समाज बड़ा परिवार है. अनेक परिवारों से मिलकर बनी अमूर्त्तन व्यवस्था. व्यक्ति उसकी मूर्त्त एवं जीवंत इकाई है. दोनों परस्पर निर्भर, एक–दूसरे के लिए अपरिहार्य हैं. अकेला रहना, समाज से पूरी तरह कट जाना किसी के लिए संभव नहीं है. दूसरों के साथ तालमेल बनाकर रहना उसकी विवशता है. इसलिए मनुष्य समाज की शरण में आता है. इस तरह समाज व्यक्ति का स्वैच्छिक वरण है. न केवल इसलिए कि व्यक्ति–मात्र की शारीरिक एवं बौद्धिक सीमाएं हैं, जो उसको दूसरे व्यक्तियों,प्रकृति तथा जड़–जंगम पर निर्भर बनाती हैं. बल्कि इसलिए भी कि एक संवेदनशील बौद्धिक इकाई के रूप में हर मनुष्य बहुत–से हुनर और कलाएं अपने भीतर छिपाए रखता है. समाज में रहकर उसे अपने उस हुनर को तराशने तथा कलाओं का प्रदर्शन करने का अवसर मिल जाता है. इस तरह समाज मानव व्यक्तित्व को संपूर्णता की ओर ले जाने तथा उसके अस्मिताबोध को सुरक्षित–संवर्धित करने का माध्यम बन जाता है. व्यक्तिमात्र की इच्छा होती है कि बड़े परिवार के रूप में समाज उसकी भावनाओं का सम्मान करे. उसका व्यक्तित्व–लोप न होने दे. थामस पेन के अनुसार व्यक्ति समाज का सदस्य इसलिए नहीं बनता कि वहां रहकर उसकी अपनी स्वतंत्रता बाधित हो; या उसे अपने हितों में कटौती झेलनी पड़े. उसकी कामना होती है कि समाज के साथ मिलकर वह उन सुख–सुविधाओं को भी प्राप्त कर सके, जिन्हें उसके द्वारा अकेले प्राप्त कर पाना कठिन है. प्लेटो ने भी कुछ ऐसा ही कहा था. साफ है कि पूर्णता की तलाश व्यक्ति को समाज का सदस्य बनने को प्रेरित करती है.
दूसरी ओर समाज चाहता है कि उसका प्रत्येक सदस्य उसके विकास के लिए वह सबकुछ करे, जो वह कर सकता है. उतना करे, जितना उसका सामथ्र्य है. इसके साथ ही वह स्थापित मर्यादाओं का पालन करे तथा दूसरों को भी ऐसा करने की प्रेरणा दे. समाज नहीं चाहता कि उसका कोई भी सदस्य स्थापित व्यवस्था को उस सीमा तक भंग करे कि वह दूसरों के लिए परेशानी का कारण बन जाए, जिससे अशांति पैदा हो और सामाजिक ऊर्जा का बड़ा हिस्सा केवल शांति–व्यवस्था के नाम पर खपाना पड़े. वह चाहता है कि सदस्य इकाइयां जीवन की तयशुदा मर्यादाओं का पालन करें.सामाजिक आचारसंहिता को भंग न होने दें, जो लोकसाहित्य, सांस्कृतिक–सामाजिक रीति–रिवाजों,संबंधों, कला संस्कारों आदि के रूप में प्रकट होती है. यह भिन्न–भिन्न माध्यमों से एक ही बात को बार–बार सामने लाती है कि लोग अपने और दूसरों के कल्याण के लिए समर्पित हों. किसी के प्रति कोई दुराव, वैमनस्य आदि न पालें. यदि सब एक ही प्रकृति से जन्मे हैं, तो उनमें छोट–बढ़ाई क्या!संत–महापुरुष अपने जीवन–कर्म से यही संदेश देते आए हैं—‘एक नूर से सब जग उपज्या कौन भले को मंदे.’ गुरु नानक की यह वाणी कम शब्दों में ही जीवन–सत्य से साक्षात करा देती है. संकेत यही कि जन्म से सब एक हैं. एक ही प्रकृति की संतान. इसलिए आवश्यक है कि सब एक–दूसरे का सम्मान करें. परस्पर पूरक बनकर रहें. पर आदमी की तरह उसकी बनाई व्यवस्थाओं की भी उम्र निर्धारित होती है. इसलिए व्यवस्थाओं की समीक्षा, आलोचना, उनमें परिवर्धन, संशोधन आदि की संभावना भी हमेशा बनी रहती है.
