाउसके अनुसार सर्वहारा वर्ग का एकमात्र नैतिककर्म यह होगा कि वह बुर्जुआ वर्ग को उखाड़ फेंके और एक नए समाज की रचना पर काम करेइसके लिए यदि हिंसा का सहारा लेना पड़े तो क्षम्य हैमार्क्स के अनुसार बड़े उद्देश्य के लिए इस तरह की हिंसाएं स्वीकार्य हैं.
सौंदर्यशास्त्र में स्थितियां और जटिल हो जाती हैंहमें बिना हिचक यह मान लेना चाहिए कि प्रत्येक वस्तु में एक अंतर्निहित गुण होता हैजो उसको अन्य वस्तुओं से अलग और विशिष्ट बनाता है,वही गुण उस वस्तु के सौंदर्यबोध के लिए आधार का काम करता हैजिसके अनुसार उस वस्तु का सुंदर अथवा कुरूप होना तय किया जाता हैकोई वस्तु समाज के प्रत्येक व्यक्ति की प्रशंसा प्राप्त कर सकेप्राणीजगत के प्रत्येक सदस्य को प्रिय होयह संभव नहींइसके विपरीत यदि कोई वस्तु व्यक्तिविशेष की अनिवार्यता हैतो वह उसके बाह्यः रूप की उपेक्षाकर उसकी प्रशंसा ही करेगा.वस्तु का लोकप्रिय होनासभी के लिए प्रशंसनीय होनाविकासवाद से भी जुड़ा हैयदि किसी प्राणी को किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं हैतो वह वस्तु सुंदर होने के बावजूद उसकी प्रशंसा अथवा सहानुभूति प्राप्त करने में असमर्थ सिद्ध होगीसमाज में प्रत्येक वर्ग की कुछ सामान्य आवश्यकताएं होती हैंजो दूसरे समाज के सदस्यों से अलग होती हैंउन्हीं के आधार पर वह समाज वस्तुविशेष का अपने पक्ष में मूल्यांकन करता हैमूल्यांकन के परिणाम ही वस्तुविशेष को लेकर उसके सौंदर्यबोध का निर्धारण करते हैंइस विश्लेषण के उपरांत मार्क्स जीवन में कला की उपयोगिता की समीक्षा पर आता है.
कला जीवन के लिए’ या ‘कला सिर्फ कला के लिए’—विद्वानों के बीच यह एक पुरानी बहस है.मार्क्स इस बहस में नहीं पड़ताबल्कि जैसी कि उम्मीद की जाती हैवह प्रतिबद्ध ढंग से सर्वहारावर्ग का पक्ष लेता हैनिष्कर्ष पर पहुंचने से पहले ही वह स्पष्ट कर देता है कि जीवन से निरपेक्ष कला का कोई मूल्य नहीं हैकला का सौंदर्य इसमें हैं कि वह जनसाधारण के जीवन को कितना सुखी और समृद्ध बनाती हैया वैसी प्रेरणाएं जगाती हैजिससे इस वर्ग के पूंजीवादी शोषण से मुक्ति का रास्ता साफ हो सकेइसलिए वह कला को जीवन से जोड़ता हैक्योंकि जीवन को सौंदर्यवान बनाने के लिए उसकी उपयोगिता असंद्धिग्ध हैलेकिन कला को सर्वहारा वर्ग की वीरता के उन कारनामों का दस्तवेजीकरण करना चाहिए जो वह समाजवादी दुनिया की स्थापना के लिए संघर्ष के दौरान प्रदर्शित करता हैवह कलाओं का समाजीकरण करजनमानस पर उनकी पकड़ को बढ़ाना चाहता हैप्रकारांतर में इस पकड़ का उपयोग वह सामाजिक परिवर्तन के लिए करना चाहता है.
धर्म को लेकर मार्क्स का कुछ ऐसा ही सोचना थावस्तुतः धर्म ही वह चीज हैजिसको लेकर मार्क्स शुरू से बेहद आलोचक थामार्क्स द्वारा प्रणीत द्वंद्वात्मक भौतिकवाद धर्म को विकास के लिए अनावश्यक और प्रतिरोधी मानता हैउसके अनुसार धर्म झूठी और मनगढ़ंत बातों का ऐसा गुंबद तैयार करता हैजो न केवल विज्ञानविरुद्ध होती हैंबल्कि मनुष्य को डरपोक और प्रतिगामी भी बनाती हैंइसलिए केवल विज्ञान ही मनुष्य को वास्तविक ज्ञान की ओर ले जाने में सक्षम है.वह आलोचनासमीक्षा अथवा पुनः विवेचन का अवसर ही नहीं देताहर धर्माचार्य धार्मिक प्रतीकों,रीतिरिवाजों को आस्था का विषय बनाकर जनमानस पर आरोपित करता हैधार्मिक चर्चाओं के दौरान वह सिर्फ विश्वास पर जोर देता है और किसी भी प्रकार के संदेह आदि को अधार्मिक कहकर नकारता हैपरिणामतः धार्मिक अंधविश्वास मानवीय विवेक को कुंठित करने का प्रयास करते हैं.इससे ज्ञान का स्वाभाविक विकास अवरुद्ध हो जाता हैधार्मिक प्रतीकोंपूजापद्धतियों और उनसे जुड़े कर्मकांडों का मूल स्वरूप सामंतवादी होता हैजो मानवीय अधिकारों का हनन करमनुष्य के नैसर्गिक विकास पर बुरा असर डालती हैंचूंकि धर्म सामान्यतः मानवीय विवेक की उपेक्षा करता है,इसलिए इससे वैचारिक जड़ता का विकास होता है.
धर्म भय और असुरक्षा की भावना से जन्मता हैवह मनुष्य को ईश्वर जैसी भ्रांत शक्तियों के आगे नतमस्तक होने को उकसाता हैभयभीत मनुष्य बाहरी मदद की अपेक्षा करता है और अपने समाज की मदद न मिलने पर अतींद्रिय शक्तियों के आगे झुकता चला जाता हैइससे उसके धार्मिकआर्थिक और सामाजिक शोषण की संभावना को विस्तार मिलता हैउसके अंतर्मन में पैठा हुआ भय एवं चुनौतियों से पलायन का स्वभाव उसे अपने उत्पीड़कों के आगे झुकनेउत्पीड़न के कारणों से विमुख रहनेमृत्योपरांत न्याय की आस में जीनेअभावों को अपनी नियति मान लेने को विवश कर देता हैवह अपनी खुद की शक्ति और क्षमताओं को समाज के शीर्षस्थ वर्गों की शक्ति और क्षमताएं मानने लगता हैजिससे उसका अपने प्रति अविश्वास लगातार बढ़ता जाता हैधर्म मनुष्य को भाग्यवादी बनाता हैवह उसके आत्मविश्वास का हनन करउसको दासभाव से भर देता है.परिणामस्वरूप वह उन शक्तियों से न्याय और कल्याण की अपेक्षा करने लगता हैजिनका कोई अस्तित्व ही नहीं हैबल्कि जिनकी सोचीसमझी अभिकल्पना समाज के शीर्षस्थ वर्गों द्वारा निहित स्वार्थों के लिएसमाज के सर्वहारावर्ग के शोषण तथा उसको उलझाए रखने के लिए की गई है.
