Friday, November 6, 2015

मानव अधिकार है- धर्म की स्वतंत्रता

मानव अधिकारांे के सार्वदेषिक घोषणा पत्र में जिन 30 अधिकारों को मानव अधिकार के रूप में उद्घोषित किया गया है, उनमें अनुच्छेद 18 में प्रत्येक व्यक्ति को विचार, अन्तःकरण और धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार मान्य किया गया है। इस अधिकार में अपने धर्म और विष्वास को परिवर्तित करने की स्वतंत्रता और अकेले या अन्य व्यक्तियों के साथ मिलकर तथा सार्वजनिक रूप से या अकेले षिक्षा, व्यवहार, पूजा और पालन में अपने धर्म और विष्वास को प्रकट करने की स्वतंत्रता भी है।
हमारे लिये यह सम्मान का विषय है कि इस महत्वपूर्ण मानव अधिकार को हमारे संविधान में हमने मौलिक अधिकार के रूप में स्थान दिया है। भारत के संविधान के अनुच्छेद 25 से 28 तक में इस संबंध में व्यापक उपबन्ध किये हुए है। सभी व्यक्तियों को अन्तःकरण की स्वतंत्रता और धर्म को अबाध रूप से मानने, आचरण करने और प्रचार करने के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में स्वीकार किया गया है। लोक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य की दृष्टि से इस स्वतंत्रता को सीमित किया जा सकता है। प्रत्येक धार्मिक समुदाय को धार्मिक प्रयाजनों के लिये संस्थाओं की स्थापना और पोषण करने, अपने धार्मिक विषयो संबंधित कार्यो का प्रबंध करने, जंगम व स्थावर सम्पत्ति का अर्जन और स्वामित्व धारण करने एवं सम्पत्ति के विधि अनुसार प्रषासन करने का अधिकार इसमें निहित है। धार्मिक षिक्षा और उपासना के लिये भी सभी समुदाय स्वतंत्र है।
सारा संसार जिस अधिकार को मानव गरिमा और सम्मान के लिये मान्यता प्रदान करता है और हमारा संविधान उसे अंगीकार करता है उस धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा पर भी कतिपय लोग प्रष्नचिन्ह लगाने से नहीं चूकते है। अंग्रेजी भाषा के शब्द सेकुलर जिसका सरल हिन्दी भावार्थ धर्मनिरपेक्षता है उसे धर्मविहीनता के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास प्रायः होता रहा है। निहित प्रयोजनों से इसकी व्याख्या इनके द्वारा अपने ढंग से की जाती रही है। जबकि वास्तव में सेकुलर अथवा धर्मनिरपेक्षता का अर्थ धर्मविहीन होना नहीं है, इसका मतलब यह नहीं है कि देष का नागरिक अपने धर्म को छोड़ दे। इसका वास्तविक अर्थ तो वही है जो महात्मा गांधी ने सर्वधर्म समभाव के अपने सिद्वांत के द्वारा प्रतिपादित किया है। एक लोकतांत्रिक देष में प्रत्येक नागरिक को अपने धर्म का पालन करने का समान अधिकार है किन्तु शासन को धर्म के आधार पर भेदभाव करने का अधिकार नहीं है। शासन को किसी के धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं करना चाहिये।