समाज को अवांक्षित विक्षोभ, आपसी अविश्वास, असमानता, द्वंद्व, अशांति आदि से बचाने के लिए एक कल्याणकारी व्यवस्था की अभिकल्पना हमारे पूर्वजों, उन मनुष्यों ने जिनकी विद्वता स्थापित थी, जिनके दिलों में दूसरों के प्रति चिंताएं थीं, जो बुद्धिमान, उदार, सहिष्णु, न्यायप्रिय, संवेदनशील और सबका भला सोचने वाले थे—ने आपस में मिल–बैठकर सबके हित के लिए की थी. ताकि संसाधनों के सदुपयोग तथा उनके द्वारा अर्जन–उपार्जन और संवितरण को लेकर किसी प्रकार का झगड़ा–टंटा न रहे. लोग दूसरों की जरूरतों का भी उतना ही ख्याल रखें, जितना वे अपनी जरूरतों का रखते हैं. इसके लिए जो आरंभिक व्यवस्था हुई, वह थी—परस्पर सहयोग और सहकार की. पूरा गांव एक परिवार होता था. लोग मिलकर खेती करते. जितना अनाज होता उसमें से अपनी जरूरत के लिए रखकर शेष को सामूहिक भंडार के हवाले कर देते. गांव का सम्मानित व्यक्ति उसकी देखरेख करता. आवश्यकता पड़ने पर उसमें से जरूरतमंदों को अनाज लौटा दिया जाता. उत्सवधर्मी समाज था. फुर्सत के समय लोग नाच–गाना, मौज–मस्ती सब करते. जो प्रकृति मुक्तमन से सबकुछ जीवन देती है, सारी सुविधाएं जुटाती है, अवसर मिलने पर उसका आभार व्यक्त करना भी न चूकते थे—कामये दुःखताप्तनाम् प्राणिनाम् आर्तिनाशनं’—‘कामना है कि सभी मिलजुल कर रहें. प्राणीमात्र के दुखों का नाश हो. कहीं कोई क्लेश, व्याधि, संकट, द्वेष आदि न हो.’ उनका अभीष्ट था—आवश्यकतानुसार दूसरों को सहयोग देना. उपलब्ध सामग्री में सबके साथ मिल–जुल कर, सुख–दुख को मिल–जुलकर बांटते हुए, जीवनयापन करना.
धरती सबकी है. इसलिए सब सुखी हों. सभी निर्भय–निडर होकर विचरण करें—‘सर्वे सुखिनः भवंतु,सर्वे संतु निरामयाः’ यह बहुत पुरानी सद्कामना है. उन दिनों की है, जब मनुष्य ने सभ्य होना सीखा ही था. यह बात लंबे अनुभव से उसकी समझ में आई थी कि विकास के लिए सहअस्तित्व की भावना को समझना, उसका सम्मान करना अत्यावश्यक है. फलस्वरूप जीवन में स्थिरता आई,विकास का माहौल बना. विकास की निरंतरता और सामाजिक समरसता के लिए नीति ग्रंथों में सभी को साथ लेकर चलना, सभी के कल्याण की कामना करना, मनुष्यमात्र का पुनीत कर्तव्य बताया गया. व्यास मुनि ने लोकसंग्रह को अनासक्त कर्म बताया. लोकसंग्रह यानी लोकहित में संपदाओं का अर्जन–उपार्जन. ‘निष्काम कर्मयोगी के समस्त फल सर्वकल्याण के निमित्त होते हैं.’ उनको व्यक्ति के अधिकार में न रखकर सर्वकल्याण के लिए समाज के अधिकार में रखना. कहा कि सर्वकल्याण के लिए लोकसंग्रह अपरिहार्य है. जिसे आज समाजवाद कहते हैं, वह लोकसंग्रह की इसी भावना का विस्तार है.
समाजवाद को सीधे–सरल शब्दों में परिभाषित करने को कहा जाए तो उसका अर्थ होगा, ऐसी व्यवस्था जिसमें समाज के संसाधनों पर जन–जन का साझा हो. सभी लोग अपनी क्षमतानुसार काम करें. अर्जित संपत्ति का मिल–बांटकर, अपने और सर्व–हित में उपयोग करें. उसका प्रबंधन समाज द्वारा लोकतांत्रिक ढंग से निर्वाचित व्यवस्था, सरकार द्वारा किया जाता हो. सरकार प्रत्येक से उसकी क्षमता के अनुसार काम लेकर, हर एक को उसकी आवश्यकता के अनुरूप लौटाए. यह बिना समर्पण और त्याग के असंभव है. इसलिए ईश्वास्योपनिषद में कहा गया—‘त्येन त्यक्तेन भुंजीथा.’यानी ‘जिसने त्यागा है, उसी ने भोग किया है.’ व्यक्ति त्याग करेगा तभी तो दूसरे के अभावों की पूर्ति के संसाधन जमा होंगे. यह कोई पहेली नहीं, सीधी–सी व्यवस्था थी. त्याग और भोग के बीच संतुलन बनाए रखने की. सहकार और सहयोग की जरूरत को स्थापित करने वाली. ऐसी व्यवस्था जिसमें—‘एक सबके लिए और सब एक के लिए काम करें.’ जिसमें आर्थिक–सामाजिक–राजनीतिक यानी हर स्तर पर समानता हो. गौर से देखें तो त्याग और भोग व्यक्ति और समाज का पर्याय दिखने लगते हैं. हर व्यक्ति यथासंभव त्याग करे ताकि सब मिलकर यथासंभव भोग कर सकें. संदेश साफ है. लोगों के बीच जाति, धर्म, क्षेत्र, जन्म, कुल, गोत्र, व्यवसाय, भाषा आदि के नाम पर किसी प्रकार का भेदभाव न हो. न किसी की उपेक्षा हो, न किसी को विशेषाधिकार प्राप्त हों.