मार्क्स के अनुसार भूसामंतपूंजीपति जैसे उत्पीड़क वर्ग धर्म का सम्मान करने का दिखावा करते हैं.वे धर्म को पवित्र विश्वास के रूप में जनमानस पर आरोपित करते रहते हैंइसके पीछे उनका वास्तविक उद्देश्य समाज के बहुसंख्यक मेहनतकशोंशिल्पकारोंकिसानों और मजदूरों को अपने चंगुल में बांधे रखने का होता हैताकि उसके माध्यम से वे उनपर राज्य कर सकेंधर्म मानवीय विवेक का हनन कर व्यक्ति को रूढ़िवादी एवं पलायनोन्मुखी बनाता हैउसकी सामंती वृत्तियां पूंजीपतियों और सामंतों के लक्ष्य को आसान और संभव बनाती हैंसामंतीवर्ग की विलासिता और शोषणआधारित समृद्धि को धर्म दैविक वरदान सिद्ध करने का प्रयास करता हैइससे सर्वहारा के मन में यह विश्वास जगने लगता है कि शीर्षस्थ वर्ग की अतुलनीय संपन्नता और सुखवैभव ईश्वरीय वरदान हैंउसके द्वारा पूर्वजन्म में किए गए पुण्यों का फल हैपरिणामस्वरूप एक ओर तो वह समाज के उत्पीड़क वर्ग को बड़ा और महान समझने लगता हैदूसरी ओर वह स्वयं कुंठाग्रस्त होकर पलयानवादी बन जाता हैउसका ध्यान शीर्षस्थ वर्गों की शोषणकारी नीतियों और उस भेदकारी व्यवस्था से हट जाता हैजो धर्म के सहारे फूलतीफलती है तथा प्रकारांतर में समाज में ऊंचनीच एवं सांप्रदायिक वैषम्य को बढ़ावा देती हैंधर्ममय आचरण द्वारा अपरिमित पारलौकिक सुखसमृद्धि की मरीचिकासर्वहारा वर्ग को हालात से समझौता करनेधर्म की लकीर पीटते रहने तथा दूसरों का अनुगामी बनने के लिए प्रेरित करती हैवह क्रांति की संभावनाओं पर कुठाराघात करती हैजिससे समाज पर यथास्थितिवाद हावी होता चला जाता हैधर्म के इन्हीं प्रतिगामी गुणों के कारण मार्क्स उसके संपूर्ण उन्मूलन के पक्ष में थासर्वहारा के शोषण को दूर करना है तो उसको धर्म से दूर रखना होगानैतिकता और सौंदर्यशास्त्र तो परिवर्तनशील हैंधर्म के आमूल उन्मूलन के साथ ही वे भी पटरी पर लौट आएंगे—ऐसा मार्क्स का मानना था.
इस संदर्भ में उसने अपने गुरु हीगेल को भी आड़े हाथों लिया थाअपनी पुस्तक ‘फिला॓स्फी आ॓फ राइट’ में धर्म की आवश्यकता को रेखांकित करते हुए हीगेल ने कहा था कि ‘धर्म का प्राथमिक उद्देश्य सामाजिक एकता का विस्तार है.’ धर्म मानवसमूहों को परस्पर करीब लाता हैपूजापद्धति,संस्कार आदि के माध्यम से उनमें ऎक्यभाव कायम करता हैइसकी आलोचना करते हुए मार्क्स ने लिखा था कि धर्म का एकमात्र लक्ष्य राजनीतिकआर्थिकसामाजिक असमानता की सुरक्षा और उसको बढ़ावा देना हैआस्था को केंद्र बनाकर लोगों को तर्क एवं ज्ञानविज्ञान से विमुख रखना हैहीगेल के ‘धर्म के आदर्शात्मक योगदान’ की बखिया उधेड़ते हुए मार्क्स ने धर्म को प्रतिगामी शक्ति और ‘संसार की उल्टी मति को दर्शाने वाला…’ बताया थाधर्म का निषेध करते हुए उसने कहा था कि मनुष्यता का वास्तविक कल्याण इसमें है कि वह विज्ञान की शरण लेधर्म के जुए को अपने कंधे से उतार फेंकेजीवन की समस्याओं के निपटान हेतु विवेक और तर्कबुद्धि से काम लेउसने आगे लिखा था कि धर्म
इस संसार की विपरीत मति हैदर्शनशास्त्र का सर्वप्रथम कर्तव्यजो इतिहास के भले के लिए होगायह है कि वह इसके अपवित्र चेहरों पर पड़े नकाब को उतार फेंकेएक बार जब धर्म का वास्तविक चेहरा समाज के सामने आएगातब समाज फिर से अपने पवित्र रूप में लौटने लगेगा.’
मार्क्स ने धर्म की उपस्थिति को मनुष्यता का द्दास माना हैउसके अनुसार धर्म मनुष्य को स्वार्थी बनाता हैइससे मुक्ति तभी संभव हैजब सर्वहारा वर्ग अपनी एकजुटता की क्रांतिकारी ताकत को पहचानकर मुक्तिसंघर्ष के लिए उन्मुख होगापूंजी एवं धर्म की अधिसत्ता को उखाड़ फेंकेगाधर्म की विरूपताओं तथा उसकी अनावश्यकता पर विचार करते हुए मार्क्स अंत में प्रूधों से इस मायने में सहमति दर्शाता है कि समाज में निजी संपत्ति की मान्यता समाप्त होनी चाहिएसाथ ही वह प्रूधों से एक कदम आगे बढ़ जाता हैजिसने निजी संपत्ति की अवधारणा का केवल विरोध किया था.यह नहीं बताया था कि इस लक्ष्य को प्राप्त कैसे किया जा सकता हैमार्क्स को सर्वहारा वर्ग की शक्ति और संकल्प में भरोसा थाइसलिए उसने इसी वर्ग का आह्वान किया था कि वह निजी संपत्तिधारकों को उखाड़ फेंकेउत्पादन के समस्त साधनों को अपने कब्जे में लेकर एक समरस समाज की स्थापना की शुरुआत करेयह बुर्जुआ वर्ग द्वारा श्रमिक वर्ग के शताब्दियों से चलते आ रहे शोषण के अंत की दिशा में पहला कदम होगाजिसकी अंतिम परिणति वर्गहीनशोषणमुक्त साम्यवादी समाज की स्थापना में होगीयह सर्वहारा क्रांति के बाद की अवस्था है.

वैज्ञानिक समाजवाद

समाजवाद मार्क्स का विचार नहीं थामगर आधुनिक विद्वानों में ऐसे लोगों की कमी नहीं हैजो उसको समाजवाद का चैंपियन स्वीकारते हैंजबकि उसके निर्भीक एवं ओजस्वी लेखन से प्रभावित कुछ विद्वान उसे ‘क्रांतिकारी साम्यवाद’ का जन्मदाता कहते हैंजिससे उसका आशय था—सर्वहारा क्रांति पर आधारित वर्गहीन समाज की स्थापनाजो माक्र्सवाद का प्रमुख लक्ष्य थापूंजीवाद और सामंतवाद के वर्चस्वयुक्त दौर में वह सचमुच क्रांतिकारी स्थापना थीऐसा ही सपना मार्क्स ने1848 में कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो के माध्यम से देखा थामगर उसने जिस प्रकार एक के बाद एक आर्थिक एवं सामाजिक पहलुओं का तार्किक विश्लेषण किया हैउसको देखते हुए उसके समाजवादी चिंतन को ‘वैज्ञानिक समाजवाद’ का नाम देना ही समुचित होगाजैसा कि ऐंगल्स ने भी माना था.उल्लेखनीय है कि क्रांतिकारी साम्यवाद सर्वहाराक्रांति का परम लक्ष्य हैवह श्रमिक अधिनायकवाद के बाद की स्थिति हैमार्क्स को सर्वहारावर्ग से काफी उम्मीदें थींउसका मानना था कि क्रांति के पहले चरण में सर्वहारावर्ग बुर्जुआ वर्ग को अपदस्थ कर सत्ता पर कब्जा कर लेगाउसके बाद वह वर्गहीन समाज की स्थापना के लिए योजनाबद्ध तरीके से काम करेगावैज्ञानिक समाजवाद एक ऐतिहासिक अवस्था हैजो उत्पादन के संसाधनों के अनुसार सामज की सहज परिणति हैप्रथम दृष्ट्या ‘क्रांतिकारी साम्यवाद’ और ‘वैज्ञानिक समाजवाद’ एकदूसरे के प्रतिस्पर्धी जान पड़ते हैं. ‘वैज्ञानिक समाजवाद’ सामान्यतः मार्क्स के समाजवादी विचारों को मान्य ठहराता है.
