Thursday, March 31, 2016

सामाजिक परिवर्तन

समाज बड़ा परिवार हैअनेक परिवारों से मिलकर बनी अमूर्त्तन व्यवस्थाव्यक्ति उसकी मूर्त्त एवं जीवंत इकाई हैदोनों परस्पर निर्भरएकदूसरे के लिए अपरिहार्य हैंअकेला रहनासमाज से पूरी तरह कट जाना किसी के लिए संभव नहीं हैदूसरों के साथ तालमेल बनाकर रहना उसकी विवशता हैइसलिए मनुष्य समाज की शरण में आता हैइस तरह समाज व्यक्ति का स्वैच्छिक वरण हैन केवल इसलिए कि व्यक्तिमात्र की शारीरिक एवं बौद्धिक सीमाएं हैंजो उसको दूसरे व्यक्तियों,प्रकृति तथा जड़जंगम पर निर्भर बनाती हैंबल्कि इसलिए भी कि एक संवेदनशील बौद्धिक इकाई के रूप में हर मनुष्य बहुतसे हुनर और कलाएं अपने भीतर छिपाए रखता हैसमाज में रहकर उसे अपने उस हुनर को तराशने तथा कलाओं का प्रदर्शन करने का अवसर मिल जाता हैइस तरह समाज मानव व्यक्तित्व को संपूर्णता की ओर ले जाने तथा उसके अस्मिताबोध को सुरक्षितसंवर्धित करने का माध्यम बन जाता हैव्यक्तिमात्र की इच्छा होती है कि बड़े परिवार के रूप में समाज उसकी भावनाओं का सम्मान करेउसका व्यक्तित्वलोप न होने देथामस पेन के अनुसार व्यक्ति समाज का सदस्य इसलिए नहीं बनता कि वहां रहकर उसकी अपनी स्वतंत्रता बाधित होया उसे अपने हितों में कटौती झेलनी पड़ेउसकी कामना होती है कि समाज के साथ मिलकर वह उन सुखसुविधाओं को भी प्राप्त कर सकेजिन्हें उसके द्वारा अकेले प्राप्त कर पाना कठिन हैप्लेटो ने भी कुछ ऐसा ही कहा थासाफ है कि पूर्णता की तलाश व्यक्ति को समाज का सदस्य बनने को प्रेरित करती है.
दूसरी ओर समाज चाहता है कि उसका प्रत्येक सदस्य उसके विकास के लिए वह सबकुछ करेजो वह कर सकता हैउतना करेजितना उसका सामथ्र्य हैइसके साथ ही वह स्थापित मर्यादाओं का पालन करे तथा दूसरों को भी ऐसा करने की प्रेरणा देसमाज नहीं चाहता कि उसका कोई भी सदस्य स्थापित व्यवस्था को उस सीमा तक भंग करे कि वह दूसरों के लिए परेशानी का कारण बन जाएजिससे अशांति पैदा हो और सामाजिक ऊर्जा का बड़ा हिस्सा केवल शांतिव्यवस्था के नाम पर खपाना पड़ेवह चाहता है कि सदस्य इकाइयां जीवन की तयशुदा मर्यादाओं का पालन करें.सामाजिक आचारसंहिता को भंग न होने देंजो लोकसाहित्यसांस्कृतिकसामाजिक रीतिरिवाजों,संबंधोंकला संस्कारों आदि के रूप में प्रकट होती हैयह भिन्नभिन्न माध्यमों से एक ही बात को बारबार सामने लाती है कि लोग अपने और दूसरों के कल्याण के लिए समर्पित होंकिसी के प्रति कोई दुराववैमनस्य आदि न पालेंयदि सब एक ही प्रकृति से जन्मे हैंतो उनमें छोटबढ़ाई क्या!संतमहापुरुष अपने जीवनकर्म से यही संदेश देते आए हैं‘एक नूर से सब जग उपज्या कौन भले को मंदे.’ गुरु नानक की यह वाणी कम शब्दों में ही जीवनसत्य से साक्षात करा देती हैसंकेत यही कि जन्म से सब एक हैंएक ही प्रकृति की संतानइसलिए आवश्यक है कि सब एकदूसरे का सम्मान करेंपरस्पर पूरक बनकर रहेंपर आदमी की तरह उसकी बनाई व्यवस्थाओं की भी उम्र निर्धारित होती हैइसलिए व्यवस्थाओं की समीक्षाआलोचनाउनमें परिवर्धनसंशोधन आदि की संभावना भी हमेशा बनी रहती है.