मानव जीवन की सार्थकता के लिये सर्वमान्य यह सर्वधर्म समभाव या धर्म निपरेक्षता का सिद्वांत केवल बौद्धिक विलासिता नहीं है बल्कि सच्चे अर्थो में मानवीय मूल्यों को धरातल पर साकार करने का एक माध्यम है। धर्मनिरपेक्षता के सिद्वांत का अपवाद संविधान में मान्य किया गया है। जिसके द्वारा अल्पसंख्यक वर्ग को उनके धर्म और अन्तःकरण के अधिकार के संरक्षण के लिये विषेष सुविधाऐं प्रदान की जा सकती है। यह प्रावधान संविधान का भाग ही है। इसे तुष्टीकरण के रूप में प्रस्तुत करना वस्तुस्थिति से मुंह मोड़ने के समान होगा। केवल भारत में ही नही  बल्कि प्रत्येक लोकतांत्रिक देष में उस देष के अल्पसंख्यक वर्गो के सुविधाऐं देने का प्रावधान है। समता समाज ही आदर्ष समाज होता है जिसमें असमानताओं को समानता में बदलने के लिये इस प्रकार के प्रावधान अपरिहार्य होते है।
यह एक विडम्बना ही कही जा सकती है कि देष में एक विचारधारा इस प्रकार की भी है जो अपने निहित राजनीतिक स्वार्थो के कारण इस सर्वमान्य धर्मनिरपेक्षता या सर्वधर्म समभाव की अवधारणा को कटघरे में खड़ी करने में ही अपना हित साधन मानती है। जबकि अनेकता में एकता की हमारी संस्कृति का आधार उदारता एवं सभी विचारों, दर्षनों, मान्यताओं और सभ्यतओं के लिये अपने दिल दिमाग के खिड़की, दरवाजे खुले रखने में निहित है। स्वामी विवेकानन्द ने कहा था कि हम केवल इस भाव का प्रचार नहीं करते कि दुसरों के धर्म के प्रति द्वेष न रखों बल्कि इससे बढ़कर हम सब धर्मो को सत्य समझते है और उसको पूर्ण रूप से अंगीकार करते है। उन्होेंने धार्मिक सामंजस्य व सद्भाव के प्रति सजगता दिखाते हुए बार-बार सभी धर्मो का आदर करने तथा मन की शुद्वि व निर्भय होकर प्राणी मा.त्र से प्रेम करने के रास्ते आगे बढ़ने का सन्देष दिया।
अपनी धार्मिक मान्यता में आस्था रखना और अन्तःकरण के अनुरूप आराधना करने का सबका अधिकार सम्मान किये जाने योग्य है किन्तु किसी अन्य के ऐसे ही अधिकारों का सम्मान करना भी प्रत्येक का कर्तव्य है। यों तो धर्म का अर्थ मनुष्य के कर्तव्य का बोध है। इसलिये न केवल मानव मात्र का बल्कि प्राणी मात्र का धर्म भिन्न हो ही नहीं सकता किन्तु धर्म के प्रचलित अर्थ में विभिन्न सम्प्रदायों की ओर इंगित होता है । वास्तव में ये सम्प्रदाय धर्म की बजाए पंथ के रूप में ही जाने पहचाने जाने चाहिये। इस दृष्टि से हिन्दु उदारता के लिये, मुस्लिम भाई चारे के लिये, इसाई सेवा भाव के लिये, जैन अहिंसा के लिये, बौद्ध समन्वय के लिये, सिक्ख शौर्य के लिये विख्यात है। किन्तु वास्तव में इन समुदायों के मुख्य दर्षन बिन्दु उदारता, भाईचारा, सेवाभाव, अहिंसा, समन्वय, शौर्य सभी का एक ही अर्थ है तथा प्रत्येक शब्द में शेष शब्दों के भावार्थ का भी बोध होता है। सभी धर्म मनुष्य को मानवीय गुणों से सम्पन्न होने की प्रेरणा देते है।
यह एक विडम्बना है कि जो धर्म मनुष्य को कर्तव्य का बोध कराकर गुण सम्पन्न बनाने के ध्येय से मनुष्य अंगीकार करता है वही धर्म पंथ हिंसा, विवाद, द्वंद और अलगाव का माध्यम बन जाता है। यदि सबके धर्म के अधिकार का सम्मान करने का भाव आत्मसात कर लिया जाये तो इन सारी विकृतियों से मनुष्य बच सकता है, अपनी उर्जा का उपयोग अपनी भौतिक, बौद्धिक एवं आत्मिक उन्नति के लिये कर सकता है। इस महत्वपूर्ण मानव अधिकार व संवैधानिक अधिकार के निहितार्थ को समझना और जीवन का अंग बनाना प्रत्येक मनुष्य का ध्येय बन जाये तो मानव मात्र की प्रगति का मार्ग प्रषस्त हो सकता है।

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