उल्लेखनीय है कि मार्क्स अपने अर्थनीति संबंधी विचारों को किसी पर थोपता नहीं हैवह सीधे संवाद करता हैअपनी मान्यता के पक्ष में तर्क रखता हैउनकी विश्वसनीयता जांचने के लिए अध्ययनमननआंकड़ों एवं तथ्यों का संचयनपुनः उनका वर्गीकरण और विश्लेषण करता हैये सब वैज्ञानिक पद्धति की विशेषताएं हंैदूसरी ओर ‘क्रांतिकारी साम्यवाद’ मात्र यह संकेत करता है कि मार्क्स समाजवादी व्यवस्था का पक्षधर थाऔर उसको पूंजीवादी उत्पीड़न से बचाने के कारगर उपाय के रूप में देखता थाइसके लिए उसने सर्वहारा वर्ग का आवाह्न किया था कि वह एकजुट होकर पूंजीवादी व्यवस्था का बहिष्कार करे.
वैज्ञानिक समाजवाद’ के संबोधन से मार्क्स के जीवन के संघर्ष की झलक भी मिल जाती हैयहां याद दिलाना प्रासंगिक होगा कि मार्क्स ने राजनीतिक अर्थशास्त्र के क्षेत्र में गंभीर कार्य की शुरुआत1850 के दशक से की थी. 1848 में प्रकाशित ‘कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो’ में उसने सर्वहारा वर्ग से,संगठित होकर पूंजीवादी उत्पीड़न के विरोध में हल्ला बोलने का आवाह्न किया था. ‘सर्वहारा के पास खोने के लिए सिवाय अपनी जंजीरों के कुछ नहीं हैमगर जीतने के लिए दुनिया पड़ी हैदुनिया के मजदूरो एक हो जाओ!’ कम्यूनिस्ट मेनीफेस्टो के पहले संस्करण में मार्क्स द्वारा मजदूरों से की गई इस क्रांतिकारी अपील का जादुई असर हुआ थाउसी के आधार पर फ्रांसिसी क्रांति की इबारत लिखी गई थीकिंतु बाद के वर्षों मेंविशेषकर पेरिस कम्यून की असफलता के पश्चातमार्क्स का क्रांतिकारी गतिविधियों से भरोसा कम होने लगा था. 1872 तक आतेआते उसकी विचारधारा में उल्लेखनीय परिवर्तन आया थावह मानने लगा था कि किसी भी राष्ट्र के पुनःनिर्माण के रास्तेवहां की विशिष्ट परिस्थितियों पर निर्भर करते हैंउसके विचारों में आ रहे परिवर्तन की झलक ‘कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो’ के दूसरे जर्मन संस्करण की भूमिका से मिल जाती हैउस भूमिका में मार्क्स और ऐंगल्स ने लिखा था—
हर जगहप्रत्येक कालखंड मेंजैसा कि मेनीफेस्टो में पहले ही दर्शाया गया हैउसके सिद्धांतों का व्यावहारिक उपयोगस्थानविशेष की तात्कालिक परिस्थितियों पर निर्भर करता हैअतएवइसी कारण (कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो केदूसरे अध्याय के अंत में प्रस्तावित क्रांतिकारी उपायों पर विशेष जोर नहीं दिया गया हैवह अनुच्छेदअनेक मायनों मेंआज की परिस्थितियों में बिलकुल नए शब्दों में लिखा जाएगा.’
जाहिर है कि मार्क्स के तेवरों में कमी आई थीसशस्त्र क्रांति से उसका भरोसा घटा थावह संघर्ष से सहयोग की ओर लौट रहा थाप्रश्न उठता है कि मार्क्स द्वारा प्रणीत ‘वैज्ञानिक समाजवाद’ आखिर है क्यामार्क्स का राजनीतिइतिहासअर्थशास्त्र और दर्शनसंबंधी ज्ञान बहुत गहरा था.वैज्ञानिक समाजवाद की उसकी अवधारणा वस्तुतः इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या से प्रेरित थी,जिसकी उसने ‘पूंजी’ में विस्तार सहित व्याख्या की थीलेकिन उसके बीजतत्व उसकी पुस्तक ‘दि जर्मन आइडियोला॓जी’(1840) जो उसने हीगेल की आलोचना करते हुए लिखी थीऔर ‘दि मेनीफेस्टो आ॓फ कम्युनिस्ट पार्टी’(1848) में सुरक्षित थे. ‘मेनीफेस्टो आ॓फ दि कम्युनिस्ट पार्टी’ के लिखे जाने तक उसका समाजवादी सपना अपना आकार ग्रहण कर चुका थाइस सपने को साकार कैसे किया जाएउसका आगे का समूचा चिंतनमनन इसी बौद्धिक छटपटाहट का परिणाम है.
मार्क्स के मन में समाजवाद के प्रति आस्था 1840 के आसपास ही उभरने लगी थी. ‘ए प्रीफेस टू ए कंट्रीब्यूशन टू क्रिटीक टू दि पा॓लिटीकल इकाना॓मी’ की भूमिका में उसने पूंजीवादी व्यवस्था में उत्पादक शक्तियों के मनमाने आचरण की ओर संकेत किया थाउसने लिखा था—
उत्पादक शक्तियों के निरंतर विकास के फलस्वरूपजो महज उत्पादन और मालिकों के संबंध को दर्शाती हैंउत्पादक शक्तियों के अतिरिक्त विकास के साथसाथ मालिकमजदूर संबंध एक बेड़ी में बदलने लगते हैंठीक यही समय होता हैजब कोई सामाजिक क्रांति जन्म लेती है.’
कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो’ में आधुनिक राज्य की विशेषताओं का उल्लेख करते हुए मार्क्स ने भूसंपत्ति से निजी अधिकारिता को समाप्त करउसे व्यापक लोकाधिकार के दायरे में लानेबहुस्तरीय कराधान पद्धति लागू करनेउत्तराधिकार की प्रथा समाप्त करनेबैंकों के राष्ट्रीयकरणसंचारयातायातकलकारखानों एवं उत्पादन के अन्य माध्यमों को केंद्र के अधिकार में लानेबेकार पड़ी जमीन को खेतीयोग्य बनानेसभी के लिए काम की एकसमान अनिवार्यता का कानून लागू करने,कृषि और उद्योगों के समन्वयशहर और कस्बे के अंतर को समाप्त कर जनसंख्या के एकसमान बंटवारेबालमजदूरी प्रथा के उन्मूलन तथा सरकारी स्कूलों में सभी बच्चों के लिए निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था करने का आह्वान किया थासामंतवादी वातावरण में जीते आए समाज के लिए ये स्थितियां बहुत सराहनीय थीं.
स्पष्ट है कि मार्क्स द्वारा प्रणीत समाजवाद पूंजीवादी व्यवस्था में उत्पादक शक्तियों एवं उत्पादनसंबंधों के अंतःसंघर्ष का परिणाम थाउसके निष्कर्ष कल्पना की उड़ान तक सीमित नहीं थेविभिन्न समाजों के विकास का ऐतिहासिक अध्ययन करने के उपरांत वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि पूंजीवादी व्यवस्था में उत्पादक शक्तियों और सर्वहारा वर्ग के बीच संघर्ष अनिवार्य हैउसने इसको प्रकृति विज्ञान का सटीक परिणाम माना थाउसने लिखा था कि सामूहिक चेतना के उभार के दौर में मनुष्य कानूनीराजनीतिकधार्मिकसौंदर्यवादीदार्शनिक यानी कुल मिलाकर आदर्शवाद जैसे मुद्दों पर काफी सावधान हो जाता हैवह अपनी गरीबीसमाज पर आए आर्थिक संकटसामाजिकराजनीतिकआर्थिक विषमता के कारणों की गंभीरतापूर्वक पड़ताल करने लगता हैजैसेजैसे सच उसकी पकड़ में आता हैव्यवस्था के प्रति उसके मन में असंतोष उमड़ने लगता हैकालांतर में व्यक्ति का आक्रोश समूह के गुस्से में बदलता चला जाता हैयही जनाक्रोश बड़े राजनीतिकआर्थिक परिवर्तनों को जन्म देता हैराजनीतिक इतिहास के अध्ययन के दौरान मार्क्स ने समयसमय पर आने वाले आर्थिक संकटोंगरीबी की बढ़ती रफ्तारश्रमिकों की दुर्दशा तथा पूंजीपतियों की मनमानी के कारणों का गहरा अध्ययन किया थाउसके बाद ही वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि ये सभी संकट समाज की वास्तविक उत्पादक शक्तियों और छद्म उत्पादकों के बीच पनपे अंतर्विरोधों का परिणाम हैं.
