सबरीमाला मंदिर में स्त्रियों के प्रवेश का मुद्दा फिर से सुर्खियों में आ गया है। कन्नड़ फिल्मों की अभिनेत्री जयमाला ने 2006 में मंदिर के अधिकारियों को फैक्स भेजकर बताया कि उसने अपने यौवनकाल में भगवान अयप्पा का अनजाने में स्पर्श कर लिया था। वह भीड़ द्वारा धकेली जाने से मंदिर में प्रवेश कर गई थी। स्त्री होते हुए भी भगवान को छूने के अपराध का वह प्रायश्चित करना चाहती थी। चार साल बाद केरल पुलिस ने उसे चार्जशीट किया है। इस मंदिर में दस से पचास साल (रजस्वला होने की अवधि) की स्त्रियों का प्रवेश निषिद्ध है। लगभग 15 वर्ष पहले 1995 में जिले की प्रशासनिक अधिकारी के.पी. वत्सला ने भी मंदिर में प्रवेश की अनुमति मांगी थी। उन्हें स्वीकृति तो मिली पर केवल मंदिर में प्रवेश की। अंतिम सीढि़यां चढ़कर भगवान अयप्पा की पूजा-अर्चना करने की नहीं।
भारतवर्ष में स्त्रियां और दलित इस प्रकार के धार्मिक निषेधों को बहुत पहले से सहन करते आए हैं। हालांकि शिक्षा और सामाजिक-आर्थिक विकास के साथ इस सोच में बदलाव के भी प्रमाण मिले हैं। उदाहरण के लिए तमिलनाडु के एक मंदिर के पुजारी के देहांत के बाद उनकी बेटी ने पुजारिन के रूप में काम करना चाहा। पूरा पुरुष-समाज विरोध में खड़ा हो गया पर अदालत ने उसके हक में फैसला दिया। लिंग भेद समाप्त करने की दिशा में यह एक अहम कदम था। लेकिन ज्यादातर मामलों में लोगों की प्रतिक्रियाएं निराश करने वाली ही हैं।
इस प्रकार के विरोध को आधार मिलता है हमारे शास्त्रों से। अनेक धर्मसूत्रों और संहिताओं में महिलाओं के वेदपाठ और साधना के अधिकार को लेकर नकारात्मक संकेत मिलते हैं। आपस्तम्ब धर्मसूत्र में नारी के लिए यज्ञ-होम आदि करना वर्जित है। इसी के चलते स्त्री का उपनयन संस्कार भी नहीं किया जाता। ऐतरेय ब्राह्मण ने कन्या को अभिशाप कहा है। इसीलिए गर्भवती स्त्री के लिए 'पुंसवन' संस्कार की महत्ता थी। इसके द्वारा पुत्र के लिए प्रार्थना की जाती थी।
मनुस्मृति में परामर्श दिया गया है कि जिस कन्या के भाई न हों, उससे विवाह नहीं करना चाहिए। इससे 'पुत्रिका शंका' का अंदेशा है-यानी कन्या का पुत्रहीन होना। पिता पुत्री के ज्येष्ठ पुत्र से पिंडदान का वचन ले सकता है। पुत्रहीन स्त्री से तो अन्न ग्रहण का भी निषेध किया गया है। बेटे के प्रति मोह का एक कारण सद्गति का लालच भी है। बेटी के रहने पर भी पुत्रहीन पिता के अंतिम संस्कार के लिए दूरदराज के अनपहचाने रिश्तेदारों को खोजा जाता है। इसलिए पुत्री के जन्म का कहीं भी स्वागत नहीं होता।
यह विचार कि रजस्वला स्त्रियां स्वयं भी अपवित्र होती हैं और वातावरण को भी अपवित्र कर देती हैं, आज के युगमें सर्वथा असंगत है। सृष्टि के विकास और निरंतरता के लिए प्रकृति नेे स्त्रियों के शरीर में इस प्रक्रिया का विधानकिया है। इसके कारण पवित्र स्थान पर उनका प्रवेश निषेध कहां तक उचित है? बाल विवाह जैसी प्रथा के पीछेऋतुकाल का आतंक ही है।