दूसरे शब्दों में ‘समाजवाद’ वह कल्याणकारी व्यवस्था है, जिसमें नागरिकों के बीच निजता का लोप होकर, कल्याण का समविभाजन होने लगता है. ‘सर्वभूतहितेरत’ की कामना आज की नहीं है. जब से समाज का गठन हुआ है, मनुष्य ने संगठित होना सीखा है, तभी से किसी न किसी रूप में चली आ रही है. हालांकि इसमें विक्षोभ भी हुए हैं. दूसरे का हिस्से पर अधिकार जमा लेने वाले, लोगों के श्रम,उनके खून–पसीने की कमाई पर जीवनयापन करने वाले और दूसरों का हक मारकर विलासितापूर्ण जीवन जीने वाले लोग भी समाज में रहे हैं. उन्होंने समाज को अपनी मर्जी के अनुसार हांकने की कोशिश भी है. कुछ को अस्थायी सफलता भी मिली है. परंतु उस दुरवस्था के प्रति विरुद्ध जनाक्रोश भी देर–सवेर पनपा है. महामानवों ने अवतरित होकर लोगों को अपने–अपने अधिकारों के प्रति जागरूक किया है. अन्याय के प्रति चेताया है. उनके आवाह्न पर उमड़ी जनशक्ति ने उत्पीड़क शक्तियों को चुनौती देकर उन्हें समानता पर आधारित व्यवस्था लागू करने के लिए बाध्य भी किया है, जिससे समाज को घूम–फिरकर समानता और सर्वकल्याण के समावेशी रूप की ओर लौटना पड़ा है.
समाजवाद कहता है कि लोग अपने–अपने दायित्वों को समझें. उनका पालन करें. उनके बीच जाति,लिंग, वर्ण, भाषा, क्षेत्र, जन्म आदि के आधार पर किसी भी प्रकार का द्वैत अथवा विभाजन न हो.ऊपर से नीचे तक सभी कुछ एक समान हो. समाज की संपदा में उसके सभी वर्गों, इकाइयों का साझा हो. वह समाज के सभी वर्गों, इकाइयों के साथ इस तरह घुली–मिली हो जैसे शर्करा पानी में घुल–मिल जाती है. फिर उसको कहीं से भी चखकर देखो, उसमें एक समान मिठास मिलती है.समाजवाद की परिकल्पना का आधार यह सिद्धांत है कि पूरी सृष्टि एक परिवार है. हम सब धरती के गर्भ से उपजे उसकी संतान हैं. साहित्य के स्तर पर यही कामना भारतीय वाङमय और दुनिया के हर धर्म–दर्शन में है. ‘वसुधैव कुटुंबम्’—पूरी वसुंधरा ही एक परिवार है. जैसे परिवार में सबका एक–दूसरे के प्रति समर्पण और अनुराग होता है. सब एक–दूसरे के सुख में सुखी और दुःख हो तो सब दुःखी हो जाते हैं, वही समाज के सदस्यों के बीच होना चाहिए. किंतु अनुराग और समर्पण के तालमेल की भी सीमा है. यह उसी अवस्था में संभव हैं, जब प्रत्येक व्यक्ति को यह विश्वास हो उसका पड़ोसी उसके साथ है. समाज में उसका महत्त्व है. समाज की इकाई के रूप में बाकी समाजों में उसकी इज्जत और मान–सम्मान है. समाज उसकी भावनाओं को समझता है, उसकी आवश्यकताओं को पूरा करने में सक्षम है. जितना वह समाज के विकास में योगदान देता है, उतना ही उसको सुफल भी मिलता है. किसी भी संकट, आपदा के समय समाज उसके साथ, उसकी सहायता के लिए तत्पर होगा.
जब तक व्यक्ति के मन में यह विश्वास नहीं होगा, तब तक डर उसके मन में बना ही रहेगा. वह समाज से अधिक, दूसरों से अधिक केवल अपने बारे में सोचेगा. उन लोगों के बारे में सोचेगा जिनसे वह सीधे–सीधे जुड़ा है. जो आड़े वक्त में उसके काम आ सकते हैं. हालांकि उत्पादक संबंधों के आधार पर भी समाज का गठन हो सकता है. लेकिन आपसी अविश्वास और असुरक्षाबोध यदि बना रहा तो वह समाज छोटे–छोटे समूहों का समुचच्य होगा, जो अपने–अपने स्वार्थ के अनुसार उसका दोहन करने का प्रयास करेंगे. ऐसा होते ही समाज के गठन का उद्देश्य जाता रहेगा. वह अपने लक्ष्य से भटकता हुआ नजर आएगा. असुरक्षा की भावना छूत के रोग से बढ़कर होती है. छूत की बीमारी तो दूसरे रोगी के संपर्क में आने पर लगती है, लेकिन डर किसी को देखे बिना, उसके बारे में ख्याल आते ही पैदा हो सकता है. आज जो उसके साथ हुआ है, कल वह मेरे साथ भी हो सकता है….आज यदि उसके साथ कोई नहीं है तो संभव है कल मेरे साथ भी कोई न हो. यह भावना छूत के रोग के समान एक के बाद एक लोगों के दिमाग में यही धारणा घर करती जाएगी. इससे संबंधों में दरार पड़ने लगेगी. स्वार्थ का अंदरूनी खेल आरंभ हो जाएगा. डरा हुआ आदमी दूसरों को डराता है.इसलिए व्यक्ति के असुरक्षाबोध का निदान समय रहते हो जाना चाहिए. इसके लिए जरूरी है कि समाज अपनी प्रत्येक इकाई के प्रति संवेदनशील हो. हरेक का ख्याल रखने वाला हो. परिवार में जैसे बच्चे से बड़े तक सभी का परस्पर समर्पण होता है. यही समाज में भी होना चाहिए. इसका अभाव है तो समाज का गुंबद ढहते देर नहीं लगेगी. यह तभी संभव है जब उनमें आपसी विश्वास हो. यह धारणा बलवती हो कि समाज की उपलब्धियों में उसकी भी समान हिस्सेदारी है. समाज विकसित होगा तो उसका विकास भी सुनिश्चित है.
