Monday, November 30, 2015

एक अज्ञात महिला श्रद्धालु ने शनिदेव को तेल क्या चढ़ा दिया

विद्रूप भी तो एक रूप ही है! फ़र्क़ सिर्फ़ रूप से उत्पन्न होने वाले भावों का है. इसी से कुछ सुहाना होता तो कुछ वीभत्स. प्रकृति ने हरेक स्वरूप को एक रूप दे रखा है. ग़ुलाब यदि चमेली जैसा दिखने लगे, या चमेली से ग़ुलाब की ख़ुशबू आने लगे तो कैसा लगेगा? तबले से यदि सितार के स्वर फूटने लगें तो कैसा लगेगा? पत्रकार यदि सवाल पूछने के बजाय सेलेब्रिटी के साथ सेल्फ़ी खिंचवाकर ख़ुद को धन्य समझने लगें तो कैसा लगेगा? मीडिया संस्थान यदि प्रधानमंत्री से तारीफ़ के बोल सुनकर इतराने लगें, तो कैसा लगेगा?

‘विडम्बना’, ‘शर्मनाक’ या ‘दुःखद’ जैसे शब्दों में तो शायद अब वो जान या महिमा बची ही नहीं जो मौजूदा दौर में बदलते धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक मूल्यों तथा प्रतीकों को सही ढंग से ज़ाहिर और परिभाषित कर सके! शब्द सम्पदा अब बौनी हो चुकी है. जैसे मच्छरों की प्रतिरोधकता के आगे मच्छर मार दवाईयां (Mosquito Repellents) बेअसर हो चुकी हैं.

देश के बहुसंख्यक हिन्दू समाज ने एक ओर तो दिन-ब-दिन उघड़ती नारी की देह को प्रगतिशीलता के सांचे में ढाल दिया. दूसरी ओर, सैकड़ों साल पुरानी पाखंडी परम्पराएं आज भी हमारी सहनशीलता पर सवाल खड़े करती हैं. मन्दिर में नारी-तत्व से परहेज़ नहीं है. लेकिन नारी से है. क्योंकि पोंगापन्थियों ने कभी रजस्वला को अपवित्र क्या बता दिया था.

उनके करोड़ों अनुचर आज भी अन्ध-भक्ति के उन मूर्खतापूर्ण प्रतीकों को अपने कन्धों पर लाशों की तरह ढो रहे हैं. पीढ़ी दर पीढ़ी ख़ुद को गौरवान्वित महसूस कर रहे हैं. इत्तेफ़ाक से यदि कोई उन्हें आईना दिखा दे तो वो उसे देश-द्रोही बताकर भारत से पलायन कर लेने का फ़तवा सुना सकते हैं. यही पाखंडी ख़ुद को भारत माता का सबसे सच्चा लाल बताते नहीं अघाते.


महाराष्ट्र के अहमदनगर ज़िले के नेवासा तालुका के गांव ‘शनि शिंगणापुर’ में एक अज्ञात महिला श्रद्धालु ने शनिदेव को तेल क्या चढ़ा दिया, अनर्थ हो गया. 400 साल से जारी पाखंडी परम्परा टूट गयी. लेकिन समाज और मन्दिर ट्रस्ट में बैठे पाखंडियों ने मौक़े पर फ़ायदा नहीं उठाया.

इसे कुरीति को ख़त्म करने के बहाने के रूप में नहीं देखा. बल्कि पिल पड़े मन्दिर के शुद्धिकरण में. क्योंकि प्रगतिशील महिला ने सीसीटीवी कैमरे में अपने सबूत दर्ज़ करवा दिये थे. उसने सीमा-पार से आने वाले आतंकवादी जैसा काम किया. बवाल मचाने के लिए ये कोई मामूली वजह नहीं थी. मन्दिर के सुरक्षाकर्मियों के जागने से पहले ही श्रद्धालु महिला ओझल हो चुकी थी.


