Thursday, November 5, 2015

बलात्कार: क्यों और कब तक?

ज़्यादा गहरी चर्चा इस बात पर होनी चाहिए कि दिल्ली जैसे शहरों और भारत जैसे देशों में ज़्यादा बलात्कार क्यों होते हैं? इस बात पर भी मंथन की ज़रूरत है कि बीते सप्ताह दिल्ली की चलती बस में हुए बलात्कार के दौरान आरोपियों ने इतनी क्रूरता का परिचय क्यों दिया? उन्होंने लोहे की छड़ से जिस तरह पीड़ित लड़की की देह पर अनगिनत वार किये और संभवतः अप्राकृतिक यौन-क्रिया के अलावा लोहे की छड़ से भी उसके शरीर के अंदरूनी हिस्सों को चोट पहुँचाई, उसकी क्या ज़रूरत थी? आखिर यह बेरहमी कहाँ से पैदा होती है? क्या इसे समय रहते रोका नहीं जा सकता?

दरअसल, बलात्कार एक जटिल फिनोमिना है और अलग-अलग बलात्कारों के पीछे कुछ समान और कुछ भिन्न कारण काम करते हैं. हरियाणा, दिल्ली, मणिपुर और बस्तर के बलात्कारों को एक तरीके से नहीं समझा जा सकता. इसी तरह, पिता, चाचा, मामा, भाई या पड़ोसी द्वारा किया गया बलात्कार अलग समझ की मांग करता है. अमीरों द्वारा गरीब महिलाओं के बलात्कार में ठीक वे कारण काम नहीं करते जो किसी गरीब द्वारा किसी अमीर महिला के बलात्कार के मूल में होते हैं. यह भी नहीं भूलना चाहिए कि बलात्कार सिर्फ़ महिलाओं/लड़कियों/बच्चियों के साथ नहीं होते; छोटी उम्र के लड़कों, तृतीयलिंगियों और पशुओं के साथ भी होते हैं. इस वैविध्य पर ध्यान देंगे तो पाएंगे कि बलात्कारों के मूल में यौन-इच्छा की आक्रामकता एक कारण के रूप में भले मौजूद हो, पर वास्तव में वह न तो अकेला कारण है और न ही सबसे महत्वपूर्ण. इसलिए, बेहतर होगा कि बलात्कार के विभिन्न रूपों को ध्यान रखते हुए उसके कारणों पर विचार करें.

पहले इस प्रश्न पर गौर करें कि उत्तर-पूर्व के मातृसत्तात्मक (Matriarchal)  समाजों की तुलना में हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, उत्तर प्रदेश तथा मध्य प्रदेश जैसे प्रांतों में बहुत ज़्यादा बलात्कार क्यों होते हैं? दरअसल यह क़ानून-व्यवस्था से ज़्यादा समाज और संस्कृति का मसला है. इसकी जड़ें पुरुषवादी सामाजिक संरचना या ‘पितृसत्ता’ (”Patriarchy’) में धँसी हैं. ऐसे समाजों में बच्चों की परवरिश की प्रक्रिया लिंग-भेद के मूल्यों पर टिकी होती है जिसकी वजह से बचपन में ही बलात्कारी मानसिकता के बीज पड़ जाते हैं. उदाहरण के तौर पर, लड़कों को (लड़कियों को नहीं) बचपन से ही बंदूक, तीर-कमान, तलवार जैसे 'मर्दाना' खिलौने दिए जाने का परिणाम यह होता है कि इन हथियारों में बसी हिंसा उनके व्यक्तित्व का हिस्सा बनने लगती है. उनमें साहस, लड़ाकूपन, आक्रामकता, शारीरिक मजबूती जैसे लक्षणों की प्रशंसा की जाती है और विनम्रता, संवेदनशीलता, अनुभूति-प्रवणता जैसे गुणों का मज़ाक उड़ाया जाता है. किसी लड़के की आँख से दो बूंद आँसू बह जाएँ तो उसे 'लड़की' कह-कह के उसका जीना मुश्किल कर दिया जाता है. उसे घर के काम करने के लिए प्रोत्साहित नहीं किया जाता क्योंकि उन कामों के लिए तो माँ-बहने हैं ही और बाद में पत्नी होगी. उसे ‘राजा बेटा’ कहकर संबोधित किया जाता है जबकि बेटी के लिए इसका समतुल्य संबोधन व्यवहार में नहीं आता. ऐसी परवरिश से वह खुद को औरत का मालिक समझने लगता है. जिस तरह उसकी माँ उसके पिता की गुलामी झेलती है, वैसे ही वह भी पत्नी के रूप में गुलाम की खोज करता है. वह पत्नी को तथाकथित आर्थिक सुरक्षा देकर बदले में उसकी आज़ादी ही नहीं छीन लेना चाहता, उसे वस्तु की तरह इस्तेमाल करने का हक़ भी हासिल कर लेना चाहता है. वह शादी भी करता है तो घोड़ी पर बैठकर और तलवार टांग कर, जैसे कि युद्ध लड़ने या अपहरण करने जा रहा हो. लड़की के घरवाले भी 'कन्यादान' करते हैं मानो उसे कोई 'वस्तु' सौंप रहे हों. सुहागरात के कोमल अवसर पर भी लड़का युद्ध जीतने के मूड में रहता है. वह साबित कर देना चाहता है कि उसने पत्नी के शरीर को भोगने का मुक्त लाइसेंस हासिल कर लिया है. कुछ समुदायों में तो प्रथा है कि सुहागरात की सेज पर बिछाई गई सफ़ेद चादर पर अगर सुबह लाल धब्बे न मिलें तो लड़के के पुंसत्व पर संदेह किया जाता है. यौन-संबंध के लिए पत्नी की सहमति इन समुदायों के पुरुषों की कल्पना से परे की वस्तु है. पत्नी का बलात्कार उनका दैनिक और विवाहसिद्ध अधिकार है. औरतों के प्रति लंबे समय से संचित यही दृष्टिकोण जब सड़कों पर उतरता है तो ‘बलात्कार’ कहलाता है.

