Tuesday, November 17, 2015

दिखावा

कहानी/ मोहनलाल मौर्य
वैसे तो दादाजी छ: माह से बिस्तर पकड़े हुए हैं, पर पिछले कई दिनों से बिस्तर पर ही मलमूत्र करते हैं। दादाजी का इलाज करवाना तो दूर, कोई उन से खैरियत भी नहीं पूछने आता। दादाजी के पांच बेटे हैं और पांचों सरकारी सर्विस में हैं। किंतु दादाजी के पास एक भी नहीं आता। बेचारे दादाजी घर के पीछे बाड़े में एक टूट सी झोपड़ी में जिंदगी और मौत के बीच जंग लड़ रहे है। दादीजी ही उनकी देखभाल करती हैं।
पहले दादाजी हमारे साथ घर में ही रहते थे, जब से दादाजी को टीबी हुई है, तब से दादाजी को घर से झोपड़ी में भेज दिया है। दादाजी दिन-रात खांसते रहते थे और बार-बार थूकते थे। यह सब दादाजी के बेटे-बहूओं को अच्छा नहीं लगा। अब तो झोपड़ी ही दादाजी का महल है। टीबी और सांस की तकलीफ से पीछा छुड़ाने के लिए दादाजी ईश्वर को भी खूब कोसते हैं। फिर भी मौत नहीं आती। दादाजी के साथ मौत भी खेल खेल रही है। अब पीड़ा सहन करने की क्षमता दादाजी में नहीं रही है। दादाजी अपनी बीमारी से कहीं ज्यादा बेटे-बहुओं की घृणा और तिरस्कार से पीड़ित हैं। जिन्हें पाल-पोस कर बड़ा किया और कामयाब बनाया वही, बेटे उनसे मुंह मोड़ लिए। बेटे बुढ़ापे की लाठी होती है। लेकिन पांचों बेटों में से एक भी बुढ़ापे का सहारा नहीं बना। बड़ा बेटा राम बैंक में अधिकारी है, जो मेरे पापा हैं और इनसे छोटे माधव अंकल पुलिस में अधिकारी हैं। माधव अंकल से छोटे घनश्याम अंकल भी पुलिस में सिपाही हैं। घनश्याम अंकल से छोटा रेवतीरमन अंकल पीडब्लूडी में बाबू है। सबसे छोटा और सबसे खोटा देवीसहाय अंकल शिक्षा विभाग में व्याख्याता है। पांचों भाई एक ही छत तले रहते हैं। हमारा घर नहीं, आलीशान बंगला है। इसमें रहने वाले सदस्यों में करुणा व परोपकार एक दिखावा है। दिखावा भी ऐसा है, जो दिखाई नहीं देता।
पांचों भाइयों कि एक माह की तनख्वाह मिलाकर लाखों में है। पर दादाजी के इलाज के लिए कोई फूटी कोड़ी भी खर्च नहीं करता। यह लोग तो दादाजी के परलोक सिधारने की माला फेरते रहते हैं। कब बूढ़ा मरे और कब यह झोपड़ी यहां से हटे? क्योंकि झोपड़ी से मलमूत्र की बदबू आती थी। घर के शौचालय में शौच करने पर तो बेटे-बहूओं ने पाबंदी लगा रखी है। दादाजी ने कभी स्वप्न में भी नहीं सोचा होगा, उनके अपने बेटे इतने निर्दयी होंगे। भला हो उस सरकारी अस्पताल के डॉक्टर का, जो मुझे समय-समय पर दादाजी के लिए टीबी की दवाइयां देते रहते है। ये दवाइयां नहीं होती तो दादाजी अब से पहले ही परलोक सिधार जाते। अब तक इन दवाइयों से ही जीवित हैं। किंतु सांस की तकलीफ से दम घुटता है। अभी तीन माह पहले रेवती अंकल की लड़की को मामूली सी खांसी हो गई थी, तब अंकल उसको शहर के बहुत बड़े अस्पताल के डॉक्टर के पास लेकर गए थे। मामूली सी खांसी होने पर बेटी को तो शहर के बड़े अस्पताल के डॉक्टर के पास लेकर जाते हैं, और दादाजी को खैराती दवाखाना से भी दवा नहीं दिलवाते हैं। दादी ही दादाजी का ख्याल रखती हैं।
बहुएं तो दिनभर गपशप मारती रहती हैं या फिर टीवी के आगे जमी रहती हैं। बहुओं को झाडू-पोंछा के सिवाह काम क्या है? अपने ही घर में दादी नौकरानी की तरह रखती हैं। बहुएं दो वक्त की रोटी भी देती हैं, तो दस बात सुनाकर देती हैं। दादाजी के साथ दादी की जिंदगी भी नर्क बन गई है। सुबह से शाम तक दादी दादाजी की सेवा में ही लगी रहती हैं। जब मैं कभी-कभार दादाजी के पास बैठकर बातें करता हूं तो दादाजी की वेदना फूट पड़ती है। वे मुझे अपने अतीत में खींच ले जाते हैं। अपने और बेटों के अतीत को वर्तमान पटल पर रखते हैं, तो मुझे आत्मग्लानि होती है। दादाजी ने खून-पसीना एक कर अपने बेटों को पढ़ाया-लिखाया और कामयाब बनाया। वे ही बेटे अब उनका खून चूस रहे हैं। दादाजी बताते हैं कि बेटों का भविष्य संवारने के लिए, मैं सर्दी, गरमी, बारिश एवं ताप-बुखार में भी मजदूरी नहीं छोड़ता था। मैं और तेरी दादी कई बार भूखे सो जाते थे, पर तेरे पापा और तेरे चाचाओं को कभी भूखे मरने नहीं दिया। मैंने मेरी तरफ से इनकी परवरिश में कोई कमी नहीं छोड़ी थी। इनकी तरह मैं दिखावा नहीं करता था। मैंने तो इनकी टट्टी-पेशाब भी साफ की है, जब यह छोटे थे। आज भी मेरे दिल में इनके प्रति वात्सल्य है। पोते-पोतियों में सबसे बड़ा पोता मैं ही हूं। दादाजी आज भी मुझे डब्बू कह कर ही बुलाते हैं, जो मेरे बचपन का नाम था।