विवाह योग्य कन्याओं को स्मृतियों में पांच भागों में बांटा गया है: नग्निका (नग्न), गौरी (8 वर्ष), रोहिणी (9 वर्ष)कन्या (10 वर्ष), रजस्वला (10 से अधिक)। नग्निका अर्थात पैदा होते ही योग्य वर से विवाह को सर्वोत्तम कहागया है। महाभारत की एक परवर्ती व्याख्या में यह सलाह पुत्री के पिता को दी गई है ताकि वह सब से अधिक पुण्यलाभ कर सके।
ब्रह्म पुराण के अनुसार भी शैशव में ही (4 से 10 वर्ष की आयु के बीच) कन्या का विवाह कर देना चाहिए। इससेपिता स्वर्ग प्राप्त करता है अन्यथा पापी कहलाता है। यम संहिता के अनुसार कन्या को अविवाहित अवस्था मेंरजस्वला देखने पर माता-पिता, ज्येष्ठ भ्राता, तीनों नरक के भागी होते हैं। जो ब्राह्मण अज्ञानतावश उस कन्यासे विवाह कर लेता है वह बातचीत और पंक्ति में बैठकर भोजन करने योग्य नहीं होता।
जीमूतवाहन ने 'दायभाग' में लिखा है कि स्तन प्रकट होने से पूर्व ही कन्यादान करें। यदि कन्या विवाह से पूर्वऋतुमती हुई तो दाता और ग्रहीता दोनों नरकगामी होते हैं। प्राचीन ग्रंथों के इन उद्धरणों से आज के मंदिरों के विधि-निषेध समझ में आते हैं। 10 से 50 तक की अवधि सीमा के पीछे भी यही विश्वास है। स्त्रियों के लिए कईदेवताओं के दर्शन-स्पर्श की भी मनाही है।
हनुमान बाल ब्रह्मचारी हैं इसी तरह से भगवान अयप्पा भी। यदि किसी नारी के दर्शन करने से उनका व्रत भंगहोता है तो उनके निर्विकार रूप की संगति पर प्रश्नचिह्न लग जाता है। यह तर्क आज के पुरुषों की काम प्रवृत्ति केलिए भी दिया जाता है। स्त्री यदि बन संवर के निकले और पुरुष विचलित हो जाए तो दोष किसका है? ईश्वर तत्वतो इन सब लौकिक ऐषणाओं से परे है न?
दरअसल पुरुष प्रधान समाज स्त्री की प्रखरता को कभी सह नहीं पाया। शैशव काल से ही कन्या अधिक जीवंत औरतेजोमयी होती है। हर साल स्कूली परीक्षाओं के परिणाम इसकी पुष्टि करते हैं। धीरे-धीरे पक्षपातपूर्ण व्यवहार उसेकुंठित बनाता जाता है। कुछ जागरूक परिवारों में वह स्वतंत्रचेता बन भी जाए तो विवाह के बाद उसकीआजादख्याली आड़े आती है। घर की शांति बनाए रखने के लिए उसे भीतर ही भीतर अपने को समेटते जाना पड़ताहै।
अधिकांश लोग बेजुबान, व्यक्तित्वहीन बहुएं पसंद करते है ताकि वह गुलाम की तरह चुपचाप सेवा करती रहें।ऐसी लड़कियां झकझोरने पर भी होश में नहीं आतीं। वे भोग और प्रजनन का यंत्र मात्र बन कर रह जाती हैं। कानूनकितने ही बना दिए जाएं, जब तक समाज की मानसिकता नहीं बदलेगी, परिस्थितियां जस की तस रहेंगी। यहविडंबना है कि एक तरफ तो भारत में शक्ति के रूप में देवी की उपासना करते हुए कन्याओं का पूजन होता हैलेकिन दूसरी तरफ समाज उन्हें उनके अधिकारों से वंचित करता है।
देवी पूजन और बालिका दिवस के अवसरों पर सोचना होगा कि कन्याओं को गाहे-बगाहे पूजा की दरकार नहीं।उन्हें स्वस्थ जीवन और समान अवसर चाहिए। सृष्टि के दो मूल तत्व पुरुष और प्रकृति एक दूसरे के पूरक बन करहमकदम बन सकें, इतना ही बहुत है।
घर में बच्चों का पालन-पोषण बिना भेदभाव के हो सके, इसकी जिम्मेदारी माता-पिता को लेनी होगी। शरीर कीसंरचना के अनुसार जो भी बदलाव आते हैं उनके आधार पर किसी के भी अधिकारों का हनन प्रकृति का अपमानहै। हजारों साल पहले बनी रूढि़यां आज की पीढ़ी के लिए असंगत हैं।
