आप जिसे संविधान कहते हैं, मैं उसको सहविधान के रूप में देखना चाहूंगा. सहविधान ही क्यों?क्या अंतर है दोनों में? संविधान की भांति सहविधान के गठन में भी नागरिकों की सहमति होती है.उसे भी जनसहमति पर उनके प्रतिनिधियों द्वारा बनाया जाता है. बनाने के पहले लंबी चर्चां, विचार–विमर्श होते हैं. बन जाने के बाद भी उसपर विचार किया जा सकता है. आवश्यकता पड़ने पर संशोधन मंजूर होते हैं. तदनंतर सर्वसम्मति अथवा बहुमत के आधार पर ही उसको लागू किया जाता है. इस प्रकार संविधान अपने नागरिकों की सामान्य इच्छा की अभिव्यक्ति होता है. एक ऐसा अनुबंध जिससे राष्ट्र और नागरिक दोनों बंधे होते हैं. संविधान में उनके कर्तव्यों एवं अधिकारों की सुस्पष्ट व्याख्या होती है. अपेक्षा की जाती है कि दोनों अपने कर्तव्य के प्रति सत्यनिष्ठ रहकर प्रदत्त अधिकारों का व्यापक लोकहित में उपयोग करेंगे. इन व्यवस्थाओं के बाद प्रकटतः उसमें कोई झोल नहीं रह जाता. उसमें विश्वास करना राष्ट्रभक्ति का परिचायक माना जाता है और अविश्वास राष्ट्रद्रोह. लागू संविधान में संशोधनों की प्रक्रिया यद्यपि बहुत लंबी और जटिल होती है, तथापि असहमति और अस्वीकारों के बावजूद, संविधान के प्रति सम्मान बनाए रखना राष्ट्रीय भावनाओं का प्रतीक माना जाता है.
इसके बावजूद सहविधान की मेरी कल्पना संविधान से मेल नहीं खाती. हालांकि संविधान भी मेरी परिकल्पना के सहविधान की भांति खुली व्यवस्था है. जिसे सर्वसम्मति अथवा बहुमत की स्वीकृति के उपरांत लागू किया जाता है. उसमें भी संशोधनों के लिए आवश्यक गुंजाइश होती है. संविधान भी न्याय एवं समानता की भावना से आबद्ध होता है. उसी के अनुसार उसमें समाज के विभिन्न वर्गों,संस्थाओं और समूहों के अधिकारों एवं कर्तव्यों की सुस्पष्ट व्याख्या होती है. इन सब विशेषताओं के बावजूद संविधान की मूल अभिकल्पना को निर्दोष मानने में मुझे संकोच है. मेरे विचार में संविधान एक बेहद जटिल संरचना है. कुछ विशेषज्ञों को छोड़कर शेष के लिए उसे आत्मसात करना तो दूर,पढ़ना तक संभव नहीं हो पाता. सरकार की ऐसी योजना भी नहीं है कि वह संविधान के बारे में लोगों को शिक्षित करे, उन्हें उनके नागरिक धर्म से परचाए. न नागरिकों की ऐसी रुचि होती है कि संविधान को भी अपने परम–प्रिय धर्मग्रंथों की बगल में जगह दें तथा संवैधानिक व्यवस्थाओं को अपने नागरिक धर्म का हिस्सा माने रहें. कई बार तो सरकार संविधान को लोकतंत्र के धर्मग्रंथ की भांति परोसती है. वह उसके प्रति उतनी ही दुराग्रही नजर आती है, जितना कोई मठाधीश धर्मग्रंथों को लेकर. अंतर केवल इतना है कि धर्माचार्य अपने धर्मग्रंथों की महत्ता से परचाने के लिए बड़े स्तर पर अभियान चलाते रहते हैं, यहां तक कि प्रचार–साहित्य को निःशुल्क उपलब्ध कराते हैं, वहीं सरकार का इस ओर कोई प्रयास नहीं होता. इस उद्देश्य के लिए गठित संस्थाएं भी अधिकारियों की काहिली, अदूरदर्शिता तथा सरकार की उपेक्षा के चलते प्रभावहीन सिद्ध होती हैं. पर्याप्त चर्चा–विमर्श के अभाव में संविधान अभिजात्य तानाशाही का मूकदृष्टा बनकर रह जाता है. उसका महत्त्व मठों में संरक्षित उस धर्मग्रंथ की तरह होता है जो सिर्फ इसलिए मान्य होता है कि कुछ लोगों ने जिन्हें हम बड़ा मानते है, उसको विशिष्ट माना और अपनाया है. इस धारणा के चलते लोग निज–विवेक से काम लेना बंद कर देते हैं. उनकी वृत्ति अनुसरणात्मक हो जाती है. यह वृत्ति समाज के बड़े हिस्से को उसके बौद्धिक सामर्थ्य का उपयोग करने से रोकती है. उसका नुकसान व्यक्ति एवं समाज दोनों को उठाना पड़ता है.
संविधान और उसके तहत गठित संस्थाएं पेशेवर बुद्धिजीवियों को जन्म देती हैं. इससे विशेषज्ञ संस्कृति पनपने लगती है. पेशेवर बुद्धिजीवियों की कमजोरी होती है कि वे मानवीय विवेकीकरण के प्रत्येक आयोजन को निजी लाभ की दृष्टि से देखते हैं. और जिस दिशा में उन्हें लाभ दिखाई दे,अपने बुद्धि–विवेक के अनुसार संविधान की वैसी ही व्याख्याएं करने लगते हैं. संविधान सम्मत भारी–भरकम संस्थाओं के औचित्य का वे जमकर समर्थन करते हैं, इसलिए कि वे संस्थाएं उनकी स्वार्थ–सिद्धि का खूबसूरत ठिकाना सिद्ध होती हैं. वे उन्हें भले ही लोकहित से जोड़कर देखते हों, किंतु उनका बड़ा श्रम निजी हितों की सुरक्षा करने में ही खप जाता है. उनके नेतृत्व में संवैधानिक संस्थाओं में वर्गीय सोच पनपने लगता है. परिणामस्वरूप उनके न्याय का पलड़ा समाज के प्रभुवर्ग की ओर झुक जाता है. इस प्रकार वे सकल राष्ट्रीय उत्पाद के बड़े हिस्से को अपने अधिकार में रख लेते हैं. मूल संवैधानिक प्रावधान भले ही इसका विरोध करते हों, किंतु खरीदे गए बुद्धिजीवियों की टीम उनकी मनमानी व्याख्या कर माहौल को उनके अनुकूल बनाए रखती है.
लोकतंत्र के सफल संचालन, कल्याण के समविभाजन तथा न्यायाधारित राज्यों की स्थापना हेतु ऐसे भारी–भरकम संविधान भले ही अपरिहार्य माने जाते हों, लेकिन यह भी सच है कि उनकी उलझी हुई कानूनी व्याख्याएं कथित कल्याण राज्यों में, जहां संपत्ति और अधिकारों के विभाजन में ढेर सारा अंतर और अनियमितताएं हों, वहां जनसाधारण के हित में उन्हें लागू कर पाना असंभव–प्रायः होता है. ऐसे समाजों में सरकारी उदासीनता और जनसाधारण में अधिकार–चेतना की कमी के चलते,संवैधानिक व्यवस्थाएं अल्पसंख्यक अभिजन समाज के एकाधिकार के समर्थन में उतर आती हैं.उसकी अगली परिणति बहुसंख्यक जनसमाज पर अल्पसंख्यक अभिजन वर्ग की तानाशाही के रूप में होती है. परिणामस्वरूप संविधान में अंतनिर्हित न्याय और समानता की भावना बहुत पीछे छूट जाती है. संविधान, विशेषरूप से लोकतांत्रिक देशों के संविधान के पक्ष में यह कहा जा सकता है कि वे सामाजिक असमानता का प्रकटतः समर्थन नहीं करते. लेकिन यह भी उतना ही सही है कि उनके अधीन बनी कथित लोकतांत्रिक सरकारें वर्गीय असमानता को दूर करने के गंभीर प्रयासों से सुरक्षित दूरी बनाए रखती हैं, जिससे आमजन और न्याय के बीच की दूरी निरंतर बढ़ती जाती है.