समाजवाद की भावना भले लोगों के मन में आदिकाल से रहती आई हो. इसके लिए उद्धरण वेदों से लिए जा सकते हैं, उपनिषदों और महाकाव्यों से लिए जा सकते हैं. लोकसंस्कृति और लोकसाहित्य में भी इसके ढेरों उदाहरण मिल जाएंगे. लेकिन एक समाजार्थिक प्रणाली के रूप में समाजवाद आधुनिक अवधारणा है. बामुश्किल दो शताब्दी पुरानी. साफ कर दें कि समाजवाद राजनीतिक प्रणाली नहीं है.किसी एक राजनीतिक प्रणाली पर यह निर्भर भी नहीं है. यह समाजवाद की खूबी भी है और कमजोरी भी. खूबी इसलिए कि कोई भी राजनीतिक प्रणाली जो अरस्तु के शब्दों में ‘शुभ की स्थापना’ को अपना लक्ष्य मान चुकी है, समाजवादी सपने को आसानी से साकार कर सकती है. और कमजोरी यह कि हिटलर जैसे तानाशाह भी खुद को समाजवादी बताकर सत्तासीन होते आए हैं.अपनी इन्हीं खूबियों–खामियों के कारण ‘समाजवाद’ शुरू से ही विवादास्पद पद रहा है. इसकी परिभाषा पर वुद्धिजीवियों के बीच अकसर मतांतर रहे हैं. सबसे पहली परिभाषा अलेक्सेंडर विनेट की ओर से आई थी—‘समाजवाद पूंजीवाद का विलोम है.’ उसने बस इतना ही कहा. विनेट ने सच बयान किया था. पर उसकी परिभाषा अस्पष्ट थी. उससे समाजवाद की विशेषताओं का पता ही नहीं चलता था. न यह पता चलता था कि पूंजीवाद और समाजवाद में मानवमात्र के लिए कौन अधिक कल्याणकारी है. इस कमी को राबर्ट ओवेन की परिभाषा दूर करती है—‘समाजवाद नैतिकता की विषयवस्तु है.’ ओवेन की परिभाषा विनेट की परिभाषा के नकारात्मक पक्ष को तो साफ करती थी,परंतु उसके बारे में स्पष्ट कुछ भी नहीं बताती. नैतिकता की वस्तु अकेले समाजवाद नहीं. सत्य,करुणा, मैत्री, सद्भाव, समानता आदि भी नैतिकता की विषयवस्तु हैं. गांधीजी अहिंसा को नैतिकता की विषयवस्तु मानते थे. इनसे अलग समाजवाद क्या है? इसी को ध्यान में रखकर समाजवाद की परिभाषाएं गढ़ी जाती रहीं.
‘समाजवाद’ शब्द द्वारा मस्तिष्क में जो छवि सामान्यतः बनती है, उसके अनुसार—‘समाजवाद संपत्ति और संसाधनों के न्यायिक वितरण की ऐसी व्यवस्था है, जो कल्याण सरकार के अधीन संपन्न होती है.’ कुछ के लिए यह लोकतंत्र, आर्थिक–सामाजिक समानता और व्यक्ति–स्वातंत्रय से जुड़ा राजनीतिक अधिकारिता का मामला है. जिसके निर्माण मंे हर कोई अपनी सहभागिता अनुभव करे. यह सच भी है. कल्याण सरकार किसी एक व्यक्ति की महत्त्वाकांक्षाओं का स्वरूप नहीं हो सकती. यदि कोई तानाशाह लोगों की स्वतंत्रता का हनन कर समाजवादी होने का दावा करता है तो यह सरासर छल है. बहुत बड़ा छल. समाज या समूह की तानाशाही को भी समाजवाद नहीं कहा जा सकता. उस अवस्था में आर्थिक–सामाजिक समानता कुछ लोगों तक सिमट जाएगी और समाज के हर वर्ग, हर व्यक्ति को मुख्यधारा में लाने का सपना अधूरा रह जाएगा. अभिव्यक्ति की आजादी मुट्ठी–भर लोगों तक सीमित होगी. असल में लोकतंत्र और समाजवाद परस्पर इतने अवगुंठित, ऐसे अंतर्संबंधित हैं कि दोनों को अलग–अलग करके देखा ही नहीं जा सकता. इसलिए ‘गणतांत्रिक समाजवाद’ को आदर्शतम व्यवस्था कहा गया है. इस शब्द–युग्म से कुछ विद्वान तो इतने सम्मोहित हैं कि वे इसे लेकर ‘मानवीय मेधा की उच्चतम उड़ान’, ‘विचारधारा का अंत’ जैसे जुमले उछालने लगे हैं. इसके बावजूद समाजवाद ऐसा विचार है जिसके बारे में उनीसवीं और बीसवीं शताब्दी में न जाने कितनी बहसें हुई हैं. और न जाने कितने ग्रंथ इसकी प्रशंसा और आलोचना में लिखे जा चुके हैं. फ्रांसिसी दार्शनिक अलेक्स दि ताॅकविले ने गणतंत्र और समाजवाद की अंतःसंबद्धता के बारे में बड़ी अच्छी बात कही है—
‘गणतंत्र तथा समाजवाद में कुछ भी मिला–जुला नहीं है, सिवाय एक शब्द के और वह शब्द है—समानता. हालांकि दोनों का अंतर भी सुस्पष्ट है. गणतंत्र स्वाधीनता में समानता की चाहत रखता है.जबकि समाजवाद मालिक और मजदूर दोनों के संबंधों में समानता चाहता है.’
