Thursday, November 12, 2015

माँ जीवन

यथार्थ में संशोधन का प्रयास
शक्य है जब नदी को लगे प्यास
सारी व्याकुलता बन जाए एक खोज
और ह्रदय के गहरे से उठे कोई मौज
जब रीढ़ की हड्डी भी कर दे झुकने से मनाही
और कलम भी छोड़ दे पीना स्याही
जब अर्थों से शब्द विलीन हो जाए
और मौन समाधि में लीन हो जाए
सब कुछ रूपांतरित हो जाए नदी की प्यास में
और दौड़ पड़े सागर की तलाश में
भव सागर और ज्ञान सागर एक हो जाए
और प्यासी नदिया उसमें डूब जाए
तब विचारना क्या कोई संशोधन अब भी बाकी है
इस प्रकृति में क्या तू सच में एकाकी है
क्या अब भी कोई यथार्थ दिखाई देता है
क्या अब भी कोई और परमात्मा रचयिता है
यदि है तो समझना नदी अब भी प्यासी है
यथार्थ में संशोधन अब भी बाकी है....
- माँ जीवन

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