वाह! श्रद्धालु महिला के अदम्य साहस को सलाम! वैसे, अगर वो पकड़ी जाती तो पाखंडी उसे ‘अख़लाक़’ बनाने से क्यों परहेज़ करते! बच गयी बेचारी! शनिदेव ने उसकी श्रद्धा को स्वीकार लिया. उसे बचा लिया. वर्ना शनिदेव के लिए महिला को परलोक पहुंचाना क्या कोई बड़ी बात थी! मज़ेदार बात ये भी है कि कभी बोम्बे हाईकोर्ट ने इस परम्परा में दख़ल देने से तौबा कर ली. ये मन्दिर ट्रस्ट का दावा है.

यानी, यदि कोर्ट भी कुछ नहीं कर सकती, तो चुप मारकर बैठिए. बस, बात ख़त्म! जो करेंगे, भगवान ख़ुद करेंगे. भगवान ने तो कर दिया! महिला को माफ़ कर दिया. उसकी श्रद्धा और तेल-चढ़ाने को स्वीकार कर लिया. फिर भक्त क्यों मठाधीशी कर रहे हैं? लेकिन ये उनसे पूछे कौन? बिल्ली के गले में घंटी बांधे कौन!

रविवार को मन्दिर का शुद्धिकरण हुआ. स्थानीय लोगों में गुस्सा था. विरोध में ‘शनि शिंगणापुर बन्द’ मनाया गया. अन्ध-श्रद्धा निर्मूलन समिति ने श्रद्धालु महिला की ‘करतूत’ का स्वागत किया. आत्मग्लानि तो मन्दिर ट्रस्ट को भी हुई. लेकिन उसके बयान पर परम्परावादी पाखंड हावी है कि ‘हम महिलाओं का सम्मान करते हैं. उस श्रद्धालु महिला और उसकी भावना का भी सम्मान करते हैं. जिसने वहां जाकर पूजा की. लेकिन पुरानी परम्परा के अनुसार वहां महिलाएं जाकर पूजा नहीं कर सकतीं. हम इसे बदल नहीं सकते.’

शनिदेव के मन्दिरों में शिंगणापुर धाम का विशेष महत्व है. यहां शनि देव की कोई मूर्ति नहीं है. बल्कि एक बड़ी सी काली शिला है. इसे शनि देव का विग्रह माना जाता है.

शनि शिंगणापुर की कहानी बड़ी रोचक है. क़रीब चार सौ साल पहले एक बार शिंगणापुर में ख़ूब बारिश हुई. बाढ़ और प्रलय जैसी दशा बन गयी. एक रात एक गांव वाले के सपने में शनि महाराज आये. बोले, मैं पानस नाले में विग्रह रूप में मौजूद हूं. उसे लाकर गांव में स्थापित करो. सुबह गांव वालों को ये बात पता चली तो सभी पानस नाले पर पहुंच गये. वहां शनि का विग्रह देख हैरान हुए. लेकिन विग्रह को उठाकर लाना तो दूर, वो उसे हिला तक नहीं सके. हारकर वापस लौट गये.

अगली रात भी शनि देव उसी व्यक्ति के सपने में आये और बताया कि कोई मामा-भांजा मिलकर ही मुझे उठा सकता है. मुझे उस बैलगाड़ी में बैठाना जिसे मामा-भांजा ही बैल की तरह खींचें. अगले दिन यही हुआ. विग्रह गांव में स्थापित हो गया. दैवीय कृपा से गांव की समृद्घि बढ़ने लगी. लेकिन ये कोई नहीं जानता कि मन्दिर में नारियों के प्रवेश पर कब और क्यों रोक लगी?