मार्क्स का मानना था कि मानवीय चेतना समाज में प्रचलित जीविकोपार्जन के तरीकोंविशेषकर उत्पादनसंबंधों पर निर्भर करती हैउसको विश्वास था कि पूंजीवादी उत्पीड़न का दौर लंबा खिंचने वाला नहीं हैअपनी आर्थिक कठिनाइयों से त्रस्त होकर एक न एक दिन श्रमिक स्वयं विद्रोह पर उतर आएंगेचूंकि वास्तविक उत्पादक वही हैंअतएव वह पूंजीवाद का आखिरी समय होगा.भस्मासुर की भांति पूंजीवाद की मौत उसके अपने हाथ में हैकुछ ऐसा उसका सोच थामार्क्स ने अपनी मान्यता इतने सुसंगठित और क्रमबद्ध ढंग से प्रस्तुत की थी कि उसको एकाएक नकार पाना असंभव थातथ्यों के विश्लेषण के लिए उसने दर्शनइतिहासराजनीतिअर्थशास्त्रविज्ञान एवं प्रौद्योगिकी को आधार बनाया था. ‘वैज्ञानिक समाजवाद’ का नाम उसको ऐंगल्स ने दिया थाजिससे उसका आशय उत्पादन का लाभ समाज के बहुसंख्यक वर्ग तक पहुंचाना थाजो पूंजीवादी व्यवस्था में असंभव हो चला था.
मार्क्स के अनुसार समाजवाद समाज की अनिवार्यता हैकिसी समाज को यदि दीर्घजीवी होना है,उसको सुखशांतिपूर्वक समृद्धि का भोग करना है तो उसको संपत्ति और संसाधनों के विकेद्रीकरण के सिद्धांत को स्वीकारना ही होगाहर व्यक्ति की कुछ सामाजिकजैविक आवश्यकताएं होती हैंवे बिना किसी बाधा के न्यायोचित ढंग से पूरी होती रहेंयह समाजवाद का उद्देश्य हैउल्लेखनीय है कि मार्क्स के समय में ही सहकारिता आंदोलन का विकास हो चुका थासहकारिता आधारित उद्यम पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के बेहतर विकल्प सिद्ध हो रहे थेमार्क्स ने सहकारिता आंदोलन की प्रशंसा की थीलेकिन उसका मानना था कि केवल सहकारिता द्वारा आर्थिक समरसता के लक्ष्य को प्राप्त कर पाना असंभव हैयही नहीं साहचर्य समाजवादियों राबर्ट ओवेनफ्यूरियरसंत साइमन आदि को कल्पनाजीवी कहकर उसने उनका मजाक भी उड़ाया थासहकारिता के प्रति कुछ ऐसा ही विचार मार्क्स के समकालीन विद्वान जाॅन स्टुअर्ट मिल का भी थासहकारिता एवं स्पर्धात्मक अर्थव्यवस्था की बुराइयों पर निष्पक्ष ढंग से पुनःविचार कर कोई नयाकारगर रास्ता खोजने की जरूरत को लक्ष्य करते हुए मिल ने लिखा था—
प्रश्न यह नहीं है कि क्या स्पर्धायुक्त राज्य को उसकी स्वाभाविक दुष्टताओं से मुक्त कर दिया गया हैविशेषकर तब जबकि हम जानते हैं कि बुराई या कि दुष्टता मानवमात्र के स्वभाव में घुल चुकी हैप्रश्न यह भी नहीं है कि सहयोग और स्पर्धा में मानवसमाज के लिए अधिकतम खुशियों संवाहक बनने की योग्यता किसमें हैअथवा क्या स्पर्धात्मक व्यवस्था पर पुनर्विचारमात्र से मानवमात्र की समस्त समस्याओं का निदान संभव है?असल में तो सहकारिता और स्पर्धा दोनों व्यवस्थाओं की कमजोरियों के निष्पक्ष तुलनात्मक अध्ययन से ही समाज की समस्याओं का समाधान खोजा जा सकता है.’
उल्लेखनीय है कि प्रायः सभी समाजवादी विचारकों ने पूंजीवादी व्यवस्था की बुराइयों और कमजोरियों का विस्तार से वर्णन किया हैउनमें से प्रत्येक ने अपनीअपनी तरह से इन बुराइयों से मुक्ति के लिए वैकल्पिक अर्थव्यवस्था का सुझाव भी दिया हैमार्क्स भी इसका अपवाद नहीं हैकिंतु मार्क्स को छोड़कर बाकी सभी के विश्लेषण की एक सामान्य कमजोरी यह है कि वे नई व्यवस्था में एकदम आदर्शात्मक स्थितियों की कल्पना करते हैंयह मान लेते हैं कि नई व्यवस्था में व्यक्ति बिना किसी बाहरी दबाव के सिर्फ अपनी नैतिक अंतःप्रेरणाओं के आधार पर स्वयं को समाज की एक इकाई मानते हुए अपने हिस्से की सुविधाओं से समझौता कर लेगासाथ ही वह समाज के विकास में अपनी क्षमतानुरूप अधिकतम योगदान भी करेगाअतिरिक्त की वांछा ही नहीं होगीइस तरह स्वार्थ भावनाआलस्यलालचविलासप्रियता आदि का अपने आप ही अंत हो जाएगावस्तुतः अधिकतम योगदान के बाद सामान्य सुविधाओं की प्राप्ति का दावा व्यक्ति को बहुत आकर्षित करने वाला नहीं हैयह आदर्श के रूप में भले स्वीकार्य होकिंतु यथार्थ में भी उतना ही कारगर सिद्ध हो सकेगायह दावे के साथ नहीं कहा जा सकतायदि सचमुच ऐसा हो भी जाए तो क्या वैज्ञानिक आविष्कारों और औद्योगिक प्रगति की इतनी ही गति संभव हैऔर यदि यह संभव नहीं है तो प्राकृतिक आपदाओं,जनसंख्या वृद्धि जैसी समस्याओं से कैसे निदान संभव हैइस बारे में नई व्यवस्था के लिए कोई सुझाव मार्क्स के पास नहीं थादेखा जाए तो यही मार्क्स के चिंतन की सीमा भी हैजितनी गंभीरता से वह पूंजीवाद की बुराइयों की चर्चा करता हैउसके छलप्रपंचों को सामने लाता हैउतनी ही गंभीरता के साथ वह उसके विकल्पों पर बात नहीं कर पातावह सबकुछ सर्वहारावर्ग की नैतिकता पर छोड़ देता हैसर्वहारावर्ग के प्रति अपने अतिविश्वास के चलते वह भूल जाता है कि वह भी मानवीय कमजोरी का शिकार हो सकता हैउस अवस्था में सर्वहारावर्ग का अधिनायकत्व एक भीड़ के शासन की भांतिसमाज को अराजक स्थितियों की ओर ले जा सकता है.