समाज को अवांक्षित विक्षोभआपसी अविश्वासअसमानताद्वंद्वअशांति आदि से बचाने के लिए एक कल्याणकारी व्यवस्था की अभिकल्पना हमारे पूर्वजोंउन मनुष्यों ने जिनकी विद्वता स्थापित थीजिनके दिलों में दूसरों के प्रति चिंताएं थींजो बुद्धिमानउदारसहिष्णुन्यायप्रियसंवेदनशील और सबका भला सोचने वाले थे—ने आपस में मिलबैठकर सबके हित के लिए की थीताकि संसाधनों के सदुपयोग तथा उनके द्वारा अर्जनउपार्जन और संवितरण को लेकर किसी प्रकार का झगड़ाटंटा न रहेलोग दूसरों की जरूरतों का भी उतना ही ख्याल रखेंजितना वे अपनी जरूरतों का रखते हैंइसके लिए जो आरंभिक व्यवस्था हुईवह थी—परस्पर सहयोग और सहकार कीपूरा गांव एक परिवार होता थालोग मिलकर खेती करतेजितना अनाज होता उसमें से अपनी जरूरत के लिए रखकर शेष को सामूहिक भंडार के हवाले कर देतेगांव का सम्मानित व्यक्ति उसकी देखरेख करताआवश्यकता पड़ने पर उसमें से जरूरतमंदों को अनाज लौटा दिया जाताउत्सवधर्मी समाज थाफुर्सत के समय लोग नाचगानामौजमस्ती सब करतेजो प्रकृति मुक्तमन से सबकुछ जीवन देती हैसारी सुविधाएं जुटाती हैअवसर मिलने पर उसका आभार व्यक्त करना भी न चूकते थे—कामये दुःखताप्तनाम् प्राणिनाम् आर्तिनाशनं’—‘कामना है कि सभी मिलजुल कर रहेंप्राणीमात्र के दुखों का नाश होकहीं कोई क्लेशव्याधिसंकटद्वेष आदि न हो.’ उनका अभीष्ट था—आवश्यकतानुसार दूसरों को सहयोग देनाउपलब्ध सामग्री में सबके साथ मिलजुल करसुखदुख को मिलजुलकर बांटते हुएजीवनयापन करना.
धरती सबकी हैइसलिए सब सुखी होंसभी निर्भयनिडर होकर विचरण करें—‘सर्वे सुखिनः भवंतु,सर्वे संतु निरामयाः’ यह बहुत पुरानी सद्कामना हैउन दिनों की हैजब मनुष्य ने सभ्य होना सीखा ही थायह बात लंबे अनुभव से उसकी समझ में आई थी कि विकास के लिए सहअस्तित्व की भावना को समझनाउसका सम्मान करना अत्यावश्यक हैफलस्वरूप जीवन में स्थिरता आई,विकास का माहौल बनाविकास की निरंतरता और सामाजिक समरसता के लिए नीति ग्रंथों में सभी को साथ लेकर चलनासभी के कल्याण की कामना करनामनुष्यमात्र का पुनीत कर्तव्य बताया गयाव्यास मुनि ने लोकसंग्रह को अनासक्त कर्म बतायालोकसंग्रह यानी लोकहित में संपदाओं का अर्जनउपार्जन. ‘निष्काम कर्मयोगी के समस्त फल सर्वकल्याण के निमित्त होते हैं.’ उनको व्यक्ति के अधिकार में न रखकर सर्वकल्याण के लिए समाज के अधिकार में रखनाकहा कि सर्वकल्याण के लिए लोकसंग्रह अपरिहार्य हैजिसे आज समाजवाद कहते हैंवह लोकसंग्रह की इसी भावना का विस्तार है.
समाजवाद को सीधेसरल शब्दों में परिभाषित करने को कहा जाए तो उसका अर्थ होगाऐसी व्यवस्था जिसमें समाज के संसाधनों पर जनजन का साझा होसभी लोग अपनी क्षमतानुसार काम करेंअर्जित संपत्ति का मिलबांटकरअपने और सर्वहित में उपयोग करेंउसका प्रबंधन समाज द्वारा लोकतांत्रिक ढंग से निर्वाचित व्यवस्थासरकार द्वारा किया जाता होसरकार प्रत्येक से उसकी क्षमता के अनुसार काम लेकरहर एक को उसकी आवश्यकता के अनुरूप लौटाएयह बिना समर्पण और त्याग के असंभव हैइसलिए ईश्वास्योपनिषद में कहा गया—‘त्येन त्यक्तेन भुंजीथा.’यानी ‘जिसने त्यागा हैउसी ने भोग किया है.’ व्यक्ति त्याग करेगा तभी तो दूसरे के अभावों की पूर्ति के संसाधन जमा होंगेयह कोई पहेली नहींसीधीसी व्यवस्था थीत्याग और भोग के बीच संतुलन बनाए रखने कीसहकार और सहयोग की जरूरत को स्थापित करने वालीऐसी व्यवस्था जिसमें—‘एक सबके लिए और सब एक के लिए काम करें.’ जिसमें आर्थिकसामाजिकराजनीतिक यानी हर स्तर पर समानता होगौर से देखें तो त्याग और भोग व्यक्ति और समाज का पर्याय दिखने लगते हैंहर व्यक्ति यथासंभव त्याग करे ताकि सब मिलकर यथासंभव भोग कर सकेंसंदेश साफ हैलोगों के बीच जातिधर्मक्षेत्रजन्मकुलगोत्रव्यवसायभाषा आदि के नाम पर किसी प्रकार का भेदभाव न होन किसी की उपेक्षा होन किसी को विशेषाधिकार प्राप्त हों.