एक बार लागू हो जाने के बार राष्ट्र अपने नागरिकों को निर्दिष्ट करता है कि वे संविधान के अनुबंधों का अक्षरशः पालन करें. यदि कोई उल्लंघन करता है तो उसे कानूनी उलझनों का सामना करना पड़ता है. आशय है कि लागू होने के तुरंत बाद संविधान ऐसा बंद निकाय बन जाता है,जिसके प्रति श्रद्धा राष्ट्रभक्ति तथा संदेह राष्ट्रद्रोह मान लिया जाता है. सरकार और शीर्ष पर विराजमान अल्पसंख्यक अभिजन की कोशिश होती है कि लोग संविधान को चाहे पढ़ें या न पढ़ें,उसके पालन में जरा–भी कोताही न बरतें. संविधान के प्रति उनकी अंधश्रद्धा ठीक वैसी ही होती है,जैसी धार्मिक संस्थाओं की अपने विश्वासों को लेकर. इसके फलस्वरूप अंधश्रद्धा का कारोबार करने वाले लोगों की बन आती है. लोकतांत्रिक छूटों का सहारा लेकर स्वार्थी राजनीतिक दल, कभी लोकहित तो कभी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का नारा लगाते हुए सत्ता में चले आते हैं. प्रकारांतर में वे समाज के वर्गीय विभाजन की जड़ों को मजबूत करने का काम करते हैं, जिससे सामाजिक अंतर्द्वंद्वों को जमीन मिलती है, राष्ट्र विकास की पटरी से उतरकर अंतर्द्वंद्वों के दिखावटी समाहार में जुट जाता है. चूंकि राष्ट्र का संचालन कर रही शक्तियों में अधिसंख्यक लोग अल्पसंख्यक अभिजन वर्ग से संबंधित होते हैं, इसलिए उनका स्वाभाविक झुकाव समाज के शीर्षस्थ वर्गों के हित–संरक्षण की ओर होता है. नतीजा यह होता है कि उत्पीड़ित वर्ग के पक्ष में न्याय की संभावना और भी कम हो जाती है.
एक और बात भी ध्यान देने योग्य है. अभी तक के अनुभव से यह प्रमाणित हुआ है कि संविधान की जरूरत प्रायः उन्हीं समाजों में ज्यादा पड़ती है, जहां आर्थिक–सामाजिक स्तर पर भारी असमानताएं हों, सामाजिक न्याय–व्यवस्था एवं संसाधनों पर मुट्ठी–भर लोगों का अधिकार हो.. ऐसे समाजों में संविधान वंचित वर्ग के मन में न्याय की उम्मीद जगाता है. इसलिए नहीं कि संविधान ऐसा करने में सर्वथा सक्षम होता है. बल्कि इसलिए कि शताब्दियों लंबी राजनीतिक–मानसिक दासता के चलते आमजन का आत्मविश्वास बुरी तरह डगमगाया होता है. उसका आंतरिक बिखराव, अपने ही जैसे लोगों के साथ प्रतिस्पर्धा एवं तज्जनित अंतर्द्वंद्व भी उसे मानसिक रूप से डावांडोल रखते हैं. आपसी सूझबूझ एवं संगठन–सामर्थ्य के बल पर वह परिवर्तनचक्र को अपने बलबूते नई दिशा दे सकता है—आत्मविश्वास की कमी के चलते इसका उसे ख्याल तक नहीं आता. इसलिए लोकतंत्र का सहारा लेकर वह अपना नेतृत्व अपने प्रतिनिधियों को सौंप, स्वयं नेपथ्य में चला जाता है. यह अस्वाभाविक भी नहीं है. लोकतांत्रिक प्रणाली को अपनाने वाले समाजों में, लंबी सामंती दासता से उबरने के बाद जनसाधारण के विवेकीकरण का यह पहला चरण होता है. विवेकीकरण के दूसरे चरण में लोग समझने लगते हैं कि अपने दैन्य से उबरने के लिए उन्हें स्वयं आगे आने आना होगा. इस बोध के पश्चात, अभिजन प्रतिनिधियों के बजाय वे अपने ही समूह के सदस्यों पर विश्वास करने लगते हैं. तदनंतर कॉमन समस्याओं की पहचान की जाती है. उसके बाद ही परिवर्तन की वास्तविक शुरुआत संभव हो पाती है. संविधान की परिकल्पना इसी आदर्श को सामने रखकर की जाती है.लेकिन इतिहास में ऐसा उदाहरण दीया लेकर खोजने पर भी नहीं मिलेगा जहां संविधान दूसरे चरण में सफल हो पाया हो. लोकतंत्र के पहले चरण में शीर्ष पर विराजमान शक्तियां समस्त सत्ता–केंद्रों पर अपना अधिकार जमाकर उन्हें ऐसी दिशा देने में कामयाब हो जाती हैं, जो संविधान–सम्मत विकास की मूल भावना से एकदम परे होती है. इससे जनसाधारण के लिए दिल्ली उत्तरोत्तर दूर होती जाती है.
संविधान प्रायः उन अर्ध–लोकतांत्रिक अथवा सामंती समाजों में अपनाया जाता है, जिनमें अत्यधिक आर्थिक–सामाजिक विषमताएं और अंतर्द्वंद्व हों. सार्थक विकल्पों के अभाव में संविधान निर्माताओं को उम्मीद होती है कि उसकी मदद से वे समाज के वंचित वर्गों को एकजुट कर उन्हें अपने अधिकारों के प्रति जागरूक और संप्रेरित कर सकेंगे. व्यवहार में उसके एक छोर पर पर वे लोग होते हैं जो संविधान की धाराओं का जोड़–तोड़ द्वारा अपने पक्ष में उपयोग करने में सक्षम होते हैं.संविधान विशेषज्ञों की बड़ी फौज उनकी मदद को तैयार होती है. दूसरी ओर साधारणजन रहता है,जिनके हितरक्षण हेतु संविधान विशिष्ट प्रावधानों का दावा करता है. विडंबना यह है कि संविधान को समझने तथा उसकी व्यवस्थाओं का लाभ उठाने के लिए यह वर्ग पूरी तरह समाज के प्रभुवर्ग पर आश्रित होता है. इस कारण वह संविधान प्रदत्त लाभों से वंचित रह जाता है. लंबे शोषण एवं उत्पीड़न के दौरान ऐसे क्षण अकसर आते हैं जब जनसाधारण को अपने छले जाने का बोध हो और उसे शीर्षस्थ वर्ग की मनमानी अखरने लगे. लेकिन उपयुक्त नेतृत्व एवं प्रेरणाओं के अभाव में जन–गण–मन की यह कचोट सार्थक आक्रोश में ढलने में नाकाम सिद्ध होती है. यदि असंतोष की चिंगारी उठे भी तो यथास्थिति बनाए रखने के लिए समाज का प्रभुवर्ग तानाशाहीपूर्ण आचरण पर उतर आता है.
उल्लेखनीय है कि संविधान के जटिल प्रावधान व्यापक लोकहित की दुहाई देते हुए बनाए जाते हैं.चूंकि जिनके नाम पर वे प्रावधान होते हैं, विभिन्न कारणों से वे उन्हें समझ पाने में असमर्थ होते हैं, इसलिए आवश्यकता पड़ने पर उन्हें अभिजन विशेषज्ञों की शरण में जाना ही पड़ता है. विभिन्न दबावों के बीच जनसाधारण को अभिजन वर्ग के तानाशाही पूर्ण आचरण का विरोध करने की न तो छूट होती है, न इसका उन्हें अवसर मिल पाता है. इस अवस्था में संविधान केवल दिखावे और मनबहलाव की चीज बनकर रह जाता है.
सहविधान
सवाल है कि सहविधान और संविधान को अलग–अलग करके कैसे देखा जाए? दोनों एक–दूसरे से कहां मिलते और किन बिंदुओं पर अपनी स्वतंत्र राह ले लेते हैं? उनके संधि–स्थल एवं विरोध–बिंदुओं की पहचान कैसे की जाए? यह बहुत उलझनवाली बात भी नहीं है. संविधान को हम लोकतंत्र का संरक्षक कह सकते हैं. जबकि सहविधान न केवल लोकतंत्र के जिम्मेदार संरक्षक का दायित्व निभाता है, बल्कि लोगों की जीवनशैली में ढलकर मनोभौतिक एवं समाजार्थिक विकास का वातावरण तैयार करता है. दूसरे शब्दों में सहविधान ‘अपूर्ण लोकतंत्र’ से ‘संपूर्ण जनतंत्र’ को प्राप्त करने की यात्रा है.इसके लिए व्यक्ति और समाज दोनों के विवेकीकरण एवं सामंजस्यपूर्ण प्रयत्न आवश्यक होते हैं.सहविधान चुनींदा व्यक्तियों अथवा घटकों के नेतृत्व में होने वाली प्रयाण यात्रा, जिसमें कुछ अतिसक्रिय लोग, लोकतांत्रिक प्रक्रिया के बूते आगे बढ़कर राज्य की बागडोर संभाले रहते हैं, तथा पूरा समाज शासक और शासित में बंटा होता है—से पूरी तरह भिन्न है.
