Tuesday, October 20, 2015

सब प्रभु की कृपा है "।

ईस्वरवादी कहते हैं कि दुनियां ईश्वर ने बनाई ,परन्तु यदि यह ईश्वर रचित होती तो यह बनाये जाने के समय बहुत बढ़िया हालत मैं होती ,
जैसे फैक्ट्री से निकलते वक्त कार होती है ,
परतुं दुनियां का इतहास तो उलटी कहानी कहता है -
धरती 4.6 अरब वर्ष पहले बनगयी थी , परन्तु 1.6 अरब वर्ष तक
कुछ भी पैदा नहीं हुआ । उसके वाद यानी आज से अरब वर्ष पहले जाकर प्राथमिक जीव बना और बीस करोड़ पहले तक धरती डायनासोर जैसे महाकाय प्राणियों से भरी रही सत्तर अस्सी लाख पूर्व जाकर आदिमानव सा पैदा हुआ
जो पशु की तरह जीता था । पशुयों को मार कर कच्चा मांस
खाता था नंगा रहता था और उसे किसी ईश्वर- उष्वर का कोई
कभी ख्याल तक नहीं आया । क्या यह इश्वर की बनाई
स्रष्टि है ? ? उसके हाथों बनी स्रष्टि ऐसी खटारा क्यों ??
क्या फैक्ट्री से निकली कार ऐसी होती है ??
सोचो विचारो कोई शक्ति है जैसे भ्रम भ्रान्ति से निकलो -
इतना जरुर हैं जिन्होंने इसको जाना उन्होंने इसको कभीं नहीं माना ।
अतः सत्य पथ " बुद्ध पथ " पर वढ़ो
शुरू शुरू में जब मानव ने इर्द गिर्द की घटनाओं को जानने की चेष्टा की तब वैज्ञानिक ज्ञान लगभग न के बराबर ही था। बस इतना ही पता था कि हिंसक जानवरों से बचना है, यदि कोई फल, कंद मूल मिले तो खा लेना है तथा आवश्यक्ता या परिस्थितियों अनुसार किसी जानवर को मार कर खाना है। इतना भी पता चल चुका था कि जंगल की आग में जल कर मरे जानवर का माँस स्वादिष्ट होता है। काफी समय पश्चात पता चला कि दो पत्थरों की रगड़ से आग निकलती है।यह सारा कुछ जानने पर भी प्राकृति का ज्ञान लगभग शून्य था। जब सुर्य उदय होने पर दिन का उजाला होता तो वह समझता कि कोई ऊपर आकाश में है जो दिन के समय प्रकाश करता है, बारिश आने पर भी मानव यही सोचता कि कोई ऊपर से पानी गिरा रहा है। रात को तारे तथा चंद्रमा भी आकाश में ही दिखाई देते, आँधी तुफ़ान, आसमानी बिजली सब ऊपर से ही आते। इन सभी घटनाओं ने मानव की सोच बना दी कि कोई ऊपर आकाश में बैठा है, वही सब कुछ करता है, बड़े बड़े काम करता है, इसलिए शक्तिशाली भी है। तब मस्तिष्क में किसी अज्ञात शक्ति या परमात्मा जैसा विचार आया और तभी से जिस घटना या कार्य का न पता चले कि कैसे हुआ क्यों हुआ तो कहना शुरू किया कि," ऊपर वाला जाने" या "नीली छतरी वाला जाने"। फिर सोच आगे बढ़ी ( विकसित नहीं ) कि इतने सारे कार्य अकेला प्रमात्मा कैसे करता होगा, साथ में सहायक तो होंगे ही, शायद इससे देवी देवताओं का संकल्प बना। वैसे परमात्मा या सभी देवताओं का संकल्प मानव रूप में ही हुआ। यदि इसी प्रकार गधे सोचते तो उनके देवताओं के चित्र गधों जैसे होते। हर समय हर समाज में कुछ ऐसे भी शैतान होते हैं जो दूसरों की कमाई पर ऐश करते हैं या करने की चेष्टा में रहते है। ऐसे लोगों ने प्रमात्मा के विचार को अपने लाभ के लिए विकसित किया। प्रमात्मा के साथ ही आत्मा की रचना कर डाली और कहा कि प्राणी चाहे शरीर त्याग दे, आत्मा नहीं मरती, जलती या कटती। यह आत्मा एक शरीर छोड़ते ही दूसरे जन्म लेने वाले शरीर में प्रविष्ट हो जाती है। लुटेरों ने इसी आत्मा के एक शरीर छोड़ने तथा दूसरे शरीर में प्रविष्ट होने को पिछला जन्म, अगला जन्म कहा। बात यहाँ भी ख़त्म नहीं हुई। अगला जन्म कैसा होगा, इसके लिए थयूरी बना डाली कि पिछले जन्म में पुन्य दान आदि करने से अगला जन्म सुधर जाता है, क़िस्मत अच्छी होती है। अब अगला जन्म सुधारने के लिए हराम की कमाई खाने के उद्देश्य से दान लेने वाले अच्छी आत्मा वाले या महात्मा बन गए। इन महात्माओं का चोरों लुटेरों तथा अन्य अपराध करके शाही जीवन व्यतीत करने वालों से गठजोड़ हो गया जिन का काम " महात्माओ" के गुण गान करना था तथा बदले में यह महात्मा कहे जाने वाले महां ठग प्राणी, चोर उच्चकों अपराधियों की अच्छी ज़िंदगी के वास्तविक कारण यानि उनके कुकृत्यों पर परदा डालने के लिए प्रचार करते कि अच्छी ज़िंदगी भोगने वालों ने पिछले जन्म में बड़े पुन्य दान किए। जब श्रम जीवी आवाज़ उठाते कि हम सारा दिन परीश्रम करते हैं , शाम को हड्डियाँ दुखती हैं फिर भी हमारा परिवार भूखा सोता है और दूसरे लोग बिना कोई काम किए हर प्रकार की सुख सुविधा ले रहे हैं, ऐसा क्यों? तो "महात्मा" जी अपनी चतुराई का उपयोग करते हुए यहीं बताते कि भाई यह सब कुछ पिछले जन्मों के कर्मों का ही फल है, पिछले जन्म में तो कुछ नेक कर्म किए नहीं, इस जन्म में ही कर लो, नहीं तो नर्क आप के लिए पक्का है। बेचारे भोले भाले श्रमजीवी जो पहले ही भूख काट रहे होते थोड़ी और भूख काट कर अपनी कमाई हराम की खाने वालों के हवाले दान के रूप में दे देते।