सबरीमाला जैसे मंदिरों का मार्ग यदि उस समय विशेष में स्त्रियों की शारीरिक क्षमता के चलते दुरूह था, तो आजके युग में उसे सहज बनाना कठिन नहीं। भगवान का दर्शन सभी भक्तों के लिए सुलभ बनाया जाए। इसमें लिंग,जाति और गरीबी आड़े नहीं आए।
हमारा देश करीब हज़ार साल तक गुलाम रहा है ,तत्कालीन शासको ने भारतीय संस्कृति को भ्रष्ट व नष्ट करने के लिए कुछ ब्राह्मणों को लालच देकर साहित्यो मे मिलावट करवा दी !अब अनेक पीढ़ियों का समय गुजर जाने के कारण ,अब सभी लोग उसी को ही अपना समझने लगे !और वैसा ही आचरण भी करने लगे !जैसे आर्य से हिंदू , भारत से इंडिया .भारतीय भाषा हिन्दी व संस्कृत से अँग्रेज़ी को ही हम सब प्रमुखता देने लगे !शासको की कृपा से ?उन्होने ऐसा माहौल बना दिया मजबूरी मे जनता ने भी वही ग्रहण कर लिया ,व उसको अपना भी मान लिया, बस, यही हमारी सभ्यता का विनाश हो गया है !आज भी जब जापान मे जापानी, रूस मे रूसी भाषा आदि अपना कर यह देश हर जगह उन्नति कर सकते है तब भारत क्यो नही तरक्की कर सकता ?हमारे नेताओ की बुजदिली के कारण ही देश ज़्यादा बर्बाद हो रहा है ! बांग्ला देश छोटा होने पर भी उसकी राज भाषा बांग्ला है ,उनके नेता बांग्ला भाष मे ही भाषण देते है लेकिन हमारे नेता अँग्रेज़ी को प्रमुखता देते हुए अँग्रेज़ी मे ही भाषण देने मे गर्व करेंगे
जब�महिला का बनाया�हुआ भोग कथित भगवान को लग सकता है तब उस महिला के मंदिर प्रवेश का विरोध क्यो ?उत्तर भारत के अनेक हनुमान जी के मंदिरों मेमहिलाए�भी जाती है !केवल रजस्वला के समय महिलाओ को रोका जा सकता है , वह भी आवश्यक नही है !यज्ञ मे तो महिला के साथ ही हवन पूर्ण होता है !उपनयन संस्कार भी महिला का हो सकता है ,कुछ महिलाए जनेऊ भी पहनती है लेकिन अभी वह मात्र गिनती मे ही है !मेरे छोटे भाई के विवाह मे एक महिला ने पुरोहित का कार्य किया था !कानपुर मे एक महिला ने ही करीब १०० कन्याओं पुरोहित की शिक्षा दी है !
ये �एसी बात है जिसको निम्न उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है ! उदाहरण : रोको मत जाने दो ! इसको दो लोग अपने अपने तरीके से सम्झ सकते है एक, रोको ! मत जाने दो ! दूसरा रोको मत ! जाने दो !
भारतवर्ष में स्त्रियां और दलित इस प्रकार के धार्मिक निषेधों को बहुत पहले से सहन करते आए हैं। हालांकि शिक्षा और सामाजिक-आर्थिक विकास के साथ इस सोच में बदलाव के भी प्रमाण मिले हैं। उदाहरण के लिए तमिलनाडु के एक मंदिर के पुजारी के देहांत के बाद उनकी बेटी ने पुजारिन के रूप में काम करना चाहा। पूरा पुरुष-समाज विरोध में खड़ा हो गया पर अदालत ने उसके हक में फैसला दिया। लिंग भेद समाप्त करने की दिशा में यह एक अहम कदम था। लेकिन ज्यादातर मामलों में लोगों की प्रतिक्रियाएं निराश करने वाली ही हैं।