यह एक अजीब सा सच है कि बलात्कार की अधिकांश घटनाएँ घर परिवार के भीतर या आस-पड़ोस में घटती हैं. ये घटनाएँ तात्कालिक यौन-तनाव का परिणाम न होकर लंबी योजना का परिणाम होती हैं. इनमें से अधिकांश मामले तो कभी सामने आ ही नहीं पाते क्योंकि शिकायत करने पर औरत को ज़्यादा नुकसान होता है. गौरतलब है कि पितृसत्तात्मक समाजों में औरत की पूरी ज़िंदगी इस बात पर टिकी होती है कि उसका पति और परिवार उसे बेघर न कर दें. लड़कियों को आमतौर पर न शिक्षा मिलती है, न ही पैतृक संपत्ति में हिस्सा. राज्य की ओर से कोई ठोस सामाजिक सुरक्षा भी उन्हें नसीब नहीं है. उनकी ज़िंदगी का सबसे बड़ा जुआ यही है कि उन्हें कैसा पति और कैसी ससुराल मिलेगी? इसलिए, बेटी की परवरिश का केंद्रीय बिंदु यही होता है कि कैसे उसे बेहतर पति के लायक बनाया जाए? इस योजना को बाधित कर सकने वाली हर संभावना से बचने की कोशिश की जाती है. बलात्कार ऐसा ही एक खतरा है जो लड़की/स्त्री की सारी भावी ज़िंदगी को बर्बाद कर सकता है. हमारा समाज स्त्री की पवित्रता उसके शरीर से तय करता है, मन से नहीं. वह बलात्कार को स्त्री के साथ हुई एक साधारण दुर्घटना के रूप में नहीं लेता, बल्कि उसे विवाह और सामाजिक संबंधों से बेदखल कर देता है. औरत, जिसके पास सामाजिक सुरक्षा का एकमात्र विकल्प परिवार है, इतना बड़ा खतरा मोल नहीं ले सकती. इसलिए, बलात्कार हो भी जाए तो अधिकांश मामलों में वह न शिकायत करती है, न ही पलटकर जवाब देती है. धीरे-धीरे वह सब कुछ सहन कर लेने की आदी हो जाती है. गौरतलब है कि 90% से ज़्यादा रिपोर्टेड बलात्कार घर के भीतर या आस-पड़ोस में होते हैं. यह भी सच है कि घरों के अंदर के अधिकांश बलात्कार कभी सामने नहीं आ पाते क्योंकि वे उन्हीं पुरुषों द्वारा किये जाते हैं जिनका काम उस महिला को सुरक्षा की गारंटी देना है. अगर वे उसे छोड़ दें तो स्त्री के लिए ज़िंदगी खुद एक चुनौती बन सकती है.