मार्क्स का समाजवाद उसके भौतिकवादी द्वंद्ववाद से प्रेरित थाउसका मानना था कि समाजवाद का सपना बिना श्रमिकों के संगठित और सक्रिय विरोध के असंभव हैदूसरे शब्दों में मार्क्स और ऐंगल्स पहले समाजवादी थेजिन्होंने मजदूर संगठनों का समर्थन किया थाअधिकांश विद्वान मानते हैं सामाजिक परिवर्तनसमाज की सामान्य बौद्धिक हलचल का सुफल होता हैजिसको कुछ साहसी और विवेकवान महामानवजनसमर्थन के बल पर संभव बनाते हैंमार्क्स की राय इससे बिलकुल भिन्न थीउसका मानना था कि इतिहास में—
पुराने सभी आंदोलनअल्पसंख्यक वर्ग द्वारा अथवा अल्पसंख्यक वर्ग के हित में चलाए गए जनांदोलन थेजबकि सर्वहारा का आंदोलन अपरिमित जनसमुदाय द्वारा ऊर्जस्वित एवं अपरिमित जनसमुदाय के हित में चलाया जाने वाला एक आत्मचेतितआत्मनिर्भर आंदोलन है.’
अपरिमित बहुमत’ अथवा श्रमिकों की अद्वितीय एकता समाजवादी विचारों द्वारा संभव नहींउस समय के अधिकांश समाजवादी विचारक भी यही मानते थेमगर उन सबसे हटकर मार्क्स का विचार था कि ऐसा संभव हैउसको विश्वास था कि इसके अवसर उग्र पूंजीवाद के गर्भ से ही जन्म लेंगे.पूंजीवाद की जकड़बंदी के बीचउद्योगों के विकास के साथसाथ श्रमिकों की संख्या भी बढ़ती जाएगीफिर एक दिन वे न केवल संख्याबल मेंबल्कि संगठित दल के रूप में भी महान ताकत होंगेआगेजैसेजैसे पूंजीवाद और उसके कलकारखानों का विकास होगाइस संख्या में और अधिक वृद्धि होगीभिन्नभिन्न स्थानों पर रहनेतरहतरह के कारखानों में काम करने के बावजूदउनकी प्रमुख समस्याएं एक जैसी होंगीप्रौद्योगिकी का जितना अधिक विकास होगापरिष्कृत और स्वचालित मशीनों का आगमन भी उतना ही अधिक होगाउनमें प्रयुक्त श्रमविरोधी तकनीक श्रमिकों के हितों को नकारात्मक ढंग से प्रभावित करेगीजिससे उनकी मजदूरी निरंतर घटती जाएगीजो पुनः उनके असंतोष को उभारकर अपने अधिकारों के लिए संघर्ष की प्रेरणा देगीयह क्रम एक वर्गहीन समाज की स्थापना तक सतत चलता ही रहेगा.
पूंजीवाद के उत्तरोत्तर उग्र होते तेवर सर्वहारा वर्ग को एकजुट होने को बाध्य करेंगेएक दिन उसकी संगठित ताकत पूंजीवाद से मुक्ति का कारण बनेगीसंक्षेप में मार्क्स द्वारा प्रकल्पित ऐतिहासिक भौतिकवादइतिहास की भौतिकवादी अवधारणाइस सामान्य तथ्य पर आधारित है कि उत्पादन ‘मानवअस्तित्व का प्रथम आधार’ हैसामाजिक संबंध उत्पादनसंसाधनों के अनुसार बदलते रहते हैं.मनुष्य को इस स्थिति में होना चाहिए कि उसका जीवन इतिहास बन जाएमार्क्स अपने प्रसिद्ध सिद्धांतइतिहास की भौतिकवादी अवधारणा की व्याख्या ही इस प्रकार करता हैउसके अनुसार प्रत्येक सामाजिक सिद्धांतउत्पादन तथा उत्पाद की अदलाबदली के सामान्य नियमों एवं स्थितियों से प्रभावित होता हैवही समाज के प्रत्येक आचरण और व्यवहार के लिए जिम्मेदार हैउसका मानना था कि समाज का विभिन्न वर्गोंराज्यों में वर्गीकरण—वहां प्रचलित प्रौद्योगिकी तथा उत्पादों की विपणन पद्धति द्वारा तय होता हैमशीनें मानवीय संबंधों के स्वरूप को तय करती हैं— मार्क्स की यह अवधारणा ही उसके ऐतिहासिक भौतिकवाद का प्राणतत्व है.
इस तरह मार्क्स की संकल्पना का समाजवाद कोई समाजार्थिक व्यवस्था न होकर इतिहास का वह दौर हैजिससे कोई समाज पूंजीवाद के पतन के बाद आवश्यक रूप से गुजरता हैमार्क्स की मंजिल समाजवाद नहीं थाबल्कि वह तो उसकी विचारयात्रा का पड़ाव मात्र हैसमाजवाद से अगली स्थिति साम्यवाद की आती हैजिसमें व्यक्तिगत संपत्ति और सत्ताओं का लोप हो चुका होता हैक्रांति के पहले चरण में संगठित सर्वहारावर्ग बुर्जुआवर्ग को अपदस्थ कर समस्त संसाधनों पर अपना अधिपत्य जमा लेता हैमार्क्स इस अवस्था को सर्वहारा वर्ग के अधिनायकवाद की संज्ञा देता हैपूंजीवादीसामंतवादी शोषण की स्थितियां दुबारा न जन्मेंइसलिए वह एक के बाद एक सभी शक्तिशिखरों को ध्वस्त करता चला जाता हैप्रकारांतर में एक वर्गहीनसर्वकल्याणकारीसमानताधारित व्यवस्था का जन्म होता हैयही सर्वहाराक्रांति का मूल उद्देश्य है.
पेरिस कम्यून में मार्क्स के आरंभिक समाजवाद की एक झलक हमें दिखाई देती हैजिसमें समाज के उत्पादनतंत्र पर सर्वहारा वर्ग का अधिपत्य हो चुका हैपूरा का पूरा उत्पादनतंत्र श्रमिकसंगठनों के हाथों में हैजिसका संचालन व्यापक लोककल्याण की भावना के साथ किया जाता हैजहां न कोई मालिक हैन मजदूरउत्पादकता बनाए रखने के लिए प्रोत्साहन योजनाओं की मदद ली जाती हैलोग बिना किसी बाहरी दबाव के स्वयंस्फूर्त भाव से काम में जुटे हैंसंभव है सामाजिक स्तरीकरणआर्थिक भेदभाव के कुछ अवशेष उस अवस्था में भी शेष होंलेकिन कालांतर में वे घटने लगते हैं और वह उस समय तक निरंतर घटते जाते हैंजब तक कि पूंजीवादी अवशेषों का पूरी तरह लोप नहीं हो जातामाक्र्सवादियों द्वारा अभिकल्पित समाजवाद में हर व्यक्ति अपनी क्षमता के अनुसार योगदान देता हैउसके अनुसार ही उसकी प्राप्तियां भी होती हैंउनके अनुसार समाजवाद का सूत्रवाक्य है—
प्रत्येक से उसकी योग्यता के अनुसारप्रत्येक को उसके योगदान के अनुरूप.’
समाजवाद की अगली अवस्थासाम्यवाद में हालात मानवीय हो जाते हैंउत्पादनतंत्र लौकिक स्वरूप धारण कर लेता हैउसमें मालिकमजदूर का भेद मिट जाता हैकार्यरत श्रमिक अपना मालिक स्वयं होता हैवह उत्पादक भी होता है तथा उत्पादकशक्ति भीसाम्यवादी व्यवस्था में उद्योग लोगों की जरूरत के माल का उत्पादन करते हैंस्वयंस्फूर्त भावना से प्रेरित होकर प्रत्येक मनुष्य अपनी क्षमताओं के अनुसार भरपूर योगदान देता हैबदले में समाज की ओर से उसको उसकी आवश्यकता के अनुसार प्राप्तियां होती हैसाम्यवाद की प्रेरक सिद्धांत है कि—
प्रत्येक से उसकी योग्यता के अनुसार कामहरेक को उसकी आवश्यकता के अनुरूप दाम.’