वर्तमान में समाजवाद की परिभाषा को लेकर जितने भ्रम और विवाद हैं, उतने शायद ही किसी और शब्द को लेकर रहे हों. समाजवाद चूंकि समाज की कुल संपत्ति के प्रबंधन और नियोजन का अधिकार देता है, इसलिए हिटलर, मुसोलिनी, रूजवेल्ट, माओ’त्से तुंग और स्टालिन जैसे तानाशाही प्रवृत्ति वाले शासक भी अपनी सत्ता को वैध ठहराने के लिए स्वयं समाजवादी होने का दावा करते रहे हैं. वही क्यों कुछ विद्वान तो नीत्शे को भी समाजवादी मानते हैं, जिसका कहना था कि सच व्यक्ति–सापेक्ष होता है. व्यक्ति के अनुसार के प्रति दृष्टिकोण उसका स्वरूप भी बदलता जाता है.इसलिए प्रत्येक व्याख्या को व्यक्ति–विशेष के संदर्भ में देखना चाहिए. स्वामी विवेकाननंद भी पीछे नहीं थे. उन्होंने भी समाजवाद को अपने ढंग से परिभाषित करने का प्रयास किया है. दीनदयाल उपाध्याय अपने लेख में स्पष्ट करते हैं—
‘‘हमें यह जानकर आश्चर्य होगा कि स्वामी विवेकानंद जी भी अपने आपको समाजवादी कहते थे और अपनी मान्यताओं की पुष्टि में बहुत कुछ इसी प्रकार के तर्क भी देते थे. एक भाषण में उन्होंने कहा भी था कि ‘मैं भी समाजवादी हूं.’ इसलिए नहीं कि समाजवाद कोई पूर्ण दर्शन है, अपितु इसलिए कि मैं समझता हूं कि भूखे रहने की अपेक्षा एक कौर मात्र प्राप्त करना भी अच्छा है.’’
ऊपर की पंक्तियों में बात ‘समाजवाद’ शब्द से आगे बढ़ ही नहीं पाती. न उसके ध्येय का पता चल पाता है.दरअसल यह इस शब्द का आकर्षण ही है कि हर कोई किसी न किसी रूप में इससे जुड़ना चाहता है. समाजवाद की संभवतः ऐसी ही मनमानी और अतिरेकपूर्ण व्याख्याओं से व्यथित होकर जीड ने कहा था कि यह उस जूते की भांति है जिसे इतने अधिक लोगों ने पहना है कि उसका असली आकार ही बिगड़ चुका है. गत दो शताब्दियों का यह कतिपय सबसे लुभावना और भरोसेमंद शब्द रहा है. इसको केंद्र में रखकर न जाने कितने आंदोलनों का शुभारंभ इन दो शताब्दियों में हुआ.न जाने कितने विचारक, दार्शनिकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने अपना जीवन समाजवादी सपने को साकार करने में खपा दिया.
भारत में समाजवादी चेतना ने रूस के रास्ते से दस्तक दी थी. बीसवीं शताब्दी के आरंभिक दशकों में, एक प्रमुख समाजवादी ताकत के रूप में उभरते हुए सोवियत संघ का सपना था, विश्व–भर में समाजवादी विचारधारा का परचम लहराना. यह कोई साम्राज्यवादी महत्त्वाकांक्षा नहीं थी, जो दूसरे देशों की संपत्ति और संसाधनों पर अधिकार जमाकर वहां के लोगों से गुलामी करवाना चाहती है.उन दिनों ब्रिटेन जिसका सबसे अच्छा उदाहरण था. यह तो मनुष्यता की कसौटी पर खरा उतरने के लिए मानव–मात्र को एक परिवार के दायरे में लाने की उदार सदाकांक्षा थी. समाजवादी चिंतकों की राय रही है कि उसकी वास्तविक सफलता तब संभव है जब सारी दुनिया अभिन्न समाजवादी परिवार हो. पूंजी का कहीं भी हस्तक्षेप न रहे. सभी लोग अपनी क्षमता के अनुरूप काम करें. उससे उन्हें आवश्यकतानुसार प्राप्ति हो. व्यक्ति की आर्थिक हैसियत में एकरूपता हो. किसी कारणवश यदि आर्थिक समानता का लक्ष्य अधूरा है तो समाज में धन के आधार पर किसी को भी विशेषाधिकार नहीं मिलने चाहिए. समाज सबका है. अतएव जो संसाधन हैं, उनपर समाज तथा उसके बहाने सभी का समानाधिकार रहे. उत्पादन का मिलजुलकर भोग हो. समाजवाद की सफलता तभी संभव है जब निर्णय प्रक्रिया में सभी की समान भागीदारी हो. जब व्यक्ति को लगेगा कि निर्णय प्रक्रिया में उसका योगदान है. जो निर्णय लिया गया है, उसमें उसकी भी वैसी ही भागीदारी है, जैसी दूसरों की तो वह उसका सम्मान करेगा. समाजवादी हवाएं उस नई दुनिया का कुछ ऐसा ही बखान करती थीं.