दूसरे शब्दों में ‘समाजवाद’ वह कल्याणकारी व्यवस्था हैजिसमें नागरिकों के बीच निजता का लोप होकरकल्याण का समविभाजन होने लगता है. ‘सर्वभूतहितेरत’ की कामना आज की नहीं हैजब से समाज का गठन हुआ हैमनुष्य ने संगठित होना सीखा हैतभी से किसी न किसी रूप में चली आ रही हैहालांकि इसमें विक्षोभ भी हुए हैंदूसरे का हिस्से पर अधिकार जमा लेने वालेलोगों के श्रम,उनके खूनपसीने की कमाई पर जीवनयापन करने वाले और दूसरों का हक मारकर विलासितापूर्ण जीवन जीने वाले लोग भी समाज में रहे हैंउन्होंने समाज को अपनी मर्जी के अनुसार हांकने की कोशिश भी हैकुछ को अस्थायी सफलता भी मिली हैपरंतु उस दुरवस्था के प्रति विरुद्ध जनाक्रोश भी देरसवेर पनपा हैमहामानवों ने अवतरित होकर लोगों को अपनेअपने अधिकारों के प्रति जागरूक किया हैअन्याय के प्रति चेताया हैउनके आवाह्न पर उमड़ी जनशक्ति ने उत्पीड़क शक्तियों को चुनौती देकर उन्हें समानता पर आधारित व्यवस्था लागू करने के लिए बाध्य भी किया हैजिससे समाज को घूमफिरकर समानता और सर्वकल्याण के समावेशी रूप की ओर लौटना पड़ा है.
समाजवाद कहता है कि लोग अपनेअपने दायित्वों को समझेंउनका पालन करेंउनके बीच जाति,लिंगवर्णभाषाक्षेत्रजन्म आदि के आधार पर किसी भी प्रकार का द्वैत अथवा विभाजन न हो.ऊपर से नीचे तक सभी कुछ एक समान होसमाज की संपदा में उसके सभी वर्गोंइकाइयों का साझा होवह समाज के सभी वर्गोंइकाइयों के साथ इस तरह घुलीमिली हो जैसे शर्करा पानी में घुलमिल जाती हैफिर उसको कहीं से भी चखकर देखोउसमें एक समान मिठास मिलती है.समाजवाद की परिकल्पना का आधार यह सिद्धांत है कि पूरी सृष्टि एक परिवार हैहम सब धरती के गर्भ से उपजे उसकी संतान हैंसाहित्य के स्तर पर यही कामना भारतीय वाङमय और दुनिया के हर धर्मदर्शन में है. ‘वसुधैव कुटुंबम्’—पूरी वसुंधरा ही एक परिवार हैजैसे परिवार में सबका एकदूसरे के प्रति समर्पण और अनुराग होता हैसब एकदूसरे के सुख में सुखी और दुःख हो तो सब दुःखी हो जाते हैंवही समाज के सदस्यों के बीच होना चाहिएकिंतु अनुराग और समर्पण के तालमेल की भी सीमा हैयह उसी अवस्था में संभव हैंजब प्रत्येक व्यक्ति को यह विश्वास हो उसका पड़ोसी उसके साथ हैसमाज में उसका महत्त्व हैसमाज की इकाई के रूप में बाकी समाजों में उसकी इज्जत और मानसम्मान हैसमाज उसकी भावनाओं को समझता हैउसकी आवश्यकताओं को पूरा करने में सक्षम हैजितना वह समाज के विकास में योगदान देता हैउतना ही उसको सुफल भी मिलता हैकिसी भी संकटआपदा के समय समाज उसके साथउसकी सहायता के लिए तत्पर होगा.
जब तक व्यक्ति के मन में यह विश्वास नहीं होगातब तक डर उसके मन में बना ही रहेगावह समाज से अधिकदूसरों से अधिक केवल अपने बारे में सोचेगाउन लोगों के बारे में सोचेगा जिनसे वह सीधेसीधे जुड़ा हैजो आड़े वक्त में उसके काम आ सकते हैंहालांकि उत्पादक संबंधों के आधार पर भी समाज का गठन हो सकता हैलेकिन आपसी अविश्वास और असुरक्षाबोध यदि बना रहा तो वह समाज छोटेछोटे समूहों का समुचच्य होगाजो अपनेअपने स्वार्थ के अनुसार उसका दोहन करने का प्रयास करेंगेऐसा होते ही समाज के गठन का उद्देश्य जाता रहेगावह अपने लक्ष्य से भटकता हुआ नजर आएगाअसुरक्षा की भावना छूत के रोग से बढ़कर होती हैछूत की बीमारी तो दूसरे रोगी के संपर्क में आने पर लगती हैलेकिन डर किसी को देखे बिनाउसके बारे में ख्याल आते ही पैदा हो सकता हैआज जो उसके साथ हुआ हैकल वह मेरे साथ भी हो सकता है….आज यदि उसके साथ कोई नहीं है तो संभव है कल मेरे साथ भी कोई न होयह भावना छूत के रोग के समान एक के बाद एक लोगों के दिमाग में यही धारणा घर करती जाएगीइससे संबंधों में दरार पड़ने लगेगीस्वार्थ का अंदरूनी खेल आरंभ हो जाएगाडरा हुआ आदमी दूसरों को डराता है.इसलिए व्यक्ति के असुरक्षाबोध का निदान समय रहते हो जाना चाहिएइसके लिए जरूरी है कि समाज अपनी प्रत्येक इकाई के प्रति संवेदनशील होहरेक का ख्याल रखने वाला होपरिवार में जैसे बच्चे से बड़े तक सभी का परस्पर समर्पण होता हैयही समाज में भी होना चाहिएइसका अभाव है तो समाज का गुंबद ढहते देर नहीं लगेगीयह तभी संभव है जब उनमें आपसी विश्वास होयह धारणा बलवती हो कि समाज की उपलब्धियों में उसकी भी समान हिस्सेदारी हैसमाज विकसित होगा तो उसका विकास भी सुनिश्चित है.