दूसरे स्तर पर ‘बलात्कार’ एक दमनकारी कार्रवाई की भूमिका में आता है. इस भूमिका में इसका इस्तेमाल किसी परिवार या समूह को नीचा दिखाने या उससे बदला लेने के लिए होता है. ध्यान से देखें तो लड़कों की दुनिया में चलने वाली गालियाँ आमतौर पर दूसरों की माँ या बहन का बलात्कार करने की धमकियाँ ही होती हैं. सीधी सी बात है कि किसी की माँ (या उस उम्र की महिला) के प्रति यौन-आकर्षण तो इसका कारण नहीं हो सकता. तो फ़िर ऐसी गालियाँ किस ओर इशारा करती हैं? इसका उत्तर इस बात में छिपा है कि हमारे समाज ने औरतों की यौन-शुचिता को घर की इज्ज़त का प्रतीक बना दिया है. किसी घर या समुदाय की इज्ज़त तार-तार करनी हो तो उसकी औरतों का बलात्कार करना सबसे सरल उपाय है. उदाहरण के लिए, फूलन देवी का गैंगरेप यौनिक नहीं, जातीय दमन का मामला था. हरियाणा में दो महीने पहले 20-25 दिनों के भीतर लगभग 10 दलित लड़कियों के साथ बलात्कार हुए जो दबंग जाति के लड़कों ने किये. इनका उद्देश्य भी यौनिक न होकर उभरती हुई दलित-चेतना को तहस-नहस करना था. सांप्रदायिक दंगों के दौरान हमेशा दबंग समूह कमज़ोर समूह की औरतों का बलात्कार करते हैं, चाहे वह गुजरात का मामला हो या भागलपुर का. सेना और पुलिस के लोग अशांत इलाकों में ऐसे बलात्कार सिर्फ़ अपनी यौन भुखमरी मिटाने के लिए नहीं करते, इसलिए भी करते हैं ताकि विद्रोह करने वाले समूह का आत्मविश्वास डगमगा जाए. कश्मीर, मणिपुर और बस्तर के कई मामले इस श्रेणी में शामिल किये जा सकते हैं. अगर बलात्कार के आँकड़ों को गहराई से देखें तो पाएंगे कि अधिकांश मामलों में यह सिर्फ़ यौन-क्रिया का मामला न होकर दोहरे या तिहरे दमन का मामला होता है. इस ‘दमनकारी कार्रवाई’ के प्रतीक के कारण ही ऐसे बलात्कारों में बात यौन-क्रिया तक सीमित नहीं रहती, उससे आगे बढ़ती है. कई लोग क्रूरता से औरतों का अंग-भंग कर देते हैं तो कुछ अप्राकृतिक सैक्स तथा मार-पिटाई करके उन्हें नोच डालने की कोशिश करते हैं. हाल ही में असम में हुए दंगों के बारे में कहा जाता है कि कुछ दंगाइयों ने दूसरे समुदाय की औरतों के स्तन काट डाले तो कुछ ने तो औरतों के हाथ-पैर काटकर शेष शरीर से बलात्कार किया. यह सब इसलिए होता है कि दूसरा समुदाय डर जाए. डराने के लिए ‘सॉफ्ट टारगेट्स’ के तौर पर महिलाओं को चुना जाता है.

इसका मतलब यह नहीं कि बलात्कार में यौन-आक्रामकता की कोई भूमिका नहीं है. दिल्ली जैसे बड़े शहरों में होने वाले बलात्कारों में इसकी भी बड़ी भूमिका है. दरअसल, किसी समाज में यौन इच्छाओं की तीव्रता और उसकी संतुष्टि के अवसरों में संतुलन होना बहुत ज़रूरी है. इस संतुलन का अभाव बलात्कारों के लिए उर्वर भूमि का काम करता है. समस्या यह है कि बड़े शहरों की संस्कृति ने पिछले कुछ समय में जिस अनुपात में यौन इच्छाएँ भड़काई हैं, उस अनुपात में हर वर्ग को उनकी पूर्ति के अवसर मुहैया नहीं कराए हैं. ख़ास तौर पर बड़े शहरों का निम्नवर्ग इस वंचन का भयानक शिकार है और यही कारण है कि बड़े शहरों में ‘रिपोर्ट’ किये जाने वाले बलात्कारों में निम्न तथा निम्न-मध्यवर्ग के आरोपी बहुत ज़्यादा अनुपात में होते हैं.

इस बात को कुछ विस्तार में समझा जाना चाहिए. हम जानते हैं कि शहरों में मीडिया और इंटरनेट की सघन उपस्थिति ‘यौन अभिव्यक्तियों’ विशेषतः ‘पोर्न’ को सहज उपलब्ध बना देती है. वैसे तो ‘पोर्न’ हर युग में रहा है पर आज का ‘ऑडियो-विजुअल पोर्न’ प्रभाव पैदा करने की ताकत में अपना सानी नहीं रखता. देशी-विदेशी पोर्न की सहज उपलब्धता किशोरों और युवाओं, विशेषतः लड़कों को उसका दीवाना बना देती है. वे रात दिन नए यौन अनुभवों की कल्पना में डूबे रहते हैं. टी.वी. पर दिखाए जाने वाले कई विज्ञापन उनकी यौन-इच्छाओं को गैर-ज़रूरी तौर पर भड़काते हैं. यह बात विशेष रूप से परफ्यूम, कंडोम तथा अंडरविअर आदि के विज्ञापनों में दिखती है जिनमें सुंदर लड़कियों का भयानक वस्तुकरण (Objectification)  होता है. फिल्मों के आइटम सोंग तथा अन्य कामुक दृश्य भी यौन-इच्छाओं को उत्तेजित करते हैं. ‘झंडू बाम’ या ‘फैवीकोल’ जैसे गीतों के बोल ध्यान से सुनें तो हम समझ सकते हैं कि वे यौन व्यवहार को बुरी तरह प्रभावित करने की ताकत रखते हैं. अगर सुंदर नायिका यौनिकता से भरे हाव-भाव के साथ खुद को ‘तंदूरी मुर्गी’ बताते हुए स्वयं को गटक जाने के लिए नायक को आमंत्रित करे तो क्या उसका असर नहीं होगा? ये सब दृश्य उन युवाओं के अवचेतन मन पर धीमा असर डालते रहते हैं. पोर्न-साइट्स देख-देख कर वे अपनी इच्छित प्रेयसियों की छवियाँ गढ़ते हैं. यह भी ध्यान रखना चाहिए कि जहाँ एक ओर युवाओं पर इन यौन-प्रतीकों का आक्रमण बढ़ा है, वहीं ‘करियर’ बनाने की प्रतिस्पर्धा भी कठिन हुई है जिसके कारण विवाह की औसत उम्र लगातार बढ़ती जा रही है. आज के शहरी युवा को एक लंबा समय इस अंतर्विरोध के भीतर गुज़ारना होता है. इसका सीधा परिणाम है कि यौन इच्छाओं की संतुष्टि के लिए विवाहेतर संस्थाओं की भूमिका बढ़ रही है. गर्भनिरोधकों के विकास ने यौन इच्छाओं की पूर्ति से जुड़े वे खतरे भी खत्म कर दिए हैं जो पहले की पीढ़ियों को यौन सुखों से दूर रहने के लिए बाध्य करते थे. ये युवा इस माहौल के कारण लगभग बीमारी जैसी हालत में रहते हैं, पर यह ऐसी बीमारी है जो सम्मोहित और मदहोश करती है. वे इससे बचना नहीं चाहते. चाहें भी तो मित्र-समूह के दबाव के कारण नहीं बच सकते. सड़कों पर चलते समय वे आसपास दिख रही लड़कियों और महिलाओं में स्वाभाविक तौर पर वही छवि खोजते हैं.