वैसे मेरा नाम दीपक है। जब भी मैं दादाजी से दो घड़ी बैठ कर बातें करता हूं तो दादाजी का मुरझाया चेहरा खिल उठता है और उनकी आंखों में सुकून दिखाई देता है। मेरे से बात करना दादाजी को अच्छा लगता है और मुझे भी, पर मैं कभी-कभार ही दादाजी के पास आता हूं। दादाजी मुझे कहते भी खूब हैं, डब्बू तू रोज आया कर, मेरा मन.. और मेरा भी मन करता है रोज आने को, पर कॉलेज की वजह से नहीं आ पाता हूं..। दादाजी मुझे हमेशा एक बात अवश्य कहते थे। डब्बू तू तेरे मम्मी-पापा के बुढ़ापे का सहारा बनना और उनकी सेवा करना, मां-बाप की सेवा ही सबसे बड़ी सेवा है। जब भी दादाजी के मुंह से यह सुनता हूं तो मेरे पापा और चाचाओं पर गुस्सा आता हैं। मन तो करता है, इनको खरी-खरी कहूं ,पर मैं ऐसा कर नहीं सकता। मैं आदर्शवादी दादाजी का पोता हूं। दादाजी ने मुझे सदैव बड़ों का सम्मान करना सिखाया है। बड़े-बुजुर्गों का सम्मान करना मेरा फर्ज है, जिसे मैं निभा रहा हूं। दादाजी के प्रति जो मेरे से हो पाता है वह मैं अवश्य करता हूं।
आज सुबह से दादाजी बैचेन लग रहे थे। उनकी तबीयत आज कुछ ज्यादा ही खराब थी। बार-बार सांसें अटक रही थीं। उन्होंने मुझे बुलाया और मेरे सिर पर हाथ रखकर लड़खड़ाती आवाज में कहा, डब्बू मेरे बेटे तू पढ़-लिखकर बड़ा आदमी जरूर बनना, पर अपने मां-बाप को दु:ख मत देना। यह कह कर दादाजी ने हमेशा के लिए आंखें मूंद लीं।
बेटे दादाजी के पार्थिव देह को झोपड़ी से घर में ले आए। जीवित के तो समीप भी नहीं गए और अब पार्थिव देह के समीप बैठकर वात्सल्य का भाव दिखा रहे हैं। दादाजी को देखकर नाक चढ़ाने वाली बेटों की बहुएं भी थूक के आंसू लगाकर रोने लगीं। रूलाई तो दादी के आंखों में थी, जो थमने से भी नहीं थम रही थी। अंतिम संस्कार की तैयारी तो ऐसे कर रहे थे .. दादाजी मरे नहीं जिंदा हो। दादाजी जिंदा थे, तब तो पानी भी नहीं पिलाया और अब पार्थिव देह पर इत्र छिड़क रहे हैं। जिंदे को तो फल खिलाया नहीं और पार्थिव देह को फल-फूल मालाओं से सजाया गया। बैंड-बाजे से दादाजी का जनाजा निकाला गया। तीये की बैठक का इश्तहार अखबारों में दिया। दादाजी के इलाज के लिए पैसे नहीं थे और इश्तहार के लिए पैसे आ गए।
तेरहवीं पर मृत्यु भोज का आयोजन किया। मृत्यु भोज में एक से बढ़कर एक पकवान बनाए गए। इस दिखावे के लिए के लिए बेटों ने पानी की तरह पैसे खर्च कर दिए। लेकिन जब दादाजी जिंदा थे, तब किसी ने फूटी कोड़ी भी उन पर खर्च नहीं की। जो दिखावा मरने के बाद किया है, वही दिखावा आत्मीयता से जिंदे पर करते तो दादाजी टीबी व दु:ख,दर्द से नहीं मरते। पांचों बेटे इतने निर्दयी थे कि कभी दादाजी के प्रति चिंतित नहीं दिखे। जितना पैसा इन्होंने मृत्यु भोज पर खर्च किया है, उसमें से आधा भी दादाजी की बीमारी पर खर्च कर देते तो शायद आज दादाजी हमारे बीच जिंदा होते। दादाजी की मृत्यु के बाद बेटों ने समाज के सम्मुख जो दिखावा किया है, उसे देखकर तो कोई कह ही नहीं सकता की रामप्रसाद जी के बेटे परोपकारी नहीं हैं। इन्होंने दिखावे पर पैसा खर्च कर दिया, किंतु बीमारी पर नहीं किया। मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूं कि मेरे दादाजी की आत्मा को आत्मशांति मिले।
https://mlmourya.wordpress.com/2015/07/26/%E0%A4%A6%E0%A4%BF%E0%A4%96%E0%A4%BE%E0%A4%B5%E0%A4%BE/#respond

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