सहविधान में प्रत्येक व्यक्ति अपने परिवार, समाज और फिर राज्य के साथ पूरे जोश एवं उछाह से जुड़ा होता है. उसमें न कोई बड़ा होता है न छोटा. न निदेशक होता है न ही निदेशित. यदि कुछ अंतर हो भी तो वह परिस्थितिगत होता है. जिसे पाटने की भरपूर स्वतंत्रता और समूह के सदस्यों का संपूर्ण भरोसा, उस सदस्य को सहज प्राप्त होता है. दूसरी ओर संविधान में वर्णित लोक एक अमूर्त्त धारणा है. सहविधान लोकतंत्र पर जनतंत्र को वरीय बनाकर उसे लौकिक संस्कार देता है.फलस्वरूप वह राजनीति का ऐसा विधान बन जाता है, जिसमें राज की समस्त शक्तियां निचुड़कर उसकी सदस्य इकाइयों के हाथों में चली आती हैं और समाज–देश के समस्त कार्यकलाप जनसंगठनों द्वारा संचालित पूर्णतः विकेंद्रीकृत संस्थाओं और दलों द्वारा संपन्न होने लगते हैं. दूसरे शब्दों में सहविधान, संविधान में फलने–फूलने वाली विशेषज्ञ संस्कृति को जनसंस्कृति में परिवर्तित कर देने वाली युगांतरकारी यात्रा का प्रबंध–काव्य है, जिसकी रचना जनता द्वारा अपने सहज विवेक और समन्वयकारी चेतना के बल पर की जाती है.
लोकतांत्रिक समाजों में ऐसे क्षण प्रायः आते हैं जब संविधान–प्रदत्त छूटों का लाभ उठाते हुए विशेषज्ञ शक्तियां निर्णायक पदों पर विराजमान हो जाती हैं और वे शेष समाज का संचालन निहित स्वार्थ के अनुसार करने लगती हैं. वे ऐसा वातावरण रचते हैं जिससे शासित जनसमाज के लिए उनके शीर्षत्व को चुनौती देना असंभवप्रायः हो जाए. परिणामस्वरूप वहां धार्मिक और समाजार्थिक स्तरीकरण पनपने लगता है. जनचेतना के अभाव में वह निरंतर बढ़ता ही जाता है. सहविधान में अधिकारों एवं कर्तव्यों का नियोजन इस प्रकार होता है कि वहां कोई भी व्यक्ति अपने पद, प्रतिष्ठा, धन–संपदा,रंग, पारिवारिक हैसियत, कुल, गौत्र, जाति, लिंग अथवा किसी भी अन्य लौकिक कारण से दूसरों पर अधिपत्य जमाने की स्थिति में नहीं रहता. प्रत्येक नागरिक इस भावना से बंधा होता है कि उसका अस्तित्व दूसरों पर निर्भर है. इसलिए अपने सुख–सम्मान को पाने का एकमात्र रास्ता है कि दूसरों के सुख और सम्मान का ख्याल रखा जाए. जनसंस्कृति की यह अंकुराहट कालांतर में समानतावादी,समरस समाज की स्थापना के लक्ष्य को पाने में सहायक होती है.
सहविधान का उद्देश्य है औपचारिक सरकार के लिए अवसरों को शून्य की स्थिति में ले आना. एक–एक कर उन सभी कारणों का उन्मूलन जो सरकार की सर्वस्वीकार्यता को अनिवार्य बनाते हैं. यह तभी संभव है जब लोग जागरूक और आत्मानुशासित हों. वे यह भली–भांति जानते हों कि उनके विकास, शोषण एवं उत्पीड़न से मुक्ति के लिए कोई उनकी मदद को आगे आने वाला नहीं है. इसके लिए उन्हें स्वयं प्रयास करना होगा. वर्गीय हितों को पहचानकर उन लोगों के साथ मिलजुलकर आगे बढ़ना होगा, जो उन्हीं भांति शोषित और उत्पीड़ित हैं. उन लोगों के साथ साझा करना करना जो उन्हीं के समान परिस्थितियों में जी रहे हैं. हो सकता है कि इतिहास में कुछ ऐसे उदाहरण उन्हें मिलें जब किसी महापुरुष ने वर्गीय हितों से ऊपर उठकर जनसामान्य के कल्याण के लिए ईमानदार प्रयास किए हों और उनसे समाज वास्तविक परिवर्तन की डगर पर आगे बढ़ा हो. ऐसे महापुरुषों के प्रति सम्मान व्यक्त करना हमारा कर्तव्य है. लेकिन यह समझना भी जरूरी है कि महापुरुषों के उत्तराधिकारी लंबे समय तक अपने कर्तव्य और सोच के प्रति ईमानदार नहीं रह पाते. वे महापुरुष के आदर्शों का मिथकीकरण कर, उन्हें बड़ी आसानी से अपने वर्गीय हितों के समर्थन में उतार देते हैं.ऐसे माहौल में आमूल परिवर्तन की संभावना कमजोर पड़ती जाती है. जनसामान्य को यह हकीकत बहुत देर से समझ में आती है कि वास्तविक एवं स्थायी परिवर्तन तभी संभव है जब समाज और व्यवस्था का नियंत्रण उसके अपने हाथों में हो.
सहविधान का आशय ऐसी व्यवस्था से भी है जिसमें सबकी स्वैच्छिक सहभागिता हो. इस उत्तरदायी तंत्र के एक छोर पर मनुष्य होगा. अपनी स्वतंत्रता, मर्यादा, इच्छा–आकांक्षा, कर्तव्यनिष्ठा से युक्त स्वतंत्र, विवेकवान इकाई. दूसरे छोर पर समाज को रखा जाएगा. विभिन्न वर्गों, क्षेत्रीय विषमताओं,संस्कृति, धन–संपदा के साथ अनेकता में एकता तथा सामूहिक विवेक की प्रतीति कराता मानव समुदाय. यहां समाज की मेरी कल्पना वैसी नहीं है जैसी इसे सामान्यतः समझा जाता है. प्रायः समाज को व्यक्ति से बड़ा माना जाता है. अपने भीतर अनेक मानव इकाइयों को समाहित रखने के कारण कदाचित वह बड़ा है भी. अनेक एकल इकाइयों के हित जुड़े होने के कारण समाज–हित में व्यक्ति का बलिदान करना प्रशंसनीय कर्तव्य माना जाता रहा है. किंतु यदि स्वतंत्रता के लिहाज से देखा जाए तो सहविधान में जितनी स्वतंत्रता समाज के लिए जरूरी है, उतनी ही जरूरी व्यक्ति की स्वतंत्रता भी है. स्वतंत्रता के मामले में सहविधान में व्यक्ति दूसरे पक्ष यानी समाज से न एक अंश कम होगा, न एक अंश ज्यादा. उनकी स्वतंत्रता अपनी–अपनी जगह पूर्ण, समानांतर और महत्त्वपूर्ण मानी जाएगी.
पूर्ण स्वातंत्र्य एवं सहअस्तित्व के लिए दोनों यह स्वीकार करेंगे कि उनकी स्वतंत्रता एक–दूसरे पर निर्भर है. सहविधान में स्वतंत्रता की कसौटी इससे तय होगी कि वह मनुष्य की प्राकृतिक स्वच्छंदता के कितनी निकट है. समाज के गठन से पहले या समाज से मुक्त होने के बाद जितनी स्वच्छंदता की कल्पना मनुष्य अपने लिए कर सकता है, वह उसको न्यूनतम कटौती के साथ प्राप्त होनी चाहिए. न्यूनतम कटौती का मापदंड समाज और मनुष्य के सहसंबंधों को स्थायी एवं उत्पादन–सक्षम बनाए रखने की आवश्यकता के अनुसार तय किया जाना चाहिए. इसमें कानून और अनुशासन के नाम पर अधिकारों में कटौती न्यूनतम होगी. सहविधान अपने प्रत्येक नागरिक से यह अपेक्षा करेगा कि वह स्वयं को नैतिकता के उच्चतम मापदंड के अनुरूप मर्यादित करें और दूसरों के साथ सहयोग करते हुए समाज–कल्याण की राह पर आगे बढ़े.