सार यह है कि हम यौन-इच्छाओं के विस्फोट के युग में रहते हैं. हमारे समय के लोगों की जितनी रुचि यौन-अनुभवों या यौन-आकांक्षाओं में है, उतनी शायद कभी नहीं थी. यह भूख साधारण और नैसर्गिक नहीं है, इसका काफ़ी बड़ा हिस्सा बाज़ार, फिल्मों, गीतों और पोर्न द्वारा रचा गया है. दिल्ली की सड़कों पर घूमता हुआ औसत आदमी मानसिक तौर पर एक वहशी की सी हालत में रहता है. इसका सबूत यह है कि शाम के बाद दिल्ली की किसी भी सड़क पर कोई लड़की अकेली खड़ी हो तो वहाँ से गुज़र रहे पुरुष गाड़ी या बाइक रोककर उसे भूखी नज़रों से देखते हैं, इस उम्मीद में कि शायद उसे खरीदा या दबोचा जा सके. इस भूखी संस्कृति का ही परिणाम है कि दिल्ली का बच्चा जल्दी से जल्दी जवान हो जाना चाहता है और बूढ़ा अपनी जवानी बनाए रखने के लिए पुरज़ोर कोशिश करता है. दिल्ली के 8-10 वर्ष की उम्र के बच्चों की निजी बातचीत अगर कोई छिपकर सुन ले तो तनाव में आ जाएगा. उनके बचपनी चेहरे की मासूमियत और उनकी जवान इच्छाओं में तारतम्य बैठाना मुश्किल हो जाएगा. कुछ ऐसी ही हालत बूढ़ों के निजी वार्तालाप को सुनकर हो सकती है.

सवाल है कि जिस समाज की यौन-इच्छाएँ इतने भयानक तरीके से बढ़ी हुई हैं, वहाँ उनकी पूर्ति के क्या विकल्प हैं? दरअसल, इन विकल्पों की दुनिया में काफ़ी ऊँच-नीच है. जैसी विज्ञापनी सुंदरता के भोग के सपने सब लोग पाल रहे हैं, वैसी सुंदरता समाज में कम लोगों तक सीमित है. इससे एक भयानक प्रतिस्पर्धा पैदा होती है जो कभी-कभी हत्या आदि का कारण भी बनती है. इस व्यवस्था को ‘सुंदरता का पूंजीवाद’ कहा जा सकता है. यूँ, यह पूंजीवाद विवाह व्यवस्था के भीतर हमेशा मौजूद रहा है और इसने सबसे सुंदर लड़कियाँ सबसे अमीर और ताकतवर पुरुषों को उपलब्ध कराई हैं, पर आजकल यह अपने सबसे भयानक रूप में मौजूद है. जो सुंदर और आकर्षक किशोर/युवा हैं, वे इस पूंजीवाद के सबसे सफल खिलाड़ी हैं. अंग्रेज़ी स्कूलों या अच्छे कॉलेजों में पढ़ने वाले युवकों को यह मौका हमेशा उपलब्ध है कि वे तथाकथित स्मार्ट लड़कियों या विज्ञापन सुंदरियों से मैत्री साधकर अपनी कुंठाओं से मुक्त हो जाएँ. जो लोग इस वर्ग से बाहर हैं, उनमें भी अमीरों को कोई दिक्कत नहीं है. दुनिया के हर बड़े शहर में सैक्स भी एक उत्पाद है जिसे खरीदा जा सकता है. अगर जेब भरी हो तो वो अपनी पसंद के अनुसार सुंदरता के बाज़ार में कुछ भी हासिल कर सकते हैं और कुंठाओं से बचे रह सकते हैं.

