तन्हाई में
तुम्हारा ख्याल जो छलका
दूर पहाड़ो पर
फैली धुंध बन गया
सर्दियों की खिली
धूप बन तपा
फूलो पर ओस की
बूंद बन गया......
तुम्हारा ख्याल
जो छलका
.कभी छूये मन को
ठंडी हवा बन
बिखर आकाश में
सिंदूरी रंग बन गया.....
रातो में मिला
भटकती चांदनी बन .
कागज़ पर उतरा और
छंद बन गया ...
तुम्हारा ख्याल
जो छलका
घुल गया फिजाओं
में हर तरफ जैसे के
कोई मनपसंद मीठी
धुन बन गया....
बरसा बूंद बन
सूखे मन आँगन में
सोंधी मिटटी की
सुगंध बन गया......
तुम्हारा ख्याल जो छलका
गूंजा बन के कोई
राग भोर का
गुलशन में चम्पई
खुशबू सा महका .......
.त्यौहारो का मस्त
मृदंग बन गया.
पंछी उन्मुक्त
स्वछंद बन गया.......
तुम्हारा ख़याल जो
छलका
उदास नीम सी कडवी
दोपहरिया में
मीठा मीठा गुलकंद
बन गया
नदिया में बहता
दीपक मंद मंद
पतझर में जंगल की
सुगंध बन गया........
तुम्हारा ख्याल
जो छलका....
....... इन्कलाब लिखना चाहू गर तो कलम परे रखना होगा
...रहना है महफूज़ सुकून से तो मन की मन में रखना होगा
.....राजी कर समझा बुझा रहे है दुनियादारी खुद को
रह तालाब में नादानी मगरमच्छ से बैर करना होगा
फैसला ले हौसले की स्याही भर भी लू कलम में
तो फानूस के घर को तीली से डरना होगा
उंगलिया मचलती है चंद बेपर्दा लफ्जों को बिखेरने
लेकिन अब एलान को कमरे में कचरे संग जलना होगा
बहेलियो का कब्ज़ा जब सम्पूर्ण गगन के चप्पे चप्पे पे
उन्मुक्त उड़ान से पहले खुद के पर कतरना होगा
हलक पकड़ रखा है बिलखती मानवता का
देख रहा ऊपर वाला कह आँखे बंद करना होगा
मन कहे क्या जीवन जो मानवता के काम ना आये
लेकिन मशाल हाथ में ले बारूद पर चढ़ना होगा
काँरवा गुजर तो रहा है चंद इंकलाबियो का .....
शामिल उनमे होने कफन संग ले चलना होगा
दरके से सहिलो ने बाँध रखा है समन्दर को
लहरों को खम मालूम नही तो चुप सब सहना होगा
कुल जमा सारा शहर जानता है फरेबी धंधो को
कलम को तिनका बनाऊ तो मुझको भी संग डूबना होगा
लश्कर वालो का फरमान है रौशनी है शहर में तो
अमावसी रातो को हमको भी पूनम कहना होगा ......
...रहना है महफूज़ सुकून से तो मन की मन में रखना होगा
.....राजी कर समझा बुझा रहे है दुनियादारी खुद को
रह तालाब में नादानी मगरमच्छ से बैर करना होगा
फैसला ले हौसले की स्याही भर भी लू कलम में
तो फानूस के घर को तीली से डरना होगा
उंगलिया मचलती है चंद बेपर्दा लफ्जों को बिखेरने
लेकिन अब एलान को कमरे में कचरे संग जलना होगा
बहेलियो का कब्ज़ा जब सम्पूर्ण गगन के चप्पे चप्पे पे
उन्मुक्त उड़ान से पहले खुद के पर कतरना होगा
हलक पकड़ रखा है बिलखती मानवता का
देख रहा ऊपर वाला कह आँखे बंद करना होगा
मन कहे क्या जीवन जो मानवता के काम ना आये
लेकिन मशाल हाथ में ले बारूद पर चढ़ना होगा
काँरवा गुजर तो रहा है चंद इंकलाबियो का .....
शामिल उनमे होने कफन संग ले चलना होगा
दरके से सहिलो ने बाँध रखा है समन्दर को
लहरों को खम मालूम नही तो चुप सब सहना होगा
कुल जमा सारा शहर जानता है फरेबी धंधो को
कलम को तिनका बनाऊ तो मुझको भी संग डूबना होगा
लश्कर वालो का फरमान है रौशनी है शहर में तो
अमावसी रातो को हमको भी पूनम कहना होगा ......
इन्कलाब लिखना चाहू तो कलम परे रखना होगा....... madhu
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