समाजवाद की भावना भले लोगों के मन में आदिकाल से रहती आई होइसके लिए उद्धरण वेदों से लिए जा सकते हैंउपनिषदों और महाकाव्यों से लिए जा सकते हैंलोकसंस्कृति और लोकसाहित्य में भी इसके ढेरों उदाहरण मिल जाएंगेलेकिन एक समाजार्थिक प्रणाली के रूप में समाजवाद आधुनिक अवधारणा हैबामुश्किल दो शताब्दी पुरानीसाफ कर दें कि समाजवाद राजनीतिक प्रणाली नहीं है.किसी एक राजनीतिक प्रणाली पर यह निर्भर भी नहीं हैयह समाजवाद की खूबी भी है और कमजोरी भीखूबी इसलिए कि कोई भी राजनीतिक प्रणाली जो अरस्तु के शब्दों में ‘शुभ की स्थापना’ को अपना लक्ष्य मान चुकी हैसमाजवादी सपने को आसानी से साकार कर सकती हैऔर कमजोरी यह कि हिटलर जैसे तानाशाह भी खुद को समाजवादी बताकर सत्तासीन होते आए हैं.अपनी इन्हीं खूबियोंखामियों के कारण ‘समाजवाद’ शुरू से ही विवादास्पद पद रहा हैइसकी परिभाषा पर वुद्धिजीवियों के बीच अकसर मतांतर रहे हैंसबसे पहली परिभाषा अलेक्सेंडर विनेट की ओर से आई थी—‘समाजवाद पूंजीवाद का विलोम है.’ उसने बस इतना ही कहाविनेट ने सच बयान किया थापर उसकी परिभाषा अस्पष्ट थीउससे समाजवाद की विशेषताओं का पता ही नहीं चलता थान यह पता चलता था कि पूंजीवाद और समाजवाद में मानवमात्र के लिए कौन अधिक कल्याणकारी हैइस कमी को राबर्ट ओवेन की परिभाषा दूर करती है—‘समाजवाद नैतिकता की विषयवस्तु है.’ ओवेन की परिभाषा विनेट की परिभाषा के नकारात्मक पक्ष को तो साफ करती थी,परंतु उसके बारे में स्पष्ट कुछ भी नहीं बतातीनैतिकता की वस्तु अकेले समाजवाद नहींसत्य,करुणामैत्रीसद्भावसमानता आदि भी नैतिकता की विषयवस्तु हैंगांधीजी अहिंसा को नैतिकता की विषयवस्तु मानते थेइनसे अलग समाजवाद क्या हैइसी को ध्यान में रखकर समाजवाद की परिभाषाएं गढ़ी जाती रहीं.
समाजवाद’ शब्द द्वारा मस्तिष्क में जो छवि सामान्यतः बनती हैउसके अनुसार—‘समाजवाद संपत्ति और संसाधनों के न्यायिक वितरण की ऐसी व्यवस्था हैजो कल्याण सरकार के अधीन संपन्न होती है.’ कुछ के लिए यह लोकतंत्रआर्थिकसामाजिक समानता और व्यक्तिस्वातंत्रय से जुड़ा राजनीतिक अधिकारिता का मामला हैजिसके निर्माण मंे हर कोई अपनी सहभागिता अनुभव करेयह सच भी हैकल्याण सरकार किसी एक व्यक्ति की महत्त्वाकांक्षाओं का स्वरूप नहीं हो सकतीयदि कोई तानाशाह लोगों की स्वतंत्रता का हनन कर समाजवादी होने का दावा करता है तो यह सरासर छल हैबहुत बड़ा छलसमाज या समूह की तानाशाही को भी समाजवाद नहीं कहा जा सकताउस अवस्था में आर्थिकसामाजिक समानता कुछ लोगों तक सिमट जाएगी और समाज के हर वर्गहर व्यक्ति को मुख्यधारा में लाने का सपना अधूरा रह जाएगाअभिव्यक्ति की आजादी मुट्ठीभर लोगों तक सीमित होगीअसल में लोकतंत्र और समाजवाद परस्पर इतने अवगुंठितऐसे अंतर्संबंधित हैं कि दोनों को अलगअलग करके देखा ही नहीं जा सकताइसलिए ‘गणतांत्रिक समाजवाद’ को आदर्शतम व्यवस्था कहा गया हैइस शब्दयुग्म से कुछ विद्वान तो इतने सम्मोहित हैं कि वे इसे लेकर ‘मानवीय मेधा की उच्चतम उड़ान’, ‘विचारधारा का अंत’ जैसे जुमले उछालने लगे हैंइसके बावजूद समाजवाद ऐसा विचार है जिसके बारे में उनीसवीं और बीसवीं शताब्दी में न जाने कितनी बहसें हुई हैंऔर न जाने कितने ग्रंथ इसकी प्रशंसा और आलोचना में लिखे जा चुके हैंफ्रांसिसी दार्शनिक अलेक्स दि ताॅकविले ने गणतंत्र और समाजवाद की अंतःसंबद्धता के बारे में बड़ी अच्छी बात कही है—
गणतंत्र तथा समाजवाद में कुछ भी मिलाजुला नहीं हैसिवाय एक शब्द के और वह शब्द है—समानताहालांकि दोनों का अंतर भी सुस्पष्ट हैगणतंत्र स्वाधीनता में समानता की चाहत रखता है.जबकि समाजवाद मालिक और मजदूर दोनों के संबंधों में समानता चाहता है.’