परिवर्तन का सपना देखने वाले कल्पनाशील, संकल्परथी युवाओं के लिए समाजवाद सबसे सुहावना और नया–नवेला स्वप्न था. उस सपने की हकीकत जानने, समझने और यदि संभव हो तो उसको अपने ही देश में साकार करने के लिए देश–विदेश में अनेक क्रांतिकारी लगे हुए थे. रूस चूंकि उन दिनों समाजवाद की सबसे बड़ी प्रयोगशाला था, इसलिए वहां साम्यवाद की सैद्धांतिकी को समझने और सहयोग की संभावनाएं तलाशने के लिए अब्दुल सत्तार खान तथा अब्दुल जब्बार खान नाम दो व्यक्ति रूस भी गए थे. उन दिनों रूस और भारत की परिस्थितियां लगभग एक–समान थीं. भारत की भांति रूस भी औद्योगिकीकरण के मामले में पिछड़ा हुआ था. उसकी अर्थव्यवस्था का प्रमुखòोत खेती–बाड़ी ही था. जमीन के आधार पर आर्थिक–सामाजिक विभाजन वहां भी चिंताजनक हालात को पार कर चुका था. लेनिन ने माक्र्सवाद का गहन अध्ययन किया. माक्र्स की मेधा से वह चमत्कृत था. इसके बावजूद उसने माक्र्स से उतना ही लिया, जितना जरूरी लगा. जिन बिंदुओं पर माक्र्स चुप था, उसकी उसने अपनी परिस्थितियों के अनुसार व्याख्या की. जैसे माक्र्स की कल्पना थी कि वर्ग संघर्ष की सफलता उन्हीं समाजों में संभव है, जहां औद्योगिक क्रांति सफल हो चुकी है.रूस औद्योगिक विकास के रास्ते में पिछड़ा हुआ था. इस कमी को दूर करने के लिए लेनिन ने किसानों और मजदूरों को एक साथ तैयार किया. इससे बाल्शेविक क्रांति का जन्म हुआ.
भारत में भी अंग्रेजी दमन के कारण जनाक्रोश व्याप्त था. उससे मुक्ति के लिए देश–विदेश में संघर्ष जारी था. स्वाधीनता की चाहत में भारतीय क्रांतिकारी ब्रिटेन, कनाडा, अमेरिका, जर्मनी, जापान आदि देशों में फैलकर वहां से अपने–अपने स्तर पर ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध युद्ध छेेड़े हुए थे. 1871 में फ्रांसिसी मजदूरों ने बगावत कर ‘पेरिस कम्यून’ की स्थापना की तो उसका असर उन भारतीयों पर भी पड़ा जो सशस्त्र क्रांति के माध्यम से सरकार के तख्ता पलट का सपना देख रहे थे. पेरिस क्रांति की सफलता से उत्साहित कनाडा के प्रवासी भारतीयों के एक प्रतिनिधि मंडल ने माक्र्स से मिलने का प्रयास भी किया था. उनको विश्वास था कि पेरिस के मजदूर संगठनों की भांति यदि भारतीय भी सरकार के विरुद्ध संगठित होकर हथियार उठा लें तो अंग्रेज इस देश से पीछा छुड़ाकर भागते हुए नजर आएंगे. प्रतिनिधि मंडल के नेता ‘प्रथम इंटरनेशनल’ के अनुसरण में दुनिया–भर में फैले भारतीय मजदूरों का वैसा ही संगठन चाहते थे. माक्र्स उन दिनों स्वयं परेशानी के दौर से गुजर था.इसलिए भारतीय प्रतिनिधि मंडल द्वारा वांछित मुलाकात तो संभव न हो सकी. परंतु उसके विचारों ने दुनिया–भर में फैले भारतीयों को किसी न किसी रूप में प्रभावित किया था. दक्षिणी अफ्रीका में,जिसे आगे चलकर महात्मा गांधी ने अपनी प्रयोगशाला बनाया, भारतीय मजदूरों ने माक्र्सवादी प्रेरणाओं से संगठित होकर हड़ताल भी की थी. माक्र्स की भारत में रुचि थी. भारतीय परिस्थितियों को लेकर उसने कई लेख लिखे थे, जिनमें यहां की जनता के शोषण और अमानवीय उत्पीड़न का विश्लेषण करते हुए उसने ब्रिटिश सरकार को जिम्मेदार ठहराया था. ब्रिटिश सत्ता की शोषणकारी नीति को सामने लाने में सबसे ठोस योगदान था दादा भाई नौरोजी का. अपनी पुस्तक ‘पाॅवर्टी एंड अन–ब्रिटिश रूल इन इंडिया’ में उन्होंने अंग्रेजों के उस दावे को तार–तार कर दिया था, जिसके अनुसार वे दावा करते थे कि अंग्रेजों के आने के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था में सुधार आया है.दादाभाई नौरोजी ने अपनी पुस्तक में सिद्ध किया था कि अंग्रेज भारतीय संसाधनों का दोहन कर,ब्रिटिश अर्थव्यवस्था को चमका रहे हैं. ‘ईस्ट इंडिया एसोशिएसन आॅफ लंदन’ की मुंबई शाखा के समक्ष दिए गए भाषणों में उन्होंने ब्रिटिश शासन से पहले के भारत की समृद्धि के आंकड़े पेश कर,पूरी दुनिया के सामने यह तथ्य पेश किया था कि अंग्रेजी शासन के दौरान भारत में गरीबी अनुपात लगातार बढ़ा है.