संक्षेप में सहविधान ‘अपूर्ण लोकतंत्र’ से ‘संपूर्ण जनतंत्र’ तक की यात्रा होगी. इस दृष्टि से देश के इतिहास में ‘बड़ा दिन’ वह होगा जब हम ‘गणतंत्र दिवस’ के स्थान पर ‘जनतंत्र दिवस’ कहकर पुकार सकेंगे तथा प्रस्तावित ‘जनतंत्र दिवस’ ‘गणतंत्र दिवस’ की भांति केवल उत्सवी आयोजन न होकर लोगों की संस्कार–चेतना का हिस्सा होगा. वह कागजी व्यवस्था तक सीमित न होकर सचमुच का जनतंत्र होगा, जिसमें नागरिक अधिकारों और कर्तव्यों की व्याख्या उस अर्थ में फिजूल मानी जाएगी क्योंकि समूह–समाज के सभी सदस्य अपने–अपने कर्तव्य एवं अधिकारों के प्रति स्वतः जागरूक होंगे तथा उन्हें पाने के लिए अंतःस्फूर्त्त प्रेरणा से प्रवृत्त भी होंगे. सहविधान का मूल मंत्र होगा—‘हितों का सामान्यीकरण, अपने समूह एवं समाज के प्रति पूर्ण प्रतिबद्धता तथा साझा प्रयास.’ सहविधान में शिक्षा, धर्म, राजनीति, अर्थव्यवस्था, अंतराष्ट्रीय संबंध, उत्पादन, विपणन, न्याय, कानून, प्रशासन,लोकनीति आदि का स्वरूप इस प्रकार तय होगा कि वे विकास की सार्वजनीन प्रक्रिया, मानव स्वातंत्र्य तथा उच्चतम जीवनमूल्यों द्वारा परिचालित हों.
शिक्षा
शिक्षा के सामान्यतः तीन उद्देश्य होते हैं. अपने लिए, यानी अपना बौद्धिक परिष्कार. यह सोचना कि समाज के लिए स्वयं को अधिकाधिक उपयोगी कैसे बनाया जा सकता है? फिर उस दिशा में संकल्पबद्ध हो आगे बढ़ना. दूसरा अपने ज्ञान और कौशल का समाज के हित के उपयोग. तदनुसार समाज में रहते हुए अपनी उपयोगिता सिद्ध करना तथा सामाजिक विकास को गति प्रदान करना.शिक्षा का तीसरा उद्देश्य ज्ञान को सहेजने और विस्तार देने के लिए है. ये तीनों ही भेद व्यावहारिक हैं. बारीकी से सोचा जाए तो इनमें कोई अंतर है ही नहीं. समाज और व्यक्ति दोनों ही अन्योन्याश्रित हैं. एक–दूसरे पर निर्भर, एक–दूसरे से बंधे हुए. इसलिए उनके हित भी आपस में जुड़े हैं. व्यक्ति द्वारा अर्जित ज्ञान में समाज का भी साझा होता है. उन लोगों का भी जो कभी समाज का हिस्सा थे; और अब केवल स्मृतियों में हैं. इस तरह व्यक्ति और समाज दोनों का हित ज्ञान की सुदीर्घ परंपरा को सहेजने और उपयुक्त विस्तार देने में है. व्यक्ति की कार्यकुशलता का अधिकतम सदुपयोग समाज में रहकर ही संभव है. शिक्षा व्यक्ति को समाज के लिए उपयोगी बनाती है. उसे वह आत्मविश्वास देती है जो अच्छे और बुरे की पहचान करने और फिर अच्छाई के मार्ग पर दृढ़तापूर्वक डटे रहने के लिए जरूरी है. अच्छे से अच्छे हलवाई की सर्वश्रेष्ठ मिठाई भी तभी अपना महत्त्व रखती है, जब उसका कोई भोग करने वाला हो. अपने लिए तो कोई रोज–रोज मिठाई नहीं बना सकता! फिर अच्छी मिठाई बनाने के लिए जिस सामग्री की दरकार है वह दूसरों की मदद के बिना संभव नहीं. व्यक्ति के ज्ञान, अनुभव, बौद्धिक सामर्थ्य एवं कार्य–कौशल का समाज में रहकर ही उपयोग संभव है. इसी तरह किसी समाज में अनगिनत ज्ञानी–ध्यानी व्यक्ति हों, खूब हुनरमंद और बेमिसाल कारीगर हों, लेकिन यदि उस समाज में तालमेल का अभाव है, यदि वे अपनी ऊर्जा एक–दूसरे को आगे बढ़ाने के बजाय पीछे खींचने में खपाते हैं, तो वहां के लोगों के ज्ञानानुभव और कार्य–कौशल तथा समाजीकरण की प्रक्रिया का होना निरर्थक है. यानी अच्छी शिक्षा व्यक्ति को सहयोग और समभाव के दर्शन से भी परचाती है. किंतु और व्यक्ति का समाज से संबंध एकतरफा नहीं है.व्यक्ति समाज की महत्त्वपूर्ण इकाई है. अतएव व्यक्ति की समाज से भी कुछ स्वाभाविक अपेक्षाएं होती हैं.
यदि कोई समाज अपने शिल्पकारों, श्रमजीवियों, कारीगरों यथा हलवाई, कुंभकार, बुनकर, राजमिस्त्री,बिजली मिस्त्री, बढ़ई, लुहार आदि की प्रतिभा को पहचानता है, मनस्वियों का सम्मान करता है,उनकी कार्यकुशलता के भरपूर उपयोग की योग्यता रखता है, उनके लिए पर्याप्त रोजगार अवसरों का सृजन करता है, यदि वह उनके विकास हेतु व्यापक योजनाएं बनाता है तथा सामूहिक प्रेरणाओं के सिद्धांत के आधार पर उनसे अधिकतम उत्पादकता हासिल करने में कामयाब भी रहता है तो यह उसकी व्यावहारिक सफलता मानी जाएगी. किंतु समाज के गठन का उद्देश्य मात्र इसी से पूरा नहीं हो जाता. न इससे समाज का वास्तविक विकास संभव है. यदि उसके सुधारों की प्रक्रिया यदि यहीं आकर विराम ले लेती है, तब यह मानना पड़ेगा कि वहां समाजीकरण की प्रक्रिया अभी अधूरी है.उसमें कहीं न कहीं खोट है. सदस्य इकाइयां और उनके संगठन सहविधान के दर्शन को समझने में नाकाम रहे हैं; तथा विकास के परम लक्ष्य को हासिल कर रहे जनसमूह के लिए समाजीकरण की कसौटी पर खरा उतरना अभी बाकी है.