वर्तमान में समाजवाद की परिभाषा को लेकर जितने भ्रम और विवाद हैंउतने शायद ही किसी और शब्द को लेकर रहे होंसमाजवाद चूंकि समाज की कुल संपत्ति के प्रबंधन और नियोजन का अधिकार देता हैइसलिए हिटलरमुसोलिनीरूजवेल्टमाओ’त्से तुंग और स्टालिन जैसे तानाशाही प्रवृत्ति वाले शासक भी अपनी सत्ता को वैध ठहराने के लिए स्वयं समाजवादी होने का दावा करते रहे हैंवही क्यों कुछ विद्वान तो नीत्शे को भी समाजवादी मानते हैंजिसका कहना था कि सच व्यक्तिसापेक्ष होता हैव्यक्ति के अनुसार के प्रति दृष्टिकोण उसका स्वरूप भी बदलता जाता है.इसलिए प्रत्येक व्याख्या को व्यक्तिविशेष के संदर्भ में देखना चाहिएस्वामी विवेकाननंद भी पीछे नहीं थेउन्होंने भी समाजवाद को अपने ढंग से परिभाषित करने का प्रयास किया हैदीनदयाल उपाध्याय अपने लेख में स्पष्ट करते हैं—
‘‘हमें यह जानकर आश्चर्य होगा कि स्वामी विवेकानंद जी भी अपने आपको समाजवादी कहते थे और अपनी मान्यताओं की पुष्टि में बहुत कुछ इसी प्रकार के तर्क भी देते थेएक भाषण में उन्होंने कहा भी था कि ‘मैं भी समाजवादी हूं.’ इसलिए नहीं कि समाजवाद कोई पूर्ण दर्शन हैअपितु इसलिए कि मैं समझता हूं कि भूखे रहने की अपेक्षा एक कौर मात्र प्राप्त करना भी अच्छा है.’’
ऊपर की पंक्तियों में बात ‘समाजवाद’ शब्द से आगे बढ़ ही नहीं पातीन उसके ध्येय का पता चल पाता है.दरअसल यह इस शब्द का आकर्षण ही है कि हर कोई किसी न किसी रूप में इससे जुड़ना चाहता हैसमाजवाद की संभवतः ऐसी ही मनमानी और अतिरेकपूर्ण व्याख्याओं से व्यथित होकर जीड ने कहा था कि यह उस जूते की भांति है जिसे इतने अधिक लोगों ने पहना है कि उसका असली आकार ही बिगड़ चुका हैगत दो शताब्दियों का यह कतिपय सबसे लुभावना और भरोसेमंद शब्द रहा हैइसको केंद्र में रखकर न जाने कितने आंदोलनों का शुभारंभ इन दो शताब्दियों में हुआ.न जाने कितने विचारकदार्शनिकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने अपना जीवन समाजवादी सपने को साकार करने में खपा दिया.
भारत में समाजवादी चेतना ने रूस के रास्ते से दस्तक दी थीबीसवीं शताब्दी के आरंभिक दशकों मेंएक प्रमुख समाजवादी ताकत के रूप में उभरते हुए सोवियत संघ का सपना थाविश्वभर में समाजवादी विचारधारा का परचम लहरानायह कोई साम्राज्यवादी महत्त्वाकांक्षा नहीं थीजो दूसरे देशों की संपत्ति और संसाधनों पर अधिकार जमाकर वहां के लोगों से गुलामी करवाना चाहती है.उन दिनों ब्रिटेन जिसका सबसे अच्छा उदाहरण थायह तो मनुष्यता की कसौटी पर खरा उतरने के लिए मानवमात्र को एक परिवार के दायरे में लाने की उदार सदाकांक्षा थीसमाजवादी चिंतकों की राय रही है कि उसकी वास्तविक सफलता तब संभव है जब सारी दुनिया अभिन्न समाजवादी परिवार होपूंजी का कहीं भी हस्तक्षेप न रहेसभी लोग अपनी क्षमता के अनुरूप काम करेंउससे उन्हें आवश्यकतानुसार प्राप्ति होव्यक्ति की आर्थिक हैसियत में एकरूपता होकिसी कारणवश यदि आर्थिक समानता का लक्ष्य अधूरा है तो समाज में धन के आधार पर किसी को भी विशेषाधिकार नहीं मिलने चाहिएसमाज सबका हैअतएव जो संसाधन हैंउनपर समाज तथा उसके बहाने सभी का समानाधिकार रहेउत्पादन का मिलजुलकर भोग होसमाजवाद की सफलता तभी संभव है जब निर्णय प्रक्रिया में सभी की समान भागीदारी होजब व्यक्ति को लगेगा कि निर्णय प्रक्रिया में उसका योगदान हैजो निर्णय लिया गया हैउसमें उसकी भी वैसी ही भागीदारी हैजैसी दूसरों की तो वह उसका सम्मान करेगासमाजवादी हवाएं उस नई दुनिया का कुछ ऐसा ही बखान करती थीं.