उधर रूसी क्रांति के नेताओं की भी भारतीय राजनीति की हलचलों पर नजर थी. वहां बोल्शेविक क्रांति हो चुकी थी. उसकी सफलता का एकमात्र रास्ता यही था कि विश्व–भर में साम्यवाद के प्रति सकारात्मक माहौल हो. वह जितना दूर तक फैल सकता है, फैल जाए. बोल्शेविक क्रांति की सुदीर्घ सफलता के लिए लेनिन और उसके साथी चाहते थे कि भारत उसका अगला केंद्र बने. हालांकि सोवियत संघ की मदद से ‘चाइनीज सोवियत रिपब्लिक’ की स्थापना 1931 में हो चुकी थी. माओ जिदांग उसका सर्वेसर्वा नेता था. चीनी में साम्यवादी क्रांति की बागडोर संभाल रहा माओ जिदांग लेनिन की तरह की दूरदर्शी, आत्मविश्वास से लैस तथा अतिमहत्त्वाकांक्षी नेता था. वह चीन को सोवियत संघ के किसी भी प्रभाव से मुक्त रहना चाहता था. इसलिए उसने सोवियत संघ की और मदद लेने से इन्कार कर दिया था. इन हालात में सोवियत संघ के लिए भारत एकमात्र ठिकाना था,जहां वह सोवियत क्रांति की सफलता के अगले चरण को दोहराया जा सकता था. इसके लिए न केवल लेनिन बल्कि उसके सहयोगी लियान ट्राट्स्की की भी भारत पर नजर थी. ट्राट्स्की ने भारत को लेकर अनेक लेख लिखे थे, जिनमें से एक में उसने किसानों का विद्रोह के लिए संगठित होने का आवाह्न किया था. भारत में समाजवादी क्रांति की हलचलों को लेकर लगभग उन्हीं दिनों, सोवियत क्रांति के एक सक्रिय कार्यकर्ता प्लातेन मिखाइलोविच कर्झेन्सेव ने लिखा था कि ब्रिटेन के सभी उपनिवेशों में भारत उसके लिए सर्वाधिक कमाऊ ठिकाना है. वहां बोल्शेविक क्रांति का विस्तार कालांतर में ब्रिटेन के अन्य उपनिवेशों यथा मेसापोटामिलया, मिस्र, अफ्रीका, सीरिया, तिब्बत, चीन,पर्शिया आदि में क्रांति के अवसरों को बढ़ावा देगा. उसका मानना था कि ब्रिटेन ने भारत को ‘बर्बर और कपटपूर्ण’ तरीके से कब्जाया हुआ है. अंग्रेजी शासन के विरुद्ध भारतीय के आक्रोश को देशते हुए कर्झेन्सेव भारत में समाजवादी क्रांति की संभावना से उत्साहित था. उसका विश्वास था—‘आने वाले दिनों में भारत में क्रांतिकारी गतिविधियों में और भी तेजी आएगी. फलस्वरूप वह तेजी से फैलेगा.’इसके लिए रूस अपनी ओर से हरसंभव मदद देनेे को तैयार था. भारत की स्वाधीनता के लिए समर्थक शक्तियों की खोज में लगे भारतीयों के लिए जर्मनी सबसे उम्मीदवाला देश था. इसलिए भारतीय क्रांतिकारियों का बड़ा दल मदद की उम्मीद में जर्मनी में डेरा डाले हुए था. मगर बहुत जल्दी उनका यह भ्रम जाता रहा. इसलिए क्रांतिकारियों का एक दल रूस की ओर मुड़ गया और उसकी मदद के भरोसे भारत की ब्रिटिश सत्ता को उखाड़ने के मंसूबे पालने लगा.
भारत में क्रांति का वैसा असर न था, जैसा रूसी सरकार को भ्रम था. यहां की परिस्थितियां परर्शिया से अलग थी. उल्लेखनीय है कि रूस ने परर्शिया में बोल्शेविक क्रांति को बढ़ावा देने के लिए वहां के जुझारू गुरिल्ला सरदार मिर्जा कुचुक खान को सहायता देकर उसे ईरान पर हमले के लिए उकसाया था. ब्रितानी भारत छोटे–छोटे रजबाड़ों में बंटा था. राजाओं में आपसी फूट थी. अपने–अपने स्वार्थ के लिए वे अंग्रेजों का कृपापात्र बने रहना चाहते थे. इसलिए क्रांति के माध्यम से सत्ता प्राप्ति का सपना देखने वाले अधिकांश भारतीय विदेशों में रहकर अपनी गतिविधियां चला रहे थे. सामाजिक स्तर पर जाति–व्यवस्था का बोलवाला था. परिणामस्वरूप समाज का बड़ा वर्ग जिसको जाति–व्यवस्था के चलते निर्णय प्रक्रिया से काट दिया गया था. ‘कोऊ नृप होय हमें क्या हानि’ की भावना के अनुरूप काम करता था. राष्ट्रीयता के मुद्दे पर आम आदमी के सोच को लेकर किसी को विशेष चिंता भी न थी.
भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन के लिए रूस की घटनाएं उत्प्रेरक के समान थीं. भारत में समाजवादी चेतना का उदय राष्ट्रीयता की भावना के साथ ही हो चुका था. उस समय ब्रिटेन की छवि एक साम्राज्यवादी देश की थी. औपनिवेशिक देश उसके कच्चे माल के उम्दा òोत थे. ब्रिटिश कंपनियों द्वारा स्थानीय संसाधनों के अंधाधुंध दोहन से वहां परिस्थितिकीय समस्याएं पैदा होने लगी थीं.छोटे–छोटे उद्योग, धंधे जो अर्थव्यवस्था की प्राणवायु थे, तबाह हो रहे थे. उसे लेकर किसानों और कामगारों में बेहद आक्रोश था. माक्र्स ने यूरोपीय पूंजीवादी शोषण की जो तस्वीर दुनिया के सामने प्रस्तुत की थी, उसका प्रभाव भारत की पढ़ी–लिखी युवा पीढ़ी पर भी पड़ा था. राजा राममोहन राय,ज्योतिबा फुले, महर्षि दयानंद, ईश्वरचंद्र विद्यासागर आदि समाज सुधारकों की विचार–चेतना तथा अंग्रेजी के ज्ञान से लैस भारतीय युवाओं की वह पीढ़ी आत्मविश्वास से लैस थी. अंग्रेज सरकार के शोषण ने उसको भड़काने का काम किया था. इस आग में घी डालने का काम किया अंग्रेजों द्वारा1905 में बंगाल विभाजन की घटना ने. बंगाल के युवकों ने इसे अपनी अस्मिता पर हमला माना.उन दिनों माक्र्स साम्राज्यवाद के विरोध का सशक्त, सार्थक प्रतीक बन चुका था. इसलिए साम्राज्यवादी ब्रिटिश सरकार के चंगुल से बाहर आने के लिए युवाओं का ध्यान दुनिया–भर में चल रही समाजवादी क्रांतियों की ओर गया. फ्रांस, जर्मनी, स्पेन, अमेरिका, ब्रिटेन में उन दिनों समाजवादी आंदोलन की गरमाहट थी. समाजवाद को ब्रिटिश साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद से मुक्ति का माध्यम मान लिया गया था.
श्यामजीकृष्ण वर्मा का इंग्लेंड के राष्ट्रप्रेमियों में बड़ा नाम था. महर्षि दयानंद से प्रभावित श्यामजी कृष्ण वर्मा हर्वर्ट स्पेंसर की इस उक्ति में विश्वास करते थे कि ‘आक्रमण का प्रतिरोध न केवल न्याय–संगत, बल्कि अनिवार्य भी होता है.’ हाई गेट, उत्तरी लंदन स्थित अपना आवास उन्होंने भारतीय राष्ट्रवादियों के लिए खोला हुआ था. लंदन और यूरोप में रह रहे राष्ट्रवादियों का उनके यहां नियमित आना–जाना था. ब्रिटेन के प्रवासी हिंदुस्तानियों के बीच श्यामजी कृष्ण वर्मा का वह आवास ‘इंडिया हाउस’ के नाम से विख्यात होकर राष्ट्रवादी गतिविधियों का केंद्र बना हुआ था. श्यामजी कृष्ण वर्मा की कल्पना समाजवादी आदर्श के अनुरूप गठित स्वाधीन भारतीय राष्ट्र की थी, जिसकी वैश्विक पहचान हो. इसी सपने को संकल्प का रूप देते हुए उन्होंने ‘इंडियन सोश्लिष्ट’ नामक मासिक समाचारपत्र की शुरुआत की थी. एक पेनी में बिकने वाला वह छोटा–सा समाचारपत्र बहुत जल्दी लंदन स्थित भारतीयों के बीच लोकप्रिय हो गया. मदनलाल धिंगरा, वीवीएस अय्यर, विनायक दामोदर सावरकर, सेनापति बापट, अनंत लक्ष्मण कन्हेड़े जैसे प्रखर राष्ट्रभक्त ‘दि इंडियन सोश्लिष्ट’ से जुड़े थे. इस समाचारपत्र में प्रख्यात समाजवादी चिंतकों के लेख समय–समय पर प्रकाशित होते थे.लेखों के अनुवाद का काम स्वयं श्यामजी संभालते थे. उनका मानना था कि भारतीयों को यह पूरा अधिकार है कि वे औपनिवेशिक शोषण का विरोध करें. स्वाधीनता यदि हिंसा के रास्ते भी आती है तो यह उसकी छोटी–सी कीमत होगी. लेकिन हिंसा का इस्तेमाल सबसे बाद में बाकी रास्तों के पूरी तरह बंद हो जाने के बाद ही होना चाहिए. वह समाचार पत्र 1905 से लेकर 1910 तक लगातार निकलता रहा. उसने प्रवासी भारतीयों के बीच राष्ट्रीयता का प्रसार करने में काफी सफलता प्राप्त की.इस बीच उसको ब्रिटिश सरकार के प्रतिरोध का सामना भी करना पड़ा. ब्रिटिश सरकार की मनमानी के आगे आखिर वह समाचारपत्र बंद करना पड़ा. ‘इंडिया हाउस’ को अंग्रेज सरकार ने ‘भारत से बाहर गठित सबसे खतरनाक’ संगठन का दर्जा दिया था.
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