पर, बाकी वर्गों के पास अवैध रूप से बढ़ी हुई इन इच्छाओं  की पूर्ति के कम मौके हैं. गरीब तथा अवर्ण युवक भी मीडिया द्वारा रचे गए जाल के कारण ऐसी ही विज्ञापन सुंदरियों के सपने देखते हैं जिन्हें पूरा करना उनकी हैसियत से बाहर की बात होती है. उन गरीबों की सामाजिक, आर्थिक परिस्थितियाँ उन्हें उस वर्ग में प्रविष्ट नहीं होने देतीं कि वे ऐसी सुंदरता को हासिल कर सकें. ऐसा नहीं कि उनके वर्ग में सुंदरता नहीं होती. होती है, पर वह भी आमतौर पर पूंजीवादी ताकतों द्वारा उच्च वर्ग में खींच ली जाती है. कुल मिलाकर, इन गरीबों के हिस्से में कुंठा ही आती है- कभी न मिटने वाली कुंठा. यही कुंठा किसी नाजुक क्षण में उन्हें मजबूर करती है कि वे सब आगा-पीछा भूलकर किसी सुंदर स्त्री को दबोच लें और बाद में परिणामों की भयावहता देखकर पछताते रहें.

इससे जुड़े एक और कारण पर गौर करना चाहिए जो शायद बलात्कार से जुड़ी हिंसा पर कुछ प्रकाश डाल सके. इसका संबंध असंतुलित विकास, शहरीकरण और प्रवासन (Migration) जैसे विषयों से है. हम जानते हैं कि दिल्ली जैसे बड़े शहरों में लाखों लोग रोज़गार की तलाश में अपना घर-बार छोड़कर आते हैं. ये रिक्शा, बस, ऑटो चलाते हैं या मजदूरी, चौकीदारी जैसे बोझिल और थकाऊ काम करते हैं. इनकी आय इतनी कम होती है कि आमतौर पर ये पत्नी और परिवार को अपने साथ नहीं रख पाते. इन्हें न पारिवारिक आत्मीयता नसीब होती है, न गार्हस्थिक प्रेम की कोमल और गुलाबी दुनिया. इनका काम इतना बोझिल होता है कि वह सृजनात्मक संतोष नहीं दे पाता. यह संपूर्ण भावनात्मक व सृजनात्मक असंतोष एक ओर इन्हें शराब और नशे की ओर धकेलता है तो दूसरी ओर इनकी यौन आक्रामकता तथा अपराध करने की हिम्मत को बढ़ाता है. मैडिकल साइंस के कुछ लोगों द्वारा प्रतिपादित इस बात को ध्यान रखा जाना चाहिए कि जो 'टैस्टोस्टरोन' नामक हार्मोन पुरुषों में यौन-आक्रामकता पैदा करता है, वह तनाव, असंतोष और गुस्से के कारण और उद्दीप्त होता है. तनाव से भरी ज़िंदगी के समानांतर हर समय आसपास मौजूद दिल्ली की यौन-चकाचौंध इनकी शारीरिक-भूख को बेतरह उद्दीप्त कर देती है, इतनी ज़्यादा कि यौन-असंतोष इनका स्थाई भाव हो जाता है और बार-बार बेचैन करता है. उनके पास यह विकल्प होता है कि वे किसी वेश्या के पास चले जाएँ पर वेश्यावृत्ति भी हमारे देश में गैर-कानूनी है. अगर गैर-कानूनी वाले पक्ष को छोड़ दें तो भी इनकी इतनी हैसियत नहीं होती कि वे पंचतारा होटलों की विज्ञापन सुंदर कॉलगर्ल्स के पास जा सकें. परंपरागत रेडलाइट इलाके में ये जा सकते हैं पर वह इनके सपनों को संतुष्ट नहीं कर पाता. कुछ देशों ने इस असंतोष को दूर करने के लिए ‘यौन-खिलौनों’ (Sex toys) को अनुमति दी है जो काफ़ी हद तक इस अभाव की पूर्ति करने में कारगर साबित होते हैं. पर, चूँकि भारत में यह विकल्प भी गैरकानूनी है, इसलिए कुंठित युवाओं के तनाव का विरेचन हो नहीं पाता. इस सबका परिणाम यह है कि वे दिमाग पर एक बोझ लिए रहते हैं. जब कभी उन्हें कोई आकर्षक लड़की/महिला दिखती है (विशेषतः ऐसी लड़कियाँ या महिलाएँ जिनका पहनावा काफ़ी उदार किस्म का हो) तो उनका मन बुरी तरह ज़ोर मारता है, पर आसपास के माहौल का डर हर बार भारी पड़ता है. ऐसी हर विफलता नारी देह के प्रति इन्हें ज़्यादा भूखा और बीमार बना देती है. यही संचित कुंठा एक अजीब सी क्रूरता को जन्म देती है. यही कारण है कि अगर कभी कोई लड़की इनके जाल में फँस जाती है तो मामला सिर्फ़ यौन-क्रिया तक नहीं रह जाता. उसके बलात्कार के बहाने वो हर पिछली प्यास बुझा लेना चाहते हैं. उसकी देह को नोच-नोचकर हर पुरानी हार का बदला ले लेना चाहते हैं. उसकी हर चीख इनके कुंठित मन को गहराई तक संतुष्ट करती है.