परिवर्तन का सपना देखने वाले कल्पनाशीलसंकल्परथी युवाओं के लिए समाजवाद सबसे सुहावना और नयानवेला स्वप्न थाउस सपने की हकीकत जाननेसमझने और यदि संभव हो तो उसको अपने ही देश में साकार करने के लिए देशविदेश में अनेक क्रांतिकारी लगे हुए थेरूस चूंकि उन दिनों समाजवाद की सबसे बड़ी प्रयोगशाला थाइसलिए वहां साम्यवाद की सैद्धांतिकी को समझने और सहयोग की संभावनाएं तलाशने के लिए अब्दुल सत्तार खान तथा अब्दुल जब्बार खान नाम दो व्यक्ति रूस भी गए थेउन दिनों रूस और भारत की परिस्थितियां लगभग एकसमान थींभारत की भांति रूस भी औद्योगिकीकरण के मामले में पिछड़ा हुआ थाउसकी अर्थव्यवस्था का प्रमुखòोत खेतीबाड़ी ही थाजमीन के आधार पर आर्थिकसामाजिक विभाजन वहां भी चिंताजनक हालात को पार कर चुका थालेनिन ने माक्र्सवाद का गहन अध्ययन कियामाक्र्स की मेधा से वह चमत्कृत थाइसके बावजूद उसने माक्र्स से उतना ही लियाजितना जरूरी लगाजिन बिंदुओं पर माक्र्स चुप थाउसकी उसने अपनी परिस्थितियों के अनुसार व्याख्या कीजैसे माक्र्स की कल्पना थी कि वर्ग संघर्ष की सफलता उन्हीं समाजों में संभव हैजहां औद्योगिक क्रांति सफल हो चुकी है.रूस औद्योगिक विकास के रास्ते में पिछड़ा हुआ थाइस कमी को दूर करने के लिए लेनिन ने किसानों और मजदूरों को एक साथ तैयार कियाइससे बाल्शेविक क्रांति का जन्म हुआ.
भारत में भी अंग्रेजी दमन के कारण जनाक्रोश व्याप्त थाउससे मुक्ति के लिए देशविदेश में संघर्ष जारी थास्वाधीनता की चाहत में भारतीय क्रांतिकारी ब्रिटेनकनाडाअमेरिकाजर्मनीजापान आदि देशों में फैलकर वहां से अपनेअपने स्तर पर ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध युद्ध छेेड़े हुए थे. 1871 में फ्रांसिसी मजदूरों ने बगावत कर ‘पेरिस कम्यून’ की स्थापना की तो उसका असर उन भारतीयों पर भी पड़ा जो सशस्त्र क्रांति के माध्यम से सरकार के तख्ता पलट का सपना देख रहे थेपेरिस क्रांति की सफलता से उत्साहित कनाडा के प्रवासी भारतीयों के एक प्रतिनिधि मंडल ने माक्र्स से मिलने का प्रयास भी किया थाउनको विश्वास था कि पेरिस के मजदूर संगठनों की भांति यदि भारतीय भी सरकार के विरुद्ध संगठित होकर हथियार उठा लें तो अंग्रेज इस देश से पीछा छुड़ाकर भागते हुए नजर आएंगेप्रतिनिधि मंडल के नेता ‘प्रथम इंटरनेशनल’ के अनुसरण में दुनियाभर में फैले भारतीय मजदूरों का वैसा ही संगठन चाहते थेमाक्र्स उन दिनों स्वयं परेशानी के दौर से गुजर था.इसलिए भारतीय प्रतिनिधि मंडल द्वारा वांछित मुलाकात तो संभव न हो सकीपरंतु उसके विचारों ने दुनियाभर में फैले भारतीयों को किसी न किसी रूप में प्रभावित किया थादक्षिणी अफ्रीका में,जिसे आगे चलकर महात्मा गांधी ने अपनी प्रयोगशाला बनायाभारतीय मजदूरों ने माक्र्सवादी प्रेरणाओं से संगठित होकर हड़ताल भी की थीमाक्र्स की भारत में रुचि थीभारतीय परिस्थितियों को लेकर उसने कई लेख लिखे थेजिनमें यहां की जनता के शोषण और अमानवीय उत्पीड़न का विश्लेषण करते हुए उसने ब्रिटिश सरकार को जिम्मेदार ठहराया थाब्रिटिश सत्ता की शोषणकारी नीति को सामने लाने में सबसे ठोस योगदान था दादा भाई नौरोजी काअपनी पुस्तक ‘पाॅवर्टी एंड अनब्रिटिश रूल इन इंडिया’ में उन्होंने अंग्रेजों के उस दावे को तारतार कर दिया थाजिसके अनुसार वे दावा करते थे कि अंग्रेजों के आने के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था में सुधार आया है.दादाभाई नौरोजी ने अपनी पुस्तक में सिद्ध किया था कि अंग्रेज भारतीय संसाधनों का दोहन कर,ब्रिटिश अर्थव्यवस्था को चमका रहे हैं. ‘ईस्ट इंडिया एसोशिएसन आॅफ लंदन’ की मुंबई शाखा के समक्ष दिए गए भाषणों में उन्होंने ब्रिटिश शासन से पहले के भारत की समृद्धि के आंकड़े पेश कर,पूरी दुनिया के सामने यह तथ्य पेश किया था कि अंग्रेजी शासन के दौरान भारत में गरीबी अनुपात लगातार बढ़ा है.