आखिर क्या है समाजीकरण की कसौटी? इसकी ओर संकेत हम आरंभ में ही कर चुके हैं. समाज और मनुष्य का संबंध अन्योन्याश्रित है. मनुष्य समाज में अपने सुख की वृद्धि, शांति और समृद्धि के लिए सम्मिलित हुआ है. यह सोचकर कि जिन सुख–सुविधाओं को वह स्वयं अर्जित नहीं कर सकता,उन्हें पाने में समाज उसकी मदद करेगा. समाजीकरण की प्रक्रिया के आरंभ में यही शर्त थी. बदले में व्यक्ति को समाज के साथ हितों का साझा करना पड़ता था और अपनी नैसर्गिक स्वच्छंदता के थोड़े–से हिस्से की कुर्बानी देनी पड़ती थी. उस समय भी जिन्हें यह बंधन अस्वीकार्य था, वे समाज की जकड़न से दूर, यायावरी जीवन बिताते थे. देश–विदेश का साहित्य उनके उदात्त किस्सों से भरा है. किंतु समाज से दूर रहने के बावजूद वे उसके औचित्य पर उंगली कभी नहीं उठाते थे. बल्कि उनका सारा चिंतन समाज के कल्याण के लिए होता था. दूसरे शब्दों में वे खुद को समाज नहीं, मात्र उसके प्रलोभनों से दूर रखते थे. समाज से विलग रहकर भी उसके विकास और कल्याण की चिंता उन्हें हर पल सताती थी. उनमें से कुछ तो इसलिए सामाजिक प्रलोभनों से दूर रहते थे, ताकि समाज को और भी सुंदर भी, और अधिक विकासोन्मुखी बना सकें. इस तरह उनका समाज से छिटके रहना भी लोककल्याण के निमित्त होता था. समाज से भौतिक दूरी बनाए सिद्ध यायावर, लोगों से परस्पर मिल–जुलकर रहने तथा समन्वित विकास के लिए निरंतर प्रयासरत रहने की कामना करते थे—
‘तुम्हारा अध्यवसाय एक हो, तुम्हारे हृदय एक हों, तुम्हारा अंतःकरण एक हो, और तुम लोगों का संगठन अटूट हो.’1
ऋग्वेद की इस प्रार्थना में उदगाता ऋषि उपद्रष्टाओं के संगठित होने की कामना करता है. वहां स्पर्धा नहीं मैत्री और सहयोग का दर्शन है. इसे महाभारतकार ने कुछ अलग ढंग से कहा है. ‘न मानुषात श्रेष्ठतरं हि किंचित.’ सृष्टि में मनुष्य से श्रेष्ठतर कुछ भी नहीं है, कहकर वह मनुष्य को विमर्श के केंद्र में ले आता है. यह बात अलग है कि भारतीय वाङमय की, इस विरल किंतु नैतिकतावादी अवधारणाओं पर भारत में बहुत कम काम हो पाया है. उस अनुपात में तो और भी कम जितना उस दौर में चीन और प्राचीन यूनान में हुआ. पश्चिमी विचारकों में यदि हम देखें तो सुकरात, प्लेटो और अरस्तु आदि से लेकर इमानुएल कांट, स्पिनोजा, बट्रेंड रसेल, आस्कर वाइल्ड तक नैतिकतावादी चिंतन की वहां सुर्दीर्घ परंपरा रही है. चीन में भी बुद्ध के समकालीन कन्फ्यूशियस ने शिक्षा में नैतिक मूल्यों को बनाए रखने पर जोर दिया. उसका कहना था शिक्षा और ज्ञान पर सभी का समानाधिकार है. इसलिए सभी बच्चों को बगैर किसी भेद–भाव के शिक्षा मिलनी चाहिए.कन्फ्यूशियस द्वारा अकेले दम पर संचालित विद्यालय में तीन हजार से ऊपर विद्यार्थी थे और वहां दर्शन, राजनीति, शिल्पकला, युद्धनीति आदि की शिक्षा दी जाती थी. ईसा से भी पांच शताब्दी पहले यह बात बहुत मायने रखती है. ‘इल्म के लिए चीन भी जाना पड़े तो जाना चाहिए.’ यह कहावत कन्फ्यूशियस जैसे महान शिक्षकों के अवदान के कारण ही बनी है. इसके पीछे उन जिज्ञासुओं का भी बड़ा योगदान था, जो कष्ट सहकर भी ज्ञान को सहेजना चाहते थे. इसके विपरीत भारत में शिक्षा पर खास वर्गों का विशेषाधिकार माना गया. ऊपर से मनुष्य की स्वाभाविक नैतिकता को धर्म से आच्छादित कर दिया गया.
व्यक्ति और समाज के बीच बेहतर तालमेल के लिए ज्ञानाधारित समाज की स्थापना कैसे संभव हो,पश्चिम में इस पर शुरू से ही विचार होता रहा है. वहां विचारकों ने लोगों के बीच रहकर शिक्षा और नीति–दर्शन के प्रसार के लिए कार्य किया. इसके लिए अपने निजी सुख यहां तक की परिवार की भी परवाह न की. यूनानी दार्शनिक सुकरात का निजी जीवन बहुत कष्टमय था. पत्नी चिड़चिड़ी थी. घर में क्लेश रहा करता था. इसके बावजूद वह अपनी शिष्यमंडली से घिरा मनुष्यता की बेहतरी की चिंता में डूबा रहता था. जिस समाज में वह रहता था, जिसके कल्याण के लिए वह हमेशा विचारमग्न रहता था—उसी ने उसे जहर पीने को विवश किया. सुकरात ने विनम्र रहकर समाज के उस अतिचार को सहा और जहर गले में उतार लिया. उस ‘शुभत्व’ की मान–रक्षा के लिए जिसे वह मानवमात्र के जीवन का लक्ष्य बनाना चाहता था. सुकरात के अनुसार शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य है,व्यक्ति को अपने लक्ष्य के प्रति समर्पित कर उसको पाने योग्य बनाना. तदनंतर उसे अपने परमलक्ष्य यानी ‘शुभत्व’ की प्राप्ति हेतु अग्रसर करना. शुभत्व नैतिकता की चरमसीमा है, जिसमें मानवमात्र के विकास और पूर्ण कल्याण की भावना सन्निहित है.
अरस्तु ने मनुष्य को विवेकशील प्राणी कहा है. उसके अनुसार विवेक की सफलता जीवन को समग्रता से देखने में है. प्लेटो का आदर्शवाद अरस्तु की चिंतनधारा में आकर व्यावहारिक चिंतन में ढल जाता है. उसका मानना था कि शासन–व्यवस्था चाहे जैसी हो, यदि वह लोककल्याण को समर्पित है, तो शुभ है. अरस्तु जीवन को समग्रता से देखता था. यह कला स्पर्धायुक्त समाजों में नहीं आती.इसलिए कि स्पर्धा समाज को बांट देती है. उसमें एक–दूसरे को पीछे ढकेल, आगे निकलने की होड़ कर रहे व्यक्तियों का समूह होता है, जिनका दूसरों के सुख–सुविधाओं से कोई संबंध नहीं होता. उनमें से प्रत्येक अपना स्वार्थ देखता है. दूसरों को दौड़ में पछाड़कर वह आगे निकल जाने को आतुर रहता है. सीधी तरह से काम न चले तो उसके लिए कुटिल चालें चली जाती हैं. स्पर्धा की और भी सीमाएं है. उसका लाभ हर कोई नहीं उठा सकता. उसमें बराबरी नहीं, आगे–पीछे की दौड़ होती है. उस दौड़ में एक वर्ग का पीछे छूट जाना लाजिमी होता है, जिसे उस व्यवस्था की स्वाभाविक नियति मान बड़ी बेदर्दी से बिसरा दिया जाता है.
स्पर्धायुक्त समाजों में एक समूह ऐसा भी होता है, जो चाहकर भी उससे नहीं जुड़ पाता. वह खुद को अलग रखने के लिए विवश होता है. इसमें नुकसान भी उस वर्ग का अधिक होता है. इसलिए कि वह दौड़ में उतरने से पहले ही वह स्वयं को पराजित मान लेता है. स्पर्धा के एकाधिकारवादी माहौल में ऐसे लोगों के लिए न जगह होती है, न उनके प्रति किसी की सहानुभूति. ‘दौड़ में आगे रहने वाले को अधिकतम’—के सिद्धांत के चलते किसी कारणवश पीछे छूट गए समूह निरंतर पिछड़ते जाते हैं. इससे विषमता पनपती है. शिक्षा का काम ऐसे लोगों को एकजुट करना है. उनमें यह विश्वास पैदा करना है कि स्पर्धा नहीं, सहयोग के आधार पर वे आगे निकल चुके समूहों को चुनौती दे सकते हैं. उन्हें समझाया जा सकता है कि आगे निकल चुके समूह हमेशा आगे रहने वाले नहीं हैं. क्योंकि उनकी अंतहीन स्पर्धा और अंत–संघर्ष, एक–दूसरे को टंगड़ी मार आगे बढ़ जाने की उनकी सहज–वृत्ति, जिसे वे व्यावसायिक कौशल का नाम देते हैं—उन्हें एक–दूसरे की काट करने को प्रेरित करती रहेगी. इससे शिखर पर मौजूद शक्तियों का एक न एक दिन नीचे आना तय है. आशय है कि स्पर्धायुक्त समाजों में शीर्ष पर, जहां उसके सर्वाधिक संसाधन और बौद्धिक संपदा जुटी होती हैं, वहां भी घोर अनिश्चितता का माहौल रहता है. अंतर केवल इतना है कि शीर्ष पर मौजूद लोगों के पास संसाधनों का जखीरा होता है, जरूरत पड़ने पर सरकार और अन्य संस्थाएं भी उनकी मदद को आ जाती हैं.इसलिए कड़ी स्पर्धा के बीच वे देर तक संघर्ष करने और अपनी हैसियत को बनाए रखने में सक्षम होते हैं. जबकि श्रमिक वर्ग को केवल अपने श्रम—कौशल के साथ अपने ही जैसे साधन—विपन्न लोगों से स्पर्धा करनी पड़ती है. सिवाय चंद सरकारी आश्वासनों के उनके समर्थन में कोई नहीं आता.इसलिए स्पर्धा उसके अस्तित्व के लिए चुनौती बनकर आती है. व्यावसायिक अनिश्चितता ऊपरले वर्गों को और अधिक स्वार्थी, शंकालू एवं क्रूर बनाती है. परिणामस्वरूप उनके निर्णयों में व्यावसायिक हिंसा एवं स्वार्थपरता का अनुपात बढ़ता ही जाता है. इसका नुकसान अपने श्रम–कौशल के बल पर जीवनयापन करने वाले लोगों को अधिक होता है. उच्च–तकनीक और स्पर्धा के चलते उत्पादनतंत्र में उनकी भूमिका निरंतर घटती जाती है.