सच यह भी है कि मानवीय आवश्यकताओं को किसी सीमा में बांध पाना असंभव हैइसलिए साम्यवाद में व्यक्ति को अपनी आवश्यकताओं का अनुकूल शेष समाज की आवश्यकताओं के साथ करने के लिए बाध्य किया जाता हैपरिणामस्वरूप उपभोग को लेकर उसको अपनी विशिष्ट पसंदों को त्यागना पड़ता हैइसलिए कुछ विद्वान साम्यवाद को व्यक्तित्व निर्माण के लिए बाधक मानते हैंयह एक तरह से मनुष्य के व्यक्तित्व विसर्जन के सिद्धांत पर टिका हैजिसमें उसकी व्यक्तिगत विशिष्टताओं के लोप की संभावना बढ़ जाती हैइससे उसके मन में आक्रोश जन्म लेने लगता है.मनुष्य का असंतोष साम्यवादी व्यवस्था के लिए हानिकर सिद्ध हो सकता हैकिसी भी स्तर पर यदि किसी व्यक्ति को यह लगने लगे कि उसको होने वाली प्राप्तियां उसके द्वारा किए जा रहे योगदान के मुकाबले न्यून हैंतब उसका उस व्यवस्था से विश्वास उठ सकता हैवह अपने काम के प्रति उदासीन हो जाता हैजिससे अंततः उत्पादकता में गिरावट की संभावना बढ़ जाती हैअतएव साम्यवाद के लिए वस्तुओं की प्रचुरता और स्वचालित उत्पादन होना आवश्यक हैताकि मनुष्य के लिए अप्रीतिकर माने जाने वाले कार्यों को मशीनों द्वारा निपटाया जा सकेइस लक्ष्य को प्राप्त करना अकेले सर्वहारा वर्ग के लिए संभव नहीं हैदूरदृष्टा मार्क्स को इसका पूर्वानुमान थाकिंतु उसको विश्वास था कि पूंजीवाद स्वयं साम्यवाद के अनुकूल स्थितियों का सृजन करेगाकम्युनिस्ट मेनीफेस्टो में इस स्थिति की परिकल्पना करते हुए लेखकद्वय मार्क्स और ऐंगल्स ने लिखा था—
प्रौद्योगिकी के विकास के साथ उद्योगों का विकास होगाजिससे सर्वहारा वर्ग की संख्या में भी अनुकूल वृद्धि होगीकालांतर में समाज में सर्वहाराओं की बहुलता हो जाएगीजिससे उनकी शक्ति बढ़ेगी और उस शक्ति की अनुभूति भीउच्चतकनीकयुक्त मशीनें श्रम के भेदभाव को समाप्त कर देंगीजिसके परिणामस्वरूप सर्वहारा वर्ग के हितों और उसके जीवन में एकरूपता का विकास होगादूसरी ओर मजदूरी में सर्वव्यापी गिरावट आएगी और वह अपने न्यूनतम स्थिति में पहुंच जाएगी.’
मार्क्स ने आगे लिखा था कि न्यूनतम मजदूरी और संगठित शक्ति का एहसास सर्वहाराओं को संघर्ष के लिए प्रेरित करेगासंगठित विरोध की संभावनाएं समाजवादियों की प्रेरणास्वरूप नहींबल्कि पूंजीवाद की ओर से उत्तरोत्तर बढ़ते दबावों के फलस्वरूप पैदा होंगी. ‘कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो’ में करीब 160 वर्ष पहले की गई यह परिकल्पना कितनी सटीक थीइसका ताजा उदाहरणब्रेन जोन्स ने अपने लेख ‘मार्क्स की समाजवादी परिकल्पना’ में किया हैजोन्स ने यह लेख हाल के वैश्विक आर्थिक संकट की समीक्षा करते हुए लिखा हैअतः प्रकारांतर में यह लेख मार्क्स के विचारों की समसामयिकता का प्रमाण भी देता हैजोन्स ने लिखा है कि—
वर्ष 2008 में भीषण वैश्विक मंदी के फलस्वरूप प्राय सभी किस्म के उत्पादों की मांग में भारी गिरावट आई थीनिर्यात में कमी आने से कारखानों पर मुद्रा संकट आ गयाइस स्थिति से निपटने के लिए न्यू यार्क के एक उपनगर ब्रोंक्स में बिस्कुट बनाने की फैक्ट्री ‘स्टेला डी’ओरो’ के प्रबंधकों ने मंदी के फलस्वरूप आए मुद्रा संकट से उबरने के लिए श्रमिकों के वेतन में 25 प्रतिशत की कटौती की घोषणा कर दीइस खबर के फैलते ही श्रमिकों में उबाल आ गयाबगैर इसकी चिंता किए कि औद्योगिक मंदी के दौर मेंजब अधिकांश बड़ी कंपनियां छंटनी कर रही हैंउनकी नौकरी के लिए भी खतरा उत्पन्न हो सकता हैवे हड़ताल पर चले गएइससे मिलतीजुलती प्रतिक्रिया शिकागो में देखने को मिलीवहां की एक फैक्ट्री ‘रिपब्लिक विंडो एंड डोअर्स’ ने जब दिसंबर(2009) में कारखाने को बंद करने की कोशिश कीकामगारों का वेतन रोक लिया गयाइसपर श्रमिकों ने उग्र होकर प्रबंधन का विरोध कियाउनका उग्र रूप देखकर प्रबंधक भाग छूटेश्रमिकों ने बंद कारखाने को अपने अधिकार में लेकर उत्पादन आरंभ कर दिया.
श्रमिक एकता की ये अनूठी घटनाएं किसी कल्पनाजगत का हिस्सा नहीं हैबल्कि हमारे ही समय कीहमारी आंखों के सामने घटी सच्ची घटनाएं हैंभले ही पूंजी के दम पर फलनेफूलने हमारा आधुनिक मीडिया इन घटनाओं को बहुत अधिक तूल न देता होअथवा जानबूझकर उनपर पर्दा डाले रखता होपर इसमें कोई संदेह नहीं हक ऐसी घटनाएं घट रही हैंश्रमिक अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हो रहे हैंजिस द्वंद्वात्मकता के ऊपर मार्क्स का ऐतिहासिक भौतिकवाद का दर्शन आधारित हैये घटनाएं उसका सर्वोत्तम उदाहरण हैंइनमें श्रमिकों की संगठित शक्ति का सकारात्मक रूप देखने को मिलता है.श्रमिकशक्ति का सकारात्मक उपयोग ही समाजवादी आंदोलन का प्राणतत्व है—
यदि बुर्जुआ वर्ग एवं राजारानी के बीच हुए वर्गसंघर्ष का परिणाम पूंजीवाद थातो आधुनिक यानी बुर्जुआ वर्ग और सर्वहाराओं के वर्गसंघर्ष की परिणति है—समाजवाद.’
मार्क्स के अनुयायी और वैज्ञानिक समाजवादी आज भी पेरिस कम्यून को समाजवाद की आदर्श व्यवस्था स्वीकारते हैंजैसाकि पहले भी उल्लेख किया गया है, 1871 में आंदोलनरत श्रमिकों के एक समूह ने पेरिस के शासकों को अपदस्थ करवहां की सत्ता अपने कब्जे में कर ली थीउन्होंने मिलकर अपनी सरकार का गठन कियासमुचित और कारगर प्रबंधन के लिए विभाग बनाएबंद पड़े कारखाने श्रमिकों के नेतृत्व में मुनाफा उगलने लगे थेलोकप्रतिनिधित्व को शासनव्यवस्था का आधार बनाया गयाव्यवस्था थी कि जिन प्रतिनिधियों को शासन की जिम्मेदारी सौंपी जाएगीवे अपने अधिकारों का सही प्रयोग करनेश्रमिकों के व्यापक हित में कार्य करने की शर्त पर ही सत्ता में बने रह सकते हैंकर्तव्यपालन में असमर्थ सिद्ध होनेभ्रष्टाचार में लिप्त होने अथवा अपने दायित्वों के प्रति उदासीनता दर्शाने पर उन्हें वापस बुलाने का अधिकार कम्यूनवासियांे को थाचुने गए प्रतिनिधियों को श्रमिकों की औसत मजूदरी के बराबर वृत्तिका प्रदान की जाती थीकम्यून की व्यवस्था में स्त्रियों की समान भागीदारी थीशिक्षा तथा अन्य मामलों में उन्हें पुरुष के बराबर अधिकार प्राप्त थेमार्क्स ने लिखा है—
सभी शिक्षण संस्थान लोगों के लिए निःशुल्क उपलब्ध थेउन्हें चर्च और सरकार के किसी भी प्रकार के हस्तक्षेप से सर्वथा मुक्त रखा गया थाइस प्रकार न केवल शिक्षा समाज के सभी वर्गों के लिए सहज उपलब्ध थीबल्कि वैज्ञानिक शोधों को भी वर्गीय पूर्वग्रहों एवं सरकारी दबावों से परे रखा था.’