ज़्यादा बलात्कारों का एक कारण सामाजिक दबावों की अनुपस्थिति में भी छिपा है. बलात्कार के अधिकांश अपराधियों को यह भय नहीं होता कि उनका परिवार और समाज उनका बहिष्कार कर देगा. सामंती समाज में लड़के द्वारा किये गए बलात्कार को क्षम्य माना जाता है. कुछ लोग तो उसे 'प्राकृतिक न्याय' (Nature’s justice)  कहकर भी मुक्त हो जाते हैं. दूसरी ओर, बड़े शहरों में होने वाले बहुत से बलात्कार उन लोगों द्वारा किये जाते हैं जो बाहर से आए हैं और अपने समाज के दबावों से तात्कालिक तौर पर मुक्त हैं. जातिवादी या सांप्रदायिक दमन के समय तो सामाजिक दबाव पूरी तरह हट जाता है और यही अपराध सामाजिक प्रशंसा का कारण बन जाता है. यह बात दावे के साथ कही जा सकती है कि अगर समाज इसे अत्यंत घृणित कार्य के रूप में देखे और अपराधी का समाज से बायकॉट कर दे तो अधिकांश लोग ऐसी हिम्मत नहीं कर सकेंगे. कानून से लड़ना आसान है, पर अपने समाज से लड़ने की ताकत बहुत कम लोगों में होती है.

क़ानून के भय का अनुपस्थित होना भी बलात्कारों का एक स्पष्ट कारण है. अपराधियों को पता होता है कि कानून व्यवस्था बहुत लचर है और उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकती. अदालतों में प्रायः साबित कर दिया जाता है कि यौन संबंध में लड़की की सहमति शामिल थी. आरोपियों के वकीलों का प्रसिद्ध, परम्परागत और घटिया तर्क है कि अगर सुई हिलती रहे तो उसमें कोई धागा कैसे डाल सकता है? प्रसिद्ध विचारक रूसो तक ने कहा है कि औरत की मर्ज़ी के बिना कोई यौन संबंध नहीं बन सकता. पुलिस के कर्मचारी प्रायः सामंती समाज से ही आते हैं और वे इसे बहुत चिंताजनक कृत्य नहीं मानते. वे खुद लड़की को समझाते हैं कि मामले को रफ़ा-दफ़ा करने की कोशिश करे क्योंकि उसके लिए ऐसे मामले में पड़ना ठीक नहीं हैं. सरकारी वकील प्रायः सुविधाओं और इच्छाशक्ति से वंचित होते हैं. अगर आरोपी अमीर है तो उसके वकीलों के सामने वे टिकने की ताकत नहीं रखते. कई मामलों में वे आरोपियों से पैसा लेकर खुद ही मामले को कमज़ोर बना देते हैं. न्यायाधीशों में महिलाओं की संख्या बेहद कम है. कम ही पुरुष न्यायाधीशों से ऐसे मामलों में संवेदनशीलता की उम्मीद की जा सकती है. क़ानून के प्रावधान भी कमज़ोर हैं. अधिकांश मामलों में आरोपी जमानत पर छूटकर बाहर घूमते हैं और शिकायत करने वाली लड़की हमेशा दूसरी दुर्घटना के भय में जीती है. कानूनी प्रक्रिया बेहद लंबी और थका देने वाली है. वह बलात्कार से भी ज़्यादा प्रताड़ित करती है. अदालतों के पास न्यायाधीश और अन्य सुविधाएँ कम होने के कारण मुक़दमे कई-कई साल तक लटके रहते हैं. अगर जुर्म साबित हो जाए (जो कि 10% मामलों में भी नहीं हो पाता ) तो भी बहुत कठोर सज़ा का प्रावधान नहीं है. उसके बाद हाइकोर्ट और सुप्रीमकोर्ट के दरवाज़े भी खुले हैं. वहाँ भी सज़ा हो जाए तो राष्ट्रपति से दया की अपील का प्रावधान है. यह सब होते-होते न्याय का गला पूरी तरह घुट चुका होता है. अपराधियों के मन में कुल मिलाकर भय का संचार नहीं हो पाता.