हिन्दू लोग साल में दो बार नवरात्रि पर्व मनाते हैं. नव-दुर्गा की पूजा करते हैं. देश के बंटवारे से पहले यहां 51 शक्ति पीठ यानी देवी पार्वती का पवित्रतम स्थल हुआ करता था. अब 42 शक्ति पीठ देश में हैं, बाक़ी विदेश में. देश में नारियों के साथ अगिनत अत्याचार की ज़ोरदार परम्परा है. हालांकि, ये उपदेश भी आये दिन सुनायी देता है कि ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’.

शुक्रवार को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी लोकसभा ने इस सूक्ति का इस्तेमाल किया था. लेकिन वो ये नहीं बोल सके कि मन्दिरों में नारियों से हो रहा भेदभाव ख़त्म होना चाहिए. बोल भी देते तो क्या पाखंडी उनकी बातों को तरज़ीह देते. वैसे भी संविधान ने हरेक भारतवासी के लिए भेदभावरहित जिस समानता की बात की है, वो अभी है कहां! सरकार के लिए ‘संविधान’ सर्वोपरि है. उसमें लिखी बातों को जानें, ‘हम भारत के लोग’ यानी ‘We, the people of India’.


शनि शिंगणापुर में नारियां बर्दाश्त नहीं. लेकिन गुजरात के भावनगर ज़िले के सारंगपुर वाले शनि देव ख़ुद नारी रूप में हैं. वहां उनकी हनुमान जी के साथ पूजा होती है. चार सौ साल पुराने इस मन्दिर में नारियों के लिए कोई वर्जना नहीं है. गोवा के कोंडा ज़िले में विष्णु की पूजा उनके नारी रूप ‘मोहिनी’ में होती है. वहां साढ़े चार सौ साल पुराने महाल्सा देवी का शृंगार कुमारी और विवाहिता दोनों रूपों के अलावा राम और कृष्ण के रूप में भी होता है.

हरिद्वार के कनखल में ढाई सौ साल पुराना एक मन्दिर है तो शिव-पार्वती का. लेकिन उसमें पार्वती का रूप कृष्ण वाला है तो शिव का राधा वाला. धर्मकौर नामक किसी महारानी की ओर से बनवाये गये इस मन्दिर के साथ एक विचित्र कथा जुड़ी हुई है कि एक बार शिव-पार्वती में विपरीत रति की इच्छा हुई तो वो राधा-कृष्ण का रूप धर हरिद्वार जा पहुंचे. ये परिकल्पना भी अनूठी है क्योंकि हिन्दुओं की धार्मिक परम्पराओं में राधा-कृष्ण को पति-पत्नी नहीं माना जाता.

न जाने कौन सी महा-विचित्र कहानी केरल के प्रसिद्ध सबरीमाला मन्दिर से चिपटी पड़ी है. वहां भी नारियों पर सख़्त पाबन्दी है. क्योंकि वो रजस्वला होती हैं. इससे मन्दिर और भगवान ‘अशुद्ध’ हो जाते हैं. सदियों से जारी इस पाखंडी परम्परा को मन्दिर ने धर्माधिकारियों ने और हवा दे दी है. उन्होंने ‘मासिक धर्म तलाशी मशीन’ लगाने की पेशकश की है. ताकि कोई रजस्वला, देवस्थानम् के अहंकार को चुनौती न दे सके! मुमकिन है कि ऐसी भ्रष्ट और शर्मनाक परम्पराएं कभी किसी अज्ञानता की वजह से शुरू हुई हों. लेकिन आज नारी-देह विज्ञान और पुरुषों की शुचिता की सच्चाई किससे छिपी है? कौन नहीं जानता कि मासिक धर्म का नाता उस अंडाणु के निष्क्रमण से है, जो सम्भोग से निषेचित होकर मनुष्य रूप में उसी कोख से जन्म लेता है, जिसे अशुद्ध बताता है. क्या इसे सिर्फ़ विडम्बना कहकर और परम्परा बताकर अनन्तकाल तक क़ायम रखने से हिन्दुओं की सुचिता बढ़ेगी और गौरव-गान होगा?

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