पेरिस कम्यून की पूरी व्यवस्था जनता द्वारा संचालित थीआश्चर्यजनक रूप से श्रमिकों ने खुद को कुशल प्रबंधक सिद्ध किया थाउन्होंने कारखानों को अपने अधिकार में ले लिया थाकारखाने मुनाफा बटोर रहे थेपूरे शहर में न कहीं पुलिस नजर आती थीन अदालतेंबावजूद इसके अपराधों और लूटमार की घटनाओं में भारी कमी आई थीबल्कि यह कहना चाहिए कि अपराधों का आश्चर्यजनक रूप से लोप हो चुका थासबकुछ व्यवस्थित और नियंत्रण में थासारी व्यवस्था लोककल्याण की अपेक्षाओं के अनुकूल थीलोग बिना किसी बाह्यः दबाव के कर्तव्यपरायण बने हुए थेपूंजीवादी व्यवस्था की पहचान बन चुके सामाजिक तनावोंअंतद्र्वंद्वों का कहीं स्थान न था.मार्क्स के अनुसार श्रमिकसमाज के लिए वे दिन ‘स्वर्ग का भ्रमण करने’(Stormed heaven) जैसे थेजबकि धनवान पूंजीपति वर्ग विरोध में सिर्फ आर्तनाद कर रहा थाउस समय तक लोकतांत्रिक चेतना और उदार श्रमकानूनों की मांगों को आधी शताब्दी से अधिक का समय बीत चुका थाउस स्थिति का चित्रण करते हुए उत्साहित मार्क्स ने लिखा है—
यह एक आश्चर्यजनक सत्य है कि पिछले साठ वर्षों में श्रमविमुक्ति के बड़ेबड़े दावों और उसके बारे में रचे गए ढेर सारे साहित्य के बावजूद ऐसा कहीं नहीं हुआ थाजब कामगारों ने संपूर्ण उत्पादनतंत्र कोदृढ़ इच्छाशक्ति और विश्वास के साथ अपने हाथों में ले लिया हो.उसके साथसाथ वे सभीपूंजी और श्रमबेगार के विपरीत ध्रुवों में बंटे होने के बावजूद,अपने समाज की आवाज बनकर पूरी विनम्रता के साथ उठ खड़े हुए होंवे चिल्ला रहे थे कि कम्यूनसंपत्ति के उन्मूलन के लिए दृढ़संकल्पितसंपूर्ण मानवीय सभ्यता का आधार है.
जी हांमित्रोकम्यून निजी संपत्ति को जो बहुसंख्यक कामगारों के श्रम को मुट्ठीभर पूंजीपतियों की संपन्नता में बदलने की दोषी हैके उन्मूलन हेतु दृढ़ प्रतिज्ञ हैइसका उद्देश्य हैसमाज की संपत्ति पर अनुचित ढंग से कब्जा जमाए बैठे लोगों को उनके स्वत्त्वाधिकार से वंचित कर देनाजी हांइसका लक्ष्य है व्यक्तिगत संपत्ति कोजो फिलहाल सर्वभक्षी श्रमशोषण और श्रमदासता का मूल कारण हैउत्पादनतंत्रभूमि और पूंजी आदि के प्रबंधन में व्यापक संशोधन करसर्वथा मुक्त और परस्पर सहयोगाधारित श्रमव्यवस्था में ढाल देनायही साम्यवाद है, ‘असंभव’ मान लिया साम्यवाद’
मार्क्स ने पेरिस कम्यून की स्थापना में सक्रिय भूमिका निभाई थीवह प्रयोग हालांकि केवल 70दिनों ही खिंच पाया थाबिना किसी विशेष तैयारी के स्थापित पेरिस कम्यून का ऐसा अंत अस्वाभाविकअप्रत्याशित भी नहीं थाबावजूद इसके उन 70 दिनों की अवधि में कम्यून के नेताओं ने कम्यून को समाजवाद की अपनी परिकल्पना के अनुसार व्यवस्थित करने का भरसक प्रयास किया थाहालांकि मार्क्स को उसी से संतुष्टि नहीं थीउसके मतानुसार वह गैरपूंजीवादी समाज की स्थापना की दिशा में पहला कदम थाउसने लिखा भी था—
श्रमिक वर्ग को कम्यून से किसी चामत्कारिक परिणाम की अपेक्षा नहीं थीउनके पास पहले से तैयार कल्पनालोक भी नहीं थाजिसको वे साकार कर सकेंवे जानते थे कि अपनी आत्ममुक्ति की कोशिश के बीचउन्हें लंबे संघर्ष से गुजरना होगामानवसमाज,उसके रीतिरिवाजों और परिस्थितियों में बदलाव के अनेक ऐतिहासिक चरण उनको पार करने होंगेउनके पास ऐसा कोई आदर्श नहीं थाजिसको वे साकार कर सकेंसिवाय इसके कि पतनोन्मुखी बुर्जुआ समाज के गर्भ में पहले से ही मौजूद तत्वों के आधार पर वे एक नए समाज की आधारशिला रख सकें.’
और यही उन्होंने किया भी थामार्क्स को विश्वास था समानताआधारित समाज की स्थापना का सपनासाम्यवाद की प्राप्ति का लक्ष्य केवल श्रमिकवर्ग की संगठित एकता द्वारा संभव हो सकता हैलेकिन श्रमिकों द्वारा स्थापित वह व्यवस्थासमाजवादी व्यवस्था आदर्श न होकर साम्यवादी आदर्श की स्थापना का आरंभिक चरण होगीपूंजीवाद से मुक्ति की पहली अवस्था कोसमाजवाद को मार्क्स ने ‘सर्वहारा की तानाशाही’ का नाम दिया हैजिसमें सबकुछ समाज के बहुसंख्यक वर्ग की इच्छा सेबहुसंख्यक वर्ग द्वाराबहुसंख्यक वर्ग के कल्याण की कामना के साथ संचालित किया जाता है. ‘सर्वहारावर्ग की तानाशाही’ में प्रयुक्त पद ‘तानाशाही’ की मार्क्स की अवधारणा हिटलर,मुसोलिनी और स्टालिन की तानाशाही की संकल्पना से एकदम परे थीहिटलर का ‘तानाशाह’ असीमित शक्तियों का स्वामी थाउसपर किसी का अंकुश नहीं थावह देश के संसाधनों का अपनी मर्जी सेसिर्फ अपनी सुखसुविधाओं के लिए कर सकता थादूसरों की सहमतिअसमति उसके लिए महत्त्वहीन होती थीये तानाशाह अपनी महत्त्वाकांक्षाओं के लिए अपने देश और उसकी संप्रभुता को अक्सर दाव पर लगा देते थे.
मार्क्स ने तानाशाह की परिकल्पना रोमन साम्राज्य से ग्रहण की थीजिसके सम्राट को व्यापक अधिकार होते थेतो भी उसके अधिकारों की सीमा थीइस बारे में मार्क्स ने अपने विचार 1871 में ‘फस्र्ट इंटरनेशनल’ की सातवीं सालगिरह पर हुए आयोजन के दौरान व्यक्त किए थेउनके अनुसार ‘तानाशाह सर्वहारा’ वर्ग के रूप में मार्क्स की परिकल्पना श्रमिकों की ऐसी संगठित ताकत की थी,जिसके पास विकट परिस्थितियों में काम करने के लिए व्यापक अधिकार होंलेकिन उसपर शेष समाज एवं श्रमिक संगठनों का पूरा नियंत्रण होमार्क्स का मानना था कि उत्पादनतंत्र पर श्रमिकों का कब्जा होने से लाभ का अधिकांश हिस्सा उनके हिस्से में जाएगाइसलिए वे अपनी पूरी क्षमता के साथ उत्पादन प्रक्रिया में सहयोग करेंगेपेरिस कम्यून के दौरान यह प्रमाणित भी हो चुका था.