सवाल यह भी है कि बलात्कारों की इस संस्कृति को कैसे रोका जा सकता है? इसके लिए कानूनी उपाय तो एक छोटा सा पक्ष है, असली समाधान बहुत से उपायों को एक साथ लागू करने में छिपा है. भूलना नहीं चाहिए कि सामाजिक उपाय धीरे-धीरे असर दिखाते हैं, इसलिए अधैर्य से बचते हुए कई उपायों को लागू करना चाहिए. कुछ उपाय ये हो सकते हैं-

1) यौन आक्रमण के मामलों के लिए पूरे देश में ‘फास्ट ट्रैक कोर्ट’ बनाई जाएँ. इनमें महिला न्यायाधीशों की उपस्थिति पर बल दिया जाए. इन्हें मामला निपटाने के लिए अधिकतम 3 महीनों का समय दिया जाए. किसी अदालत में ज़्यादा मामले हों तो ऐसी ही दूसरी अदालत को मामला स्थानांतरित किया जाए. हाईकोर्ट और सुप्रीमकोर्ट भी ऐसी ही अवधि निर्धारित करें. राष्ट्रपति ऐसे मामलों पर अति दयालु होने से बचें और 3 महीनों के भीतर दया याचिका का निपटारा करें. पीड़ित को बार-बार अदालत आने की बाध्यता से मुक्ति मिले. अगर अदालत में तकनीकी सुविधा है तो वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग की मदद से उसकी गवाही हो ताकि उस पर दबाव न पड़े. 

2) अगर अपराधी न्यायाधीश के सामने गुनाह कबूल कर ले तो पहले अपराध की स्थिति में दंड की मात्रा कुछ कम कर दी जाए ताकि न्याय मिलने में देरी न हो. अगर बलात्कार किसी छोटी बच्ची का हो या उसमें हिंसा भी शामिल हो तो किसी भी स्थिति में जमानत न दी जाए. दुर्लभतम मामलों में मृत्युदंड की व्यवस्था हो, विशेषतः बहुत छोटी बच्चियों या अति हिंसक गैंगरेप जैसे मामलों में. उन पर आर्थिक जुर्माना लगाने की व्यवस्था भी की जाए. 

3) ऐसे मामलों के लिए हर शहर में पुलिस की विशेष शाखाएँ (क्राइम ब्रांच की तरह) हों जिनमें अधिकांश कर्मचारी महिलाएँ हों. जो पुरुष कर्मचारी हों, उन्हें विशेष प्रशिक्षण दिया जाए ताकि वे महिलाओं (या अन्य बलात्कृत व्यक्तियों) के दर्द को महसूस करें, सामंती रवैया न अपनाएँ. तृतीयलिंगियों के अधिकारों तथा उनकी सामाजिक दशा के संबंध में संवेदनशील बनाने के लिए इस विभाग के सभी कर्मचारियों को प्रशिक्षण दिया जाए. दीर्घ अवधि में यह प्रशिक्षण सभी पुलिस कर्मचारियों को देने की व्यवस्था की जाए.

4) वेश्यावृत्ति को समाप्त करना किसी समाज के बस की बात नहीं है. इस बात पर गंभीर चर्चा का वक्त आ गया है कि क्या उसे वैधता प्रदान की जाए? इस कदम से बलात्कारों की संभावना तो कम होगी ही, और भी कई लाभ होंगे. जैसे, यह दलालों द्वारा वेश्याओं के आर्थिक व दैहिक शोषण को रोकेगा, उनके बच्चों के मानवाधिकारों को सुरक्षित करेगा तथा एड्स जैसे रोगों के संक्रमण को कम करने में भी सहायक होगा. इसके अलावा, ‘प्लास्टिक सेक्स’ अर्थात ‘यौन-खिलौनों’ को भी वैधता प्रदान करने के बारे में सोचा जा सकता है. अगर यौन-इच्छाओं की संतुष्टि निर्जीव वस्तुओं के सहारे हो जाए तो शायद हम कई संभावित बलात्कारों तथा एड्स जैसी बीमारियों से बच सकते हैं.

5) पुलिस, सेना तथा अर्धसैनिक बलों के कर्मचारियों को नियमित अंतराल पर घर जाने का मौका मिलना चाहिए ताकि उनकी यौन इच्छाएँ संतुष्ट रहें. काम का दबाव और तनाव भी इतना नहीं होना चाहिए कि वही बलात्कार का रूप ले ले. युवा कर्मियों को यथासंभव ऐसी जगहों पर नियुक्त किया जाना चाहिए कि वे चाहें तो अपने परिवार को साथ रख सकें या आसानी से अपने घर आ-जा सकें.

6) शहरों में असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले कर्मचारियों की कार्य-स्थितियाँ सुधारने की कोशिश की जानी चाहिए. उन्हें इतना वेतन मिलना चाहिए कि वे अपने परिवार के साथ शहर में रह सकें. छुट्टियाँ भी इतनी ज़रूर मिलें कि वे अमानवीय तनाव से बच सकें और बीच-बीच में अपने घर जा सकें. काम के घंटे भी सामान्य स्थितियों में 8-9 से ज़्यादा न हों.