शिक्षा का प्रमुख कार्य है ज्ञान–विज्ञान को सहेजना, उसको आगे बढ़ाने के साथ मनुष्य में यह विवेक पैदा करना कि उसका अस्तित्व दूसरों के साथ सुरक्षित है. न केवल अपनी दैनिक आवश्यकताओं,बल्कि अपने अस्तित्व के लिए भी वह दूसरों के सहयोग पर निर्भर है. अतएव सहविधान के अंतर्गत मैं ऐसी शिक्षा प्रणाली का पक्ष लूंगा जो व्यावहारिक और सरलतम हो. जो लोगों में सहकार–दर्शन के प्रति विश्वास लगाए तथा उनके विज्ञानबोध का विस्तार करे. मनुष्य की आंतरिक अच्छाइयों को बाहर लाकर उसे शुभत्व की डगर पर आगे ले जाए तथा नवीनतम ज्ञान की राह प्रशस्त करे.सहविधान में शिक्षा ‘शुभत्व’ के पवित्र लक्ष्य को समर्पित होगी. यहां ‘शुभत्व’ का अभिप्राय है,अधिकतम लोगों का अधिकतम कल्याण और सुख का न्यायिक विभाजन. तदनुसार सहविधान में शिक्षा का तीसरा और वास्तविक लक्ष्य होगा—लोगों के मन–मस्तिष्क से आपसी द्वैत का उन्मूलन.स्पर्धा को पूर्ण तिलांजलि. समाज का मैत्री, बंधुत्व, समानता, सहयोग, सद्भाव एवं सर्वकल्याण की भावना के अनुरूप संचालन. इसके लिए व्यक्ति और समाज के बीच बराबरी का नाता अनिवार्य है.
इधर समाज में विज्ञान शिक्षा का बड़ा जोर है. सुनियोजित एवं त्वरित विकास बगैर विज्ञान और तकनीक की सहायता के संभव नहीं. समाज को अज्ञानता की रूढ़ियों से बाहर निकालने के लिए भी वैज्ञानिक शिक्षा अनिवार्य है. बच्चों को विज्ञान और तकनीक की आधुनिकतम शिक्षा मिले,सहविधान में इसकी भी माकूल व्यवस्था होगी. ऐसी विज्ञान और तकनीक के आविष्कार पर जोर दिया जाएगा, जो लोगों के श्रम–कौशल का सम्मान करे, उसे विस्तार दे. उन्हें अनावश्यक श्रम तथा खतरों से बचाए. जो सस्ती तथा अधिकतम लोगों की सीधी पहुंच में हो. इतनी सरल हो कि उसे आसानी से इस्तेमाल किया जा सके. लोग अपनी जरूरत के अनुसार उसमें आवश्यक संशोधन भी कर सकें. वैज्ञानिक आविष्कार यूं तो आज भी संपूर्ण समाज की थाती कहे जाते हैं. लेकिन व्यवहार में ऐसा होता नहीं है. बौद्धिक संपदा कानून और पेटेंट जैसी पूंजीवादी व्यवस्थाएं उनपर कुछ समूहों के एकाधिकार को वैध ठहराती हैं. इससे उनका लाभ समाज के कुछ वर्गों तक सीमित होकर रह जाता है. समाज का वह वर्ग जो अपने श्रम–कौशल पर जीना चाहता है, जो वास्तविक उत्पादक और सर्वहारा है, उसके लाभों से वंचित रह जाता है.
सहविधान में वैज्ञानिक आविष्कार के क्षेत्र में पेटेंट व्यवस्था के लिए कोई स्थान न होगा. सवाल उठाया जा सकता है कि यदि किसी वैज्ञानिक या इंजीनियर को उसके आविष्कार का सीधा लाभ न मिला तो वह शोध की थकाऊ स्थितियों में खुद को क्यों खपाएगा! इस बारे में जो मूलभूत भ्रांति है उसे मैं पहले ही दूर कर देना चाहता हूं. पेटेंट व्यवस्था या बौद्धिक संपदा कानून का आविष्कार किसी वैज्ञानिक के दिमाग की उपज नहीं है. वह सीधे–सीधे पूंजीवाद के एकाधिकारवादी आचरण की खोज रही है. उनीसवीं शताब्दी तक के आविष्कारों में से अधिकांश वैज्ञानिकों के निजी श्रम–कौशल का सुफल थे. उनके पीछे व्यक्तिगत लाभ उठाने की मंशा उतनी न थी जितनी आज है. उत्पादन व्यवस्था के पूंजीवादी ताकतों के हाथों में जाने के बाद वह निरंतर विस्तार लेती गई. यदि पेटेंट हुए भी थे तो वास्तविक शोधकर्ताओं के नाम, जिन्हें उपयुक्त शुल्क चुकाने पर कोई भी इस्तेमाल कर सकता था. औद्योगिक क्रांति ने जोर पकड़ा तो वैज्ञानिक शोधों पर भी पूंजी का एकाधिकारवादी रवैया हावी होता चला गया. बड़े औद्योगिक घरानों ने वैज्ञानिकों को मोटा वेतन देकर नौकरी पर रखना आरंभ कर दिया. इससे जो आविष्कार हुए वे पूंजीवादी ताकतों के कब्जे में चले गए.आविष्कार भी वही हुए जिनसे पूंजीपतियों को सीधा लाभ पहुंचे. उनका एकाधिकार मजबूत हो. यह एक तरह से समाज की कुल मेधा को निहित स्वार्थ के लिए कैद कर लेने जैसा उपक्रम था.
सहविधान में ऐसी स्वार्थपरता के लिए कोई स्थान न होगा. वैज्ञानिक शोधों को बढ़ावा देने के लिए वहां भी हर संभव प्रयास किए जाएंगे. और उनके शोध पर समाज का अधिकार होगा. यहां पुनः एक शंका खड़ी हो सकती है. यह कि ऊंचे वेतन और सुविधाओं के बीच काम करने के अभ्यस्त वैज्ञानिक कम परिलब्धियों के लिए क्यों तैयार होंगे? और सुविधाओं के अभाव में क्या वैज्ञानिक शोधों की गति को बनाए रखा जा सकता है. एक एक बड़ी चुनौती है. यही सहविधान की सफलता की कसौटी होगी. परंतु इसका निदान सहविधान की स्थापना की उस अवधारणा में छिपा है जो आर्थिक लाभ को सामाजिक लाभ में बदल देने पर जोर देगी. वैज्ञानिक आविष्कार भी सामाजिक लाभ की मूल सैद्धांतिकी को ध्यान में रखकर किए जाएंगे. सहविधान में बड़ी मशीनों और आधुनिकतम तकनीक के लिए भी जगह होगी. लेकिन उनपर निर्वाचित संगठनों का अधिकार होगा. वे समूह और समाज की संपत्ति माने जाएंगे. उनका उपयोग इस प्रकार किया जाएगा कि उनकी सघन उत्पादकता का लाभ समाज के सभी वर्गों को एकसमान रूप से पहुंचे. उसपर कुछ लोगों अथवा उनके समूह का एकाधिकार न हो. इसके लिए ‘आर्थिक लाभ’ के स्थान पर ‘सामाजिक लाभ’ की अवधारणा को अपनाया जाएगा.
समाज में वैज्ञानिक शिक्षा को नैतिक शिक्षा जितना ही सम्मान प्राप्त होगा. लेकिन यदि विज्ञान और नैतिक शिक्षा के बीच चयन का अवसर आन पड़े तो वहां नैतिक शिक्षा को पहले स्थान पर रखूंगा.इस डर से कि नैतिक शिक्षा का अर्थ लोग धार्मिक शिक्षा न निकालने लगें, मैं वही कहूंगा जो अन्यत्र इससे पहले भी कह चुका हूं. मेरे विचार में नैतिकता धर्म का एकमात्र संबल है. अपनी प्रासंगिकता सिद्ध करने के लिए नैतिकता को धर्म के सहारे की आवश्यकता नहीं पड़ती. जबकि धर्म नैतिकता के बगैर केवल कर्मकांडीय टीमटाम है. धर्म से अध्यात्म तक की यात्रा को संभव बनाने के लिए यह कोशिश की जाएगी की समाज में पर्याप्त वैज्ञानिक बोध हो. यह लक्ष्य दर्शन और विज्ञान की नियमित शिक्षा द्वारा प्राप्त किया जा सकता है.