उधर रूसी क्रांति के नेताओं की भी भारतीय राजनीति की हलचलों पर नजर थीवहां बोल्शेविक क्रांति हो चुकी थीउसकी सफलता का एकमात्र रास्ता यही था कि विश्वभर में साम्यवाद के प्रति सकारात्मक माहौल होवह जितना दूर तक फैल सकता हैफैल जाएबोल्शेविक क्रांति की सुदीर्घ सफलता के लिए लेनिन और उसके साथी चाहते थे कि भारत उसका अगला केंद्र बनेहालांकि सोवियत संघ की मदद से ‘चाइनीज सोवियत रिपब्लिक’ की स्थापना 1931 में हो चुकी थीमाओ जिदांग उसका सर्वेसर्वा नेता थाचीनी में साम्यवादी क्रांति की बागडोर संभाल रहा माओ जिदांग लेनिन की तरह की दूरदर्शीआत्मविश्वास से लैस तथा अतिमहत्त्वाकांक्षी नेता थावह चीन को सोवियत संघ के किसी भी प्रभाव से मुक्त रहना चाहता थाइसलिए उसने सोवियत संघ की और मदद लेने से इन्कार कर दिया थाइन हालात में सोवियत संघ के लिए भारत एकमात्र ठिकाना था,जहां वह सोवियत क्रांति की सफलता के अगले चरण को दोहराया जा सकता थाइसके लिए न केवल लेनिन बल्कि उसके सहयोगी लियान ट्राट्स्की की भी भारत पर नजर थीट्राट्स्की ने भारत को लेकर अनेक लेख लिखे थेजिनमें से एक में उसने किसानों का विद्रोह के लिए संगठित होने का आवाह्न किया थाभारत में समाजवादी क्रांति की हलचलों को लेकर लगभग उन्हीं दिनोंसोवियत क्रांति के एक सक्रिय कार्यकर्ता प्लातेन मिखाइलोविच कर्झेन्सेव ने लिखा था कि ब्रिटेन के सभी उपनिवेशों में भारत उसके लिए सर्वाधिक कमाऊ ठिकाना हैवहां बोल्शेविक क्रांति का विस्तार कालांतर में ब्रिटेन के अन्य उपनिवेशों यथा मेसापोटामिलयामिस्रअफ्रीकासीरियातिब्बतचीन,पर्शिया आदि में क्रांति के अवसरों को बढ़ावा देगाउसका मानना था कि ब्रिटेन ने भारत को ‘बर्बर और कपटपूर्ण’ तरीके से कब्जाया हुआ हैअंग्रेजी शासन के विरुद्ध भारतीय के आक्रोश को देशते हुए कर्झेन्सेव भारत में समाजवादी क्रांति की संभावना से उत्साहित थाउसका विश्वास था—‘आने वाले दिनों में भारत में क्रांतिकारी गतिविधियों में और भी तेजी आएगीफलस्वरूप वह तेजी से फैलेगा.’इसके लिए रूस अपनी ओर से हरसंभव मदद देनेे को तैयार थाभारत की स्वाधीनता के लिए समर्थक शक्तियों की खोज में लगे भारतीयों के लिए जर्मनी सबसे उम्मीदवाला देश थाइसलिए भारतीय क्रांतिकारियों का बड़ा दल मदद की उम्मीद में जर्मनी में डेरा डाले हुए थामगर बहुत जल्दी उनका यह भ्रम जाता रहाइसलिए क्रांतिकारियों का एक दल रूस की ओर मुड़ गया और उसकी मदद के भरोसे भारत की ब्रिटिश सत्ता को उखाड़ने के मंसूबे पालने लगा.
भारत में क्रांति का वैसा असर न थाजैसा रूसी सरकार को भ्रम थायहां की परिस्थितियां परर्शिया से अलग थीउल्लेखनीय है कि रूस ने परर्शिया में बोल्शेविक क्रांति को बढ़ावा देने के लिए वहां के जुझारू गुरिल्ला सरदार मिर्जा कुचुक खान को सहायता देकर उसे ईरान पर हमले के लिए उकसाया थाब्रितानी भारत छोटेछोटे रजबाड़ों में बंटा थाराजाओं में आपसी फूट थीअपनेअपने स्वार्थ के लिए वे अंग्रेजों का कृपापात्र बने रहना चाहते थेइसलिए क्रांति के माध्यम से सत्ता प्राप्ति का सपना देखने वाले अधिकांश भारतीय विदेशों में रहकर अपनी गतिविधियां चला रहे थेसामाजिक स्तर पर जातिव्यवस्था का बोलवाला थापरिणामस्वरूप समाज का बड़ा वर्ग जिसको जातिव्यवस्था के चलते निर्णय प्रक्रिया से काट दिया गया था. ‘कोऊ नृप होय हमें क्या हानि’ की भावना के अनुरूप काम करता थाराष्ट्रीयता के मुद्दे पर आम आदमी के सोच को लेकर किसी को विशेष चिंता भी न थी.
भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन के लिए रूस की घटनाएं उत्प्रेरक के समान थींभारत में समाजवादी चेतना का उदय राष्ट्रीयता की भावना के साथ ही हो चुका थाउस समय ब्रिटेन की छवि एक साम्राज्यवादी देश की थीऔपनिवेशिक देश उसके कच्चे माल के उम्दा òोत थेब्रिटिश कंपनियों द्वारा स्थानीय संसाधनों के अंधाधुंध दोहन से वहां परिस्थितिकीय समस्याएं पैदा होने लगी थीं.छोटेछोटे उद्योगधंधे जो अर्थव्यवस्था की प्राणवायु थेतबाह हो रहे थेउसे लेकर किसानों और कामगारों में बेहद आक्रोश थामाक्र्स ने यूरोपीय पूंजीवादी शोषण की जो तस्वीर दुनिया के सामने प्रस्तुत की थीउसका प्रभाव भारत की पढ़ीलिखी युवा पीढ़ी पर भी पड़ा थाराजा राममोहन राय,ज्योतिबा फुलेमहर्षि दयानंदईश्वरचंद्र विद्यासागर आदि समाज सुधारकों की विचारचेतना तथा अंग्रेजी के ज्ञान से लैस भारतीय युवाओं की वह पीढ़ी आत्मविश्वास से लैस थीअंग्रेज सरकार के शोषण ने उसको भड़काने का काम किया थाइस आग में घी डालने का काम किया अंग्रेजों द्वारा1905 में बंगाल विभाजन की घटना नेबंगाल के युवकों ने इसे अपनी अस्मिता पर हमला माना.उन दिनों माक्र्स साम्राज्यवाद के विरोध का सशक्तसार्थक प्रतीक बन चुका थाइसलिए साम्राज्यवादी ब्रिटिश सरकार के चंगुल से बाहर आने के लिए युवाओं का ध्यान दुनियाभर में चल रही समाजवादी क्रांतियों की ओर गयाफ्रांसजर्मनीस्पेनअमेरिकाब्रिटेन में उन दिनों समाजवादी आंदोलन की गरमाहट थीसमाजवाद को ब्रिटिश साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद से मुक्ति का माध्यम मान लिया गया था.
श्यामजीकृष्ण वर्मा का इंग्लेंड के राष्ट्रप्रेमियों में बड़ा नाम थामहर्षि दयानंद से प्रभावित श्यामजी कृष्ण वर्मा हर्वर्ट स्पेंसर की इस उक्ति में विश्वास करते थे कि ‘आक्रमण का प्रतिरोध न केवल न्यायसंगतबल्कि अनिवार्य भी होता है.’ हाई गेटउत्तरी लंदन स्थित अपना आवास उन्होंने भारतीय राष्ट्रवादियों के लिए खोला हुआ थालंदन और यूरोप में रह रहे राष्ट्रवादियों का उनके यहां नियमित आनाजाना थाब्रिटेन के प्रवासी हिंदुस्तानियों के बीच श्यामजी कृष्ण वर्मा का वह आवास ‘इंडिया हाउस’ के नाम से विख्यात होकर राष्ट्रवादी गतिविधियों का केंद्र बना हुआ थाश्यामजी कृष्ण वर्मा की कल्पना समाजवादी आदर्श के अनुरूप गठित स्वाधीन भारतीय राष्ट्र की थीजिसकी वैश्विक पहचान होइसी सपने को संकल्प का रूप देते हुए उन्होंने ‘इंडियन सोश्लिष्ट’ नामक मासिक समाचारपत्र की शुरुआत की थीएक पेनी में बिकने वाला वह छोटासा समाचारपत्र बहुत जल्दी लंदन स्थित भारतीयों के बीच लोकप्रिय हो गयामदनलाल धिंगरावीवीएस अय्यरविनायक दामोदर सावरकरसेनापति बापटअनंत लक्ष्मण कन्हेड़े जैसे प्रखर राष्ट्रभक्त ‘दि इंडियन सोश्लिष्ट’ से जुड़े थेइस समाचारपत्र में प्रख्यात समाजवादी चिंतकों के लेख समयसमय पर प्रकाशित होते थे.लेखों के अनुवाद का काम स्वयं श्यामजी संभालते थेउनका मानना था कि भारतीयों को यह पूरा अधिकार है कि वे औपनिवेशिक शोषण का विरोध करेंस्वाधीनता यदि हिंसा के रास्ते भी आती है तो यह उसकी छोटीसी कीमत होगीलेकिन हिंसा का इस्तेमाल सबसे बाद में बाकी रास्तों के पूरी तरह बंद हो जाने के बाद ही होना चाहिएवह समाचार पत्र 1905 से लेकर 1910 तक लगातार निकलता रहाउसने प्रवासी भारतीयों के बीच राष्ट्रीयता का प्रसार करने में काफी सफलता प्राप्त की.इस बीच उसको ब्रिटिश सरकार के प्रतिरोध का सामना भी करना पड़ाब्रिटिश सरकार की मनमानी के आगे आखिर वह समाचारपत्र बंद करना पड़ा. ‘इंडिया हाउस’ को अंग्रेज सरकार ने ‘भारत से बाहर गठित सबसे खतरनाक’ संगठन का दर्जा दिया था.
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