7) महिलाओं को शिक्षा मिले, यह सबसे बड़ी प्राथमिकता होनी चाहिए. शिक्षा रोजगारपरक हो ताकि वे धीरे-धीरे दूसरों पर निर्भरता से मुक्त हो सकें. उन्हें महिलाओं को उपलब्ध अधिकारों की विस्तृत जानकारी दी जानी चाहिए. साथ ही, आत्मरक्षा का बुनियादी प्रशिक्षण उनके पाठ्यक्रम का अनिवार्य हिस्सा होना चाहिए ताकि वे ‘सॉफ्ट टारगेट’ न रहें. उन्हें आत्मरक्षा के लिए छोटे-मोटे उपायों (जैसे मिर्च का स्प्रे, सेफ्टी पिन साथ रखना) के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए. उन्हें संपत्ति में हिस्सा दिए जाने का मामला गंभीरता से उठाना चाहिए. उनकी सामाजिक सुरक्षा जितनी बढ़ेगी, उतना ही ज़्यादा वे प्रतिरोध कर सकेंगी और अपराध स्वतः कम होंगे. एक ऐसे 'फंड' का निर्माण भी किया जाना चाहिए जिससे बलात्कार पीड़ित महिलाओं के आर्थिक-सामाजिक पुनर्वास की व्यवस्था की जाए. उनके लिए 'विशेष बीमा' जैसी योजना भी चलाई जानी चाहिए ताकि ऐसी किसी दुर्घटना की स्थिति में उनका पुनर्वास आसान हो सके.

8) जिस तरह फिल्मों के लिए सैंसर बोर्ड की व्यवस्था है, वैसे ही टी.वी. के विज्ञापनों और कार्यक्रमों के लिए भी होनी चाहिए. सरकार के अनावश्यक हस्तक्षेप से बचने के लिए इसकी सदस्यता समाजशास्त्रियों, प्राध्यापकों, रिटायर्ड न्यायाधीशों, वरिष्ठ पत्रकारों आदि को दी जा सकती है. रात के 11 बजे से पहले वही कार्यक्रम दिखाए जाने चाहिएँ जो बच्चों के मन पर अनुचित असर न डालें. उसके बाद सिर्फ़ वयस्कों को संबोधित कार्यक्रम दिखाए जा सकते हैं. इंटरनेट पर पोर्न साइट्स को रोकने का उपाय हो सकता हो तो किया जाना चाहिए. साथ ही, स्कूलों तथा मीडिया द्वारा माता-पिता को बताया जाना चाहिए कि बच्चों को इनसे कैसे बचाया जा सकता है?

9) स्कूलों में नवीं कक्षा से यौन शिक्षा (Sex education) अवश्य दी जानी चाहिए. यौन शिक्षा का अर्थ व्यापक स्वास्थ्य शिक्षा से है जिसमें बच्चों को समझाया जाए कि कैसे वे किसी व्यक्ति द्वारा अपने शरीर के गलत स्पर्श आदि को पहचान सकते हैं. दूसरों की शरीर-भाषा (Body language) तथा यौन-संकेतों को समझने की परिपक्वता भी विकसित की जानी चाहिए. इसके अलावा, उन्हें यह भी समझाया जाना चाहिए कि विवाह से पूर्व यौन अनुभवों के क्या नुकसान हो सकते हैं?

10) संसद या किसी भी विधानमंडल या पंचायत आदि के चुनाव में ऐसे सभी व्यक्तियों के प्रत्याशी बनने पर रोक लगाई जानी चाहिए जिन पर बलात्कार जैसे किसी मामले में अपराध सिद्ध हुआ हो या जिसके विरुद्ध न्यायालय को प्रथम दृष्टि में आरोप सत्य दिखाई पड़े.

11) सबसे बड़ा परिवर्तन समाज के दृष्टिकोण में होना चाहिए. बलात्कार को ‘दुर्घटना’ की तरह देखने की आदत विकसित की जानी चाहिए. जिस तरह सड़क की दुर्घटना में हम पीड़ित के प्रति सहानुभूति रखते हैं और उसे अपराधी नहीं मानते; वैसे ही बलात्कार पीड़ित महिला के प्रति संवेदना का भाव होना चाहिए, उसे ज़िंदगी भर अपमानित नहीं किया जाना चाहिए. अपराधियों का सामाजिक बायकॉट होना चाहिए ताकि ऐसे अपराध करने के प्रति भय पैदा हो. घर के भीतर लिंग समता के गंभीर प्रयास किये जाने चाहिएँ. लड़कों को घर के कामों में सहभागी बनाया जाना चाहिए. परवरिश की प्रक्रिया ऐसी होनी चाहिए कि लड़कों और लड़कियों के बीच अधिकतम समता सुनिश्चित हो. धर्म से जुड़े विश्वासों को भी इस कोण से जाँचा जाना चाहिए कि वे लिंग भेद को प्रोत्साहित तो नहीं करते हैं.  

मेरा ख्याल है कि ये सुझाव समाज को यौन अपराधों तथा उनसे जुड़ी हिंसा से काफ़ी हद तक बचा सकते हैं. इन्हें सफल बनाने के लिए सिर्फ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति पर्याप्त नहीं है, सामाजिक इच्छाशक्ति की भी बड़ी भूमिका है. यह रास्ता स्त्रियाँ अकेले पार नहीं कर सकतीं, इसके लिए ज़रूरी है कि पुरुष उन अवैध अधिकारों को स्वेच्छा से छोड़ने की ताकत अर्जित करें जो परंपरा ने स्त्रियों का हक़ मारकर उन्हें दिए हैं.


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