दुखी हो कर जब श्रमिक पूछते कि कहाँ है, कैसा है परमात्मा जिस के पास हमारे अगले पिछले जन्म के कर्मों का लेखा जोखा है? इसका उपाए भी ठगों, महात्माओं तथा निठ्ठलों ने ढूँढ निकाला। प्रमात्मा की परिभाषा ही ऐसी रच डाली कि कहीं कुछ हाथ पल्ले न पड़े। कह दिया," प्रमात्मा सूक्ष्म अति सूक्ष्म है जो कि कण कण में समाया है, स्थूल अति स्थूल है जिस में सारी सृष्टि समाई है।" अब ढूँढते रहो इसे। साथ ही यह भी कह दिया कि बड़े बड़े ऋषि मुनी भी इसे पा नहीं सके।** कुछ हो तो उसे कोई पाए**। ध्यान दीजिए, आप के इलाक़े में भी कुछ ऐसे लोग मिल ही जाएँ गे जिन्होंने नाजायज़ क़ब्ज़े किए होंगे, ब्लैक की होगी या नशे बेचे होंगे , भ्रष्टाचार किया होगा या उन के पूर्वजों ने देश से गद्दारियां की होंगी तथा अमीर होने पर कहते होंगे कि," सब प्रभु की कृपा है "।
प्राकृति के जानने के लिए केवल विज्ञान ही हमारे लिए आँखों का काम कर सकती है। विज्ञान के बिना तो मानों मानव अंधा है। जैसे कुछ अंधे जब किसी महावत की सहायता से हाथी के शरीर के बारे जानना चाहते है तो जिस ने पूँछ को पकड़ा वह कहे गा हाथी साँप जैसा होता है, जिस ने पेट को छूआ उस अनुसार हाथी ड्रम जैसा होता है और जिस ने टाँग को छूआ वह कहे गा कि हाथी खम्बे (पोल ) जैसा होता है। इसी प्रकार वैज्ञानिक दृष्टि की कमी के कारण परमात्मा को प्राकृति या सृष्टि का रचयिता मानने वालों ने जन्म, मरण, दिन, रात, बारिश, सूखा, बाढ़, तुफ़ान, आसमानी बिजली आदि अनेक घटनाओं की व्याख्या अलग अलग ढंग से कर डाली तथा अलग अलग व्याख्याओं के आधार पर अलग अलग धर्म बन गए । इतना ही नही, जिन जिन रेगिस्तानी या पथरीले क्षेत्रों में पानी या लक्कड़ की कमी थी वहाँ मृत्क शरीर को जलाने या जल प्रवाह करने की बजाए दफ़नाना शुरू कर दिया तथा जहाँ उपजाऊ जगह पर लक्कड़ की कमी नहीं थी वहाँ जलाना या दाह संस्कार शुरू हो गया। बाद में यही परम्परा स्थानीय धर्मों के अंग बन गईं। जलवायु तथा ज़रूरतों के हिसाब से पहरावा बन गया तथा खान पान बन गया जो कि बाद में धर्म के साथ जुड़ गए।
अब प्रमात्मा तथा धर्मों के संकल्पों के भयंकर परिणाम निकल रहे हैं। धार्मिक कट्टरता तथा राजनीति मिल कर साम्प्रदायिक दंगे करवा रहे हैं। राजनीति कार्यों पर आधारित न हो कर साम्प्रदायता के आधार पर हो रही है। साम्र्पदायकता के आधार पर देशों के बँटवारे तथा मार काट हो रही है। लोकतंत्र साम्प्रदायकतंत्र या लठतंत्र में परिवर्तित हो गया है। परन्तु प्रसंन्नता की बात या काले बादलों में सफ़ेद रेखा की बात यह है कि ज्ञान विज्ञान के कारण लोग कुछ कुछ जागृत हो रहे हैं। विकसित देशों में धारमिक लोगों में कमी आ रही है।अब अनेक लोग भारत जैसे अविकसित देशों में भी हैं जो कि जनगणना में अपना धर्म नहीं लिखवाना चाहते। कई पश्चिमी देशों में स्कूलों में प्रार्थना बंद हो चुकी है।काफी लोग ऐसे भी हैं जो न्यायालय में किसी धार्मिक पुस्तक पर हाथ रख कर शपथ लेने की अपेक्षा संविधान की शपथ लेते हैं। (** वैसे शपथ लेने का भी अर्थ भी यही समझा जाता है कि कोई अज्ञात शक्ति है जो झूठी शपथ लेने पर दण्ड देगी**)। पुराने संस्कार तो धीरे धीरे ही जाएँ गे। परन्तु काल्पनिक प्रमात्मा का अंत निकट भविष्य में ही है। सभी धर्म के नाम पर कमाई तथा लूट करने वालों या राजनीति करने वालों द्वारा काल्पनिक प्रमात्मा की आयु लम्बीं करने के भरसक प्रयत्नों के बावजूद इस का अंत निकट ही है

No comments:

Post a Comment