नैतिकता को विज्ञान से ऊपर रखने का निर्णय भी सोचा–विचारा है. सहविधान में नागरिक स्वतंत्र,विवेकवान इकाई के रूप में, सामान्य नैतिकता और कल्याण–भावना के साथ एकजुट होकर काम करेंगे. इसके फलस्वरूप वैज्ञानिक शोधों में कमी नहीं आएगी. यदि एकाध अवसर हाथ से चला भी जाता है तो सहयोग, समन्वय और संगठन–सामर्थ्य के बल पर उस कमी को पूरी कर लिया जाएगा.यदि नैतिकता न रही तो वैज्ञानिक आविष्कारों का दुरुपयोग होगा. लोग उनका अपने स्वार्थानुरूप उपयोग करने के लिए स्वतंत्र होंगे. वह समाज में भयानक समाजार्थिक स्तरीकरण का कारण बनेगा.समाज में ऊंच–नीच की खाइयां बनेंगी. ऐसे में यदि युद्ध हुआ तो वह पूरी दुनिया को शताब्दियों पीछे ढकेल देगा. इसलिए शिक्षा का नैतिक होना, कानून की परिभाषा में न्यायसंगत होने से कहीं ज्यादा जरूरी है. मनुष्यता का महान शिक्षक कन्फ्यूशियस नैतिक शिक्षा पर जोर देते हुए कहता है—
‘कानून एवं दंड–प्रणाली द्वारा शासित राज्यों में लोग केवल इतना जानते हैं कि खुद को कानूनी अड़चनों से कैसे बचाया जाए. ऐसा करते समय उन्हें शर्म भी नहीं आती. जबकि ‘सद्गुण’ एवं ‘नैतिकता’ प्रधान शिक्षा पाए नागरिक अनजानी गलती पर भी न केवल ग्लानिबोध से भर जाते हैं, बल्कि खुद को स्वयं सुधारना भी जानते हैं.’2
जन्म से सभी बालक एकसमान होते हैं. सभी का मस्तिष्क कोरी स्लेट जैसा होता है. शिक्षा के आधार पर उनके अनुभव और ज्ञान का दायरा बंटता है. इसलिए शिक्षा को लेकर किसी भी प्रकार का पक्षपात, एकाधिकार अथवा मनमानी, चाहे किसी भी वर्ग की क्यों न हो—अस्वीकार्य होगी.सहविधान में सभी वर्गों के लिए एक समान शिक्षा की व्यवस्था होगी. इसका अर्थ यह नहीं कि प्रत्येक विद्यार्थी को इतिहास पढ़ना पड़ेगा; या कविता में रुचि रखने वाले विद्यार्थी को गणित में अपना दिमाग खपना ही पड़ेगा. इसका बस इतना अभिप्राय है कि जो विद्यार्थी इतिहास पढ़ना चाहता है, उसको उस विषय में शिक्षा और रोजगार के उतने ही अवसर प्राप्त होंगे, जितने उस विद्यार्थी को जो अपनी रुचि के अनुसार विज्ञान पढ़ा है—प्राप्त हैं. लेकिन समाज, राजनीति, दर्शन और नैतिक शिक्षा सभी के लिए अनिवार्य होगी. शिक्षा का ढांचा इस प्रकार बनाया जाएगा ताकि वह लोगों को संगठित के स्तर पर प्रतिस्पर्धी बनाए और सम्मिलित हितों के लिए कार्य करने को प्रेरित करे. इसके लिए ऐसे शिक्षकों की आवश्यकता होगी, जो बिना किसी गुरुताबोध के पढ़ाने के लिए आगे आएं. कक्षा में आकर जो स्वयं को विद्यार्थी ही समझें और छात्रों को ज्ञान बांटने के साथ–साथ उनसे कुछ ग्रहण करने का साहस भी दिखला सकें. जो विद्यार्थियों को समझाएं कि मनुष्य सामान्यतः भला होता है. यदि उसमें कुछ विचलन है तो उसके लिए वह अकेला जिम्मेदार नहीं.उसका परिवेश भी समानरूप से जिम्मेदार है. इसलिए यही न्याय संगत है कि स्थितियों के समग्र विवेचन के बाद निर्णय लिया जाए. उन्हें यह भी समझाया जाना चाहिए कि लोकहित के कार्य को आगे बढ़ाना उसपर बातचीत करने से कहीं ज्यादा जरूरी है. अतीत में इस बारे में बातें अधिक होती रही हैं. वास्तविक काम बहुत कम हो पाया है. इससे विद्यार्थियों की समाज के प्रति अनुराग में वृद्धि होगी, साथ ही उनमें कर्तव्यनिष्ठा भी जगेगी.
शिक्षार्जन के दौरान विद्यार्थी को जाति, धर्म, गौत्र वर्ण आदि की कम से कम शिक्षा मिलनी चाहिए.उसे निरंतर यह बोध होना चाहिए कि ‘अपने लिए’ और ‘समाज के लिए’ शिक्षा की अवधारणा में कोई व्यावहारिक अंतर नहीं है. देखा जाए तो दोनों एक ही सिक्के के दो पक्ष हैं. मनुष्य शिक्षा ग्रहण करता है तो उसकी समाज के लिए उपयोगिता बढ़ जाती है. उधर समाज का भी दायित्व है कि वह बालक को वह सब सिखाए जो उसके लिए जरूरी हो. ताकि उसका बहुआयामी विकास संभव हो सके.साथ में यह व्यवस्था भी करे कि शिक्षा की समाप्ति के बाद उसको रोजगार की तलाश में भटकना न पड़े. दूसरी ओर विद्यार्थी का दायित्व है कि वह खुद को समाज के लिए उपयोगी बनाए. ध्यान रखे कि समाज भले ही उसका स्वैच्छिक वरण हो, शताब्दियों से समाज के साथ रहते आए मनुष्य के लिए आज वह एक अनिवार्यता है. इस कारण कुछ विद्वान अरस्तु की परिभाषा, ‘मनुष्य एक विवेकशील प्राणी है’ को संशोधित कर, ‘मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है’ कहने लगे हैं. यह समाज और मनुष्य के गाढे़ संबंधों का प्रतीक है. शिक्षा मानवीकरण की सीढ़ी, आजीवन चलने वाली प्रक्रिया है. बालक के लिए अनिवार्य शिक्षा उसके समाजीकरण की आरंभिक जरूरत भले हो, किंतु यह बड़ों के लिए उतनी ही जरूरी है जितनी बच्चों को किशोरों के लिए. इसलिए आवश्यक है कि शिक्षा को ताउम्र चलने वाली ज्ञार्नाजन की सतत प्रक्रिया के रूप में अपनाया जाए. कन्फ्यूशियस कुछ ऐसा ही चाहता था—
‘‘कन्फ्युशियस चीन के प्रांत ‘वी’ की यात्रा पर था. उसका शिष्य रेन यू उसकी गाड़ी हांक रहा था. वी एक घनी आबादी वाला शहर था. इतने बड़े शहर में पहुंचकर रेन ने हैरानी से कन्फ्युशियस से पूछा—‘गुरुदेव! शहर की इतनी सघन आबादी में भला हम क्या करेंगे?’‘लोगों को समृद्धि की ओर ले जाएंगे.’ कन्फ्यूशियस ने नपा–तुला जवाब दिया. रेन यू को अपने गुरु पर विश्वास था. किंतु उसके दिमाग में अब भी एक शंका थी. इसलिए उसने आगे पूछा—‘एक दिन जब शहर के सभी नागरिक समृद्ध हो जाएंगे, तब हम क्या करेंगे.’‘तब हम उन्हें शिक्षित करेंगे.’3
कन्फ्यूशियस शिक्षा को नैतिक आयोजन मानता था. उसने परंपरा का भी पक्ष लिया था, लेकिन इस तरह कि लोग उसके पीछे अंतनिर्हित सत्य से परिचित हो सकें. भारतीय पंरपरा में शिक्षा को विशिष्ट वर्गों तक सीमित रखा गया है. शिक्षा के लिए विद्यार्थी की प्रतिभा और रुचि नहीं, उसका वर्ग देखा जाता था. लंबे समय तक यही नीति भारतीय शिक्षा की दिशा–दशा को तय करती रही.आधुनिक भारत के राष्ट्रपिता कहे जाने वाले गांधी भी इसी के समर्थक थे. ‘शिक्षा का आश्रमी यथार्थ’ के नाम पर वर्ण–व्यवस्था का समर्थन करते हुए वे लिखते हैं—