यहां स्मरणीय है कि मार्क्स अथवा उसका मित्र ऐंगल्स समाजवाद और साम्यवाद का जन्मदाता नहीं हैंये दोनों पवित्र विचार तो मार्क्स तथा ऐंगल्स से बहुत पहले से ही दुनिया में उपस्थित रहे हैं.दुनियाभर के विचारक समानताआधारितविकेंद्रीकृत अर्थव्यवस्था पर जोर देते आए थेवेदउपनिषदबाईबिलकुरआन आदि ग्रंथों में उपलब्ध संसाधनों का मिलजुलकर भोग करनेमिलबांटकर खानेसबके साथ मित्रवत आचरण तथा आवश्यकता से अधिक संचय न करने का आग्रह किया जाता रहा हैएक वर्गहीन समाज की स्थापना का सपना प्लेटोसंत साइमनहेनरी मूरराबर्ट ओवेनफ्यूरियर आदि विद्वानों ने अपनेअपने समय में देखा थामार्क्स और ऐंगल्स इस विचार के प्रवत्र्तक मात्र थेलेकिन समाजवाद को लेकर मार्क्स और ऐंगल्स की अवधारणा अपने पूर्ववर्ती विद्वानांे से एकदम भिन्न और आगे की थीहेनरी मूरसंत साइमन राबर्ट ओवेनफ्यूरियर आदि द्वारा परिकल्पित समाजवाद एक आदर्शवादी संरचना थीजिसे वे अपने समय की त्रासिदयों यथा समाजार्थिक ऊंचनीचगरीबी आदि से उबरने के लिए विकल्प के तौर पर देख रहे थेउनसे भिन्न मार्क्स और ऐंगल्स ने वैज्ञानिक समाजवाद की स्थापना पर जोर दिया थाऐसी व्यवस्था जिसमें ऊंचनीच के प्रतीक वर्गों का पूरी तरह लोप हो चुका होइन लेखकद्वय के मतानुसार आदर्शवादी समाजवाद जिसको उसके समर्थक विद्वानों ने ‘यूटोपिया’ कहा थामहज एक सद्विचार थाएक ऐसी आदर्शवादी परिकल्पना जो मनुष्य के नैतिक आग्रहों के फलस्वरूप आकार लेती है या जिसका बिंब प्रार्थना सभाओं के माध्यम से हमारे मनोमस्तिष्क पर बना दिया जाता हैजिसका यथार्थ से कोई वास्ता नहीं होता.
मार्क्स और ऐंगल्स का वैज्ञानिक समाजवाद विज्ञानकृषिउद्योगतकनीक आदि अन्यान्य क्षेत्रों में उत्पादक शक्तियों के विकास की स्वाभाविक एवं अवश्यंभावी अवस्था हैउसका ठोस एवं वैज्ञानिक आधार हैवह बाह्यारोपित न होकर समाज की स्वयंस्फूर्त एवं अनिवार्य प्रक्रिया हैमार्क्स के ऐतिहासिक भौतिकवाद का आशय ही था कि मानवसभ्यता का विकास कृषिविज्ञानतकनीक,उद्योग आदि क्षेत्रों में हुए क्रमिक विकास का पर्याय हैज्ञानविज्ञान की उन्नति के साथ जैसेजैसे उत्पादन के साधन विकसित हुएमानवसमाज भी उसी रूप में बदलता गयासभी कुछ नियमबद्ध एवं तार्किक ढंग से हुआ हैइसी कारण मार्क्स के आलोचक उसपर अक्सर यह आरोप लगाते हैं कि ऐतिहासिक भौतिकवाद की व्याख्या करते समय वह समाज की ‘प्रत्येक वस्तु एवं गतिविधि को अर्थकेंद्रित’ कर देता हैमगर ऐलन वुड समेत साम्यवादी विचारकों के अनुसार यह विचार मार्क्स के दर्शन की अधूरी समझ से पैदा हुआ भ्रम हैयह आरोप नया भी नहीं हैमार्क्स और ऐंगल्स के समय में ही ऐसे आरोप उनपर लगने लगे थेजिनका उन्होंने विरोध भी किया थाऐसे ही विवाद पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए फ्रांसिसी इतिहासकार ब्लोच को संबोधित पत्र में ऐंगल्स ने लिखा था—
इतिहास की भौतिकवादी संकल्पना के अनुसारउसके प्रवाह को निर्धारित और नियंत्रित करने वाले वास्तविक तत्वमूलतः जीवन में उत्पादन और पुनरुत्पादन की घटनाएं हैं—इससे अधिक का दावा न कभी मैंनेन ही कभी मार्क्स ने किया हैबावजूद इसके यदि कोई इनसे तोड़मरोड़कर यह निष्कर्ष निकालता है कि आर्थिक तत्व ही समाज की प्रमुख दिशानिर्धारक शक्तियां हैंतो वह इसकी अर्थहीन व्याख्याइनके ऊपर एक भद्दी और ओछी टिप्पणी मात्र हैआर्थिक मुद्दे आधार अवश्य हैंमगर इस अधिरचना के अन्य बहुत से तत्ववर्गसंघर्ष के राजनीतिक रूपाकार यथा लंबे संघर्ष के उपरांत विजेता वर्गों द्वारा लागू किए गए विधानतरहतरह के कानूनरीतिरिवाजइन सभी वास्तविक संघर्षों के फलस्वरूप दिलोदिमाग में चलने वाले राजनीतिकवैधानिक एवं दार्शनिक विचारधाराओं के द्वंद्वधार्मिक विश्वास और उनके अनुसार जन्मे मतमतांतरभिन्न परिस्थितियों के बीच पनपे अंतःसंघर्ष की उपज हैंकिसी न किसी रूप में ये सभी ऐतिहासिक संघर्ष को प्रभावित करते हैंबल्कि अक्सर उनके स्वरूपनिर्धारण के लिए कभी उत्प्रेरक तो कभी संतुलन बनाने का काम करते हैं.’
स्पष्ट है कि मार्क्स की साम्यवाद की परिकल्पना पूरी तरह आदर्श और वैज्ञानिक विश्लेषणों पर आधारित हैजिसमें वह मान लेता है कि अपनी आवश्यकता के अनुरूप प्राप्त करने के बाद भी कोई व्यक्ति उत्पादन में अपने सामथ्र्यानुसार सहयोग कर सकता हैमिल ने इसको कोरा आदर्शवाद कहा थाइसी आधार पर उसने मार्क्स के समाजवादसंबंधी दृष्टिकोण की आलोचना भी की थीमिल हालांकि स्वयं भी समाजवादी विचारों में आस्था रखता थाकिंतु मार्क्स के लिए समाजवाद जहां ‘आवश्यकताकेंद्रित’(Matter of necessity) हैवहीं मानवमात्र की स्वाधीनता के प्रति आग्रहशील मिल के लिए समाजवाद व्यक्ति की ‘पसंद का विषय’(Matter of choice)हैसमाजवाद की स्थापना के लिए मार्क्स ने श्रमिकक्रांति द्वारा पूंजीवाद को उखाड़ फेंकने का आह्वान किया थाउसके द्वारा अभिकल्पित समाजवाद क्रांतिकारीकेंद्रीयकृतसुनिर्धारितवैज्ञानिक अवस्था हैदूसरी ओर मिल समाजवाद को सभी के लिए सुखदायीविकेंद्रीकृतविकासमान अवस्था मानता थाजिसमें समाज का प्रत्येक नागरिक अपनी स्वतंत्रता का अधिकतम भोग कर सके.

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