इस प्रकार के विरोध को आधार मिलता है हमारे शास्त्रों से। अनेक धर्मसूत्रों और संहिताओं में महिलाओं के वेदपाठ और साधना के अधिकार को लेकर नकारात्मक संकेत मिलते हैं। आपस्तम्ब धर्मसूत्र में नारी के लिए यज्ञ-होम आदि करना वर्जित है। इसी के चलते स्त्री का उपनयन संस्कार भी नहीं किया जाता। ऐतरेय ब्राह्मण ने कन्या को अभिशाप कहा है। इसीलिए गर्भवती स्त्री के लिए 'पुंसवन' संस्कार की महत्ता थी। इसके द्वारा पुत्र के लिए प्रार्थना की जाती थी।
मनुस्मृति में परामर्श दिया गया है कि जिस कन्या के भाई न हों, उससे विवाह नहीं करना चाहिए। इससे 'पुत्रिका शंका' का अंदेशा है-यानी कन्या का पुत्रहीन होना। पिता पुत्री के ज्येष्ठ पुत्र से पिंडदान का वचन ले सकता है। पुत्रहीन स्त्री से तो अन्न ग्रहण का भी निषेध किया गया है। बेटे के प्रति मोह का एक कारण सद्गति का लालच भी है। बेटी के रहने पर भी पुत्रहीन पिता के अंतिम संस्कार के लिए दूरदराज के अनपहचाने रिश्तेदारों को खोजा जाता है। इसलिए पुत्री के जन्म का कहीं भी स्वागत नहीं होता।
यह विचार कि रजस्वला स्त्रियां स्वयं भी अपवित्र होती हैं और वातावरण को भी अपवित्र कर देती हैं, आज के युगमें सर्वथा असंगत है। सृष्टि के विकास और निरंतरता के लिए प्रकृति नेे स्त्रियों के शरीर में इस प्रक्रिया का विधानकिया है। इसके कारण पवित्र स्थान पर उनका प्रवेश निषेध कहां तक उचित है? बाल विवाह जैसी प्रथा के पीछेऋतुकाल का आतंक ही है।
विवाह योग्य कन्याओं को स्मृतियों में पांच भागों में बांटा गया है: नग्निका (नग्न), गौरी (8 वर्ष), रोहिणी (9 वर्ष)कन्या (10 वर्ष), रजस्वला (10 से अधिक)। नग्निका अर्थात पैदा होते ही योग्य वर से विवाह को सर्वोत्तम कहागया है। महाभारत की एक परवर्ती व्याख्या में यह सलाह पुत्री के पिता को दी गई है ताकि वह सब से अधिक पुण्यलाभ कर सके।
ब्रह्म पुराण के अनुसार भी शैशव में ही (4 से 10 वर्ष की आयु के बीच) कन्या का विवाह कर देना चाहिए। इससेपिता स्वर्ग प्राप्त करता है अन्यथा पापी कहलाता है। यम संहिता के अनुसार कन्या को अविवाहित अवस्था मेंरजस्वला देखने पर माता-पिता, ज्येष्ठ भ्राता, तीनों नरक के भागी होते हैं। जो ब्राह्मण अज्ञानतावश उस कन्यासे विवाह कर लेता है वह बातचीत और पंक्ति में बैठकर भोजन करने योग्य नहीं होता।
जीमूतवाहन ने 'दायभाग' में लिखा है कि स्तन प्रकट होने से पूर्व ही कन्यादान करें। यदि कन्या विवाह से पूर्वऋतुमती हुई तो दाता और ग्रहीता दोनों नरकगामी होते हैं। प्राचीन ग्रंथों के इन उद्धरणों से आज के मंदिरों के विधि-निषेध समझ में आते हैं। 10 से 50 तक की अवधि सीमा के पीछे भी यही विश्वास है। स्त्रियों के लिए कईदेवताओं के दर्शन-स्पर्श की भी मनाही है।
हनुमान बाल ब्रह्मचारी हैं इसी तरह से भगवान अयप्पा भी। यदि किसी नारी के दर्शन करने से उनका व्रत भंगहोता है तो उनके निर्विकार रूप की संगति पर प्रश्नचिह्न लग जाता है। यह तर्क आज के पुरुषों की काम प्रवृत्ति केलिए भी दिया जाता है। स्त्री यदि बन संवर के निकले और पुरुष विचलित हो जाए तो दोष किसका है? ईश्वर तत्वतो इन सब लौकिक ऐषणाओं से परे है न?