‘इस काल में माता– पिता का धंधा यदि निश्चित रूप से मालूम हो, तो बच्घ्चे को उसी धंधे का ज्ञान मिलना चाहिये; और उसे इस तरह तैयार किया जाय कि वह अपने बाप–दादा के धंधे से जीविका चलाना पसंद करे. यह नियम लड़की पर लागू नहीं होता.’4
एक कहावत है कि उत्पीड़ित को उसकी दुर्दशा का एहसास करा दो, वह बगावत कर देगा. दुरवस्था की जानकारी और उसके फलस्वरूप जन्मे असंतोष ने कई मानवीय आविष्कारों और क्रांतिकारी विचारों की राह प्रशस्त की है. मगर गांधी के विचार इस मामले में भिन्न थे. यहां वे परंपरा का दामन छोड़ नहीं पाते. गोया वे नहीं चाहते थे कि गरीब अपनी दुरवस्था और उसके कारणों को समझे. इसलिए अन्यत्र लिखते हैं—
‘शिक्षा तालीम का अर्थ क्या है?….एक किसान ईमानदारी से खुद खेती करके रोटी कमाता है. उसे मामूली तौर पर दुनियावी ज्ञान है. अपने मां बाप के साथ कैसे बरतना, अपनी स्त्री के साथ कैसे बरतना? बच्चों से कैसे पेश आना? जिस देहात में वह बसा हुआ है वहां उसकी चालढाल कैसी होनी चाहिये? इस सबका उसे काफी ज्ञान है. वह नीति के नियम समझता है और उनका पालन करता है. लेकिन वह अपने दस्तखत करना नहीं जानता. इस आदमी को आप अक्षर ज्ञान देकर क्या करना चाहते है? उसके सुख में आप कौन–सी बढ़ती करेंगे? क्या उसकी झोपड़ी या उसकी हालत के बारे में आप उसके मन में असंतोष पैदा करना चाहते हैं? ऐसा करना हो तो भी उसे अक्षर ज्ञान देने की जरूरत नहीं है. पश्चिम के असर के नीचे आकर हमने यह बात चलायी है कि लोगों को शिक्षा देनी चाहिये, लेकिन उसके बारे में हम आगे–पीछे की बात सोचते ही नहीं.’5
भारत में धर्म महत्त्वपूर्ण है. वह लोगों की जीवनशैली और दिनचर्या को प्रभावित करता है. यदि सत्तर–अस्सी वर्ष के बूढ़े व्यक्ति तमाम कष्ट सहकर दुर्गम यात्राओं को निकल पड़ते हैं, कड़क सर्दी में भी गंगाजल में स्नान करने की हिम्मत जुटा पाते हैं, तो साफ है कि उनकी आस्था उन्हें इसके लिए प्रेरित करती है. इसलिए धर्म के सवाल की एकाएक उपेक्षा संभव नहीं है. इसके बावजूद जहां तक धार्मिक शिक्षा का प्रश्न है, समाज में वास्तविक लोकतंत्र की स्थापना और कल्याण के समविभाजन के लिए उसको फिलहाल तिलांजलि देनी होगी. तब शिक्षा का धर्म से नाता क्या हो?इसका सीधा–सा उत्तर है, निषेध का, या फिर धर्म की अवधारणा में आमूल परिवर्तन का. इसे गहराई में जानने के लिए हम एक प्रतिप्रश्न का सहारा लेते हैं—‘क्या धर्म शिक्षा से जुड़कर ज्ञान की परंपरा को विस्तार देने में सक्षम होगा? क्या वह जिज्ञासा को बढ़ावा देता है? यदि ईमानदारी से देखें तो धर्म ऐसा नहीं करता. हम सब जानते हैं कि धर्म और ज्ञान के नवीकरण का दूर तक संबंध नहीं है, ज्ञान की खोज का सिलसिला संदेह से आरंभ होता है; और संदेह धर्म की निगाह में ‘पाप’ है.परंपरागत धर्म में संदेह के लिए कोई स्थान नहीं है. न वह जिज्ञासा को महत्त्व देता है. बल्कि आस्था के नाम पर वह दैनंदिन अनुभव के दौरान में जन्मते रहनेवाले संदेहों पर पर्दा डालने का काम करता है. शंका करना वहां गुरु–अपराध है. धर्म में जो जितना पुराना है, परिवर्तन से दूर है, वह उतना ही सम्मानेय है. दूसरी ओर वास्तविक शिक्षा मनुष्य का नित नवीकरण करती है. वह मानवीय विवेक की ऊंचाइयों की ओर सतत आरोहण है. जबकि धर्म जड़ता है, ठहराव है. भ्रांति है. यथास्थिति बनाए रखने के लिए प्रभुवर्ग का षड्यंत्र, झूठी दिलासा है.
आस्था की नींव पर खड़े धर्म से, यदि कोई व्यक्ति–स्वातंत्र्य की दुहाई देते हुए उससे चिपका रहना चाहता है तो उसी तक सीमित रखने में भलाई है. ऐसे लोगों के लिए शिक्षक का काम है, उसको धर्म के स्थान पर अध्यात्म से जोड़ने को प्रेरित करे. यह काम आसान नहीं है. जो लोग शताब्दियों से धर्म से चिपके हुए हैं, उनके लिए एकाएक अध्यात्म की डगर पकड़ना कठिन हो सकता है. ऐसे लोगों को धीरे–धीरे उसकी ओर लाना होगा. उसका पहला चरण यह हो सकता है कि धर्म के नाम पर, कर्मकांड के नाम पर वे जो भी करना चाहते हैं, उसे अपने बूते पर करें. मसलन यदि किसी को ‘सत्यनारायण की कथा’ में धर्म का पालन नजर आता है, तो वह इसी से शुरुआत कर सकता है.बाजार से इस कथा की पुस्तक लेकर उसको पढ़ना–समझना शुरू करे. यदि उससे जुड़े कर्मकांडों को जरूरी मानता है तो बिना किसी मध्यस्थ को बीच में लाए उस अनुष्ठान को स्वयं करने की कोशिश करे. खुद नहीं पढ़ सकते तो किसी परिजन या पड़ोसी से पढ़वाए. परंपरागत पुरोहितों को बीच में न आने दे. शब्द से जुड़ाव का सिलसिला एक बार शुरू हुआ तो थम नहीं पाएगा. उसकी जिज्ञासा उसको दूसरी पुस्तकों की ओर ले जाएगी. जिससे धर्म के नाम पर व्याप्त रूढ़ियों और निरर्थक कर्मकांडों से मुक्ति की राह प्रशस्त होगी.
संविधान लोकविकास के नाम पर शिक्षा के प्रति वचनबद्ध होता है. किंतु शिक्षा कैसी हो, इस बारे में बहुसंख्यक समाज की राय की प्रायः उपेक्षा होती है. उसका स्वरूप विशेषज्ञों द्वारा तय किया जाता है, जो अपने वर्गीय हितों की ओर ज्यादा समर्पित होते हैं. कदाचित यह जरूरी भी है. लेकिन विशेषज्ञों के हाथों में पड़कर शिक्षा का प्रभाव एकतरफा रह जाता है. व्यक्ति अपनी और स्थानीय समुदाय की विशेषताओं को समझ ही नहीं पाता. इससे उसके भीतर अविश्वास बढ़ने लगता है.इसलिए वह समाज–कल्याण के कार्यों से मुंह चुराने लगता है. जबकि सामाजिक विकास संबंधी कार्यों में व्यक्ति की हिस्सेदारी आत्म–स्फूर्त्त होनी चाहिए. दबाव की स्थिति मनुष्य को भविष्य के प्रति शंकालु बनाती है. नैतिक दायरे से बाहर आकर वह केवल स्वार्थ–सिद्धि का संकल्प मन पर लादे रखता है. औनिषदिक चिंतन का निचोड़ हैं—‘सर्व भूत हिते रतः, कृणवंतो विश्वमार्यम्।’ समस्त प्राणियों के कल्याण की वांछा रखते हुए विश्व को श्रेष्ठ बनाने का संकल्प लें.’ सहविधान में शिक्षा ज्ञान की इसी उदात् भावना और संकल्प से अनुप्रेरित होगी.
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