दरअसल पुरुष प्रधान समाज स्त्री की प्रखरता को कभी सह नहीं पाया। शैशव काल से ही कन्या अधिक जीवंत औरतेजोमयी होती है। हर साल स्कूली परीक्षाओं के परिणाम इसकी पुष्टि करते हैं। धीरे-धीरे पक्षपातपूर्ण व्यवहार उसेकुंठित बनाता जाता है। कुछ जागरूक परिवारों में वह स्वतंत्रचेता बन भी जाए तो विवाह के बाद उसकीआजादख्याली आड़े आती है। घर की शांति बनाए रखने के लिए उसे भीतर ही भीतर अपने को समेटते जाना पड़ताहै।
अधिकांश लोग बेजुबान, व्यक्तित्वहीन बहुएं पसंद करते है ताकि वह गुलाम की तरह चुपचाप सेवा करती रहें।ऐसी लड़कियां झकझोरने पर भी होश में नहीं आतीं। वे भोग और प्रजनन का यंत्र मात्र बन कर रह जाती हैं। कानूनकितने ही बना दिए जाएं, जब तक समाज की मानसिकता नहीं बदलेगी, परिस्थितियां जस की तस रहेंगी। यहविडंबना है कि एक तरफ तो भारत में शक्ति के रूप में देवी की उपासना करते हुए कन्याओं का पूजन होता हैलेकिन दूसरी तरफ समाज उन्हें उनके अधिकारों से वंचित करता है।
देवी पूजन और बालिका दिवस के अवसरों पर सोचना होगा कि कन्याओं को गाहे-बगाहे पूजा की दरकार नहीं।उन्हें स्वस्थ जीवन और समान अवसर चाहिए। सृष्टि के दो मूल तत्व पुरुष और प्रकृति एक दूसरे के पूरक बन करहमकदम बन सकें, इतना ही बहुत है।
घर में बच्चों का पालन-पोषण बिना भेदभाव के हो सके, इसकी जिम्मेदारी माता-पिता को लेनी होगी। शरीर कीसंरचना के अनुसार जो भी बदलाव आते हैं उनके आधार पर किसी के भी अधिकारों का हनन प्रकृति का अपमानहै। हजारों साल पहले बनी रूढि़यां आज की पीढ़ी के लिए असंगत हैं।
सबरीमाला जैसे मंदिरों का मार्ग यदि उस समय विशेष में स्त्रियों की शारीरिक क्षमता के चलते दुरूह था, तो आजके युग में उसे सहज बनाना कठिन नहीं। भगवान का दर्शन सभी भक्तों के लिए सुलभ बनाया जाए। इसमें लिंग,जाति और गरीबी आड़े नहीं आए।
हमारा देश करीब हज़ार साल तक गुलाम रहा है ,तत्कालीन शासको ने भारतीय संस्कृति को भ्रष्ट व नष्ट करने के लिए कुछ ब्राह्मणों को लालच देकर साहित्यो मे मिलावट करवा दी !अब अनेक पीढ़ियों का समय गुजर जाने के कारण ,अब सभी लोग उसी को ही अपना समझने लगे !और वैसा ही आचरण भी करने लगे !जैसे आर्य से हिंदू , भारत से इंडिया .भारतीय भाषा हिन्दी व संस्कृत से अँग्रेज़ी को ही हम सब प्रमुखता देने लगे !शासको की कृपा से ?उन्होने ऐसा माहौल बना दिया मजबूरी मे जनता ने भी वही ग्रहण कर लिया ,व उसको अपना भी मान लिया, बस, यही हमारी सभ्यता का विनाश हो गया है !आज भी जब जापान मे जापानी, रूस मे रूसी भाषा आदि अपना कर यह देश हर जगह उन्नति कर सकते है तब भारत क्यो नही तरक्की कर सकता ?हमारे नेताओ की बुजदिली के कारण ही देश ज़्यादा बर्बाद हो रहा है ! बांग्ला देश छोटा होने पर भी उसकी राज भाषा बांग्ला है ,उनके नेता बांग्ला भाष मे ही भाषण देते है लेकिन हमारे नेता अँग्रेज़ी को प्रमुखता देते हुए अँग्रेज़ी मे ही भाषण देने मे गर्व करेंगे
जब�महिला का बनाया�हुआ भोग कथित भगवान को लग सकता है तब उस महिला के मंदिर प्रवेश का विरोध क्यो ?उत्तर भारत के अनेक हनुमान जी के मंदिरों मेमहिलाए�भी जाती है !केवल रजस्वला के समय महिलाओ को रोका जा सकता है , वह भी आवश्यक नही है !यज्ञ मे तो महिला के साथ ही हवन पूर्ण होता है !उपनयन संस्कार भी महिला का हो सकता है ,कुछ महिलाए जनेऊ भी पहनती है लेकिन अभी वह मात्र गिनती मे ही है !मेरे छोटे भाई के विवाह मे एक महिला ने पुरोहित का कार्य किया था !कानपुर मे एक महिला ने ही करीब १०० कन्याओं पुरोहित की शिक्षा दी है !
ये �एसी बात है जिसको निम्न उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है ! उदाहरण : रोको मत जाने दो ! इसको दो लोग अपने अपने तरीके से सम्झ सकते है एक, रोको ! मत जाने दो ! दूसरा रोको मत ! जाने दो !